निवेदन  ‘लॉयन एक्सप्रेस ’ लगातार आपको खबरों से अपडेट कर रखा है। इस बीच हमनें यह भी प्रयास किया है कि साहित्य के रसिक पाठकों तक भी कुछ जानकारियां पहुंचे। इसी को देखते हुए ‘कथारंग ’ नाम से एक अंक शुरू कर रहे हैं। इस अंक में कविता, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार आदि का प्रकाशन किया जाएगा। आप से अनुरोध है कि इस अंक के लिए अपनी रचनाएं हमें प्रेषित करें। आप अपनी रचनाएं यूनिकोड में भेजें तो बेहतर होगा। साथ ही अपना परिचय और छायाचित्र भी भेजें। आप चाहें तो अपने मौलिक साहित्यिक रचनाओं की प्रस्तुति संबंधी अपने वीडियो भी हमें भेज सकते हैं।

इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए आप इस अंक के समन्वय-संपादक संजय शर्मा से संपर्क कर सकते हैं। मोबाइल नंबर 9414958700

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मधु आचार्य ‘आशावादी’  मोबाइल नंबर- 9672869385

नाटक, कहानी, कविता और जीवनानुभव पर 72 पुस्तकेंं हिन्दी और राजस्थानी में लिखी हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार संगीत नाट्य अकादमी का निर्देशन पुरस्कार, शम्भु शेखर सक्सैना, नगर विकास न्यास के टैस्सीटोरी अवार्ड से सम्मानित।

 

व्यंग्य  : गली गली हो साहित्य के ऑफिस

भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा का खासा इतिहास है। गुरु के बिना ज्ञान सम्भव नहीं, इस संस्कार में वर्तमान भारत का हर इन्सान पला और बड़ा हुआ है। खुद को भगवान से भी बड़ा बनाने का दोहा हर बच्चे को कण्ठस्थ है और बड़ों ने उसे अपने बाल्यकाल में सुना है। उसे फिर से आपको बताना सूरज को टॉर्च दिखाने जैसा होगा।
एकलव्य की गुरु महिमा अब भी पढ़ाई और सुनाई जाती। अर्जुन बड़े निशानेबाज गुरु से शिक्षा प्राप्त करके ही बने थे। गुरु हनुमान ने इस देश को अनेक पहलवान दिए। सचिन तेन्डुलकर, काम्बली, धोनी के गुरुओं का नाम भी इनके साथ स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ है। पण्डित रविशंकर, बिस्मिल्लाह खां आदि के शिष्यों को भी खूब प्रसिद्धि मिली। जाहिर है जब शिष्य प्रसिद्ध हुए तो नाम गुरुओं का भी हुआ।

लब्बोलुआब यह है कि गुरु को काम करते समय और बाद में शिष्य के मशहूर होने के समय, समान रूप से मान-सम्मान मिलता है। जब जीवन के अन्तिम काल में होते हैं गुरु और कुछ कर नहीं पाते तो उनकी पूजा शिष्य करते हैं, कराते हैं। शिष्यों के कारण आर्थिक सहयोग पाने वाले गुरु भी कम नहीं। अपने जीवन काल में भले ही अभाव झेलें हो पर योग्य शिष्य अन्तिम प्रहर में मालामाल कर जाते हैं। घरवाले भी तभी उनको श्रेष्ठ गुरु मानते हैं और अन्तत: मिलने वाले लाभ की वजह से गुरु सेवा करते हैं। गुरु को भी तभी अपने गुरुत्व का अहसास होता है और उनकी उम्र भी कुछ बढ़ जाती है। यह अटल सत्य है। ऐसा भी नहीं है कि सब शिष्य लायक हों, कुछ नालायक भी निकलते हैें जो सब कुछ सीखकर नाम कमाते हैं और बाद में कहते हैं कि उसने तो स्वयं अपने प्रयासों से सब सीखा है। अब गुरु की भी मजबूरी है, शिष्य बनाते समय कोई फॉर्म तो भराते नहीं। न ही उसकी रजिस्ट्री कराते हैें। ऐसे में कोई गुरु मानने से ही इन्कार कर दे तो उसका कुछ बिगाड़ा नहीं जा सकता।
नवाब साहब तो गुरु की महत्ता को अच्छी तरह समझते थे। उनके यहां भी उस्ताद परम्परा को काफी मान्यता मिली हुई है। अब भी उस्तादों के नाम से गायक, शायर पहचाने जाते हैं। शार्गिद की हर कामयाबी में उस्ताद का योगदान रहता है। हालांकि अपवाद यहां भी है, शार्गिद भी कई बार उस्ताद को भूलकर अपने को बड़ा मान लेते हैं।
पर यह तय है कि उर्दू शायरी में उस्ताद परम्परा का खासा महत्व है। नवाब साहब ने उर्दू शायरी का इतिहास पढ़ा था और वर्तमान देख ही रहे थे इसलिए उस्ताद के अस्तित्व को मान भी रहे थे। उस्ताद अपने शार्गिद के शेर की मरम्मत करते थे। जब तक शायर नहीं बन जाता शार्गिद तब तक उस्ताद का साथ नहीं छोड़ते थे। नवाब साहब को गुरु-शिष्य, उस्ताद-शार्गिद परम्परा में बड़ा विश्वास था।

जब भी कोई कवि मिलता तो उसे सबसे पहले गुरु का नाम पूछते। शायर मिलता तो उससे उसके उस्ताद का नाम जानते। इन सवालों को सुनने वाला जान जाता कि नवाब साहब खानदानी श्रोता हंै। एक जानकार ही गुरु, उस्ताद के बारे में पूछ सकता है। इस समय नवाब साहब भी खुद को बहुत गौरवान्वित महसूस करते थे। श्रोता को सम्मान देने का हिन्दी-उर्दू साहित्य में कोई रिवाज तो है नहीं। यही तो एक सम्मान है जो श्रोता को सुख देता है जब कोई इन्हें सुधि श्रोता कहता है। साहित्य में इन दिनों बहुतायत में आए लेखकों से नवाब साहब बड़े परेशान थे। हर कोई कवि, कहानीकार बनता जा रहा था। एक आयोजन में कम से कम आधा दर्जन तो नये रचनाकार मिल ही जाते थे। बेसिर पैर की बातों को रचना बता अपने को धीरे-धीरे एक लेखक के रूप में स्थापित भी कर लेते थे।

कभी पढ़ा नहीं, कभी सीखा नहीं और न कोई गुरु, फिर भी बन जाते हैं कलाकार। शब्दों की कोई व्यंजना नहीं जानते पर लिखकर कविता का व्याकरण खराब कर देते हैं। इस बात पर नवाब साहब कई बार बड़े रचनाकारों के सम्मुख अपना गुस्सा भी जाहिर कर चुके थे। पर मजबूरी थी, इन पर रोक का कोई जरिया ही नहीं था।
उस दिन बाजार में छद्मलाल मिल गए।
— अरे भाई नवाब, आजकल तो दिखाई ही नहीं देते।
— यहीं रहता हूं।
— मुझे तो नहीं दिखे।
— आपने आयोजन करना छोड़ दिया। आयोजन करते थे तब तो आपके बुलाने पर हाजरी देने आता ही था।
— आयोजन के लिए अब तो समय ही नहीं मिलता।
— क्यों, कोई दूसरा धन्धा शुरू कर दिया क्या?
— अब इस उम्र में दूसरा धन्धा तो सम्भव ही नहीं। एक बार साहित्य से जुड़ गये तो दूसरे काम के लायक ही नहीं रहते।

— आप साहित्य से कहां जुड़े। तीस साल की साहित्यिक सेवा में आपने पांच ही तो किताबें लिखी है। यूँ कहिये कि आयोजनों से जुड़ गए।
— वो भी तो साहित्य सेवा ही है।
— जी नहीं, वो तो आपकी कमाई का जरिया था। कहीं से अनुदान लाते, आधा खर्च करते और आधा बचाते। पूरी रूचि लेकर आयोजन किये, वो भी शुद्ध फायदे का सौदा।
— तुम कुछ भी कह लो, सेवा तो साहित्य की ही हो रही थी।
— चलो छोड़ो, इस बहस में नहीं पड़ते। नया काम क्या शुरू किया, मुझे तो वह बताओ।
— मैंने एक ऑफिस खोल लिया है।
— साहित्य का ऑफिस, अरे वाह। यह तो दुनिया का पहला ऑफिस होगा। मैंने तो कहीं नहीं पढ़ा कि साहित्य का भी ऑफिस खुलता है। साहित्य अकादमियों के तो ऑफिस होते हैं पर ऐसा ऑफिस, कमाल है। तुम्हारा नाम तो गिनीज बुक में दर्ज होना चाहिए।
— तुम कुछ ज्यादा ही कह रहे हो नवाब।
— अच्छा यह तो बताओ कि तुम ऑफिस में काम क्या करते हो?
— कोई नया लेखक अपनी पाण्डुलिपि लाता है तो उसे ठीक करने का काम करता हूं। गलतियां सुधारता हूं। वाक्य विन्यास शुद्ध करता हूं।
— मतलब तुम साहित्य के डॉक्टर हो गए हो। रोग ठीक करने वाले।
— नवाब…।
— किस विधा का साहित्य दुरूस्त करते हो?
— कोई विधा हो। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, डायरी, लघु कथा आदि जो नया लेखक लिखे, उसे ठीक करता हूं।
— ठीक करने की कीमत क्या तय की हुई है?
— हर पेज के पच्चीस रुपये।
— लोग देते हैं?
— जिनको लेखक बनना है तो देते ही हैं।
— ग्राहकी कैसी रहती है?
— भीड़ रहती है। लोगों को आजकल लेखक बनने का नशा है। उनसे जल्दी काम हो जाता है और प्रसिद्धि मिल जाती है। सडक़ छाप मजनूं बनकर भी नहीं घूमना पड़ता। महिलाओं से सम्पर्क हो जाता है क्योंकि महिलाओं में भी तो लेखिका-कवयित्री बनने की होड़ है।

इस बात को कहते समय उनके चेहरे पर रहस्यमयी मुस्कान थी क्योंकि उनके बारे में भी कुछ इस तरह की अफवाहें अर्से तक चलती रही थी। नवाब साहब को उसकी सत्यता या असत्यता से कोई सरोकार नहीं था। नवाब साहब ने अब धीरे से सवाल किया।

— किसी और के नाम से किताब लिखने का भी काम करते हो क्या?
— नो कमेण्ट।
— लोग अब भी इस तरह की बातें करते हैं, इसलिए पूछा। सुनते हैं उसके तो दाम भी बहुत मिल जाते हैं। एक लेखिका की हाल में पुस्तक आई थी, बताते हैं उस पर उसका तो केवल नाम ही था। बाकी कारीगरी तो तुम्हारी ही थी।
— कितनी बार कहूं नवाब, नो कमेण्ट।
— इस नो कमेण्ट से मुझे जवाब मिल गया।
छद्मलाल जी चुप हो गए। नवाब साहब की नजर अचानक उनकी वेशभूषा पर पड़ी, वो भी बदली हुई थी। पेण्ट के भीतर करीने से शर्ट और गले में लटकी हुई टाई। सुन्दर जूते और सुनहरी फ्रेम का नजर का चश्मा।
— अरे वाह, ऑफिस खोलते ही डे्रस बदल गई।
— अच्छा यार, जब साहित्य की खरीददारी वाले नहीं आते तो काम कैसे चलता है?
— मैं किसी की शादी का कार्ड बना देता हूं। पीएचडी करने वालों के शोध का काम भी करता हूं।
— हां, यह धन्धा तो पुराना है। कई लोग करते हैं। कम मेहनत और अच्छी आय। शोध में ऑरिजनल तो कम ही लिखना पड़ता है। इधर-उधर से उतारना ही पड़ता है।
— उसमें भी कम श्रम नहीं होता।
— दाम भी तो अधिक मिलते हैं। शोक पत्र भी लिख देते होओगे?
— बिलकुल। जब ऑफिस खोला है तो सब काम करना पड़ता है।
— धन्धा अच्छा खोल लिया। काश हर मौहल्ले में ऐसा एक ऑफिस खुले, चारों तरफ साहित्य ही साहित्य हो जाए। प्रकाशक कम पड़ जाए।
— बात तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी। इसी कारण श्रोता ही बने रहे, लेखक नहीं बन सके।
— तुम्हारे ऑफिस आऊंगा एक दिन, लेखक बन ही जाऊंगा।
— मैं तुम्हारा इन्तजार करूंगा। और हां, तुमसे रेट भी कम लूंगा। इतना कहकर छद्मलाल तो चले गए पर नवाब साहब के

दिमाग में एक कीड़ा छोड़ गए। वो सोचने लगे कि जिस दिन हर मौहल्ले में एक साहित्य का ऑफिस खुल जाएगा तो चारों तरफ साहित्य ही साहित्य होगा। लिखने वाला हर दूसरा व्यक्ति कवि होगा। अभी तो हर पांचवां व्यक्ति कवि है। जब किसी चीज के बुरे दिन आते हैं तो वह सस्ते भाव में और दुकानों पर बिकने लगती है। जय हो छद्मलाल की।

 

कविता  : खो गए न जाने कहां

खो गए न जाने कहां सब नाते- रिश्ते
      मां रह गई केवल दूध की धार
    पिता की भूमिका बस पालनहार
     दांपत्य बन गया विशुद्ध व्यापार
     दोस्ती औपचारिक शब्द व्यवहार
   रीत गया प्रेम कलश रिसते – रिसते
 खो गए न जाने कहां सब नाते -रिश्ते
उड़ गई भाइयों के बीच आत्मीयता
 बैरी बने परिजन बढ़ाकर लोलुपता
स्खलित हो गई पद से गुरु की गुरुता
बढ़ा छल- बल  दंभ और स्वार्थपरता
बुझ गया ज्ञानदीप सिसकते -सिसकते
 खो गए न जाने कहां सब नाते – रिश्ते

 

कविता  :   शायद

वह क्या है
 जो सादि – सांत मनुज को
 अनादि -अनंत से जोड़ती है
शास्त्र और ज्ञानी कहते हैं
आत्म चेतना ही
नश्वर – अनश्वर को जोड़ती है
चेतना की वह क्षणिक
तीव्र कौंध जागती तो है
पर तुरंत बिला जाती हैं
और हम अपने
कर्म भोग को दोहराते
पुनरावृतियों से बंधे
यंत्रवत आते – जाते हैं
चलो ! मन की देहरी पर
 ध्यान का दीप जलाएं
शायद चमक भीतर तक पहुंचे

 

डॉ. प्रमोद कुमार चमोली  मोबाइल नंबर- 9828600050

नाटक, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, स्मरण व शैक्षिक नवाचारों पर आलेख लेखन व रंगकर्म जवाहर कला केन्द्र की लघु नाट्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान। अब तक दो कृतियां प्रकाशित हैं। नगर विकास न्यास का मैथिलीशरण गुप्त सम्मान

कुछ पढते.. कुछ लिखते…  (लॉकडाउन के दौरान लिखी गई डायरी के अंश)

 

मेरी डायरी  भाग 8

निस्वार्थ प्रेम ही भक्ति का मूल है

दिनांकः 10-04-2020

आज की सुबह कोई खास नहीं थी आम दिनों की तरह ही थी। रोजाना की तरह सभी काम चले। चाय पीने के साथ ही अखबार की सुर्खियों पर नजर डाली तो आज स्थितियाँ बहुत ही विकट प्राप्त हुई राजस्थान में एक साथ ८० नए रोगी आए। इनमें से ३९ रोगी जयपुर शहर के थे। बीकानेर में कल कोई नया संक्रमित नहीं मिला। आज सरकार की तरफ से यह ऐलान किया गया कि बच्चों को बोर्ड कक्षाओं के अलावा अन्य कक्षाओं में बच्चों को अगली कक्षाओं में प्रमोट किया जाएगा। सभी निजी विद्यालय तीन माह की फीस नहीं लेंगे। आज एक खबर मनोबल तोड़ने वाली है। भारत में कोरोना से पहले डॉक्टर की मौत इंदौर में हुई है। एक आशाभरी खबर भी है कि बीकानेर के पीबीएम अस्पताल में भर्ती चुरू के ११ मरीजो में से पांच मरीजों पूर्णतया ठीक हो गए हैं और इन्हे छुट्टी दे दी गई है। आज दैनिक भास्कर बीकानेर में च्डायरी खामोश शहर में डर का शोरज् के तहत मुकेश व्यास जी की डायरी च्यही संकल्प हो हमारा….इस विकट दौर में संसाधनों का उपयोग संयम से करेंगेज्ज् शीर्षक से प्रकाशित हुई है। मुकेश भाई मेरे साथ ही ऑफिस में हैं। शिविरा पत्रिका का कार्य देखते हैं। कविता पर बहुत अच्छी समझ रखने वाले हैं। पुराने समय से कविता लिख रहें हैं पर भाई का आलसीपन ही है कि अभी तक एक भी किताब प्रकाशित नहीं हुई है। मेरा उनसे हमेशा इसी बात का उलाहना रहता है। बहरहाल आज सुबह ही उनसे बात की थी और कहा था कि इस कोरोना काल में अपनी रचनाआंे को इकठ्ठा करलो ताकि इसके बाद आपकी किताब प्रकाशित करवाई जा सके। देखो, आगे क्या होता है? वैसे, इस मामले में वे उम्मीद कई बार तोड़ चुके हैं। फिर भी उम्मीद रखी जा सकती है।   आखातीज पर शादियों का अबूझ सावा होता है। कोरोना के चलते जिनके शादी तय थी वे परेशानी में आ गए हैं। किसी के कार्ड छपे हुए प्रेस में रह गए। मैरिज हॉलों से लोग रिफंड ले रहे हैं। कोरोना के इस समय में शादियां होनी असंभव सी लग रही है। ऐसा महसूस होता है कि कोरोना के बाद भी सब सामान्य होना मुश्किल है। विश्व में कई परिर्वतन आने वाले हैं। बहरहाल सोचने की बात यह है कि कोरोना के पश्चात विश्व में क्या परिवर्तन आने वाले हैं। यदि इसकी वैक्सिन नहीं बनी तो क्या होगा? हमारी आदतों में परिवर्तन होना आवश्यक सा लगता है। एक बात जो शिद्दत से महसुस कर रहा हूँ कि हाथ धोने के मामले में कोरोना ने काफी सीरियस कर दिया है। इसके साथ ही एक बात और है कि हमारी शिक्षा में परिवर्तन करने पड़गे। ऑनलाईन प्लेटफॉर्म पर सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं को लाना होगा। लेकिन इससे शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ेगी या नहीं यह अलग मुद्दा। दरअस्ल होता है यह कि शिक्षा की गुणवत्ता को अक्सर बच्चों के अच्छे नम्बर लेकर पास होने से जोड़ दिया जाता है। जबकि शिक्षा की गुणवत्ता इससे कहीं अधिक होती है। प्रत्येक लिए शिक्षा की सुलभता और प्रत्येक को अपनी पेस के अनुसार सीखने की आजादी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से जुड़ी है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा परीक्षा पास करने हेतु केवल जानने से इतर सीखने पर बल देती है। बहरहाल इस पर बहुत लंबी चर्चा की जा सकती है।  गीता के बारहवें अध्याय भक्ति योग कहलाता है। डॉ. राधाकृष्णन ने इसका शीर्षक थोड़ा खोलकर दिया है च्व्यक्तिम भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा अधिक अच्छी है।ज् यहाँ यह कह दें कि इस अध्याय में यही बात कही गई है। इस अध्याय में कुल २० श्लोक हैं। प्रथम श्लोक के माध्यम से अर्जुन भगवान से प्रश्न करते हैं कि-
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।।  हे भगवन! जो विधि आपने बतायी है उसी विधि के अनुसार अनन्य भक्ति से आपकी शरण होकर आपके सगुण-साकार रूप की निरन्तर पूजा-आराधना करते हैं, अन्य जो आपकी शरण न होकर अपने भरोसे आपके निर्गुण-निराकार रूप की पूजा-आराधना करते हैं, इन दोनों प्रकार के योगियों में किसे अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माना जाय? यानी व्यक्तिक ईश्वर और अनश्वर तथा अव्यक्त ईश्वर की उपासना करने वालों योग का ज्ञान किसको है। यहां इसे सगुण और निर्गुण ईश्वर के बारे में भी समझा जा सकता है।  भगवान अर्जुन की शंका का निवारण करते हुए कहते हैं कि श्रद्धापूर्वक अपने चित को स्थिर रखकर उपासना करने वालों को मैं योग में पूर्ण समझता हूँ। अनश्वर, अनिर्वचनीय, अचिन्तनीय, अपरिवर्तनशील, अचल और नित्य की उपासना करते हुए, इन्द्रियों को वश में रखने वाले समानचित्त लोग भी मुझको प्राप्त करते हैं। अव्यक्त को प्राप्त करना देहधारियों के लिए कठिन है। जो लोग अपने सब कर्मों को मुझे अर्पित करके मुझमें ध्यान लगाते हैं। वे भी संसार सागर से मुक्त हो जाते हैं।  हे अर्जुन तू अपना मन मुझ में लगा अपनी बुद्धि मुझमें लगा इससे तू मुझमें निवास करने लगेगा। अपने चित को स्थिरता पूर्वक मुझमें लगाने में असमर्थ है तू अभ्यास योग द्वारा मुझ तक पहुँच। यदि तू अभ्यास योग द्वारा भी मुझ तक नहीं पहुँच सकता तो मेरे लिए कर्म करता हुआ पूर्णता को प्राप्त कर लेगा। यदि तू इतना भी नहीं कर सकता तो अनुशासित विधि योग की शरण ले और अपने आप को वश में करके सब कर्मों से फल की इच्छा त्याग दे। इस प्रकार भगवान समझाते है कि-श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।। बिना समझे मन को स्थिर करने के अभ्यास से ज्ञान का श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ समझा जाता है और ध्यान से सभी कर्मों के फलों का त्याग श्रेष्ठ है, त्याग से शीघ्र ही परम-शान्ति की प्राप्त होती है। आगे के श्लोकों में भगवान अर्जुन को सच्चे भक्त के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि अर्जुन जिसमें द्वेष नहीं है। जो सबका मित्र है। सबके प्रति सहानुभूति रखता है। अंहकार और ममता से रहित, सुख-दुःख में सम और धैर्यवान रहता है वह मुझे प्रिय है। योगी सदा संतुष्ट रह कर अपने आप को वश में रखता है, जो दृढनिश्चयी है और अपने मन तथा बुद्धि को मुझे अर्पित करने वाला मुझे प्रिय है।  आनंद, क्रोध मन के उद्वेग से रहित, आशा रहित, शुद्ध और कर्मकुशल, निरपेक्ष, कर्मफल की चाह से मुक्त जो न तो प्रसन्नता और द्वेष से रहित मुझे प्रिय है। जिसके लिए शत्रु और मित्र समान हो, जो मान-अपमान के प्रति सम हो। जो समस्त भौतिक तापों से आसक्ति रहित और निरपेक्ष हो। जिसे निंदा और प्रशंसा में सम हो, जो मौन है, संतुष्ट है, जिसकी बुद्धि स्थिर है वह मुझे प्रिय है।  भगवान अर्जुन को अपने प्रिय होने के मायने से भक्त के लक्षणों को बताते हुए अंत में कहते हैं कि-ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।। जो मनुष्य इस पूर्ण श्रद्धा के साथ मुझे अपना सर्वोच्च रूप मानते हुए। मेरी शरण ग्रहण किये रहते हैं। ऐसी भक्ति में स्थित भक्त मुझको अत्यधिक प्रिय होता हैं।ं यहाँ समझ में यह आता है कि जब हम वस्तुओं में परमात्मा के अंश को देखने लगें। ये समझने लगें कि सभी में उसकी व्याप्ति है। तब समचितता, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं से मुक्ति से हमारे सम्पूर्ण स्वाभाव का समर्पण उस परमात्मा की तरफ हो जाए तो प्रेमभाव उत्पन्न हो जाता है। जब ये गुण प्रकट हो जाते हैं, तब हमारी भक्ति पूर्ण हो जाती है। इस प्रकार समस्त विकारों से मुक्त हो अपने आप को संसार सेवा के लिए अर्पित कर दे ंतो यही परमात्मा के प्रति अर्पण भी होगा। दरअस्ल भक्ति के मायनों को समझना जरूरी है।  इसे पढ़कर इतना तो कहा जा सकता है कि भक्ति के मूल में प्रेम है। वैसे प्रेम व्यक्ति का आधारभूत संवेग है। वह प्रेम करता है, वह अपनो से, अपनी चीजों से प्रेम करता है। दरअस्ल प्रेम का यह आधाभूत संवेग स्वार्थपरता से लिप्त होता है। इसके कारण ंही भय, घृणा अथवा शोक उत्पन्न होता है। इन सब के डर से भले ही हम घंटो पूजा करते रहें , इबादत करते रहें, वह भक्ति नहीं है। भक्ति के मूल में जो प्रेम है वह प्रेम निस्वार्थ प्रेम है। इस निस्वार्थ प्रेम के लिए चित्त की निर्मलता अनिवार्य है। इससे ही आत्मसंयम, अहिंसा, ईमानदारी, निश्छलता आदि गुणों की की प्राप्ति हो सकती है। इसके लिए प्रेम में अगाध श्रद्धा की आवश्यकता होती है। प्रारम्भिक अवस्था में इसके लिए किसी कल्पित आलम्बन की आवश्यकता हो सकती है लेकिन धीरे-धीरे उस निर्मलता की ओर बढ़ा जा सकता है, जहाँ वह चहुँ ओर परमात्मा की व्याप्ति देख सके और अपने मन में समचितता और समदृष्टि पैदा कर सके। आज की परिस्थितियों के कारण जो स्थितियाँ बनी हैं। वहाँ सब एक जगह खड़े हैं। पैसेे और पद के अंहकार को एक छोटे से जीव ने हिला दिया है। ऐसे में प्राणीमात्र की निस्वार्थ सेवा को उठे हाथ परमात्मा के प्रति अपना अर्पण कर रहें हैं। बहरहाल ये जीवन का मंत्र भी होना चाहिए। ऐसे बहुत से लोगों को देखा है जो चुपचाप किसी की मदद कर जाते हैं। कोई हो हल्ला नहीं करते उन्हें गीता के इस ज्ञान का आभास है या नहीं ये तो मालूम नहीं पर ऐसे लोग गीता का प्रैक्टिकल प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हैं। बशर्ते उनके मन में कोई लाभ-हानि की भावना नहीं हो। गीता यही कहती है कि बिना स्वार्थ के, बिना फल की चाहत के कर्म करना श्रेष्ठ है। यह भी परमात्मा तक पहुँचने का जरिया भी है। आज तय था कि सत्याग्रह की संस्कृति पुस्तक को पढ़ना है लेकिन पढ़ नहीं पाया। इधर-उधर की बातों में रह जाना और गीता को पढ़ते-पढ़ते खो जाना इसका कारण रहा। रात को कोराना काल के लिए निर्धारित कार्य डॉ. कौशल ओहरी से बात की। जयपुर में ज्यादा केस आने से वह हमारी तिकड़ी के तीसरे मित्र डॉ. हेमेन्द्र के लिए चिंतित है पर मैं अभी पहले उससे बात कर चुका था। मैंने उसे बताया कि वह ठीक है। बातें चलती रहीं, बातें कब खत्म होती हैं। आज तो पुराने दिनों की याद आ गई। एक-दूसरे की बाते बता -बता कर हँसते रहे। आज ऐसा लगा कि बहुत दिनों बाद हँस रहे हैं।

ऋतु शर्मा  :  मोबाइल नंबर- 9950264350

हिन्दी व राजस्थानी में समान रूप से कविता-कहानी लिखती हैं। हिंदी व राजस्थानी में चार किताबों का प्रकाशन। सरला देवी स्मृति व कर्णधार सम्मान से सम्मानित

लिखने का तरीका ही रचनाकार को अपनी पहचान देता है -डॉक्टर सुलक्षणा दत्ता राजवंशी

डॉ सुलक्षणा राजवंशी दत्ता बीकानेर में ही जन्मी, पली-बढ़ी और यही एस पी एम सी से मेडिकल की पढ़ाई कर डॉक्टर बनी। आप अपर मुख्य चिकित्सा अधीक्षक ( उ .प. रेलवे ) बीकानेर से सेवानिवृत्त हंै।
मेडिकल कॉलेज की कल्चरल सेक्रेटरी भी रही तथा बाद में बहुत वर्षों तक रेलवे की कल्चरल अधिकारी रही। लेखन का शौक बचपन से था। आपके पिता स्व.कामेश्वर दयाल राजवंशी ‘हजी’ मशहूर शायर थे। लेखन का गुण आपको पिता से विरासत में मिला। कथाएं व कुछ कथाएं कादम्बिनी, तत्सम, अमर उजाला, आज का नोएडा, वीमेंस इरा आदि में प्रकाशित हुईं।
आपके तीन काव्य संग्रह है-
‘खुली किताब’ ‘भोडल भरी चुनरिया तथा’ हीलियस के प्रेम में ।
आप आजकल एयरफ़ोर्स में (LMO) के पद पर कार्यरत हैं। प्रस्तुत है कवयित्री-कहानीकार कथाकार ऋतु शर्मा द्वारा ‘लॉयन एक्सप्रेस’ के साहित्य परिशिष्ट ‘कथारंग’ के लिए डॉ . सुलक्षणा राजवंशी दत्ता से की गयी बातचीत के अंश

प्रश्न 1. साहित्य में आपके प्रेरक कौन रहे?

उत्तर – मेरे पिता कामेश्वर दयाल राजवंशी ‘हजीं’ शायर थे। उन दिनों गजल का जमाना था। घरों में महफिलें जमती थीं, मेरे पिता मेरे लेखन की प्रेरणा बने। प्रारंभिक दिनों में छोटे-छोटे गीत लिखे, जो तुकांत होते थे। पापा ने उन गीतों को एप्रीसियेट किया, लेकिन एमबीबीएस की पढ़ाई के कारण सब छूट गया। फिर मेरी पहली किताब ‘खुली किताब’ प्रकाशित हुई। डॉ.नंदकिशोर आचार्य को मैं अपना गुरु मानती हूं। उन्होंने मुझे तुकांत के स्थान पर अतुकांत लिखने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने रशियन लेखिकाओं के संदर्भ देते हुए मुझे कहा कि स्त्री की तरह लिखो। उनकी इस सीख के बाद मेरे लेखन की धारा बदल गई। मेरे लिये यह गर्व की बात है कि उन्होंने मेरी किताब का न सिर्फ लोकार्पण किया बल्कि मेरे दो कविताएं भी पढक़र सुनाई।

प्रश्न 2.  आपकी रचना प्रक्रिया क्या है और आपकी प्रिय विधा कौनसी है?

उत्तर – मैंने कभी भी पुस्तक को बिकने के लिए प्रकाशित नहीं करवाया। मुझे लिखने की जल्दबाजी भी कभी नहीं रही। बहुत सारी कहानियां आज भी आधी पड़ी हैं। पूरी करने की जल्दबाजी भी नहीं है, क्योंकि किताब बिकवानी तो है नहीं। हालांकि डायरी मेरी प्रिय विधा है। अतुकांत कविताएं और गजलें भी लिख रही हूं। लेखन मनोभाव पर डिपेंड करता है कि आप क्या लिख पाओगे। अंदर कुछ अच्छा नहीं तो अच्छा लिख नहीं पाओगे। बहुत सारी कहानियां तो इसलिए अधूरी है क्योंकि समय के साथ लेखन का तालमेल नहीं बैठ पाता। एक बार छूट जाती है तो महीनों तक मूड नहीं बन पाता, कहानी पूरी नहीं होती। एक बार तारतम्य टूटता है, उसे जोडऩे में गांठ लग जाती है। यह गांठ समझदार पाठक या साहित्यकार को समझ आ जाती है। मेरा लेखन का समय फिक्स नहीं होता। अस्पताल में समय मिलता है तो अतुकांत कविता बन जाती है। इस कोरोना काल में तो लिखने का मन होते हुए भी नहीं लिखा जा रहा है। फिर मेरे लिए मेरा प्रोफेशन पहले है और पैशन बाद में। पहले एक डॉक्टर के रूप में मेरे मरीज को स्वस्थ करना मेरी प्राथमिकता में शामिल है।

प्रश्न 3.  आप एक साहित्यकार भी हैं तो चिकित्सक भी, आपके सामने तो किरदार

उत्तर – चलकर आते हैं, क्या ये आपकी रचनाओं में भी स्थान बना पाते हैं?
एक डॉक्टर होने की वजह से मेरे पास ऐसे कई मरीज आते हैं, जो मुझे कहानी का प्लाट दे जाते हैं। मेरा प्रोफेशन संवेदनाओं से जुड़ा है। कई बार ऐसे किरदार सामने होते हैं। कई बार तो मैं अपने पति से भी शेयर करती हूं। कई बार ऐसा होता है कि किसी मरीज को देखकर लगता है कि ऐसा होगा, फिर वैसा हो भी जाता है। लेकिन देखकर मैं कविताएं नहीं लिख सकती, यह भाव आने पर ही संभव है।
समय के अभाव के चलते मैंने ज्यादातर नहीं पढ़ा है। मेरा यह भी मानना है कि जिसको ज्यादा पढ़ते हो, उसके जैसा होने की कोशिश करते हो। बायस्ड हो जाते हो। मंटो को पढ़ोगे तो वैसे ही लिखने की कोशिश करते हो। प्रभाव आएगा। मौलिकता नहीं रहेगी। खासतौर से स्थापित लेखक को लगातार पढ़ रहे हैं तो प्रभाव आए बगैर नहीं रहेगा। जैसे मुंशी प्रेमचंद को ज्यादा पढ़ोगे तो उसका प्रभाव आएगा। बड़े लेखक आपकी मौलिकता को लील लेते हैं।
समाज हम सभी एक ही स्तर पर चल रहे हैं। संवेदनाएं भी एक जैसी है, लेकिन लिखने का तरीका अलग है। यह होना भी चाहिए, लिखने का तरीका ही रचनाकार को अपनी पहचान देता है लेकिन यह भी देखा जा रहा है कि चुराया जा रहा है। इधर-उधर से उठाकर भी कहानियां बनती है। लिखने वाले इस कदर लिख रहे हैं कि आए दस दिन में लिख रहे हैं, तो क्या उनके अंदर प्रिंटिंग प्रेस लगी हुई है? मुझे नहीं लगता है कि इतने भाव आ सकते हैं। या तो आप इतना भरे हुए हैं कि आप को समझ नहीं आ रहा है। किस बात के लिए इतना लेखन किया जा रहा है? साहित्यकारों को प्रणाम करते हुए कह रही हूं कि साहित्य भी यहीं छूट जाना है। बच्चों के बच्चे अवार्ड भी जलाकर फेंक देते हैं। पुरखों की चीज को संभालने वाले हैं ही कितने। फिर किसलिये इतना लिखना और क्यों?

प्रश्न 4. आपके कहने का मतलब है कि साहित्यकार का सम्मान नहीं है?

उत्तर – जहां से वोट मिलते हैं, सिर्फ उन्हीं की चीजों का सम्मान हैं। साहित्यकारों की चीजें कहां संग्रहित हो रही है। मेरा समाज से सवाल है। यह सम्मान मिलेगा तो मानिये कि साहित्य लिखा जा रहा है। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा। नहीं हो रहा है तो पुस्तकें कचरा-कबाड़ बढ़ाने के अलावा क्या कर रही हैं। चार रुपये में भी साहित्य मिल रहा है।  फिर सच्चाई तो यह है कि हम साहित्यकार हैं भी नहीं। फुटकर लिखने वाले लोग हैं। स्वाभिमान, ऐंठ ऐसी है कि दूसरों को तवज्जो नहीं देते। कंबल ओढ लिये। खेस ओढ लिये। अवार्डस ले लिये, लेकिन घर में तो पूछ ही नहीं है।

प्रश्न 5.  वर्तमान में बोल्ड लेखन के लिए आपका क्या कहना है?

उत्तर – लिखना बुरा नहीं है। लेकिन शब्दों का एक झीना-सा पर्दा होता है। अगर आपकी मानसिकता विकृत है कि प्रताडि़त हैं, कहीं भद्दापन है तेा वह आपके लेखन में आएगा। एक पर्दा जरूरी है। वर्तमान लेखन पर यह लागू होती है। पहले पुरुष चाहते थे कि महिलाएं आगे नहीं आएं। अब नारियों की प्रतिस्पर्धा नारियों से है कि तुम हमारे कपड़े क्या उतारकर दिखाओगे, हम ही उतार देते हैं। एक समय था जब समाज की दशा सुधारने के लिए लिखा जाता था। आज दशा बिगाडऩे के लिए लिखा जाता है। पहले यह तय करना होगा कि आप सुधारने के लिए लिख रहे हैं या बिगाडऩे के लिए।

प्रश्न 6.  स्त्री लेखन को उसके व्यक्तिगत जीवन से जोडक़र देखा जाता है, क्या यह सही है?

उत्तर – किसी चरित्र को आपने लिखा है तो बगैर जाने-समझे तो लिखा ही नहीं होगा। इतना कुछ तो स्वयं को बारे में ही जाना जा सकता है। दस-पंद्रह परसेंट तो होगा ही। सोचने वाला गलत नहीं सोचता। किसी भी किरदार को रचते हुए कुछ तो अंश अपने अनुभव का डालोगे ही। जोडऩे वाले गलत नहीं जोड़ते। देखने वाले भी आपको बरसों से देख रहे हैं। जब जानते हैं तो वे यह भी जानते हैं कि आप किस तरह की महिला हैं। पात्र में आप स्वयं कहीं न कहीं तो होती ही हैं। पूरी तरह से कल्पना नहीं होती, कहीं न कहीं हम खुद होते हैं, जिसे हम कह नहीं पाते। जीवन का आखिरी पन्ना कोई और लिखे तो जीवनी है। आखिरी पृष्ठ तो कोई और ही लिखेगा। आपके यह कहानी उसकी है। हम पात्र में होते हैं। हमारे साथ हमारी आपबीती लिखी ही जाती है। कुछ सच कुछ झूठ कुछ कल्पना। कई बार तो केंद्र बिंदु भी हम होते हैं। हंड्रेड परसेंट कल्पना नहीं हो सकती।

प्रश्न 7.  स्त्री-विमर्श के आप पक्ष में हैं या नहीं?

उत्तर – एक औरत औरत को बैटर समझती है, यह अलहदा है कि वह कभी उसकी अच्छी फ्रेंड नहीं हो सकती। रिश्तों में भी ऐसा होता है। मां-बेटी की बात अलग है। इनके अलावा किसी का संबंध बनाना हो तो भाई अच्छा दोस्त हो सकता है, बहन से नहीं। मेरा यह मानना है कि स्त्री विमर्श निहायत ही बकवास चीज है। समाज तरक्की कर रहा है। बच्चियां पढ़ रहीं हैं। स्थापित हो चुकीे हैं। अब क्या तो विमर्श। स्त्री-विमर्श बेचारगी दिखाना है। बराबरी का हक तो कब का मिल गया है। बहुत सारे मायनों में स्त्री कमा रही है, पुरुष घर पर है। विमर्श की आवश्यकता नहीं है।  ज्यादा विमर्श किया तो डाउन फाल होगा। ज्यादा विमर्श करेंगे तो घूंघट में चले जाओगे।
प्रश्न 8.  क्या साहित्यकार को समाज में सम्मान मिलता है?

उत्तर – साहित्यकार को समाज में सम्मान में मिलता नहीं है, यह दिखावा है। शॉल ओढ़ाकर सम्मान सिर्फ दिखावा है। लोग जानते ही नहीं हैं कि साहित्यकार है कौन। आप बड़े-बड़े नाम उठा लीजिये। मुंशी प्रेमचंद को क्या मिला था। सम्मान और समारोह। रुपये-पैसे। आज ले रहे हैं, कल लौटा रहे हैं। ऐसा करते हुए साहित्यकार लोगों की नजर में ही गिर रहा है। माध्यम बहुत हो चुके हैं तो किताब का नंबर मुश्किल से लगता है। लोगों के हाथ में मोबाइल है तो किताब कैसे होगी। आज का बच्चा किताब पढऩे के लिए मांगता। हमारा जमाना अलग था किताब चाहिए थी, क्योंकि मोबाइल नहीं था। वो दिन लद गये हैं।

प्रश्न 9.  साहित्य के क्षेत्र में दिये जाने वाले पुरस्कार भी विवादों में रहते हैं, आप की क्या राय है?

उत्तर – साहित्यक पुरस्कार बंद हो जाने चाहिए। अवार्ड देकर मुंह पर ताला लगाने की बात है। प्रतिस्पर्धा की भावना बढ़ती है। बहुत अच्छा लिख लो, पाठक चाहें हों, अगर पहुंच नहीं हो तो अवार्ड नहीं मिलेगा, लेकिन मेरी नजर में किसी साहित्यकार का सम्मान पाठकों का होना है। कोई पढ़ा जा रहा है तो यह सबसे बड़ा सम्मान है। सम्मान की बजाय सरकार को चाहिए कि साहित्य व साहित्यकारों का धन रखे। सरकार ने कमेटियां बनाकर छोड़ दी हंै, इससे भाई-भतीजावाद बढ़ रहा है। ऐसा नहीं है कि लिखने वाले बहुत अच्छे हैं, लेकिन पढऩे और समझने वाले कितने हैं, यह देखिये। फिर साहित्यकारों ने भाषा को क्लिस्ट कर दिया है। आम आदमी को समझ ही नहीं पाए। आप आम आदमी के राइटर ही नहीं हैं तो कौन पढ़ेगा।

प्रश्न 10 .  साहित्य से बच्चों को जोडऩे के लिए क्या करना होगा?

उत्तर – लेखकों को थोड़ा-बहुत यह सोचना चाहिए कि आज का बच्चा क्या चाहता है। कथानक क्या है। आधार क्या है। अगर सौ साल पहले की बात लिखते हो तो वह छोड देगा। रोमांच हो। साइंस फिक्शन डाल देंगे तो वह पढ़ेगा। फिर शायद छोटा-मोटा कुछ और भी पढ़ेगा। बच्चे अकसर बादाम नहीं खायेगा, लेकिन रोटी में डालकर खिलाओगे तो वह खा लेगा। बच्चे के पास दिमाग तो एक ही है। वह या तो साहित्य पढ़ेगा या कैरियर संवारने के प्रयास करेगा या वह आपसे नाराज हो जाएगा। उसे प्रेरित करें, लेकिन दबाव नहीं बनाया जाना चाहिए। रुचि हो तो पढ़ लेगा। जरूरी नहीं कि साहित्य ही पढ़े। पेंटिंग भी करे, लेकिन यह सब टाइमपास जैसा ही हो। जब हममें अरुचि है तो बच्चों में तो अरुचि होगी ही।

प्रश्न 11. समाज को कोई संदेश ?

उत्तर – अपने देश को मां की तरह सींचो। बच्चे की तरह से उम्मीद मत करो। समाज को मैं क्या दे सकता हूं, यह मत सोचो कि समाज क्या दे सकता है। हमें उऋण होना होता है। हम पर समाज का भी ऋण है। समाज को देकर जाइये, लेकर मत जाइये।  वो लिखा जो आप दे रहे हो। देना बहुत मुश्किल काम है। खुला लिखो, लेकिन पर्दे में लिखो। समाज की बुराई भी लिखनी है तो पर्दे में है। कोई भी इंसान सौ प्रतिशन खरा, सौ प्रतिशत सच्चा नहीं है।

 

इंक़लाबी शाइर मुहम्मद इब्राहिम गाज़ी ….

पैदाइश -1918,  वफ़ात – 2001

– सीमा भाटी,  मोबाइल नंबर- 9414020707

उर्दू रचनाकार सीमा भाटी का राजस्थानी, उर्दू ,हिंदी तीनों भाषा में समान लेखन। आपका कहांनी संग्रह, कविता संग्रह, और एक राजस्थानी उपन्यास भी आ चुका है। इन्हें राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर का प्रतिष्ठित अल्लामा इक़बाल अवार्ड 2017 उर्दू साहित्य में मिला।

जंग ए आज़ादी के बाद की उर्दू शाइरी पर नज़रे सानी की जाये, तो अदब की दुनिया में बहुत सी अज़ीम शख़्सियात ने उर्दू शाइरी को परवान पर चढ़ाया था, उसके साथ ही उसे संवारने और सजाने में बीकानेर के मारूफ़ शाइरों की एक तवील फ़ेहरिस्त है जो आज भी मुसलसल जारी है । उन्हीं शोअरा हज़रात में आसमाने अदब पर अपनी पूरी आबो-ताब के साथ जो शख़्सियत चमकती और दमकती नज़र आई उस शख़्सियत का नाम मुहम्मद इब्राहिम तख़ल्लुस गाज़ी था। उनका शुमार बीकानेर के नज़्म गो शाइरों में होता था| गाज़ी साहब की नज़्मों में हुस्न व इश्क़ के नज़ारे नही बल्कि बग़ावत के अँगारे थे। नज़्म गोई में उनका तुर्रा -ए – इम्तियाज़ था। गाज़ी ने 1935 में मैदान – शाइरी में क़दम रखा जो 1947 में भी डटे रहे। मुल्क़ की तक़सीम ने गाज़ी साहब को शाइरी की तरफ़ माइल किया । तभी उन्होंने अपनी पहली नज़्म “हैफ़ -ए -हिंदुस्तान लिखी। 50, 60 बरसों में होने वाले तमाम वाक़यात गाज़ी साहब को मुतासिर करते रहे और वो उन मौक़ों पर अपनी नज़्म कहते रहे।
जनाब मुहम्मद इब्राहिम गाज़ी बीकानेरी 82 साल की उम्र तक शे’रों अदब की शमा रोशन करते रहे।
गाज़ी बीकानेरी 20 अगस्त 1918 को बीकानेर में पैदा हुए। गाज़ी साहब ज़ात से सिपाही थे। आपके दादा के नाम पर दीनसर गांव भी बसा हुआ था। जिसकी नम्बर दारी उनके वालिद फ़ाज़िल खां के ज़माने तक उनके ख़ानदान से जुडी रही थी। कई राज्यों के इलाक़ों में खानदानों की नम्बरदारी का रिवाज़ आज भी क़ायम है मिसाल के तौर पर हरियाणा मेवात वग़ैरह में ।आपके वालिद साहब एक मेहनतकश तबक़े से ताल्लुक़ रखते थे मगर गाज़ी साहब के हाथ घर की बागडोर आते आते घर की माली हालात अच्छी नही रही, इसलिए तालीम के सिलसिला जारी रखना भी दुशवार हो गया। मगर बचपन से आपका आना जाना हाज़ी मुहम्मद अब्दुला ‘बेदिल’ साहब के यहाँ था ,इसलिए हमेशा आपको बेदिल साहब की शफ़क़त हासिल हुई। आपका ज़्यादा तर वक़्त बेदिल मंज़िल में गुज़रता। बेदिल साहब और उनकी अहलिया ने अपनी औलाद की तरह आपकी देखभाल की और तालीम तरबियत का पूरा ख़याल रखा। हालात नासाज़गार होने की वजह से बेदिल साहब ने कई बार आपकी स्कूल की फीस भी भरी थी। बेदिल साहब का घर उस वक़्त इल्म व अदब का मरकज़ था।उस शैरी और अदबी माहौल से ही गाज़ी साहब ने इक़तसाबे फ़ैज़ किया और मुतासिर हुए | बेदिल साहब को अपना रहबर मानते थे । और उनसे ही शाइरी का शऊर सीखा जो ख़ुद एक ग़ालिब शाइर थे ,साथ ही उर्दू फ़ारसी सादुल हाई स्कूल बीकानेर के हैड मौलवी जनाब बादशाह हुसैन राना से पढ़ी। बीकानेर रियासत के सिपाही समाज में मेट्रिक पास करने वाले पहले शख़्स का आपको इम्तियाज़ हासिल था। गाज़ी साहब का मेट्रिक पास करना सिपाही समाज के लिए मील का पत्थर साबित होने जैसा था क्यूंकि उसके बाद तालीम के हवाले से इस समाज में ज़बरदस्त इंक़लाब आया, इसका पूरा श्रेय गाज़ी साहब और उनके वालिद साहब को जाता है।
गाज़ी साहब बुनियादी तौर पर नज़्म गो शाइर ही थे जैसा कि मैने पहले भी कहा है गाज़ी साहब की नज़्में मज़हबी तफरीक़ से दूर हिन्दू मुसलमान भाईचारे की आईना पेश करती थी। उनके कलाम में समाजी, सियासी, अख़लाक़ी, मुआसरती मौज़ूआत की अकासी बड़े ही दिलनशीं अंदाज़ में करती नज़र आती है | फ़ितरी सलाहियत और फ़ितरी जज़्बात ने उनकी शाइरी को संवारा है इसलिए उनकी शाइरी में आमद और हक़ीक़त व सदाक़त का अहसास होता है। कुहन मश्क़ और पुख़्तगी उनके कलाम से अयाँ होती थी। जैसा कि कहा गया है कि अपने दौर के हालात, वाक़यात, हादसात, और तास्सुरात पर तब्सरा करना शाइर का अहम फ़र्ज़ होता है क्यूंकि वो भी एक इंसान होता है जो अपने गरदो पेश के हालात से मुतासिर होता है यहाँ ये बात भी वाजेह होती है कि शाइर ज़्यादा हसास दिल होता है और इज़हारे जज़्बात के वसीले पर क़ुदरत रखता है और उसी वजह से वो अपने रहबरी के फ़राइज़ अदा करता है। क्यूंकि उसका शऊर ही ज़्यादा बेदार और तरक़्क़ी याफ्ता होता है और गाज़ी साहब इस कसौटी पर हमेशा खरे उतरे हैं। गाज़ी साहब की नज़्मों में हक़ गोई और सदाक़त मलहूज़ है। जो चाहे किसान हो या मज़दूर हो उनके लिए यक़सा आवाज़ उठाती महसूस होती है।
जहाँ गाज़ी साहब को ज़िन्दगी के थपेड़ों में हज़रत बेदिल का सहारा मिला, वहीं मैदाने शाइरी में उनके साहबज़ादे हज़रत मुहम्मद उस्मान आरिफ़ का साथ भी मिला। आरिफ़ साहब आपके अज़ीज़ दोस्त थे। वक़्तन आप उन से मशवरा सुख़न भी लेते थे। अक्सर किताबों में गाज़ी साहब को उस्मान आरिफ़ साहब का शागिर्द लिखा हुआ है जबकि आरिफ़ ने अपनी उस्तादी का कभी दावा नही किया। गाज़ी साहब को अपनी ज़िन्दगी में बहुत मुसीबतें और परेशानियों का सामना करना पड़ा था घऱेलू हालात की वजह से तालीम को बीच मे ही तर्क करना पड़ा और मुलाज़मत करनी पड़ी। पुख़्ता मुलाज़मात आपने 1940 में रेल्वे स्टेशन क्लर्क के तौर पर की और मुसलसल तरक़्क़ी करते हुए 1976 में ट्रेफिक इंस्पेक्टर के ओहदे से सुबुकदोश हुए। मुलाज़मत के दौरान आपको मुख़्तलिफ़ शहरों और क़स्बों में और दीगर मक़ामात पर रहने का मौक़ा मिला। उस दौरान आपने समाज के गरीब तबकों ,मज़दूरों और मज़लिमों के हालात बहुत क़रीब से देखे, उन पर हो रहे सरमायादारों के ज़ुल्म व सितम भी होते देखे। उन तमाम हालात की मंज़र कशी आपकी नज़्मों में साफ तौर पर दिखाई देती है। इसलिए गाज़ी साहब ने अपनी नज़्मों में गरीबों, किसानों, मज़दूरों की हिमायत की है और सरमाया दारों की जम कर मज़मत की है आप एक ऐसे समाज की बुनियाद रखना चाहते थे जहाँ सबको बराबर हक़ूक़ मिले।
उसके लिए आप इंक़लाबी रुख़ इख़्तियार रखते थे ऐसा रुख़ अपनाने में जोश मलीअ और अहसान दानिश को पढ़ना आपके लिए काफ़ी हद तक कारगर साबित हुआ। यही वजह है कि आपको बीकानेर का जोश मलीअ आबादी भी कहा जाता है।
‌मुलाज़मत मिलने के बाद आपने शाइरी को फिर से अपनी तवज्जो का मरकज़ बनाया और रिवाज़े ज़माने के मुताबिक़ ग़ज़ल गोई कि तरफ़ रुख़ किया। उस वक़्त उर्दू अदब में तरक़्क़ी पसंद तहरीक उरूज़ पर थी ,लेकिन गाज़ी साहब और बीकानेर दोनों पर उसके असरात नही हुए। यहाँ ये बात भी वाजेह करनी ज़रूरी कि गाज़ी साहब कभी किसी अदबी तहरीक से वाबस्ता नही रहे और ना ही किसी नज़रिये को अपना रहनुमा बनाया बल्कि अपने ज़मीर कि आवाज़ को ही शै’री आहंग में ढाला था। उनकी शाइरी में जो कुछ था वो उनके इंक़लाबी ज़ेहन और सुलगते अहसास का आइना था।
इसका सबूत ये शे’र ये ..

‌”इंक़लाब-ओ -गर्दिश- ए -दौरां का आईना हूँ मैं
जंग ए आज़ादी की एक तारीख़- ए- परीना हूँ मैं ”

सरमायादार, मोर्चे से ख़त, ग़ालिब को उर्दू का खिराजे अक़ीदत, सच और झूट, कुर्सी हुकूमत के पुर सितार संभल जा, कल क्या होने वाला है , इंतज़ारे इंक़लाब, भटका हुआ रही आपकी अहम नज़्में हैं। गाज़ी साहब ने मजाहिया कलाम भी लिखा। आपकी एक नज़्म “”बोल मलंगे हर हर गंगे , पेनों की जगह रखते कंगे बहुत मक़बूल हुई थी।

पाकिस्तान के भारत हमले के वक़्त ‘”ऐ हिंद तेरी ख़ातिर हम जान लड़ा देंगें ‘”जैसी नज़्में आज तक मक़बूल है।

यहाँ एक बात और क़ाबिले ग़ौर है कि उर्दू ज़बान में नेता जी सुभाष चंद्र बोस पर जगन्नाथ आज़ाद के बाद नज़्म लिखने वाले गाज़ी पहले शाइर थे गाजी साहब कि नज़्म की ये सबसे बड़ी ख़ुशुसियात होती थी कि वो अपने मज़मून को बेहतरीन तरीक़े से निभाती थी।
1993 में राजस्थान उर्दू अकादमी की तरफ़ से गाज़ी साहब को उनकी नज़्मों के लिए अवार्ड भी दिया गया। गाज़ी साहब को अपने मुल्क़ से बेइंतेहा मुहब्बत थी 1947 के हंगामा ए तक़सीम से बेहद रंजीदा होकर “हैफ़ ए हिंदुस्तान नज़्म लिखी …आप भी नज़र कीजिए …
” तेरे टुकड़े क्या हुए, क़िस्मत के टुकड़े हो गए …
हिन्दू मुस्लिम दो हुए, उल्फ़त के टुकड़े हो गए …
एकता सब मिट गई, कुव्वत के टुकड़े हो गए …
सच तो ये है, परचम -ए – अज़मत के टुकड़े हो गए।…”

गाज़ी साहब हमेशा ये ही चाहते थे कि दुनिया में अमन और शांति बनी रहे। आप गुरु गोविन्द सिंह, महावीर स्वामी, जवाहर लाल नेहरू, और सुभाष चंद्र बोस की शख़्सियत से बेहद मुतासिर थे। इसलिए आपकी तक़रीबन नज़्में इन्हीं शख्सियतों के इर्द गिर्द घूमती नज़र आती है। आपका मज़्मुआ कलाम ‘बरक़ व बारां ‘ के उनवान से 2001 में राजस्थान उर्दू अकेडमी जयपुर से शाया हुआ। इसी बरस 29 अगस्त 2001 में बीकानेर की सरज़मीन पर जन्मे इंक़लाबी शाइर गाज़ी का इंतेक़ाल हो गया।

आख़िर में मरहूम गाज़ी साहब के ही मशहूर शे’र के साथ पर्चे का इख़तताम करती हूँ …

“”सैंकड़ों तूफ़ान उठे हैं मेरी आग़ोश से ‘
ज़लजले जागे हैं मेरे नारा- ए -पुर जोश से ‘
मुल्क़ को मैने सिखाया है वफ़ाओं का चलन ‘
सफ़रोशों के सरों पे मैने बंधवाए कफ़न ‘
कौन हो सकता है ‘गाज़ी’ मर्द- ए-ग़ालिब का हरीफ़,
आज तक होने न पाया जिसका कोई हम रदीफ़…”

कवि-गीतकार निर्मल कुमार आज हैं ‘मुकम्मल इरशाद’ के मेहमान,  देखें वीडियो

लॉयन न्यूज़, बीकानेर। मधुर कण्ठों के मालिक कवि-गीतकार निर्मल कुमार शर्मा रेलवे में एडीआरएम हैं। स्वभाव से सरल और सौम्य शर्मा लेखन में भी सुकोमल भावों को उकेरते हैं। इन दिनों आप के लिखे और गाये गीतों का संस्कार चैनल पर भी प्रसारण हो रहा है।
लॉयन एक्सप्रेस के कार्यक्रम ‘मुकम्मल इरशाद’ में शायर इरशाद अज़ीज़ ने वरिष्ठ कवि व गीतकार निर्मल कुमार शर्मा से बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत