निवेदन  ‘लॉयन एक्सप्रेस’ लगातार आपको खबरों से अपडेट कर रखा है। इस बीच हमनें यह भी प्रयास किया है कि साहित्य के रसिक पाठकों तक भी कुछ जानकारियां पहुंचे। इसी को देखते हुए ‘कथारंग ’ नाम से एक अंक शुरू कर रहे हैं। इस अंक में कविता, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार आदि का प्रकाशन किया जाएगा। आप से अनुरोध है कि इस अंक के लिए अपनी रचनाएं हमें प्रेषित करें। आप अपनी रचनाएं यूनिकोड में भेजें तो बेहतर होगा। साथ ही अपना परिचय और छायाचित्र भी भेजें। आप चाहें तो अपने मौलिक साहित्यिक रचनाओं की प्रस्तुति संबंधी अपने वीडियो भी हमें भेज सकते हैं।

इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए आप इस अंक के समन्वय-संपादक संजय शर्मा से संपर्क कर सकते हैं। मोबाइल नंबर 9414958700

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मधु आचार्य ‘आशावादी’  मोबाइल नंबर- 9672869385

नाटक, कहानी, कविता और जीवनानुभव पर 72 पुस्तकेंं हिन्दी और राजस्थानी में लिखी हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार संगीत नाट्य अकादमी का निर्देशन पुरस्कार, शम्भु शेखर सक्सैना, नगर विकास न्यास के टैस्सीटोरी अवार्ड से सम्मानित।

व्यंग्य  :  कोर्स में पढ़ाओ, शोध कराओ

साहित्य में पाने की लालसा सदैव साहित्यकार को भटकाती है। नाम, पुरस्कार की लालसा ही रचनाकर्म को बाधित करते हैं और वो रचनाकार को लिखने में कमजोर कर दूसरे कामों में आगे बढ़ा देती है। ये चाह तक सीमित रहे तो बुरा नहीं मगर लालसा में बदले तो परेशानी खड़ी होती है।
कुछ करे और करते रहे, उसके साथ पाने की चाह हो तो उसे बुरा भी नहीं समझा जाना चाहिए। ये चाह एक तरह से रचनाकार का लक्ष्य होता है। लक्ष्य रखना और उसकी तरफ कदम बढ़ाते रहना तो सकारात्मकता है। लेकिन थोड़ा-सा कर बड़ा पाने की चाह तो लालसा, लिप्सा ही मानी जायेगी। इससे रचनाकार सृजन छोड़ केवल लालसा के पीछे ही भागता रहता है।
हर साहित्यकार चाहता है कि उसे सदा सर्वदा के लिए याद रखा जाये। जीवन में भी उसे लोग जानें और उसके जाने के बाद भी याद करते रहें। जो लेखक लेखन में एक बड़ा काम कर लेते हैं उनको तो ये चिंता नहीं सताती मगर जो कम काम करते हैं और चाहते ज्यादा है, उनका ये ही लक्ष्य रहता है। इस सूरत में वे सदैव उन कामों में जुटते हैं जिनसे उनको प्रसिद्धि और बाद में अमरत्व मिले।
सरकारों ने अपनी नीतियां बदल दी हैं, खासकर शिक्षा के मामले में। पहले हर राज्य में एक या दो यूनिवर्सिटी होती थी। मगर नियमों में बदलाव के बाद हर राज्य में कई खुल गई। इसी के कारण साहित्यकारों को प्रसिद्धि पाने और अमर होने का एक नया जरिया मिल गया।
हर यूनिवर्सिटी में साहित्य विषय होता है और उसे पढ़ाया जाता है। विषय में किस लेखक को शामिल किया जायेगा, इसका निर्धारण करने के लिए विषय के जानकारों की एक समिति बनती है। वही समिति पाठ्यक्रम तय करती है। बस, यहीं से लेखक की इच्छा जाग्रत होती है।
वो चाहता है कि किसी भी तरीके से विषय में वो शामिल हो जाये। उसकी कहानी या कविता शामिल हो जाये ताकि हजारों छात्रों तक मैं पहुंच जाऊं। इस लालसा के लिए वो जी तोड़ प्रयास करता है। ये भी अपने आप में कड़वा सच है कि विषय में शामिल होने वाले लेखकों में बहुत से सिफारिशी होते हैं। चाहे नेता की सिफारिश हो, अफसर की हो, वीसी की हो या बड़े साहित्यकार की हो। कई बार विषय निर्धारण समिति के सदस्य की सिफारिश भी काम आ जाती है। अच्छे साहित्य के अलावा ये कुछ आधार हैं जिससे लेखक पाठ्यक्रम में शामिल होता है। ये कटु सत्य है।
उस दिन नवाब साब को बाजार में कवि अखिलेश मिल गए। औपचारिकतावश उन्हें चाय का निमंत्रण दिया, उन्होंने सहज ही स्वीकार लिया। चाय की होटल पर आकर दोनों बैठ गए।
नवाब ने बात शुरू की।
– कहां घूम आये अखिलेश जी!
– वीसी साब से मिलकर आया था।
– क्यों ?
– मंत्री जी का कोई संदेश उन तक पहुंचाना था।
– ऐसा क्या खास संदेश था?
– कुछ था।
– यार, हमें भी बता दो। भरोसा रखो।
वो मुस्कुराए।
– तुम तो अपने आदमी हो। तुम पर पूरा भरोसा है।
– फिर बताने में संकोच कैसा ?
– बिल्कुल संकोच नहीं नवाब।
– तो फिर कहो।
– अभी पाठ्यक्रम बनाने की समितियां बन रही हैं।
– उससे आपको क्या ?
– है, तभी तो!
– अच्छा।
– उन समितियों में अपने आदमी होने जरूरी हंै। वो काम आते हैं।
– कैसे?
– जब इनकी बैठक होगी तो मेरी कहानी पाठ्यक्रम में शामिल करेंगे। हजारों छात्रों तक मैं और मेरा साहित्य सीधे पहुंच जायेगा।
– इतनी लंबी सोच, वाह!
– इसीलिए मंत्री जी के पास सुबह गया और वीसी को फोन कराया। वीसी को उन्होंने कह दिया कि मैं जो कहूं वो नाम समिति में शामिल कर लिए जायें। अब मंत्री के आदेश तो टाले नहीं जा सकते, मुझे भरोसा है। उसी सिलसिले में वीसी से मिलने गया था।

– मिल आये?
– मिल लिया। नाम किसके दिए?
– अपने लोगों के, दूसरों के क्यों दूं। वो मेरा कहा बाद में क्यों माने। जो मान ले, उनके ही दिए हैं।
– किसकी लॉटरी खुली?
– मेरा एक साला है जो उच्च शिक्षा में है, एक तो उसका नाम दिया है।
– ये ठीक किया। उसे तो तुम्हारी बात माननी ही पड़ेगी।
– दूसरा नाम मेरी एक शिष्या का दिया है। उसे मैं अपने आयोजनों में अतिथि बनाता रहता हूं। अखबारों में उसकी खबर और $फोटो छपवाता रहता हूं। बहुत एहसान मानती है मेरा। महिला कॉलेज में प्रोफेसर है।
– वो भी तुम्हारा कहा टाल नहीं सकेगी। ठीक किया उसका नाम देकर।
– तीसरा नाम अपनी एक महिला मित्र का दिया है।
– ये कौन है ?
– ये राज की बात है। इसके बारे में ज्यादा मत पूछना। गांव की एक कॉलेज में व्याख्याता है। बस, ये समझ लो कि मेरा कहा उसके लिए आदेश है। उसे वो पूरा करेगी।
– समझ सकता हूं, वो तो हर बात मानेगी। तुम साहित्यकार लोग भी नेताओं की तरह गोटियां बिठाने में बड़े माहिर हो।
– यदि माहिर ना हों तो लोग अंधी खाई में धकेल दें। आजकल कड़ी प्रतिस्पर्धा है साहित्य में। बिना अतिरिक्त प्रयासों के लोग साहित्य में स्थान ही बनाने नहीं देते।
– वाह, इस क्षेत्र में भी स्पर्धा ?
– बिल्कुल।
– एक बात तो बताओ।
-पूछो।
– तुम्हें कोर्स में कहानी लगवाने का ये तरीका किसने बताया?
– पिछली बार उस कमजोर लेखक अमर की कहानी लगी हुई थी। कोर्स में पढ़ाई जा रही है ये जानकर मुझे आश्चर्य हुआ। पता किया, तब मालूम हुआ कि कमेटी में उसके सदस्य थे। फिर क्या है, मैं इस बार अभी से इस प्रयास में लग गया।
– ये तो ठीक किया। समय पर काम करें तो परिणाम पक्ष में रहता है।
– तभी तो!
– अभी से बधाई दे दूं फिर तो पाठ्यक्रम में शामिल होने के लिए।
– अभी बात बाहर नहीं जानी चाहिए। लोग टांग अड़ा देंगे। सारी मेहनत बेकार चली जायेगी।
– तुम कहते हो तो नहीं देता बधाई।
वो मुस्कुरा दिया।
– आज तो खूब मुस्कुरा रहे हो। कोई खास बात है क्या।
– आज का दिन मेरे लिए बहुत अच्छा है।
– वाह!
– सुबह अखबार में राशिफल देखा था।
– उस पर भरोसा करते हो क्या?
– हां। रोज़ सुबह अखबार खोलते ही सबसे पहले राशिफल ही देखता हूं। वर्ष हो गए।
– कमाल है!
– मेरा तो राशिफल पर पूरा भरोसा है।
– अपना अपना स्वभाव है।
– आज राशिफल देखते ही मन खुश हो गया।
– ऐसा क्या था उसमें ?
– उसमें लिखा था कि आज आपका चंद्रमा पांचवें घर में है। इसलिए अरसे से लंबित इच्छा पूरी होने की संभावना है। अवसर को हाथ से न जाने दें।
– कमाल है, इतना बताता है राशिफल!
– इससे भी ज्यादा बताता है।
– और क्या बताता है?
– आज के राशिफल के साथ उपचार भी बताये हुए थे।
– उपचार?
– हां जी।
– क्या बताया ?
– लिखा था, आज घर से निकलने से पहले महादेव पर दूध चढ़ाएं।
– तुमने चढ़ाया?
– ऐसे उपाय पूरे करने में चूकता नहीं हूं।
– मुझे तो पता ही नहीं था।

– अब तो पता चल गया?
– हां। पता चल गया कि प्रगतिशील साहित्य लिखने वाले लेखक भी राशिफल पर इतना भरोसा करते हैं।
– साहित्य अपनी जगह है और राशिफल अपनी जगह।
– ये तो अब मान ही गया।
– न भी मानो तो मेरा क्या? प्रगतिशील संगठन का हूं, वहां से तुम निकाल नहीं सकते।
– मुझे निकालना ही क्यों है?
– फिर ठीक है।
– तो तुम उपाय बता रहे थे।
– एक तो दूध चढ़ाने का बताया ना!
– हां, बताया।
– दूसरा भी उपाय लिखा था।
– वो क्या था?
– लिखा था, आज जब घर से बाहर निकलें तो सबसे पहले दायां पैर बाहर रखें।
– अरे वाह! इसका भी असर होता है क्या ?
– अगर न होता तो ज्योतिषी लिखता नहीं।
– ये भी वाजिब बात है।
– दूसरे, भरोसे की बात है। जो करता है उसे ही फल मिलता है। भरोसा नहीं करने वाले को कुछ नहीं मिलता।
– ये बात भी ठीक है।
– मैंने उपाय माने तो मेरे लिए आज का दिन बहुत शुभ रहा। समिति में सदस्य बन गए। कोर्स में कहानी लगना तो मानो तय हो गया।
– ये तो पक्का ही है।
– इसके अलावा भी एक काम हुआ।
– अच्छा!
– हां भाई।
– वो क्या हुआ ?
– जिन तीन लोगों का नाम पाठ्यक्रम समिति के लिए बताया और उनको ये जानकारी दी तो वो बहुत खुश हुए।
– होने ही थे। योग्यता के बिना सदस्य बनना कोई मामूली बात नहीं। उनके प्रमोशन में लाभ होगा।

– बिल्कुल सही पकड़ा।
– इतना तो मैं भी समझता हूं।
– जब उन तीनों को सूचना दी तो खुश होने के साथ उन्होंने एक खुशी मुझे भी दे दी। ऐसी खुशी कि जिसके बारे में सोच भी नहीं सकता था।
– ऐसा क्या हो गया!
– उन तीनों ने कहा कि हम आपके लेखन पर लघु शोध प्रबंध तैयार कराएंगे।
– वाह वाह। पर…
– पर की क्या बात हो गई?
– तुम्हारी तो केवल दो किताबें निकली हुई हैं, फिर शोध कैसे होगा?
– ये लघु शोध है। कराने वाला चाहे तो करा सकता है।
– पर तुम्हारी दो किताबें हैं और तीन लघु शोध होंगे। ऐसा कैसे?
– तीन विषय तय कर उनका मेरे साहित्य में परीक्षण करेंगे।
– गजब। ये काम तो अपने आप में अजूबा ही होगा।
वो गर्व से मुस्कुरा दिया।
– तीसरी बात बताऊंगा तो तुम उछल जाओगे नवाब!
– वो बात अभी तक बाकी है क्या ?
– हां। ये वो बात है जिसके सपने हर बड़ा साहित्यकार लेता है।
– अच्छा!
– कई तो बहुत पुस्तकें लिख लेते हैं फिर भी उनको ये सुख नही मिल पाता है।
– कमाल की बात है।
– और कई तो अपना जीवन पूरा खपा देते हैं पर उनको भी अमर हो जाने वाला ये गौरव हासिल नहीं होता।
– दु:ख की बात है फिर तो!
– कई हजार तरह के तिकड़म भिड़ाते हैं, कइयों की सेवा करते हैं फिर भी इस काम को करा नहीं पाते। अनेक प्रोफेसरों की हाजरी भरते हैं पर पार नहीं पड़ती।  – इतना कठिन काम है?
– समझ लो बेहद मुश्किल है।
– तुम तो अपने बारे में बताओ।
– मुझे उस काम में सफलता मिल गई समझो।
– पहले काम तो बताओ!
– मुझ पर यानी मेरे लिखे पर पीएच.डी.कराने का वादा वीसी ने कर लिया।
– क्या?
– हां, एक प्रोफेसर को मेरे सामने ही फोन कर दिया। इसका मतलब पीएच.डी. होगी, ये तय हो गया।
– ये तो कमाल हो गया।
– कमाल से भी बड़ा।
– सच कह रहे हो। बहुत बड़ा।
– ये तुम व्यंग्य में कह रहे हो क्या?
– मैं क्या जानूं कि व्यंग्य क्या है। कथा क्या है।
– खुलकर बोलो। क्या कहना चाहते हो।
– सिर्फ दो किताबें और पीएच.डी., ये कमाल की बात है!
अखिलेश को गुस्सा आ गया।
– नाराज क्यों होते हो भाई। मन की बात ही तो कही है।
वो कुछ सामान्य हुआ।
– अब साहित्य की कोई सीआरपीसी तो है नहीं, जो ये तय हो कि किस पर लघु शोध होगा। किस पर पीएच.डी. होगी। किसका साहित्य पाठ्यक्रम में लगेगा। फिर भला मैं एतराज क्यों करूं!
वो कुछ सामान्य हुआ।
– तो नवाब अब चलता हूं।
वो निकल लिया।
नवाब सोचने लगा कि जब इस तरह से पाठ्यक्रमों में बच्चों को साहित्य पढ़ाया जायेगा तो फिर पुस्तकों को पाठक तो मिलने से रहे। शोध इस तरह हों तो फिर हो गया आलोचना विधा का विकास। नवाब ने सिर पीट लिया।

 

ज़दीद शाइर अज़ीज़ आज़ाद

पैदाइश : 21 मार्च 1944, वफ़ात : 5 सितंबर 2006

सीमा भाटी,  मोबाइल नंबर- 9414020707

उर्दू रचनाकार सीमा भाटी का राजस्थानी, उर्दू ,हिंदी तीनों भाषा में समान लेखन। आपका कहांनी संग्रह, कविता संग्रह, और एक राजस्थानी उपन्यास भी आ चुका है। इन्हें राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर का प्रतिष्ठित अल्लामा इक़बाल अवार्ड 2017 उर्दू साहित्य में मिला।

“मेरा दावा है सब ज़हर उतर जाएगा
तुम मेरे शहर में दो दिन तो ठहर कर देखो”

अज़ीज़ साहब उर्दू ज़बान के आला तरीन शाइर तो थे मगर अपने अदबी सफ़र का आगाज़ रस्मुलख़त हिंदी
से किया | आप दोनों ज़बानों के पासदारी थे दोनों पर आपका तवाज़ुन था। उनका कहना था कि  “अब ग़ज़ल हिंदुस्तान की उपजाऊ ज़मीन में पैदा होने वाला वो ख़ूबसूरत फूल है जिसमें दोनों भाषाओं की ख़ुशबू शामिल है “। इसलिए हिंदी और उर्दू ग़ज़ल में फ़र्क़ समझाने की दलीले अब रायगा मालूम होती है अज़ीज़ साहब ने अपनी ग़ज़लें अखिल भारतीय स्तर पर भी कवि सम्मेलनों और मुशाइरों में सुनाई थी जहाँ सुनने वाले सामइन स्थानीय व ग्रामीण स्तर के सर्वभाषी होते थे जो अज़ीज़ साहब को बड़े ख़ुलूस और एहतराम से सुनते थे। आज़ाद साहब ने बेहतरीन कलाम और अपने पुर असर अंदाज़े बयां, अलहदा तेवर और तासीर के दम पर उर्दू अदब में अपनी पहचान बनाई जो बीकानेर के शेरों अदब से कुछ अलग हट कर थी। कहने का मआनी किसी की बनाई हुई राह पर न चल कर अपनी राह ख़ुद तलाश की और आला मक़ाम हासिल किया।
अज़ीज़ साहब असल नाम अब्दुल अज़ीज़ और तख़ल्लुस आज़ाद था। मगर शेरो शाइरी की दुनिया में आपको अज़ीज़ आज़ाद के नाम से मक़बूलियत मौसूल हुई। आपकी पैदाइश 21 मार्च 1944 को मुहल्ला चूनगरान में हुई थी आपके वालिद मुहतरम मास्टर नसीरुद्दीन नेक सीरत, मुतादिब और पारसाई इंसान थे, जो ख़ुद भी पेशे से मुदर्रिस थे। आज़ाद साहब ने सादुल हाई स्कूल और एम.एम स्कूल से
तालीम हासिल की। जिस स्कूल से तालीम हासिल की वहीं मुसलसल तालीम के बाद बा हैसियत शारीरिक शिक्षक के तौर पर मुलाज़िमत की और यहीं से सुबकदोश हो गए।
आज़ाद साहब ज़दीद ग़ज़लगो शाइर थे। आपकी ग़ज़लें सादा और सलीस ज़बान में होती थी। जो आवाम में बेहद पसंद की जाती थी। आज भी आपके कई शे’र तहज़ीब की तरज़ुमानी करते नज़र आते है ”
देखिए एक शे’र ….

“गुज़रा है जब भी शहर की सड़कों से वो कभी
हर मील का पत्थर मुझे झुकता हुआ मिला …

“छोटे हैं मेरे शहर के मीनार किसी कदर
वो आ गया तो हर कोई बौना हुआ मिला…

आज़ाद साहब को शाइरी से बेपनाह मोहब्बत थी। दिल के बहुत नेक और ज़ेहन के साफ़ इंसान थे अज़ीज़ साहब। लबो लहजे में बला की कशिश थी जो सामईन को अपने कलाम से बांधे रखती थी। आपने हर तरह के मौज़ू पर शाइरी की है चाहे वो इंसानी फ़ितरत हो या इंसान की ज़िन्दगी में आने वाली तरह तरह की मशरूफ़ियात हो, बदलते रिश्ते,  फ़िक़्र ज़माने के बदलते हालात, सियासत ,वक़्त के साथ समाज में होने वाले बदलाव, वग़ैरह वग़ैरह।
आज़ाद साहब ने हिंदी के अलावा कुछ राजस्थानी ज़बान में भी गीत और कविताएं लिखी थी। आपकी हिंदी कविताओं का एक मज़्मुआ “हवा और हवा के बीच” के उनवान से भी शाया हुआ था। ये कविताएं राजस्थान की कला और संस्कृति को समेटे हुए हैं। फॉग, रेत की रचना, मिट्टी की ममता, सूरज, जैसी अहम कविताएं हैं। इन कविताओं में राजस्थानी मिट्टी की महक और राजस्थानी फ़न और तमद्दुन के अक्स की झलकियां साफ़ साफ़ देखी जा सकती है।
“तुम मुझको विश्वास दो में तुमको विश्वास दूं”  आज़ाद साहब के इस गीत ने देश भर में धूम मचा कर बहुत मक़बूलियत हासिल की है।
आज़ाद साहब हाज़िर जवाबी थे। सही को सही और ग़लत को ग़लत कहने में एक पल नही लगाते थे। आदमी का असली चेहरा कौनसा है उसे आईना दिखाने में ज़रा संकोच नही करते थे ,ऐसे पेश आते जैसे आईना हाथ में लिए खड़े हो, लेकिन किसी के साथ बदसलूकी या बदज़ुबानी से कभी नही बल्कि ये काम भी बड़े अदब और तहज़ीब से करते थे।
एक शे’र आपकी नज़र ..

“वो कौन है जिनका कोई अरमान नही है
गर है भी कोई ऐसा तो इंसान नही है “…

“आलिम हुए ,अदीब हुए , फ़लसफ़ी हुए
लेकिन उन्हें इंसान की पहचान नही है “…

‌ आज़ाद साहब को ज़दीद शाइर भी कहें तो कोई ग़लत बयानी नही होगी क्यूंकि अजीज़ साहब के शे’र हमेशा एक नयापन लिए होते थे, जिसमें फ़िक़्र,  ज़हानत, सलासत थी, कहने का मआनी ये है कि उनकी शाइरी हुस्न और इश्क़ गुल और बुलबुल तक कभी महदूद नही रही थी।  समाज और मुल्क़ के हालात पर भी आप पैनी नज़र से वार करते थे।  मुआसरे में बढ़ते फ़साद ,इज़्ज़त बेइज़्ज़त की कोई शर्म हया नही जैसे मुनाफ़ी हालात आज़ाद साहब के सीधे दिल पर चोट करते थे।  उनको ऐसा महसूस होता था कि इन तमाम हालातों ने इंसान की सारी खुशियाँ को ख़त्म कर दिया है।
‌ऐसा ही एक शे’र …

‌”आदमी आदमी से रहे अजनबी
‌लोग ज़िंदा हैं फिर किस ख़ुशी के लिए “.

‌”लब तरसने लगे हैं हंसी के लिए
‌कैसी लानत है ये इस सदी के लिए “..

‌आज़ाद साहब का एक उपन्यास  “टूटे हुए लोग ” 1969 में देवनागरी रस्मुलख़त में शाया हुआ था।
आज़ाद साहब के अदबी कारनामों में एक अहम कारनामा ये भी था कि आपने तज़करा ए शुअरा अदब के नाम से एक किताब मुरतिब कि जिसे राजस्थान उर्दू अकेडमी ने शाया किया, इस किताब में बीकानेर के उर्दू शाइरों का तज़किरा है येकिताब उर्दू अदब बीकानेर की आने वाली नई नस्लों के लिए बहुत मुफ़ीद साबित हुई है।
कुछ ख़ूबसूरत अशआर रवानी के साथ जब आज़ाद साहब अपनी बुलंद आवाज़ में पेश करते थे तो महफ़िल का हर शख़्स उस माहौल की मसहूरकुन फ़िज़ा में डूब जाता था।
ऐसा ही एक शे’र गौर फरमाएं…

” अपने बच्चों को पालने वाले,
जिस्म तक उनका बेच खाते हैं,
वरना अपने ही फल निगल जाए
ऐसा कोई शजर नही होता”…

“जो बांटते हैं ज़हर यूं मज़हब के नाम पर
उनका कोई अल्लाह कोई भगवान नही “…

आपका “भरे हुए घर का सन्नाटा”  “कोहरे की धूप”  हिंदी अफ़साना 2006 में और “चाँद नदी में डूब रहा है” उनवान से ग़ज़लों का ये मज़्मुआ 2008 में रस्मुलख़त देवनागरी में आया।
बीकानेर के अज़ीम नामवरों शाइरों में अज़ीज़ साहब की पहचान थी, है, हमेशा रहेगी, और अब उनके साहबज़ादे मुहम्मद इरशाद अज़ीज़ उनकी इस रिवायत को क़ायम रख हुए उर्दू अदब बीकानेर के अदबी फ़िज़ा को महका रहे हैं।
आख़िर में अज़ीज़ साहब के इस एक शे’र साथ परचे का इख़तताम करती हूँ।…

“दुनिया में तेरा कोई भी दुश्मन नही तो क्या
अपने ही मार देते हैं मिलकर कभी कभी” …

डॉ. प्रमोद कुमार चमोली  मोबाइल नंबर- 9414031050

नाटक, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, स्मरण व शैक्षिक नवाचारों पर आलेख लेखन व रंगकर्म जवाहर कला केन्द्र की लघु नाट्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान। अब तक दो कृतियां प्रकाशित हैं। नगर विकास न्यास का मैथिलीशरण गुप्त सम्मान

कुछ पढते.. कुछ लिखते…  (लॉकडाउन के दौरान लिखी गई डायरी के अंश)

       मेरी डायरी  – भाग 12 

          “अपने भीतर के परमतत्व की खोज”

  • डॉ. प्रमोद कुमार चमोली

          दिनांकः 14.04.2020

      सुबह जल्दी उठने के बाद आज बाहर आकर बैठ गया था। वैसे आज लॉकडाउन का आखिरी दिन है। लेकिन प्रधानमंत्री सुबह 10 बजे देश को संबोधित करेंगे। अखबार के हिसाब से 11 राज्य पहले ही लॉकडाउन को 30 अप्रेल तक बढ़ा चुके है। 10 बजे तक इंतजार करना ही है। आज गाड़ी को बाहर निकाल कर साफ भी करना है। सबसे पहले यही काम किया। गाड़ी की धुलाई करना मतलब की शरीर की पूरी कसरत। आपको ऊपर-नीचे, आगे-पीछे होने में पूरे शरीर की माँसपेशियों की पूरी वर्जिश हो जाती है। सुबह जल्दी उठने का ये सीधा फायदा आज लिया। गाड़ी को साफ-सुथरा भी इसलिए किया कि हो सकता है कल से ऑफिस ही जाना पड़े। वैसे इतनी छुट्टियों से अब बोरियत भी होने लगी है।

      थकान काफी हो गई थी। एक बार तो सोचा कि पुनः निद्रा के आगोश में चला जाए, पर फिर सोचा कल से ऑफिस जाना पड़ेगा। फिर क्या होगा? तुरंत नहाना-धोना कर लिया। अब सुस्ती पीछा छोड़ चुकी थी। नाश्ता करने के बाद अखबार पर नजर दौड़ायी। आज देश में कुल 839 नए संक्रमित मिले हैं। राजस्थान में इनकी संख्या 93 है और बीकानेर में कोई भी नया संक्रमित नहीं मिला है। आज अखबार में कोरोना के हिसाब से क्षेत्रों की केटेगरियाँ निर्धारित की गई हैं। बीकानेर में 10 से ज्यादा संक्रमित होने के कारण रेड जोन में हैं। यानी यदि लॉकडाउन खुलता है। तो बीकानेर में वैसे नहीं खुलेगा जैसे ऑरेन्ज और ग्रीन जोन में खुलेगा।

      आज के अखबार की एक खबर ने विचलित कर दिया है। शिवपुरी मध्यप्रदेश की फोटो सहित खबर लगी है। फोटों में एक मकान के बहार बैनर टंगा है जिस पर लिखा है कि ‘‘यह मकान बिकाऊ है।’’ दरअस्ल मस्ला ये है कि दुबई से एक पेट्रोलियम इंजीनियर दीपक शर्मा शिवपुरी पहुँचे। वहाँ वे कोरोना पॉजिटिव पाए गए। इलाज लिया, 4 अप्रेल को पूर्णतया ठीक होकर घर पहुँच गए। दीपक का कहना है कि ‘‘जिस दिन मैं ठीक होकर लौट रहा था, उसी दिन लोग मुझे ऐसे देख रहे थे, जैसे मैं हत्या का अपराधी हूं।’’ सोचा कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा पर कुछ भी ठीक नहीं हुआ लोगों का बर्ताव नहीं बदला उल्टे दूधवाले और सब्जी वाले से हमारे घर जाने के लिए मना कर रहें हैं। हमारी माँ जहाँ जाती है तो कहते हैं उस जगह पर पैर मत रखो। परिवार को दरवाजे पर खड़ा देख लोग अपने घर के दरवाजे बंद कर देते हैं। पड़ोसी रात को दरवाजा पीटते हैं, ताकि हम घर छोड़ दे। दीपक कहते हैं कि अभी तो मैं यहाँ हूँ, मुझे वापस दुबई जाना ही होगा। तब ये कैसा व्यवहार करेंगे। इसलिए बैनर लगा दिया है कि घर बिकाऊ है।

      जब से इस खबर को पढ़ा है, दिमाग से निकल नहीं रही है। बैठे-बैठे सोच रहा हूँ। हम भारतीयों में वैसे ही छुआछूत की भावना बहुत है। ऊपर से ये कोरोना आकर इसे और बढ़ावा दे रहा है। कितना बुरा होता है जब आप किसी के साथ छूने नहीं जैसा व्यवहार करते हैं। कल्पना कीजिए कि आप ऐसी जगह हों जहाँ कोई आपके स्पर्श के बाद आपकों मारने लगे या हिकारत से देखे। दरअस्ल मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसे समाज में रहना है। ऐसे में उसके साथ अछुत का व्यवहार करना सचमुच अमानवीय है। सफाई का मामला अपनी जगह है। लेकिन जब केवल किसी को जाति या धर्म के आधार पर अछूत करार देना कितना अमानवीय है। जहाँ तक साफ-सफाई की बात है। वह तो रखनी भी चाहिए और उससे कोई समझोता भी नहीं होना चाहिए। लेकिन इसके नाम पर अछूत घोषित कर देना बहुत ही अपमानजनक स्थिति है।

      कोरोना पर एक दिन बड़े पुत्र हिमशिखर से बात चल रही थी। तब उसने कहा था कि पापा, ये कोरोना भारत में अनटचेबलिटी को बढ़ावा देगा। आज इस खबर ने साबित कर दिया। वैसे यह सामाजिक बुराई केवल उच्च जातियों में हो ऐसा नहीं हैं ये बुराई लगभग सभी जातियों में कमोबेश मौजुद है। मुझे गाँधी याद आने लगते हैं। जो अस्पृश्यता को समूल नष्ट करना चाहते थे। हालांकि कुछ लोग गाँधी के वर्णव्यवस्था के समर्थक बताकर आलोचना करते रहें हैं और अभी भी कर रहें हैं। लेकिन ये आलोचना एक दम एक तरफा है। गांधी को समझने के लिए उनसे बहुत भीतर तक बाबस्ता होने की आवश्यकता है। शिवपुरी की उक्त वर्णित घटना से ये दिमाग में ये तो आ ही रहा कि यदि आप कोरोना पॉजिटिव हो जाते हो अपने घर के लोगों और पास-पड़ोस का व्यवहार आदमी के साथ कैसा होगा? ये चिंता और चिंतन का विषय भी हैं। क्या इसके कारण खांचों में बंटे भारतीय समाज में एक खांचा और निर्मित हो जाएगा। मरने से डर हरेक को लगता है पर किसी से बलात् अछूत का व्यवहार करना अमानवीय है।

      प्रधानमंत्री ने सुबह 10 बजे राष्ट्र को संबोधित करते हुए लॉकडाउन को 3 मई तक बढ़ा दिया है। साथ ही जहाँ सुधार होगा वहाँ 20 के बाद थोड़ी राहत दी जाएगी। यानी कम से कम 20 तारीख तक तो लॉकडाउन में रहना ही होगा। यानी यह डायरी जो आज समाप्त होनी थी। उसे 20 अप्रेल तक बढ़ाना ही है। आगे दम रहा तो और लिखेंगे। बहरहाल आज के तय कार्यक्रम में आज गीता के पन्द्रहवें अध्याय को पढ़ना था। आज ये सोच रहा था कि मैं गीता को पढ़ क्यों रहा हूं? और जैसा मैं समझ रहा हूँ। क्या मैं गीता को ठीक समझ रहा हूँ? मुझे ऐसा लगता है कि गीता सभी समस्याओं का व्यावहारिक हल देती है। यह केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं वरन् सम्पूर्ण जीवन का प्रायोगिक वर्णन है। बहरहाल पन्द्रहवंे अध्याय को पढ़ते हुए जैसा महसुस किया वह इस प्रकार से है-

      गीता अध्याय पन्द्रह का नाम पुरूषोत्तम योग है। इस अध्याय 20 श्लोकों में रचित है। यह अध्याय में सम्पूर्ण गीता के भाव  को व्यक्त करता है। इस अध्याय के प्रारम्भ में भगवान अर्जुन को संसार रूपी वृक्ष के बारे में समझाते हुए कहते हैं कि-

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।

      हे अर्जुन! इस संसार को अविनाशी वृक्ष कहा गया है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा इस वृक्ष के पत्ते वैदिक स्त्रोत है, जो इस अविनाशी वृक्ष को जानता है वही वेदों का जानकार है।

      संसार रूपी वृक्ष का न तो इसका आदि है और न ही इसका अन्त है और न ही इसका कोई आधार ही है। इसे वैराग्य रूपी हथियार के द्वारा ही काटा जा सकता है। इस संसार से वैराग्य बाद मनुष्य को उस परम-लक्ष्य (परमात्मा) के मार्ग की खोज करनी चाहिये। ताकि वह इस संसार सागर से मुक्त हो सके। संसार रूपी वृक्ष की उत्पत्ति और विस्तार परमात्मा द्वारा किया जाता है। अतः उस परमात्मा के शरणागत हो जाना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। मान-प्रतिष्ठा, मोह तथा सांसारिक विषयों से मुक्त मनुष्य उस अविनाशी परम-पद (परम-धाम) को प्राप्त करता हैं। यह परम-धाम, मेरा ही परम-धाम है।

      आगे के 7 से 11 वें श्लोक तक भगवान जीव और आत्मा का वर्णन का वर्णन करते हुए कहते हैं कि- हे अर्जुन! संसार में प्रत्येक शरीर में स्थित जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है, जो कि मन सहित छहों इन्द्रियों के द्वारा प्रकृति के अधीन होकर कार्य करता है। शरीर का स्वामी जीवात्मा छहों इन्द्रियों के कार्यों को संस्कार रूप में ग्रहण करके एक शरीर का त्याग करके दूसरे शरीर में उसी प्रकार चला जाता है। जीवात्मा शरीर का किस प्रकार त्याग कर सकती है, किस प्रकार शरीर में स्थित रहती है और किस प्रकार प्रकृति के गुणों के अधीन होकर विषयों का भोग करती है, मूर्ख मनुष्य कभी भी इस प्रक्रिया को नहीं देख पाते हैं केवल वही मनुष्य देख पाते हैं जिनकी आँखें ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो गयी हैं। योग के अभ्यास में प्रयत्नशील मनुष्य ही अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को देख सकते हैं, किन्तु जो मनुष्य योग के अभ्यास में नहीं लगे हैं ऐसे अज्ञानी प्रयत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं देख पाते हैं।

      आगे के 12 से 15 श्लोक में जगत में परमात्मा की स्थिति का वर्णन किया गया है। जो प्रकाश सूर्य में स्थित है जिससे समस्त संसार प्रकाशित होता है, जो प्रकाश चन्द्रमा में स्थित है और जो प्रकाश अग्नि में स्थित है, उस प्रकाश को तू मुझसे ही उत्पन्न समझ। मैं ही समस्त जीवों के हृदय में आत्मा रूप में स्थित हूँ, मेरे द्वारा ही जीव को वास्तविक स्वरूप की स्मृति, विस्मृति और ज्ञान होता है, मैं ही समस्त वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ, मुझसे ही समस्त वेद उत्पन्न होते हैं और मैं ही समस्त वेदों को जानने वाला हूँ।

      आगे के 16 से 20 श्लोक में भगवान शरीर, आत्मा और परमात्मा का वर्णन किया गया है। संसार में दो प्रकार के ही जीव होते हैं एक नाशवान (क्षर) और दूसरे अविनाशी (अक्षर), इनमें समस्त जीवों के शरीर तो नाशवान होते हैं और समस्त जीवों की आत्मा को अविनाशी कहा जाता है। परन्तु इन दोनों के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ पुरुष है जिसे परमात्मा कहा जाता है, वह अविनाशी भगवान तीनों लोकों में प्रवेश करके सभी प्राणियों का भरण-पोषण करता है। क्योंकि मैं ही क्षर और अक्षर दोनों से परे स्थित सर्वोत्तम हूँ, इसलिए संसार में तथा वेदों में पुरुषोत्तम रूप में विख्यात हूँ। इस अध्याय के अंतिम श्लोक में भगवान परमज्ञान के रहस्य को बताते हुए कहते हैं कि-

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।

एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ।।

      हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह शास्त्रों का अति गोपनीय रहस्य मेरे द्वारा कहा गया है, हे भरतवंशी जो मनुष्य इस परम-ज्ञान को इसी प्रकार से समझता है वह बुद्धिमान हो जाता है और उसके सभी प्रयत्न पूर्ण हो जाते हैं।

      इस अध्याय को पढ़ने के बाद महसुस होता है कि हमें अपनी दुर्बलताओं पर विजय पानी है। ये दुर्बलताएँ मैं, मेरा और मेरे के प्रति स्वार्थी होने से उत्पन्न होती हैं। इसके कारण ही अधिकाधिक प्रभुत्व जताने की इच्छा बनती है। ऐसा होने पर भौतिक पदार्थ के स्वामित्व के प्रति आसक्त हो जाते हैं। इस संसार की सारी समस्याएँ इन्हीं हृदय की दुर्बलताओं के कारण हैं। इन्हीं दुर्बलताओं से विजय प्राप्त करने का मार्ग पुरुषोत्तम योग है। सम्पूर्ण जगत के कर्ता-धर्ता-हर्ता, ‘सर्वशाक्तिमान’ सबके नियन्ता, सर्वव्यापी, अर्न्तयामी, परमदयालु शरण लेने योग्य, सगुण परमेश्वर के साथ समस्त चर-अचर, क्षर-अक्षर, के निर्माता परमात्मा ही हैं और यही सभी में निवास भी करता हैं। वही पुरुषोत्तम है। जीवन का परम रहस्य अपने भीतर के इसी परमतत्व की खोज करना है।

      बहरहाल आज के दिन के अंतिम कार्य के रूप में डॉ कौशल से बात करनी है। फोन किया हमेशा की तरह बिना बाते लंबी चली। लॉकडाउन के विषय में एक डॉक्टर के नाते उसका मत यह है कि जब तक पूरे देश में 10 से कम केस नहीं हो जाए तब तक लॉकडाउन नहीं खुलना चाहिए। लेकिन यह शायद ही संभव हो आजकल प्रत्येक वस्तु अर्थ आधारित है। अर्थ ही सब कुछ है। इतना लंबा लॉकडाउन शायद ही लगे। फिलहाल आज के लिए इतना ही।

-इति-

ऋतु शर्मा  :  मोबाइल नंबर- 9950264350

हिन्दी व राजस्थानी में समान रूप से कविता-कहानी लिखती हैं। हिंदी व राजस्थानी में चार किताबों का प्रकाशन। सरला देवी स्मृति व कर्णधार सम्मान से सम्मानित

साक्षात्कार :

लिखा हुआ पढ़ा जाएगा तो मिलेगी लेखन को बेहतरी : सीमा भाटी

उर्दू रचनाकार सीमा भाटी का राजस्थानी, उर्दू, हिंदी तीनों भाषा में समान लेखन कर रही है। आपका संग्रह, कविता संग्रह, और एक राजस्थानी उपन्यास भी आ चुका है। तकऱीबन दो दर्जन किताबों की समीक्षा भी आप कर चुकी हैं । 2014, 15 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की द्वारा आयोजित कार्यक्रम में राजस्थानी कहानियों का उर्दू में अनुवार किया और राजस्थानी उर्दू शब्दकोश निर्माण कार्यशाला में संदर्भ व्यक्ति के रूप में हिस्सा लिया। इन्हें राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर का प्रतिष्ठित अल्लामा इक़बाल अवार्ड 2017, उर्दू साहित्य सृजन पुरस्कार नगर निगम बीकानेर, उर्दू साहित्य सृजन पुरस्कार नगर विकास न्यास बीकानेर, राजस्थान पत्रिका का कर्णधार सम्मान, राव बिकाजी संस्थान द्वारा प्रतिभा सम्मान उर्दू साहित्य में, राव बीका जी, दैनिक भास्कर का शिक्षक सम्मान आदि ऐसे अनेकों पुरस्कार आदि से सम्मानित है प्रस्तुत है लॉयन एक्सप्रेस के कथारंग साहित्य परिशिष्ट लिए कथाकार-कवयित्री ऋतु शर्मा की सीमा भाटी से बातचीत।

प्रश्र  : साहित्य से आपका जुड़ाव कैसे हुआ? आपके साहित्यिक सफऱ की शुरुआत के बारे मेँ कुछ बताएं।

उत्तर : ‘‘हर शख़्स के दिल में एक लेखक छिपा बैठा होता है ’’ ये जुमला मैने बचपन से बड़ी होने तक में कई मर्तबा सुना हुआ था, मगर कहाँ छुपा बैठा है कब बाहर आता है, जैसे सवालों के साथ जूझती हुई किशोरावस्था आ गई, फिर भी साहित्य से जुड़ाव और लगाव जैसा कभी महसूस नही हुआ और उसकी ख़ास वजह भी थी कि बचपन से ना तो कोई ऐसा माहौल मिला और ना ही हालात साजग़ार थे कि जिसमें साहित्य लिखने पढऩे जैसे ख्याल से दिल दिमाग़ वाबस्ता हो सके। हम चार भाई बहन और आमदनी के तौर पर सिर्फ पिताजी की तनख्वाह आती थी जिसमें सरकारी स्कूल की शिक्षा हम भाई-बहन पा सके उतना ही संभव था। बावजूद भी मैं एक बात यहाँ रेखांकित करके कहना चाहूंगी कि मेरे माँ-पापा ने दिन रात मेहनत करके हमेशा हमारी तमाम जायज़ ख्वाहिशों को पूरा करने की हर मुमकिन कोशिश की है और उन्हीं कोशिशों का प्रतिफल है कि हम सारे भाई बहन सरकारी मुलाजि़मत हासिल करने में कामयाब हुए।
स्कूली तालीम के बाद 1989 में शादी हो गई। ससुराल में सभी लोग तालीम को बढ़ावा देने के हामी थे। ससुराल वालों ने ही टीचर ट्रेनिंग करवाई और उसके तुरंत बाद यानि 1992 में सरकारी नौकरी मिल गई और साथ में तालीम का सिलसिला भी जारी रहा। 2003 तक सामान्य शिक्षक पर पदस्थापित थी चुंकि मैंने अतिरिक्त योग्यता के तौर पर 10+2 उर्दू में एडिशनल कर रखा था इस वजह से सन 2004 में उर्दू विषय पर मेरी पोस्टिंग गांव से सीधा प्रॉपर बीकानेर हो गइ। उर्दू पद पर आने के बाद दोबारा उर्दू में ग्रेजुएशन किया और पोस्ट ग्रेजुएट भी उर्दू मेंही किया। क्यूंकि जिस पद पर आप पोस्टेड हुए हैं तो उस पर आपकी कमान होनी चाहिए ऐसा मेरा मानना है। उस वक्त तालीम, नौकरी बच्चे, घर, जि़म्मेदारी के साथ साथ, अदबी लोगों से ताल्लुक़ात होने की वजह से कई मर्तबा अदबी महफि़लों और मजलिसों में आना-जाना पड़ा या यूँ कहूं मौका मिला। रफ़्ता-रफ़्ता मुझे मेरे उस सवाल का जवाब मिलने लगा, जिस सवाल से दो चार होते हुए मैं बड़ी हुई यानि कि मेरे मन के किस कोने में मेरा कवि मन छुपा बैठा है वो मुझे अंदर से अनुभूति होने लगी, उस पर किसी अदबी प्रोग्राम में शिरक़त के दौरान एक साहित्यिक-मित्र का ये सवाल पूछना कि ‘‘आप भी लिखती हैं या साहित्य अनुरागी है ’’ने सोने पे सुहागे का काम किया, बस फिर क्या था कवि मन जाग उठा और इस बात की ताईद करते हुए मेरे उस्ताद मुहतरम डॉ मुहम्मद हुसैन साहब ने उस पर मोहर का काम किया। यानि कि 2015 से मेरा साहित्यिक सफऱ शुरू हो गया।

प्रश्र  : आप अपनी प्रेरणा किसे मानती हैं ?

जवाब : लिखने की प्रेरणा लेखक को हमेशा स्वयं से और उसके आस पास के उस माहौल से मिलती है। साहित्य लेखन और उन तमाम दूसरी उपलब्धियों के लिए मैं अपनी प्रेरणा मेरी जि़न्दगी के हमसफऱ चंद्रेश जी और मेरे बच्चों को मानती हूँ। चंद्रेश जी ने हर हाल, हर क़दम पर मेरा साथ देते हैं और मोटिवेट भी करते है। मेरे गुरु, मेरे मित्र सदैव सहायक रहते हंै। क्यूंकि ये लाज़मी है कि आपके लिखे को जब तक कोई सुने पढ़े और उसकी सराहना या गलती का अहसास ना करवाये, आप बेहतर नही कर सकते और ना ही आप आगे बढऩे का हौसला आ सकता है इन दोनों ही रूप से मैं बहुत सौभाग्यशाली रही हूँ।

प्रश्र : आपकी प्रिय विधा कौनसी है और क्यों?

उत्तर : लिखने और पढऩे दोनों स्थितियों में गद्य विधा में ख़ुद को ज़्यादा सहज महसूस करती हूँ, क्यूंकि इस विधा में हमें अपनी अभिव्यक्ति को कम, ज़्यादा ज़ाहिर करने की पूरी छूट होती है फिर चाहे वो कोई विचार हो या संवेदना हो जो पद्य विधा में मुमकिन नही है इसलिए मुझे कहानी, उपन्यास, संस्मरण वगैरह बेहद अज़ीज़ है जबकि मेरी साहित्य सफऱ की शुरुआत आज़ाद नज़्मों से हुई थी उन्हें सिफऱ् लिखा ही नही बल्कि उनकी पेशगी भी रही, मगर उसके साथ मेरे अदबी सफऱ का एक वाकिय़ा भी जुड़ा हुआ था वो ये कि जिस लेखक या लेखिका की पहली किताब कविता या नज़्म की होती है उन्हें कभी स्थापित लेखक नही माना जाता, इसलिए मैने कहानियाँ लिखनी शुरू की। और फिर मेरी पहली किताब के रूप में कहानियों की किताब मन्जऱे आम पर आई, मगर ऐसी ज़ेहनियत मेरी इल्म की कमतरी का नतीज़ा रही। उसका मुझे धीरे धीरे अहसास भी हुआ जब में जनाब नंदकिशोर जी आचार्य, अर्जुन देव जी चारण की कविताओं से और निदा फ़ाज़ली, साहिर लुधियानवी, जैसे नेशनल स्तर के शायरों की नज़्मों से गुजरने का मौका मिला।

प्रश्र : किन लेखकों को आपने पढ़ा है ? आप स्वयं लिखने के लिए कब निकलती हैं और क्यों लिखती हंै ?

उत्तर : तालीम लेते हुए मुझे उर्दू विषय में बी. ए., एम. ए. के दौरान मीर, ग़ालिब, ज़ौक़, हाली, प्रेमचंद, कृष्णचंद्र, सज्जाद हुसैन ज़हीर, आज़ाद, इस्मत चुगताई, मंटो जैसे बड़े बड़े अदीबों की तख़लीक़ से होकर गुजऱना हुआ। मगर उस पढऩे और साहित्य लेखन के नजरिये से पढऩे में ज़मीन आसमां का फक़ऱ् है। इसलिए इस हवाले से जिन-जिन लेखकों को मैंने पढ़ा या यूँ कहूं जिनसे में मुतासिर हुई उनमें से सबसे पहले मैं अमृता प्रीतम का नाम लेना चाहूंगी, इनके मैंने उपन्यास भी पढ़े हैं और कविताएं भी। प्रेमचंद, इस्मत चुगताई मंटो की कहानियों ने मुझे बेहद मुतासिर किया है चूंकि में उर्दू सब्जेक्ट से हूँ तो उर्दू अदीब के तौर पर मंटो और इस्मत को ख़ूब पढ़ा है। मंटो पर थोड़ा तज़किरा करना चाहूंगी कि मंटो बीसवीं सदी का वो नुमाइंदा और अहद आफऱीन अफ़साना निगार थे जिसने जिनसियात जैसे मौज़ू को अलग नजऱ से देखने के लिए मुआशरे को एक हक़ीक़त की नजऱ से वाबस्ता करने की बड़ी बेबाक़ी और जाँबाजी से कोशिश की। हालांकि ऐसे मौज़ू पर कलम उठना आसान काम नही था मगर मंटो हमेशा से ही समाज की सच्चाई को बेनक़ाब कर सोसाइटी को साफ सुथरा बनाने के हामी रहा थ। मैने अपने शहर के शाइरों और लेखकों को भी पढ़ा है जिस शहर में मेरी पैदाइश हुई है यानि बीकानेर। यहाँ हर लेखक का नाम लेना मुमकिन नही है मगर इनसे ही हमें आगे बढऩे की प्रेरणा मिली है। अब रही बात लिखने के लिए वक्त निकालने की बात तो बीकानेर की साहित्यक गतिविधियां इतनी तादाद में होती है कि कोई भी व्यक्ति लिखने के लिए प्रेरित हो सकता है घर, मुलाजि़मत के बाद जितना भी वक्त मिलता है वो सृजन कोई ही समर्पित है ।

प्रश्र : आपकी रचना प्रक्रिया क्या है ?

उत्तर : ‘‘साहित्य लेखन को कर्म समझ कर करना चाहिए यक़ीनी तौर पर कामयाबी मिलेगी’’ ऐसा कहना है वरिष्ठ रंग कर्मी, हिंदी और राजस्थानी के कथाकार, उपन्यास कार, व्यंग्यकार हर विधा में बेशुमार और निरंतरता के साथ लिखने वाले जनाब मधु आचार्य आशावादी का। मगर हक़ीक़त में हम अभी तक लेखन को इस रूप और हद तक नही कर पाए इसलिए कुछ निश्चित प्रक्रिया नही है लेकिन कवि मन है हर शै और माहौल से हर वक्त कुछ ना कुछ तलाश करता रहता है जो कभी कहानी का प्लाट बन जाता है तो कभी उपन्यास का। तो कभी कोई मौज़ू नज़्म की शक़्ल के साथ दरपेश आकर खड़ी हो जाती है, जो कलम को उठने पर मजबूर कर देती है। यहाँ एक बात और वाजेह करना चाहती हूँ जो मेरी रचना प्रक्रिया का अहम हिस्सा है वो ये कि किसी भी रचना को लिखते वक्त एक बारगी अच्छे लफ्ज़़ों की तादाद बहुत कम मेरे ज़ेहन में आती है चाहे कितनी भी कोशिश कर ली मुझे नाकामी ही मिली लेकिन जब उस रचना को छोड़ कर किसी दीगर काम में लग जाती हूँ तो वो मौज़ू दिमाग़ में चलता रहता है पकता रहता है उस के हवाले से नये नये लफ्ज़़ आते रहते हैं जुड़ते रहते हैं और रचना पक कर तैयार होती रहती है, असल ये ही मेरी रचना प्रक्रिया है।

प्रश्र :  आप हिंदी और राजस्थानी के साथ साथ उर्दू भाषा की भी ज्ञाता हैं। अपने उर्दू भाषा से लगाव के बारे में बताइये।

उत्तर : ये बहुत दिलचस्प सवाल पूछा ऋतु जी आपने। देखिए राजस्थानी मेरी मादरी ज़बान है, हिंदी से वाबस्तगी स्कूली तालीम में रही, और उर्दू ज़बान से लगाव के सवाल पर मैं कहना चाहूंगी कि ये वो शीरी व तहज़ीबी ज़बान है जिस से किसी को भी लगाव ,मोहब्बत हो जाये। अब आप कहेंगी कि ,तो क्या दूसरी ज़बानों में तहज़ीब नही है ? बिल्कुल है ! मगर जो नफ़ासत ,और नज़ाक़त उर्दू ज़बान से अयां होती है उसका कोई सानी नही है ऐसा मेरा मानना है, और अब इस ज़बान से मेरी रग़बत तो देखिए उर्दू से इब्तदाई तालीम के लिए ना तो मुझे किसी मदरसे में जाना नसीब हुआ और ना ही उर्दू की वो तैयार ज़मीन मिली जो ख़ानदानी माहौल या विरासत से मिलती है ये तो मेरे स्वर्गीय ससुर जी श्री प्रेम राज जी की तदबबुर का नतीज़ा है। मेरी मास्टर ट्रेनिंग 1991 में मुक़म्मल हुई और नौकरी 1992 में लगी, दरमियाँ इसके एक दिन ससुर जी ने फऱमान जारी कर दिया कि आप उर्दू में एडिशनल 10+2 दोबारा कर लीजिये। उनकी ये दिली ख्वाहिश थी कि उर्दू ज़बान भी मैं सीखूं और उस पर भी मुझे उबूर हासिल हो, महारत हो ,क्यूंकि वो दौर ऐसा था जब उर्दू विषय में कम लोग थे और गैर मुस्लिम तो तो मुश्किल से एक आध उसके साथ उनका ये भी मानना था कि इस विषय अध्यापक के सरकारी ट्रांसफर कम होते है। बात मुझे हंसी की लगी ,मगर मैने उनकी हर बात को हमेशा तवज्जो दी और अहमियत के साथ मानकर शिद्दत से उस काम को करने की कोशिश करती जिसका सफऱ् ये मिला कि उनकी बेशकीमती मशवरे की बदौलत उर्दू ज़बान से पी .एच .डी चल रही है और अब तो उर्दू मेरा जुनून है। जान निसार है उस पर। जीना मरना सब उर्दू के लिए है।

प्रश्र : आप अखिल भारतीय उर्दू शिक्षक संघ राजस्थान की प्रदेशाध्यक्ष हैं, क्या कहना है आपका उर्दू भाषा के आंदोलन को लेकर?
उत्तर : जी हाँ रितु जी उर्दू के प्रति मेरी खि़दमात और जुनून को देख कर हाल ही में मुझे इस पद से नवाज़ा गया है। मेरा कहना है कि उर्दू ज़बान के साथ हो रही नाइंसाफी को लेकर हुकूमत के साथ चल रही हमारी लड़ाई में इंशाअल्लाह हम ज़रूर कामयाब होंगे। उर्दू ज़बान किसी क़ौम या मज़हब की मानना नासमझी के ज़्यादा कुछ नही है क्यूंकि ये हिंदुस्तान कि ज़बान है और मैं तो ज़ाती तौर पर कह सकती हूँ कि इस मुहीम का हिस्सा बनना अपनी ख़ुशनसीबी समझती हूँ, उसके लिए जान तक निसार करना मेरा फज़ऱ् है क्यूंकि इस उर्दू की तनख्वाह से मेरे बच्चों की परवरिश हुई है मेरे बच्चे उर्दू की रोटी खाते हैं इसलिए मैं हमेशा कहती हूँ कि उर्दू से मुझे बेपनाह मोहब्बत है इसने मुझे एक अलग पहचान दी और इस उर्दू के लिए मैं इंतेहा की हद तक जा सकती हूँ।

प्रश्र : राजस्थानी भाषा राजस्थान के हर निवासी मैं बसी हुई है फिर भी क्या कारण है कि ये अन्य मान्यता प्राप्त भाषाओं से पिछडी हई है ?

उत्तर : राजस्थानी भाषा एक समृद्ध भाषा है। इस भाषा का एक समृद्ध शब्द भण्डार भी है और देश के हर कोने में इसको बोलने, लिखने, और चाहने वाले मिल जायेंगे और अगर ऐसा नही होता तो राजस्थानी साहित्य में इतना काम भी नही होता और रही बात मान्यता मिलने की तो उसके लिए मुसलसल जद्दोज़हद जारी है आज नही तो कल ज़रूर मिलेगी, ऐसा मेरा यक़ीन कहता है।

प्रश्र  : आज की पीढ़ी में उर्दू भाषा को सीखने के प्रति रुझान पैदा करने के लिए क्या प्रयास करने चाहिए?

उत्तर : किसी भी नये काम को सीखने के लिए तीन पहलू काम करते हैं ऐसा मेरा मानना है । पहला ज़रूरत ंदूसरा जुनून और तीसरा शौक़। उसमें फिर चाहे कोई काम हो या भाषा हो उसके लिए ये तीनों फेक्टर काम करते है उस पर ही उसका रुझान और परिणाम निर्भर करते हंै। कहना चाहूंगी की उर्दू जबान को कैरियर का ज़रिया बनाये तो कम्पीटीशन बहुत कम है, दूसरा कई बार किसी नई ज़बान को जानने, उसकी अहमियत तहज़ीब तमद्दुन के हवाले से सीखने, पहचान बनाने का जुनून होता है तो उस वजह से भी रुझान पैदा होता है।
उर्दू मिठास और तहजीब की भाषा है। अंतर्राष्ट्र्रीय स्तर पर भी इस भाषा का काफी महत्व हैै । उर्दू अदब की तारीख़ गवाह है कि यह भाषा प्रारंभिक काल से ही जीविकोपार्जन में मददगार रही है। आज भी रोजगार की दृष्टि से उर्दू भाषा की तहजीब में अनेक क्षेत्र हैं, जहाँ उर्दू जानने वाले अपना करियर बना सकते है।

देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में उर्दू की शिक्षा दी जाती है। वैसे उर्दू की प्रारंभिक शिक्षा की व्यवस्था मदरसों के अलावा सरकार द्वारा संचालित स्कूलों में भी की गई है। इसके अलावा जिनकी मातृभाषा उर्दू नहीं है, उनके लिए देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों में सर्टिफिकेट, डिप्लोमा और एडवांस डिप्लोमा जैसे कोर्सेज का संचालन किया जाता है। देश एवं विदेश में विभिन्न मंत्रालयों में उर्दू अनुवादक का पद निर्धारित है। अन्य भाषा के साथ उर्दू डिग्री वाले इस पद के हकदार बन सकते हैं। ऐसे बहुत से पायदान है जहाँ उर्दू ज़बान सीखने के प्रति हम बच्चों को मायल कर सकते है हाँ एक बात और हम सभी जानते है जंग ए आज़ादी में उर्दू का क्या रोल रहा है और अगर हम ऐसे स्थान से बिलोंग करते हैं जिस ज़मीन के बहुत से अदीबों का जंग – ए – आज़ादी में किसी ना किसी रूप में हिस्सा रहा हो, उनकी खि़दमात को पढऩा नई नस्लों के लिए बाइस ए फ़ख्र बात हो सकती है

प्रश्र : लेखन आपकी कल्पना मात्र है या यथार्थ का सम्मिश्रण भी है?

उत्तर : लेखन कोई भी हो वो ना सिफऱ् यथार्थ के आधार पर मुक्कमल होता है और ना ही मात्र कोरी कल्पना से। बल्कि यथार्थ को कल्पना के सहारे विस्तार मिलता है। जिस वाकिय़े को हम देखते, सुनते या भोगते हैं उसको कल्पना का अमली जामा पहना कर आगे बढ़ाते हैं तभी कोई रचना या लेखन किसी विधा की शक्ल इख्तियार करती है। इसलिए ना कोई यथार्थ बिना कल्पना के कोई शक़्ल या स्वरूप पा सकता है और ना कोई कल्पना बग़ैर किसी यथार्थ के एक सच्ची सी रचना मालूम होती है।

प्रश्र : एक महिला लिखती है तो उसको उसे उसकी जि़न्दगी से जोडऩे लगते हैं, ऐसा क्यों होता है और कहां तक सच है?

उत्तर : जब हम किसी विधा के लिए कोई किरदार बुनते हैं तो या तो हम ख़ुद होते है या हमारा भोगा हुआ यथार्थ होता है या ज़रूर उस से हमारी कभी ना कभी किसी भी रूप में वाबस्तगी रही होती है जिसे हमने बहुत कऱीब से देखा ,जाना भाला है और फिर उसमें अपने तजुर्बे और कल्पना का कल्पना का लिबास पहना कर सवेंदना की पुट के साथ उसे मुक़म्मल बना देते हैं । मगर ये भी सच है कि एक महिला लिखते वक्त बहुत कुछ जानते हुए भी इसलिए नही लिखती कि कहीं उसके लिखे के दरीचों से कोई झांकना शुरू ना कर दे, जबकि पुरुषों के लेखन पर इस तरह कोई नज़रिया नही बनता ये हक़ीक़त है ।

प्रश्र : स्त्री विमर्श के बारे में आपका क्या कहना है ?
उत्तर : आज के मौजूदा दौर में स्त्री पर विमर्श जैसा कुछ नही रहा। आज हर समाज प्रगतिशील विचारों को हामी बना हुआ है अपवाद हर जगह मिल जाएगा, बावजूद हर तबक़े की स्त्री आज़ादी से अपनी बात कह रही है, सवाल कर रही है, अपने हक़ के लिए लडऩे की उसमें समझ आ गई। इसलिए स्त्री हर क्षेत्र में अपना प्रतिनिधित्व भी कर रही है। लेकिन एक बात में अपने तजुर्बे से कहना चाहूंगी कि स्त्री को हर घर में आज़ादी मिलने के बाद आज भी उसका हर फैसला एक पुरुष के मोहर का मोहताज है। वो पुरुष पिता, भाई, पति, औलाद किसी रूप में हो सकता है।

प्रश्र  : साहित्यिक पुरस्कार के चयन के बारे में आपका क्या कहना है ?
उत्तर : हौसला बढ़ता है पुरस्कार मिलने से ये मैं मानती हूँ, मगर आपकी कृति ही आपका सबसे बड़ा पुरस्कार है ये वो दस्तावेज है जो आपको सदियों तक आने वाली नस्लों की नजऱ मैं जि़ंदा रखेगा। अकादमी पुरस्कारों के अलावा हर पुरस्कार की चयन प्रक्रिया ताल्लुक़ात पर निर्भर करती है। मगर लेखक अपना लेखन ईमानदारी से करता रहे । इन तमाम बातों से ख़ुद को और अपने लेखन को प्रभावित नही होने दे।

प्रश्र : आपकी साहित्यिक जीवन से जुड़े कुछ ऐसे पल जो आपके लिए अविस्मरणीय है हमसे साझा कीजिये।

उत्तर : जी बिलकुल ऋतुजी। हमारी जि़न्दगी में कुछ पल, लम्हे ऐसे आते हैं जिसको अनुभूत करने पर ही आप ऊर्जा से भर जाते हैं और ऐसा एक बार नही होता हैं जि़न्दगी में आपको जितनी बार भी उन पलों की अनुभूति होगी उतनी बार वही सुखद मंजऱ होगा जिन्हें आप कभी नही भूला सकते। मुझे आज भी याद है हम पति-पत्नी सफऱ में थे। उर्दू साहित्य अकादमी उर्दू जयपुर से मुझे फ़ोन आया की 9 नम्बर 2017 को उर्दू साहित्य अकादमी जयपुर मुल्क़ के अज़ीम शाइर अल्लामा इक़बाल का यौमे ए पैदाइश मना रही है। और ये अकादमी उन लोगों को इस अवार्ड से नवाजऩा चाहती है जो ग़ैर मुस्लिम होते हुए उर्दू की खि़दमत कर रहें है,और हमारी कमेटी ने आपके नाम का इन्तेख़ाब किया है तो क्या आप 9 नवम्बर को आने के लिए आप अपनी सहमति दजऱ् करवाती हंै? ये वो पल था जिसकी मैने कल्पना कभी नही। क्यूंकि उन लोगों के साथ खड़ा होना ही अपने आप में गौरव की बात थी मेरे लिए। दूसरा जब मेरी किताबों का लोकार्पण हुआ चाहे वो ‘‘महीन धागे से बुना रिश्ता’’ और चाहे राजस्थानी में आया मेरा काव्य संग्रह ‘‘पैलदूज’’ और उपन्यास ‘‘हेत री हूंस’’ ये पल मेरे लिए अविस्मरणीय हैं ।

प्रश्र : वर्तमान महिला लेखिकाओं के लिए क्या सन्देश देना चाहेंगी आप?
उत्तर : वैसे तो हमें किसी को कुछ कहने का अधिकार नही होता और फिर जो खुद एक लेखिका है ज़ाहिर सी बात है वो क्रिएटिव भी है तभी कुछ रच पा रही है मगर जब आपने सवाल किया है तो जवाब देना लाज़मी है। इस संदर्भ में एक ही बात कहना चाहूंगी चाहे वो सिफऱ् महिला हो या लेखिका, एक महिला, महिला की दुश्मन बनने की बजाय उसकी सच्ची और ईमानदारी वाली दोस्त बने। एक लेखिका में अच्छा लिखने से पहले अच्छा पढऩे का शग़ल होना चाहिए। चाहे कम लिखे मगर अच्छा लिखे सार्थक लिखे साथ ही नये नये पाठकों तलाश करे ताकि जो साहित्य लिखा जा रहा है उसको पढऩे वाले भी हो और जब पढ़ेंगे तो तनक़ीद भी होगी ऐसे में एक लेखक का लेखन बेहतरी की दिशा में बढ़ सकेगा।

इरशाद अजीज  (9414264880)

हिन्दी उर्दू और राजस्थानी में समान रूप से लेखन में सक्रिय देश-प्रदेश में होने वाले मुशायरों में बीकानेर की खुशबु के रूप में पहचान रेलवे के मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार राव बीकाजी संस्थान के राजकुमार भीमराव अवार्ड सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित

इक उम्र का गुज़र जाना

बिना तुम्हारे

आज का गुज़रना

इस उम्मीद के साथ

आना होगा

कल तुम्हारा

आज को कल

होने के बीच

मेरा होना

मुझे याद ही नहीं रहता

तुम्हारा इंतजार

आज से कल तक

एक उम्र गुज़र जाने जैसा है

लौट जाओ

तुम मेरे हमराह चलना चाहती हो

जलना चाहती हो

मेरी जि़न्दगी की तल्$ख धूप में

कुछ भी तो नहीं मिलेगा सिवाय रुसवाइयों के

तुम्हारी यह जि़द्द तुमको $खुद से दूर ले जायेगी

रहने दो लौट जाओ अपने घर

जिसे सजाया है तुमने अपने एहसास से

महकाया है अपनी $खुशबू से

न जाने कितने ही ख़्वाब दम तोड़ देंगे तुम्हारे बिना

मेरी तरह तुम भी इंतजार करो

पुनर्जन्म का

उन ख़्वाबों का

जो हमने देखे इस जन्म में

यह वही राह है

लौट जाओ फिर लौट आने के लिए।

मुकम्मल इरशाद में इस बार मौलाना अशरफी से बातचीत, देखें वीडियो