हस्तक्षेप

– हरीश बी. शर्मा
बुधवार को दो बड़े बदलाव देश ने देखे। राजस्थान में हुए विधानसभा चुनाव  में दीया कुमारी को चुनौती देने वाले कांग्रेस के प्रत्याशी सत्यनारायण अग्रवाल अपने साथी पार्षदों भाजपा में शामिल हो गए। पिछला चुनाव उन्होंने विद्याधर नगर से लड़ा था, हार गए थे। इससे पहले भी उन्होंने चुनाव लड़ा और हारे, लेकिन इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि वे संगठन की दृष्टि से कांगे्रस के कोषाध्यक्ष भी रहे। ऐसे में बड़ा सवाल खड़ा होता है कि इतने निष्ठावान नेता का सब्र आखिर किस कारण से टूटा।

कोषाध्यक्ष का पद सामान्य नहीं होता। इस पर पर रहने वाले व्यक्ति के पास पार्टी के लिए फंड जुटाने का महती काम होता है, वही व्यक्ति अगर भाजपा में जा मिला और उसी नेता के हाथ माला पहनी, जिसके सामने चुनाव लड़ा था तो यह सवाल उठ सकता है कि इस कांग्रेस में अब और कितने बचे हैं, जो आने वाले दिनों में भाजपा का दामन आधिकारिक रूप से थाम लेंगे।
इसके अलावा यह सवाल भी है कि ये सेंधमारी या संपर्क विधानसभा चुनाव में भाजपा की बढ़त के बाद ही होने शुरू हुए हैं या पहले से ही चल रहे थे। अगर इस संबंध में चर्चा करें तो पिछले पांच साल नहीं बल्कि दस साल का आकलन करना होगा, जब प्रदेश में वसुंधर राजे का शासन था और कांग्रेस के अशोक गहलोत पूरी तरह से गुमशुदा हो चुके थे।

उस समय कांग्रेस की कमान थामने के लिए राजस्थान में सचिन पायलट को भेजा गया। सचिन पायलट ने अपनी सूझ-बूझ से कांग्रेस को संभाला और बाकायदा भाजपा की वसुंधराराजे सरकार से लोहा लिया। संघर्ष का आलम यह था कि प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव -2018 में कांग्रेस ने फिर से जीतने की स्थिति बना ली। इन स्थितियों को भांपने वाले राजनीति के चतुर खिलाड़ी अशोक गहलोत ‘म्हें थांसू दूर नहीं…’ जुमले के साथ राजस्थान की राजनीति में प्रवेश किया। कांग्रेस जीती और आखिरकार अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने। सचिन पायलट के संगठन में काम को देखते हुए पहले उनका ही मुख्यमंत्री बनना तय था, लेकिन उन्हें उपमुख्यमंत्री पद से संतोष करना पड़ा। सानिवि विभाग भी मिला, लेकिन सचिन पायलट की शिकायतें बढ़ती गई।

उस समय को प्रदेश की जनता ने बहुत करीब से देखा जब सरकार के संकट को देखते हुए वातावरण बनना शुरू ही हुआ था कि प्रदेश की सीमाओं को कोरोना के नाम पर सीज कर दिया गया।
इसके बाद मानेसर प्रकरण हुआ। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के ओएसडी लोकेश शर्मा का नाम उछल। सचिन पायलट पर आरोप लगे कि वे सरकार गिराना चाहते थे। आरोपों की हद यहां तक थी कि भाजपा से मिलकर सचिन पायलट सरकार भी बना लेंगे। फोन टेप हुए। सोशल मीडिया पर वायरल हुए और इस तरह सरकार बच गई और उससे पहले सचिन पायलट को बतौर प्रदेशाध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री के रूप में कांग्रेस से बेदखल कर दिया गया। उनके साथियों को भी बाहर कर दिया गया।

उस समय अगर कुछ लोगों ने नहीं बोला तो संभवतया अशोक गहलोत का डर था, लेकिन अब वह डर निकल चुका है। जिन लोगों को सचिन पायलट को पद से हटाने की घटना में खुद के लिए भी खतरा नजर आ रहा था, उन लोगों ने अपने लिए भी खतरे का अहसास किया और समय का इंतजार करते-करते आखिर कांग्रेस छोड़ ही दी। क्योंकि कांग्रेस में ऐसे बहुत सारे नेता और कार्यकर्ता थे, जो न तो अशोक गहलोत के पक्ष में थे और न सचिन पायलट के साथ। वे कांग्रेस में रहना चाहते थे। लेकिन ऐसे लोगों की कांग्रेस को जरूरत नहीं थी। हमने पिछले दिनों देखा कि बड़ी संख्या में कांग्रेस के पार्षद, पदाधिकारी और यहां तक आते-आते विधानसभा प्रत्याशी भी कांग्रेस छोड़कर जा चुके हैं।

इस सारे घटनाक्रम को देखते हैं तो समझ आता है कि पिछले छह साल से कांग्रेस में जिस तरह का एकछत्र शासन चल रहा था, उससे कांग्रेस के ऐसे कार्यकर्ता और नेता, जो काम करना चाहते थे, का मोहभंग हुआ। राजस्थान में अशोक गहलोत किसी की नहीं सुनते और देश में राहुल गांधी अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से मिलने से गुरेज करते।
आखिर ये कार्यकर्ता-नेता जाते कहां। भाजपा को माहौल बनाना था, इसलिए कांग्रेस में प्रतिदिन भगदड़ की खबरें बनकर सामने आ रही है।

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