निवेदन  ‘लॉयन एक्सप्रेस ’ लगातार आपको खबरों से अपडेट कर रखा है। इस बीच हमनें यह भी प्रयास किया है कि साहित्य के रसिक पाठकों तक भी कुछ जानकारियां पहुंचे। इसी को देखते हुए ‘कथारंग ’ नाम से एक अंक शुरू कर रहे हैं। इस अंक में कविता, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार आदि का प्रकाशन किया जाएगा। आप से अनुरोध है कि इस अंक के लिए अपनी रचनाएं हमें प्रेषित करें। आप अपनी रचनाएं यूनिकोड में भेजें तो बेहतर होगा। साथ ही अपना परिचय और छायाचित्र भी भेजें। आप चाहें तो अपने मौलिक साहित्यिक रचनाओं की प्रस्तुति संबंधी अपने वीडियो भी हमें भेज सकते हैं।

इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए आप इस अंक के समन्वय-संपादक संजय शर्मा से संपर्क कर सकते हैं। मोबाइल नंबर 9414958700

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सरिता तिवाड़ी (पारीक)

लघुकथाएं कविताएं लिखती है ,साहित्य बीकानेर की अनेक पत्र पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित हुई है..। मंच संचालन भी करती है

लघुकथा : हाथ

रोहन मुझे कुछ नहीं सुनना ! या तो मम्मी पापा रहेंगे घर में या मैं ।

कल ही इन्हें वृद्धा आश्रम छोड़ आओ नहीं तो मैं मायके चली जाउंगी ……अंजू ने जोर से गुस्से में बोला ।

उनकी ये बातें उनका  12 वर्षीय बेटा पार्थ सुन रहा था।

रोहन…. अंजू तुम कैसी बातें कर रही हो ? जिन हाथों ने मुझे पाल पोसकर बड़ा किया । बचपन में जिन्होंने मुझे अपने हाथों से खिलाया,  हाथ पकड़ कर चलना सिखाया …

क्या उनका हाथ मैं अब बुढ़ापे में छोड़ दू ? जब उनको मेरी सबसे ज्यादा जरूरत हैं।

नहीं..! मैं ऐसा नहीं करूंगा ।

अंजू अपना समान पैक करते हुए ठीक है फिर रहो तुम ही इनके साथ । उनकी ये बातें रोहन के माता पिता ने सुन ली । और दोनो उनके कमरे में आये और बोले बहु तुम्हे कहीं जाने की जरूरत नहीं । हम तो यही चाहते हैं हमारे बेटे का घर में खुशियाँ रहे । हम लोग आज ही चले जायेंगे .. तुम चिंता मत करो।

रोहन … नहीं माँ ये गलत हैं

पिता जी … बेटा हमें गाड़ी से वहाँ तक छोड़ आना।

इतने में ही रोहन का बेटा पार्थ बोला ….

पापा पापा… आप जब दादा दादी को वृद्धा आश्रम छोड़ने जाओ तब मुझे भी ले जाना ..।

दादी … नहीं बेटा तुम बच्चों का वहाँ कोई काम नहीं । तुम अपनी मम्मी के पास घर ही रहना।

बच्चा…. नहीं दादी जब मम्मी पापा बूढ़े हो जाएंगे तब मुझे भी तो उन्हें वहीं छोड़कर आना होगा तो मुझे रास्ता पता चल जाएगा इसलिए मुझे जाना हैं ।

अपने बेटे के मुहँ से ये बात सुनकर अंजू चौंक गईं … और बोली ये क्या कह रहे हो तुम ?

बच्चा ….. मम्मी आप ही तो कहते हो अपने पापा की तरह बनो ! बड़ो को देख कर सीखो तो मुझे भी तो यही करना है।

अंजू को बच्चे की बात सुनकर अपनी गलती का अहसास हुआ और अपने सास ससुर से हाथ जोड़कर माफी मांगी और उनका हाथ थामते हुए बोली माँ पापा अब ये हाथ जिंदगी के आखरी वक़्त तक नहीं छोडूंगी …।

अंजू की ये बात सुनकर रोहन के चेहरे पर मुस्कान आ गई ।

और वृद्ध दम्पति के हाथ अपनें बेटे बहु को आशीर्वाद देने आगे बढे..।

 

 

कविता: पंछी

कवयित्री:रुची गोस्वामी

 

श्री राम बिस्सा  ” लघु “

श्रीराम बिस्सा ‘लघु’  हिंदी में निरन्तर सृजनरत है। आपकी रचनाएँ समय समय पर देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं यथा दैनिक भास्कर, दैनिक युगपक्ष, मरु नवकिरण, सहकार गौरव (ज्योतिष लेख) आदि में प्रकाशित होती रहती है। इसके साथ ही आप निरन्तर अपने ‘अध्यात्म ज्योतिष दर्शन’ पेज पर ब्लॉग लिखते हैं और यह विश्व भर में पढ़े जाते है

 

कविता  : महावीर

कलम तुम्हारी जय लिखेगी,

              कंठ तुम्हारा यश गाएगा ।

कर्मवीर की बात जो होगी,

              नाम तुम्हारा भी आएगा ।

पञ्चतत्व की देह मर्त्य है,

              यश-देह सदा जीवित रहती।

यम को खड्ग दिखाने वाले,

              महावीर तू कहलायेगा ।

अटल सत्य है इस जीवन का ,

              मृत्यु-पाश का आलिंगन ।

मृत्यु-बीज को धूल चटाकर,

              नाम अमर तू कर जाएगा ।

साक्षात् मृत्यु को देख समर में ,

               महारथी के पाँव उखड़ते ।

दुर्भेद्य  द्रोण  के  चक्रव्यूह  में ,

                अभिमन्यु ही जा पायेगा ।

अवसान समर का होगा और ,

              विजय मनुज की निश्चित होगी ।

यह धरा-सुमन खिल उठेगी ,

               मन-भ्रमर तुम्हारी जय गाएगा ।

कलम तुम्हारी जय लिखेगी ,

              कंठ तुम्हारा यश गाएगा ।

कर्मवीर की बात जो होगी ,

 

मधु आचार्य ‘आशावादी’

देश की आजादी के लिए बीकानेर में हुए स्वाधीनता आन्दोलन में सबसे पहले सामने लाने वाले पत्रकार। अभी तक 200 से ज्यादा नाटकों मेें अभिनय और निर्देशन कर चुके हैं। नाटक, कहानी, कविता और जीवनानुभव पर 72 पुस्तके हिन्दी और राजस्थानी में लिखी हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार संगीत नाट्य अकादमी का निर्देशन पुरस्कार, शम्भु शेखर सक्सैना, नगर विकास न्यास के टैस्सीटोरी अवार्ड से सम्मानित।

व्यंग्य  :  साहित्यिक चोरी सीनाजोरी

आ, गले लग जा

कुछ गीत गुनगुनाते हैं

सुर मिलाते हैं

मिले सुर मेरा तुम्हारा

कवि लाला प्रसाद धड़ल्ले से गीत सुना रहे थे। मंच पर बैठे कवि और अतिथियों की बात छोडिय़े, दर्शक भी ‘वाह-वाह’ कह कर कवि लाला प्रसाद को प्रोत्साहित कर रहे थे। कुछ कवि समर्थक जमकर तालियां बजा रहे थे। कवि महोदय इन्हीं पंक्तियों को बार-बार दोहरा रहे थे।

नवाब साहब कनफ्यूज हो गए। वाह की बात समझ नहीं आई। इससे भी ज्यादा आश्चर्य तो उनको तालियों पर हुआ। राजनेताओं के भाषणों पर तालियां बजाने का रिवाज है, कवि की तारीफ में तो वाह किया जाता है। एक सच्चा वाह सौ हाथों की तालियों और एक हजार वाह पर भारी पड़ता है। इसके बाद भी यहां तो तालियों पर तालियां, वो भी हर पंक्ति पर, भले ही पंक्ति पूरी न हो। अजब सा तमाशा बन गया था वहां। नवाब इसी कारण कनफ्यूज थे।

इस तरह की तालियां देखकर नवाब साहब को फ्रांस के राजाओं की याद आ गई। उस समय वहां राजाशाही थी। राजा के दरबार में मंत्रियों, सैन्य अधिकारियों के अलावा कुछ कुर्सियों पर क्लैपर भी बैठे रहते थे। बाकायदा क्लैपर पद पर भर्ती की जाती थी। इन क्लैपर का बस एक ही काम था, जब भी राजा कुछ बोले तो एक साथ एक सुर में तालियां बजाई जाए। उन क्लैपर को बड़े-बड़े अधिकारियों के बराबर वेतन मिलता था। राजा के चहेते मंत्री या सेनापति नहीं होते थे, क्लैपर होते थे। उनकी तालियां राजा को असीम सुख देती थी, सबसे बड़ा होने का अहसास कराती थी। नवाब साहब को हर पंक्ति पर ताली बजाने वाले फ्रांस के राज दरबार के क्लैपर लगे। अचानक नवाब साहब का ध्यान कवि की कविता पर गया। ‘आ, गले लग जा, गीत गुनगुनाते हैं’ पंक्ति तो शहर के बड़े कवि मुंशी जी की है, खूब चर्चित। जगह-जगह कवि सम्मेलनों में इन्होंने सुना रखी है और प्रशंसा भी पा चुकी है। दो पंक्तियां तो उसमें यही है। ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ तो टीवी पर चलने वाले एक गीत की पंक्ति है जिसे भीमसेन जैसे गायक ने गाया था। उसी का भाव ‘सुर मिलाते हैं’ पंक्ति है।

नवाब साहब चकित, चार पंक्तियां और चारों अलग-अलग व्यक्तियों की। रेसीपी तैयार कर लल्लू ने अपनी कविता बना ली। यह तो साहित्यिक चोरी हुई। उनका तो इस कविता में कुछ है ही नहीं। दूसरों की पंक्तियां उठाई और उनको जोड़ लिया, तैयार हो गई कविता।

नवाब साहब ने तो पढ़ा था कि कवि का भाव, सम्वेदना, विचार और समय का सच उसकी कविता में होता है। जबकि उसमें तो कोई भाव ही नहीं है, तीन लोगों की पंक्तियां मुफ्त में ली हुई है। सम्वेदना से तो दूर-दूर तक का नाता नहीं है, गर होता तो दूसरों की पंक्तिनहीं ली जाती। विचार के नाम पर तो स्वयं का नाम है, कमाना और फैलाना। भले ही साधन दूसरों के हों। समय का सच तो यह नहीं, सच तो शब्दों की चोरी का है। यह कैसी कविता हुई।

कविता, शब्द और पंक्तियों की चोरी के बारे में नवाब साहब के सुना हुआ तो था मगर उनको भरोसा नहीं था। यूं शब्द चूराकर कोई शब्दकर्मी नहीं बन सकता, पर यहाँ तो दावे के साथ दूसरों की पंक्तियों का उपयोग कर खुद को कवि साबित किया जा रहा है। मनवाया जा रहा है। कवि मनवाने के लिए समर्थन जुटाया जा रहा है। समर्थन मिल भी रहा है।

आज नवाब साहब को अफसोस भी हो रहा था कि साहित्य में कोई दंड विधान नहीं था। चोरी की धारा इसमें लग सकती नहीं। डाका भी हुआ पर वो भी धारा यहां नहीं लगेगी। 420 की बात भी यहां लागू नहीं होती। आज नवाब साहब को साहित्य के लिए दंड विधान की जरूरत महसूस हुई। आमतौर पर शांत रहने वाले नवाब साहब आज गुस्से में थे। उस कार्यक्रम को छोड़ बाहर निकल आये। मन बहुत खराब था। उत्साह से आये थे और निराश होकर निकलना पड़ा। बाहर आकर सोचने लगे कि अब कहां जाऊं? अचानक उनको शहर के आलोचक मुंगोड़ी लाल याद आ गए। उनका लोहा पूरा देश मानता था।

मुंगोड़ी लाल दिन-रात किताबों से ही घिरे रहते थे। एक कमरा उनकी दुनिया था। चारों तरफ किताबें, एक कोने में बेड। बीच में टेबिल और कुर्सी। कुछ बिखरे हुए कागज और पत्र-पत्रिकाएं। पढऩा उनका पेशन था। लिखते तो बहुत कम थे। कवि, कथाकार, उपन्यासकार, नाटककार आदि विशेषण नहीं थे उनके पास। इन सबको उन्होंने लिखा ही नहीं था। केवल आलोचना की दो किताबें लिखी थी और विशेषण भी केवल आलोचक लगाते थे। अलबत्ता साहित्य के बारे में पढ़ते खूब थे। सुधि पाठक का विशेषण उनके आगे होना चाहिए था पर कोई नहीं लगाता था। लोगों को अब पाठकों की जरूरत ही कहा रही। लिखने वालों को केवल लिखने और छपने से ही सरोकार है, कोई उसे पढ़ता है या नहीं, इसकी वो परवाह नहीं करते। खुद समीक्षाएं लिखते और दूसरों के नाम से पत्रिकाओं, अखबारों में छपवा लेते। बस हो गए बड़े साहित्यकार।

नवाब साहब ने उनके पास जाकर अपना दर्द बताने का निर्णय किया। स्कूटर को उनके घर की तरफ मोड़ लिया। साहित्य की इस चोरी ने उनको बुरी तरह व्यथित कर दिया था। एक नामजद पाठक होने के कारण इस तरह की चोरी, बेईमानी उनको सहन ही नहीं हो रही थी। मुंगोड़ी लाल के घर के बाहर स्कूटर खड़ा करके नवाब साहब सीधे उनके कमरे में पहुंचे। मुंगोड़ी एक पत्रिका पढ़ रहे थे। नवाब साहब को देखकर मुस्कराए और एक कुर्सी पर बैठने के लिए कहा। वे बैठ गए, कुछ नहीं बोले। चेहरा भी तमतमाया हुआ था। मुंगोड़ी गौर से उनको देख रहे थे।

— अरे भाई, आज किस पर इतना गुस्सा हो? तुम्हारे चेहरे पर पहले तो कभी गुस्सा देखा ही नहीं। आज तो चेहरा गर्म तवे की तरह तप रहा है।

— क्या बताऊं, बहुत गुस्सा आ रहा है।

— अभी तो कोई चुनाव भी नहीं हारा, फिर काहे का गुस्सा?

— चुनाव में हार-जीत का मुझ पर असर नहीं पड़ता। भले ही कोई जीते, हमें तो सहना है।

— फिर किस बात पर गुस्सा आ रहा है?

— साब, चोरी पर। डकैती पर। धड़ल्ले से हो रही चोरी-डकैती पर।

— क्या बात कर रहे हो? चोरी हो गई और वो भी तुम्हारे घर? कितने का नुकसान हुआ? अखबार में चोरी की खबर तो पढ़ी नहीं?

— इस चोरी की खबर अखबार में नहीं आती। आती भी है तो प्रशंसा बनकर।

— यार नवाब पहेलियां मत बनाओ, साफ-साफ बताओ।

नवाब साहब ने थोड़ा सांस लिया। दिलीप कुमार की तरह गम्भीर हुआ। एक हाथ मुंह पर खास अंदाज में रखा और अपनी बात कहनी शुरू की।

— साहब, मैं साहित्य में हुई चोरी की बात कर रहा हूं। तीन कवियों की चार पंक्तियां उठाई और अपनी रचना बना ली। बेशर्मी की हद है, कल के अखबार में फोटो सहित उनकी खबर भी छप जाएगी। हद है।

नवाब साहब की इस गम्भीर बात पर आलोचक जी मुस्करा दिए।

— आपको हंसी आ रही है?

— रोऊंगा तो नहीं।

— साहित्य में चोरी जैसा जघन्य अपराध। यह तो नाबालिग से बलात्कार के बराबर का अपराध है। इस तरह के अपराधी के खिलाफ तो लोग मोमबत्ती लेकर सडक़ पर उतरते हैं। नया कानून बनता है। आन्दोलन से कई नेताओं का जन्म हो जाता है। दूसरी तरफ आप हैं जो इस अपराध की बात सुनकर मुस्करा रहे हैं।

अब आलोचक जी अपनी हंसी पर काबू नहीं रख सके और जोर-जोर से ठहाके लगाने लगे। नवाब साहब के बात समझ नहीं आई। वो चुप हो गए। उनकी चुप्पी को देखकर आलोचक ने हंसी रोकी।

— देख मेरे भाई, मैं तेरी बात की हंसी नहीं उड़ा रहा।

— तो?

— तेरे आने से पहले मैं गुड्डू प्रकाश की कहानी पढ़ रहा था।

— उससे क्या हुआ?

— जो सवाल तेरे जेहन में थे वो मेरे जेहन में भी थे। जो तल्खी तुम में थी वो मुझमें भी थी। इस समानता के कारण हँसी फूट पड़ी। क्योंकि रोना इसका निदान नहीं है।

— मुझे पात्र समझते हैं तो बात खोलकर बताइये।

— मैं कहानी संग्रह की एक कहानी पढ़ रहा था। कहानी का एक पात्र सम्वाद बोल रहा था जिसे कहानीकार ने बहुत प्रभावी लिखा था। मैं चमत्कृत था। दुबारा पढ़ा तो स्मरण-शक्ति ने कुरेदना आरम्भ कर दिया। ऐसा लगा जैसे इस बात को पहले कहीं पढ़ा हुआ है।

— हां। मैं तुरन्त उठा और कहानियों की पत्रिका ‘पंछी’ उठा लाया। एक बड़े कहानीकार की कहानी निकाली और उसे पढऩे लगा। पढक़र दंग रह गया। प_े गुड्डू ने एक पूरा पैरा उड़ाकर अपनी कहानी में पेस्ट कर दिया। हू-ब-हू। न कोमा हटाई और न बिन्दी।

— मतलब एक नहीं कईं चोर हैं साहित्य में।

— अरे सुनो, पूरी बात अभी खत्म नहीं हुई। गुड्डू की कहानी में दो पात्रों के मध्य सम्वाद का एक पूरा पेज था जाहिर है बहुत अच्छा था। वो भी एक-दूसरे कहानीकार की कहानी से उड़ाया हुआ था। तीसरे कहानीकार का योगदान भी साफ दिख गया। कमाल की कारीगरी की है गुड्डू ने। — साहित्य में इस तरह की चोरी अब आम हो गई है। चार कहानीकारों की किताबें रखो और हरेक से थोड़ा-थोड़ा उठाओ, अपनी कहानी तैयार कर लो। चार कविताओं से कुछ-कुछ पंक्तियां उठाओ, एक कविता तैयार। मूल लेखकों से यह चोर लेखक ज्यादा ही पापुलर होते हैं। इस चोरी की समस्या अचम्भित करती है।

— इन चोरों को कोई पकड़ता क्यों नहीं?

— लोग पढ़ते नहीं। पढ़े तो चोरी पकड़ में आये ना। लिखने में भरोसा रखते हैं, पढऩे में नहीं। एक-दो पढऩे वाले चोरी पकड़ते हैें तो माफी मांग लेते हैं। अपने शहर में देख लो, इस तरह के कई चोर लेखक मिल जाएंगे जो यहां रातोंरात बड़े साहित्यकार बन गए हैं।

नवाब साहब देखते रह गए। कहने वाले सही कह गये हैं, ‘चोरी न चापरी धीरे-धीरे आपरी’।

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समीक्षक : डॉ. प्रकाश अमरावत

हिन्दी – राजस्थानी में समान रूप से लिखती करती है विभागाध्यक्ष, राजस्थानी विभाग, राजकीय डूंगर महाविद्यालय, बीकानेर में कार्यरत है

समीक्षा : कथारंग के रंग अनेक

छोटी काशी बीकानेर का हर एक घर साहित्य का मंदिर है, जिसमें साहित्यकार रूपी देवता विराजमान हैं। समाज में घटित घटनाओं को देखकर वस्तुस्थिति, पात्रों, दृश्यों, प्रभावों, दुष्प्रभावों, प्रासंगिकताओं, विसंगतियों, विदू्रपताओं को ये ऐसे कदमबद्ध कर देते हैं। जैसे चित्रसेन हमारे कर्मों का लेखा-जोखा करते हैं कि धर्मराज अच्छे-बुरे, पाप-पुण्यों का कानून बनाकर लागू कर सके। ठीक वैसे ही ये साहित्य मंदिरों के देव भी हमारे चारों ओर व्याप्त अकथनीय पहलुओं को कथानक का रूप देकर समीक्षकों को नजर करते हैं। जिससे श्रेष्ठ, उत्तम, अच्छे, मध्यम लेखन पर दृष्टिपात कर कमियों पर पैनी धारदार लेखनी चलाने का श्रेयस्कर कार्य हो सके, साथ ही समीक्षकों की दृष्टि से साहित्य में निखार आ सके, साहित्य को नवीन और जनोपयोगी व शिवाकांक्षी बनाया जा सके।

इस शाश्वत कार्य के लिए युवा सृजनकर्ता हरीश बी.शर्मा के अथक परिश्रम को सराहते हुए उनके इस प्रयास को बधाई देना चाहूंगी। आपने ये श्लाघनीय कार्य करके साहित्य सेवा में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। बीकानेर के रचनाकारों को, उनके साहित्य को बाहर एक पहचान मिले, ज्ञात हो कि इस साहित्यिक शहर में कितना रचनात्मक कार्य किया जा रहा है। यह कार्य सभी शहरवासियों के लिए अनुकरणीय है। सभी शहरों को ऐसा कदम उठाना चाहिए। हमारा बीकाणा जिसके लिए कहा गया है कि-

ऊंट, मिठाई, स्त्री, सोनो गेणो, साह।

पांच बसत इणरी सिरै, वाह बीकाणा वाह।।

लेकिन मैं ऐसा मानती हूँ कि उपर्युक्त दोहा ही इसकी प्रसिद्धि का कारण नहीं है। पापड़, भुजिया, पकौड़ी, रबड़ी और पाटों की हथाई, फागण की धूम और रम्मतों के आगाज के साथ साहित्य लेखन की परम्परा, उसकी नवीन तकनीक भी बीकाणा की प्रसिद्धि का एक महत्त्वपूर्ण कारक रहा है।

बात साहित्यिक गद्य विधाओं की तो कहां तक करें, उसमें भी समकालीन कहानियों की बात करते हैं, तो उसकी चर्चा पर भी कई पुस्तकें लिखी जा सकती हैं। एक-दूसरे से सम्पर्क साधना और अपनी भावनाओं को संप्रेषित करना भी बीकानेर के वासिंदों की विशेषता रही है। कथारंग की रचना प्रक्रिया में हरीशजी ने इन विशेषताओं का बखूबी प्रयोग किया होगा। कथारंग के मुखपृष्ठ पर कथाकारों के खिलते हुए जाने-पहचाने चेहरे, कुछ तो स्वयं में बीकानेर की अलग पहचान है। कुछ अपने से लगते चेहरे, कुछ अनुभवों का झीना रा लिबास पहने, तो कुछ साहित्य जोत को ‘धर मंजला धर कूंचा’ तक ले जाने की हूंस लिए हुए प्रदीप्त चेहरे। ये वो युवा कथाकार हैं जो ऊर्जा के स्रोत हैं। इनकी कहानियां ‘पूत रा पग पालणे दीखे’ जैसी लगती हैं जो अवश्य ही साहित्य शहर के जलते शमाए चिराग बनकर इसे रोशन करते रहेंगे। यह भी बात प्रसिद्ध है कि –

मायड़ भाषा, भोम पर पड़ै विपद जद पूर।

संकट मेटै देस रो के साहित के सूर।।

आज देवभाषा, राष्ट्रभाषा अर मायड़ भाषा पर संकट के बादल गहरा रहे हैं। उस वक्त की मांग को पूरा करते हुए हरीशजी ने युवा-कथाकारों को प्रोत्साहित किया इन प्रतिभाओं का चयन किया है तो सच्चे अर्थों में साहित्यकारों की पैदावार को बढ़ाया है। आज देश में सीमाओं की सुरक्षा करते हमारे मातृभूमि के वीर सपूत जिस प्रकार अस्त्र-शस्त्रों को साधते है। ये सीमा प्रहरी हमें बाहरी सुरक्षा देते हैं। ठीक उसी प्रकार ये कलम के सिपाही हमें आन्तरिक सुरक्षा देकर अंत:करण, आत्मबल, आत्मसुरक्षा प्रदान करने वाले हैं।

आपके सराहनीय कार्य में 150 कथाकारों में लगभग 57 महिला कथाकारों का शामिल होना भी एक शुभ संकेत है। समाज का दोयम दर्जा कही जाने वाली नारी भी चिंतनशील है वो भी पुरुषों के समकक्ष है। दोहरी भूमिका का निर्वहन करते हुए समाज के अति संवेदनशील मुद्दों को अपनी कहानियों के विषय बनाकर प्रगति के पथ की पाथेय बनती नजर आती है।

कथारंग की कहानियों में सभी ज्वलंत समस्याओं, समकालीन विषयों में खासकर मोबाइल, फेसबुक पर पनपते रिश्ते और पानी के बुलबुले की तरह अपना अस्तित्व मिटाते सम्बन्धों की अभिव्यक्ति, उसकी वेदना और समाज को सावचेती का पाठ पढ़ाने वाली कहानियां है। इसमें मानवीय संवेदनाओं के घेरे में मिटती संवेदनाओं से भी हमारा साक्षात्कार होता है। नये कथानकों, संवादों, शिल्प के साथ पिंजड़ा, खुली खिडक़ी, चिडिय़ा का बादलों की ओर गर्दन उठाकर देखना और उड़ जाना जैसे देह आत्मा के सम्बन्ध में सम्बन्ध विच्छेद को बता जाता है। जहाँ जीवन दर्शन और अध्यात्म है, संसार की नश्वरता का बोध होता है। सम्बन्धों की नजदीकियां ही दूरी का कारण बनकर कथा पात्रों के व्यवहार में झलकता है। मित्र भाव के अनूठे चित्र अविस्मरणीय जीवन पलों में शुमार होते हैं। अनेक विषयों में पर्यावरण व प्रकृति सुरक्षा का बोध, भावनात्मक, वर्णनात्मक, चित्रोपम शैली में घटनाओं का वर्णन, (चित्रात्मकता) आत्मचिंतन, आत्मसंबल, अन्तद्र्वन्द्व, मन:स्थिति का वर्णन, यात्रा वृत्तान्त संस्मरणात्मक, सहशिक्षा से बदलती सोच, सामाजिक धरातल पर भिन्न-भिन्न सोच और छोटी मानसिकता, अकेलापन, दम तोड़ती मानवीय संवेदनाएं, सरकारी भ्रष्टाचार, काला बाजारी का सटीक यथार्थपूर्ण वर्णन किया गया है।

हमारा सरकारी तंत्र भी इस काला बाजार से किस प्रकार जुड़ा हुआ है? कर्तव्यनिष्ठा, उद्देश्य परकता, अधिकार बोध की कहानियां हैं। तो कल्पनाशीलता से रचाव को बसावट मिली है। आदर्शोन्मुखी, पारंपरिक, जीवन अनुभवों से ओत-प्रोत, यश-अपयश, हानि-लाभ, सुख-दु:ख, संस्कारहीनता, आध्यात्मिकता, ग्राम्यबोध, प्रकृति प्रेम, देश प्रेम के साथ प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा का भाव तो प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली तबाही का मार्मिक चित्रण भी इन कहानियों में हुआ है। नयी पीढ़ी बदलते युग की तस्वीर है। उसी प्रकार नवीन कथ्य और शिल्प की ये कहानियां भी बदलते युग की तस्वीर पेश करती हंै।

जहां एक ओर उपेक्षा, अभाव से व्यक्ति को अपमान, घृणा, अशांति, राग-द्वेष जैसे विकार घेर लेते हैं, पर उन विकारों में भी आत्मसंबल पाकर साधक बन परम तत्त्व को प्राप्त कर जाना ही इन कहानियों का ध्येय रहा है। ये कथाएँ आत्मविश्वास और कर्तव्यबोध जो सच्चे अर्थों में एक मानव का संसार के प्रति है, जगाती है।

नारी नाहरी है। वो हारी नहीं कभी, एक मां, बहन, बेटी और पत्नी के हर एक किरदार को जी जान से निभाती है। मैंने देखा कि महिला रचनाओं में अधिकतर क्या लगभग सभी कहानियों के किरदार में स्त्री पात्र नजर आते हैं। एक स्त्री ही स्त्री की व्यथा-कथा को सही रूप दे सकती है। फिर वो स्वयं उसकी साक्षी या भोक्ता भी रही हो। पुरुष कथाकरों में भी कई कहानियों के मुख्य पात्रों में स्त्री पात्रों की कथाएँ पढ़ीं। जो स्वयं सृजन शक्ति है, उस  पर सृजन होना स्वाभाविक भी है। एक तरफ  जहां नारी शिक्षा, सह शिक्षा, स्त्री की तकनीकी शिक्षा और हर एक क्षेत्र में कामकाजी महिलाओं को बढ़ावा मिला है; हम स्त्री-पुरुषों में बराबरी की बात तो करते हैं, परन्तु आज भी हमारी सोच अन्दर तक इस बात को स्वीकार नहीं करती है। हमारी संकीर्ण सोच, सामाजिक बंधन, पारिवारिक मानदण्ड स्त्री पर लागू होते हैं।

आज भी नारी प्रताडि़त की जाती है। सामाजिक कुप्रथाओं की शिकार नारी अपनी अस्मिता की लड़ाई आज भी उसी प्रथम पायदान पर खड़ी लड़ रही है। हाँ कुछ अपवाद तो समाज में मिलते हैं। किंतु निम्नवर्गीय नारी समाज की बात करें तो हमारा समाज उन विसंगतियों से उबर नहीं पायेगा। कथारंग की कहानियों में कायर, हारूंगी नहीं मैं, सांवली चांदनी काला चांद, अपराजिता, सहधर्मिणी, आखिर कब तक, श्यामली, प्रतीक्षा, जन्मदिन जैसी कहानियाँ सहनशक्ति के साथ संघर्ष कर जिम्मेदारियों को निभाना और जीवन की उधेड़बुन के साथ इन कहानियों को नये ढंग का बाना पहनाया गया है। अकेली स्त्री के प्रति समाज की ओछी सोच से ग्रसित अनेक प्रश्न हमारे सामने खड़े करती है। मन की पीड़ा, स्त्री विमर्श, बेटियों के प्रति अलगाव और बेटों के प्रति धृतराष्ट्र प्रेम (अन्धा प्रेम) बना हुआ है। इन्सटेंट खिचड़ी की तरह आजकल की फेसबुक फ्रेंड्स लड़कियों के रिश्ते भी इन्सटेंट बनते और बिगड़ते हैं। अनेक सामाजिक विसंगतियों के साथ बंदिशों के चलते सभी प्रतिबन्ध स्त्री पर ही क्यों? भावनाओं, संवेदनाओं का जाल उसमें स्त्री का पवित्र प्रेम फिर भी पुरुषों की संकीर्ण सोच पर करारा व्यंग्य भी इन कथाओं के विषय रहे हैं। इसी क्रम में उपहार दो स्त्री पात्रों का दोस्ताना संबंध है, जहां ऊंच-नीच का भेद मिटता हुआ समानता का अद्भुत भाव दृष्टिगोचर होता है। नयी बहू, श्रीगणेश, नवाचारों और शिक्षा पर जोर देते हैं तो संक्रमण जैसी कहानी स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की गहराई, मनोदशा के साथ जीवन की पाठशाला को प्रयोगात्मक ढ़ंग से प्रस्तुत करती है। विषबाला आज का यथार्थ और कल्पना की उड़ान जो नीचे गिरकर धूमिल हो जाती है। मोबाइल युग का हताशापूर्ण प्रेम है। वचन बेमेल विवाह सम्बन्धों को नयी सोच के साथ उजागर करता है। तो दबी चोट, तारा, एक शुरुआत, आत्मसंतुष्टि जैसी अनेक स्त्री पात्रों को चरितार्थ करती ये कथाएं जीवन को नये ढंग से जीने व समाज को नई दिशा देती है। अंग्रेजी बोलने वाली बहू पढ़ी-लिखी लडक़ी के प्रति पूर्वानुमान लगाना गलत है। आधुनिक कथानक है। यह समय की मांग है। स्त्रियों में उच्च शिक्षा के साथ यदि संस्कार जुड़ जायें तो यह सोने में सुहागा है। मां की ममता भी हो सकती है ‘निर्मम’। समाज द्वारा अपनी संतान से पूछे जाने वाले भावी प्रश्नों से अनुत्तरित मां उस नवजात को बदजात कहलाने से पूर्व उसकी मौत को गले लगाना स्वीकार करती है। ये स्त्री पात्रों की कहानियां हमें मध्यम व निम्नवर्गीय नारी की शाश्वत सोच से अवगत कराती हैं। पहेली एक अलग कथानक की कहानी जिसमें नारीशक्ति, सकारात्मक सोच के साथ कथा पात्र के देश-विदेश के भेदभाव को समाप्त करती नजर आती है। हर धमाका मौत नहीं होता, वो धमाका मन की गुफा के द्वार खोल गया और अंधकार जो मन में था उसमें उजाला कर गया।

प्राईवेट सेल्समैन की नौकरी आदि जो टारगेट बेस्ड (आधारित) होती है, उनमें झूलती मावीय संवेदनाओं, भावनाओं का सजीव यथार्थ चित्रण। कौन है वह – संदिग्धावस्था के साथ घटनाक्रम को आगे बढ़ाती कहानी जो एक पृथक् समाज की रचना का चित्र प्रस्तुत करती है। महानगरों में भिक्षावृत्ति भी एक पेशा बन जाती है। ऐसी विद्रूपता का भयावह चेहरा पढ़ती ये कहानियाँ सही मायने में समकालीन हैं। नेपोलियन का दिल – जिसमें हर पिता के अहं में पुत्र घटित होता है, यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी की कथा कहती है। बूस्टर, सेलिब्रिटी, निश्चय, नसीहत, नेतागिरी जैसी कहानियों के कथानक भी नवीन सोच को नवीन शिल्प के साथ रखते हैं। मजबूरियों के चेहरे तो सबसे अलग कथानक को लिए खड़ी है। बेरोजगारी, अभावग्रस्त जीवन का नया रूप जो पुरुष को नपुंसक बना देता है। समाज के समक्ष ये कहानियाँ चुनौती के रूप में खड़ी हैं। इन कहानियों में कई कहानियां तो देशज शब्दावली से ओर भी मुखरित हो उठी है। मुझे वो शब्दावली अच्छी लगी। भाषाई शब्दों का चयन पात्रानुकूल ही हुआ है।

छोटे-छोटे संवादों के साथ मुहावरेदार भाषा भी देखी गई। नवीन सोच और संकल्पों के साथ भाई हरीशजी ने जो बीड़ा उठाया वो निश्चय ही सारस्वत है, नि:स्वार्थ है। इस कथारंग के विषय में ये कहूं कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुझे एक साथ 150 कथाकरों की रचनाधर्मिता से रूबरू होने जैसा आभास हो रहा है। यह लेखन अनवरत चले, आपके ये प्रयास थमने का नाम न लें, इसमें निहित शिवाकांक्षा इस साहित्यिक नगरी बीकानेर को दुनिया में अलग पहचान से नवाजे यही मेरी शिवाकांक्षा है।

भावनात्मक उद्गार

इस कथारंग के रंग अनेक

रंग नये इसमें कथाकार अनेक

कथ्य शिल्प और विषय अनेक

सोच बदल कर दृष्टि करे नेक

वाह हरीश तेरा प्रयास है शिवाभिषेक

 

 

 

मैदाने अदब से राजभवन लखनऊ तक का सफ़र

सूफी शायर मोहम्मद उस्मान आरिफ़

पैदाइश – 1923   वफ़ात – 1995

 

सीमा भाटी 

हिन्दी-उर्दू में कहानियां और नज्म लिखती है साथ-साथ उर्दू पढ़ाती हैं। मंच संचालन, गायन और पर्वतारोहण में भी रुचि है। कर्णधार सम्मान श्रेष्ठ शिक्षक सम्मान के साथ कईं संस्थाओं से सम्मानित।

एक ऐसा शख़्स जिसने सियासी रहनुमा, प्रशासक, और भारत के सब से विशाल राज्य के राज्यपाल की हैसियत से नाम कमाया हो, साथ ही बीकानेर के उर्दू अदब का ज़िक्र जब भी जहां भी चला या आज भी चलता है, तो एक नाम बड़े एहतराम के साथ ख़ासतौर पे हमेशा लिया जाता रहा है वो नाम यक़ीनी सिर्फ़ आरिफ़ साहब का ही हो सकता है क्योंकि मैदाने अदब से राजभवन लखनऊ का सफ़र तय करने वाले आप अव्वल और आख़री शख़्स थे ।
बीकानेर के उर्दू शेरो अदब को उरुज बख़्शने में मुहम्मद उस्मान आरिफ़ साहब का किरदार अहम रहा । बीकानेर के जिन शायरों ने मुल्क गीर शोहरत हासिल की है, उनमें उस्मान आरिफ़ नक़्शबंदी साहब का नाम सरे फ़ेहरिस्त है । आपकी शाइराना अज़मत का ऐतराफ़ मुल्क के मख़सूस नाक़दीन, शुअरा, और अहले जौक़ ने किया है । आपकी पैदाइश उस घर में हुई, जहाँ उर्दू , फ़ारसी, अंग्रेजी, के अहले फ़न, अहले क़लम, अहले नज़र शाइर बेदिल बीकानेरी रहते थे। जो डिस्ट्रिक्ट जज, हाई कोर्ट के जाने माने वकील भी रहे, बावजूद उनका ज़्यादातर वक़्त साहित्य साधना में ही गुज़रा। जी हां आरिफ़ साहब को शाइरी अपने वालिद मोहतरम बेदिल साहब से विरासत में मिली थी। सूफ़ी चिंतक मारूफ़ शाइर मोहम्मद उस्मान आरिफ़ की शख़्सियत को अगर एक लफ़्ज़ में ज़ाहिर करना हो तो वो है उनकी बेहिसाब इंसानियत। मालिक के इस दीवाने का जन्म 5 अप्रैल 1923, को शौर्य और वीरता की अमर धरती राजस्थान के शहर बीकानेर मुहल्ला चूनगरान में हुआ था। एक बूंद आबेहयात (अमृत) की जो ज़िन्दगी के लिए आसानी से हासिल नही होती मगर जिसकी कमी से आम ज़िन्दगी की रफ़्तार में और सृजनात्मकता पर ज़रूर रोक लग जाती है, वही है सुफिओं और संतो का चिंतन, दर्शन। इसी दार्शनिक विचार के सक्षम वाहक थे हमारे महामहिम उस्मान आरिफ़ साहब जिनकी शाइरी ने इस युग में अमिट छाप छोड़ी है …उनका ये शेर इस बात की ताईद करता है कि…
“हुसनै हबीब, दर्द ए मोहब्बत, गमे जहां,
आरिफ़ जो दिल में है वही शेर में है “।
आपकी शख़सियत को निखारने, संवारने, और उभारने में आपके उस्ताद बादशाह हुसैन राना लखनवी साहब का हाथ बहुत रहा।
आरिफ़ साहब का साहित्य एक तनक़ीद निग़ार के लफ़्ज़ों में कुछ इस तरह है “आरिफ़ का साहित्य हमदर्दी वतनपरस्ती, ज़िंदादिली, और हक़ीक़त से लबरेज़ है। उनके दिलकश शेर और पाकीजा ज़बान से उमड़ी हुई दिलकश शाइरी ऐसा जौहर है, जो सदियों तक दिल व दिमाग़ों को रोशन करते रहेंगे ”
आपने डूंगर कॉलेज, बीकानेर और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से तालीम हासिल की। 1946 में भूरी बेगम के साथ निक़ाह हुआ और आपके दो बेटे और दो बेटियां हुई जिनमें बड़े बेटे जमान आरिफ़ और बेटी नैमत बानों अब इस दुनिया में नही रहे। जमान आरिफ़ साहब भी अदब से जुड़े हुए थे और अख़बार युगपक्ष के लिये महफ़िल नाम से कॉलम भी लिखा करते थे। यह ख़ुशी की बात है की हाल ही में ज़मान साहब के साहबजादे उनके आलेखों की संपादित किताब शाया करने पर काम कर रहे हैं। आरिफ़ 1946 में बीकानेर लौट कर आये और वकालत शुरू की। शेरों सुख़न का मश्ग़ला भी साथ साथ चलता रहा। आप 1970 में राज्य सभा के मेंबर मुक़र्रर किये गए। और लगातार तीन बार एम .पी .रहे , इस दौरान आप 1980 से 1984 तक इन्द्रा गाँधी की कैबिनेट में नायब वज़ीर के ओहदे पर भी फायज़ रहे। 1985 से 1990 तक आपने उत्तर प्रदेश के गवर्नर के ओहदे को रौनक़ बख़्शी थी।
बाद 1971 में आप ने अरब ममालिक और अमरीका में हिंदुस्तान की नुमाइंदगी भी की। और उसके बाद
देहली से निकलने वाले माहनामा शोला-ओ-शबनम में आरिफ़ ने जॉइंट एडिटर जी फ़राईज़ अंजाम दिया। पार्लियामेंट के मेमब्रान की उर्दू कमेटी में नायब सदर और आल इंडिया अंजुमन -दानेश्वरा न्यू देहली के भी नायब सदर रहे। मुल्क के मशहूर रिसालों अख़बारों में आपका कलाम शाया हुआ। आपकी सबसे अहम तसनीफ़ (किताब ) ज़िक्र-ए-महबूब है, जो बीकानेर से शाया हुई । जिसमें बीकानेर के सूफ़ी हज़रत पीर महबूब बख़्श चिश्ती साहब का ज़िक्र है। “अक़ीदत के फूल ” तसनीफ़ का इजरा तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्रा गाँधी के हाथों से होना इस बीकानेर की सर ज़मीन के लिए बायस -ए फ़ख्र की बात थी । “क़लम की काश्त ” “नूरे ज़िन्दगी ” लम्हों की धड़कनें” “फैजान-ए-मुस्तफ़ा “तौफ़ीक़ इलाही ” “मेरा देश मेरा प्यार” “नज़र वतन” और “फ़िकरो अहसास”आरिफ़ साहब की मुख़्तलिफ़ तसनीफ़ है फिक्रों अहसास कोई ज़खीम मजमू-ए-मन्ज़ूमात नही है, इसमें सिर्फ़ 24 नज़्में शामिल है मगर मौज़ूआत की ऐतबार, इनफ़िरादियत से एक दूसरे से बिल्कुल जुदा है। ये नज़्में शाइर के अमीक़ व वसीह मुताले का नतीजा है । आरिफ़ साहब ने हर सिन्फ़े – सुख़न में तबा -आजमाई की है ये बात इन चंद लफ्ज़ में वाज़ेह करने की कोशिस की है …
“वतन से बेइंतेहा प्यार
शाइरी में जिसकी
जदीदयत का ऐहतराम…
इंसानियत की आईनादारी ..
रिवायत की थी पासदारी …
नबी से उल्फत ..
महबूब से रग़बत
गरीब के मसाइल को
बनाता मनक़बत …
मज़लूम से रखता हमदर्दी
और मोहब्बत की करता तर्जमानी …
नक्शबंदी शाइरी की
हर असनाफ़ में ,
चाहे हो वो हम्द ,नअत ,
सलाम ,ग़ज़ल ,और नज़्म
या फिर हो तज़मीन ,रुबाइ
क़तअ और दोहें
करते थे उसमें
तबाअ आज़माई …
यही है आरिफ़ की
सरमाया शाइरी …
आरिफ़ साहब हर दिल अज़ीज़ थे। बावजूद उनका ये आलम था की बिना किसी तफ़रीक़ (बैर भाव ) के हर दोस्त के घर पहुँच जाते और उनको अपने घर भी मदऊ करते थे। उनकी किताब “मेरा देश मेरा प्यार” की एक एक नज़्म में उनकी वतन परस्ती झलकती है। यहां ग़ौर करने की बात ये भी है कि ये किताब हिंदी, उर्दू , अंग्रेजी तीनों ज़बान में शाया हुई थी। एक शेर देखिये …
“ये ख़ून है इन्सां का
सड़कों पे न बहने दो
इस ख़ून की अज़मत को
मिट्टी में न मिलने दो ”
मज़मुई तौर पर कह जा सकता है कि आरिफ़ एक बुलंद पाया शाइर और नेक इंसान थे । सियासत की बुलंदियों पर पहुँचने के बावजूद आपकी नेकी, ईमानदारी, और अल्लाह और उसके रसूल से अक़ीदत बढ़ती गई और आपकी शाइरी भी मुसलसल परवान पर चढ़ती गई। आपकी नेक दिली और शाइराना अज़मत का ऐतराफ़ मुल्क के तमाम माहिर फ़न और सुख़न ने किया है। एक मुफ़क्किर व हस्सास शाइर किस तरह दूसरों से अलग अपनी राह तामीर कर लेता है और बाद लोग उनके बनाए नक़्श क़दम पर चलने को अपनी ख़ुशनसीबी समझते हैं वो क़ाबलियत आरिफ़ की शख़्सियत से झलकती थी। आपने हमेशा एक ख़ादिम-ए -उर्दू की हैसियत को तरजीह दी । आरिफ़ साहब जब राज्यपाल थे तो लखनऊ में अखिल भारतीय मुशायरा और कवि सम्मेलन आयोजित हुआ, आरिफ़ साहब ने ख़ासतौर से बीकानेर के शाइरों और कवियों को बड़े ख़ुलूस इर ऐहतराम के साथ मदूअ करवाया और राजभवन में उनकी ज़बरदस्त मेजबानी को आज भी याद किया जाता है। आरिफ़ साहब ने ख़ुद दस किताबें लिखी तो पांच किताबें दीगर विद्वानों ने भी हिन्दी, उर्दू अंग्रेजी में इनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर तहरीर की। आख़िर 22अगस्त 1995 को रेडिओ, टीवी, फैक्स, तार टेलीफोन, अखबारों की सुर्खियां से आरिफ़ साहब क़े इंतक़ाल की ख़बर सब जगह फैल गई इस बीच उसी शाम बेदिल मंज़िल से पुलिस और फ़ौज़ के बेंड से मातमी धुन के और अक़ीदत के फूल की बारिश के साथ आपका जनाज़ा उठा और आप इस दुनिया से रुख़सत हो गए…
आख़िर में एक शे’र
“सबका था दोस्त सबसे मोहब्बत रही उसे ,
सबकी अज़ीज़ आबरू इज़्ज़त रही उसे ,
मज़हब के तफ़रकों से अदावत रही उसे ,
दरअस्ल ज़ातपात से नफ़रत रही उसे ,
हिन्दू रहा न गबरू मुसलमान ही रहा ,
इंसान के लिबास में इंसान ही रहा “