त्वरित टिप्पणी
– हरीश बी. शर्मा
बीकानेर लोकसभा के लिए संभावनाओं से कम हुआ मतदान आशंकाओं को जन्म दे रहा है। अधिकांश यही मानते आए हैं कि अधिक मतदान सत्ता-विरोधी लहर का परिचायक होता है, लेकिन बीकानेर से जो आंकड़े मिले हैं, वे तो पिछली बार से भी कम है। बल्कि वर्ष 2014 और 2019 से भी काफी कम। 2014 में बीकानेर में मतदान का प्रतिशत 58 प्लस रहा और 2019 में 59 प्लस, इस बार 54 प्रतिशत भी नहीं हो पाया है जबकि उम्मीद की जा रही थी कि मतदान साठ प्रतिशत तक जाएगा।
इससे भी चौंकाने वाला तथ्य यह है कि अनूपगढ़ विधानसभा से सर्वाधित 67 फीसदी वोट पड़े हैं। इसके बाद बीकानेर विधानसभा पश्चिम 63 प्रतिशत पर है और फिर साठ प्रतिशत मतदान होना बीकानेर विधानसभा पूर्व में पाया गया है। इसके बाद खाजूवाला, कोलायत, लूणकरणसर, श्रीडूंगरगढ़ और नोखा का नंबर है। बीकानेर में वोटर्स को लुभाने के लिए कांग्रेस ने जहां राहुल गांधी को बुलाया तो भाजपा ने रक्षामंत्री राजनाथसिंह, विदेश मंत्री एस.जयशंकर, मुख्यमंत्री भजनलाल आदि को बीकानेर बुलाया, लेकिन मतदान का प्रतिशत उल्लेखनीय नहीं रहा।

 

अगर इतना ही मतदान हुआ तो फिर इतने बड़े-बड़े दावों का क्या? मतदान प्रतिशत बढ़ाने की बात तो दूर, पिछली बार जितना भी नहीं रह पाया। जिला प्रशासन ने चुनाव आयोग के साथ मिलकर दुनिया भर के कार्यक्रम करवाए। इतना पैसा खर्च हुआ। जगह-जगह आयोजन हुए। सौगंध उठाई गई। मतदान करने वालों को छूट जैसे लालच भी दिए गए। यहां तक कि एक मैसेज भी वायरल हुआ कि इससे बेहतर तो बूथ पर भोजन भी करवा दिया जाए तो संभव है मतदान का प्रतिशत सुधर जाए, लेकिन परिणाम वही के वही, ‘ढाक के तीन पात’।
लेकिन इसके लिए सिर्फ जिला प्रशासन ही उत्तरदायी नहीं है। देखा जाए तो मतदाताओं की उदासीनता और मतदाताओं का उत्साह एक बड़ा फैक्टर है, जिसने मतदान को प्रभावित किया। बीकानेर लोकसभा की सीट पर हमेशा ही कांगे्रस प्रभावी रही। महाराजा करणीसिंह के बाद एक बार श्योपतसिंह और फिर धर्मेन्द्र के रूप में अगर गैर-कांगे्रसी के पास यह सीट रही तो उससे अधिक बार यह सीट कांग्रेस के पास रही। यह एक ऐसा समय था जब भाजपा को इस सीट के लिए जाट-प्रत्याशी बाहर से लाना पड़ा, धर्मेन्द्र के रूप में, लेकिन कांग्रेस के पास जाट नेताओं की एक बड़ी सूची थी। उस प्रभाव को जिन्होंने भी देखा है, वे बताते हैं कि उस समय गांवों में भाजपा का नामलेवा भी नहीं हुआ करता था। गांवों में राजनीति के नाम पर सिर्फ कांग्रेस की ही राजनीति हुआ करती थी। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं है कि वह प्रभाव आज भी है, लेकिन उस राजनीति को संभालने वाले नेता नहीं है।

 

निश्चित रूप से इन चुनावों गोविंदराम मेघवाल को रामेश्वर डूडी की कमी खली होगी। वे अस्वस्थ हैं, अगर होते तो फिजां बदल देते। रामेश्वर डूडी तो अस्वस्थ हैं, लेकिन बहुत सारे ऐसे नेता भी हैं, जो शिथिल पड़ गए और इस तरह से कांग्रेस का मतदाता भी उदासीन हो गया।
इसके ठीक विपरीत भाजपा के मतदाता में चुनाव को लेकर जोश था, वह न सिर्फ बूथ तक पहुंचा बल्कि उसने वोट भी दिया। ऐसा नहीं कि कांग्रेस को वोट देने वाले मतदाताओं ने वोट ही नहीं किया। किया, लेकिन भाजपा के उत्साह के आगे उनकी उदासीनता सामने आ गई। इस बात को यह बात भी प्रमाणित करती है कि भाजपा का अरबन क्षेत्रों में वोटर्स मिलता है, रूरल में नहीं जबकि कांग्रेस को वोट-बैंक रूरल में है। वोटिंग का प्रतिशत कहता है कि जहां-जहां भाजपा का वोट-बैंक था, उसे मतदान केंद्रों तक पहुंचाने में किसी की रुचि ही नहीं थी, इससे वोटर भी उदासीन हो गया। निश्चित रूप अगर ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस वोटर की उदासीनता को दूर करने का काम करती तो फर्क पड़ सकता था, लेकिन ऐसा अंतिम समय तक नहीं हो पाया और कांग्रेस अपने ‘वोट-बैंक’ को भी नहीं भुना पाई। जिसका सबसे बड़ा असर मतदान के प्रतिशत पर पड़ा है। यह दीगर है कि जीतता कौन है लेकिन लोकतंत्र के इस महापर्व में अधिकतम लोगों की भागीदारी सुनिश्चित हो सकती थी।

 

देश के आम चुनाव का यह श्रीगणेश है, अभी ऐसे ही छह चरण और बाकी है, जिसके बाद सारे देश का परिणाम घोषित होगा। सिर्फ चुनाव आयोग ही नहीं बल्कि राजनीतिक दलों को भी चाहिए कि मतदान प्रतिशत को बढ़ाने के लिए अपने-अपने स्तर पर कार्य करे, क्योंकि कुछ भी कहें, अगर लोकतंत्र के इस यज्ञ में भागीदारी का यह प्रतिशत आश्वस्त करने वाला नहीं है।