मनोज रतन व्यास

मोटर मैकेनिक के रूप में आजीविका के लिए संघर्ष करते करते मकबूलियत की सीढ़ियां गुलज़ार साहब पिछले 6 दशकों से चढ़ रहे है। उनकी मंजिल अनंत है और उनका शब्द संसार भी निस्सीम है। अपनी पहली ही चित्रपट “बंदिनी” में गुलज़ार साहब ने नामचीन गीतकार शैलेंद्र के विकल्प के रूप में अपना पहला फिल्मी गीत “मोरा गोरा रंग लई ले” लिखा था। बिमल रॉय की फ़िल्म का यह गीत 1963 में रिलीज हुआ था ,तब से लेकर “मुड़ के न देखो दिलबरों” तक गुलज़ार की कलम अनवरत चल रही है।

सम्पूरण सिंह कालरा( गुलज़ार साहब) का आज संयोग से सिल्वर स्क्रीन के साप्ताहिक अंक आने के दिवस ही जन्मदिन है। फिल्मी दुनिया के विभिन्न आयामों पर लिखने के लिए यूं इतनी जद्दोजहद नही करनी पड़ती है, लेकिन आज गुलज़ार साहब के लिए लिखते हुए कलम कम्पन कर रही है। यूं स्वयं गुलज़ार साहब भी फिल्मी दुनिया में दशकों से सक्रिय होते हुए भी अपने भीतर के साहित्यकार को आज तक संरक्षित रख पाए है। बाजारवाद और बॉलीवुड मसाला फिल्मों की सिचुएशन डिमांड को पूरी करते हुए भी गुलज़ार साहब का लिटरेचर मन मुखर रूप से उनके गीतों से झांकता है।

क्या पाया नही है अब तक गुलज़ार साहब ने,यह सवाल ही बेमानी लगता है। 22 फ़िल्म फेयर अवार्ड,5 नेशनल अवार्ड,ऑस्कर और ग्रैमी अवार्ड,दादा साहब फाल्के पुरस्कार,पदम् भूषण,साहित्य अकादमी अवार्ड….और भी न जाने क्या क्या,फिर भी गुलज़ार का अंतस जीवन के नौवें दशक में भी युवान रहकर नित नए बिंब गढ़ रहा है।

गुलज़ार बॉलीवुड के होकर भी साहित्य की मूल आत्मा को आज तलक जिंदा रखे हुए है। जब लगा माया नगरी की व्यस्तता उनके भीतर के कल्पनालोक में बाधा उत्पन्न कर रही है, तभी फिल्मों का निर्देशन करना बंद सा कर दिया। फिल्में भी वही बनाई जो बॉक्स ऑफिस के फार्मूले से एकदम परे हटकर थी।
गुलज़ार का दिल नेचर के करीब बसता है। प्रकृति से गुलजार शब्द उठाकर कागज पर ज्यों ही लिखते है, महक नेचर की स्वत:ही उनके अल्फाज़ो के द्वारा आ जाती है।

गुलज़ार साहब की तालीम मुल्क के बंटवारे के मनहूस काल में हुई है।उर्दू और पंजाबी जुबान पर पकड़ बालपन से ही है। बंटवारे का दर्द,फाकाकशी का लड़कपन,निजी जीवन के उतार-चढ़ाव ने गुलज़ार साहब के मन को ऐसा रफूगर बना दिया है, जहां से हर जज्बात को सच्चे मानी मिलते रहे है। गुलज़ार साहब का रचना संसार आज भी उर्दू अदब का लिबास ओढ़े हुए है। उनके नज्मों की शुचिता मार्केट डिमांड को समझते हुए भी कायम है। फिल्मों से इतर भी आपका साहित्य सृजन सतत जारी है। कभी वक्त निकालकर उनकी शायरी के हाल ही में रिलीज हुए कलेक्शन पढ़िए,गुलज़ार को और करीब से जान पाएंगे। गुलज़ार साहब का कहना है-” मैंने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया है”। हर गुजरते लम्हे के साथ उनकी कलम शब्दों की नई इमारतें बना रही है।

गुलज़ार साहब के लिए मैं क्या लिखूं, औकात और तर्जुबे की सीमाओं से परे की बात है। गुलज़ार साहब को यतीन्द्र मिश्र ने कुछ यूं वर्णित किया है-“इच्छाएँ,सुख,यथार्थ,नींदें,सपने,जिज्ञासा,प्रेम, स्मृतियां और रिश्तों की गुनगुनाहट को उनकी नज्मों और गजलों में इतने करीने से बुना गया है कि हमेशा यह महसूस होता है कि वह किसी नेक जुलाहे के अंर्तमन के तागे से बुनी हुई है”।

गुलज़ार हर कलमकार के लिए प्रेरणापुंज है। गुलज़ार हर आशिक की जुबां है। गुलज़ार आवाम की आवाज है। गुलज़ार नौनिहालों का सच्चा स्वर है। आज जन्मदिन पर युगपुरुष गुलज़ार साहब को जन्मदिन की अनंत बधाई….और अंत में गुलज़ार साहब द्वारा लिखे कुछ शब्द मणिरत्नम की फ़िल्म गुरु में से,जो मुझे व्यक्तिगत रूप से सदा प्रेरित और ऊर्जावान रखते है-
जागे हैं देर तक
हमें कुछ देर सोने दो
थोड़ी सी रात और है
सुबह तो होने दो
आधे अधूरे ख्वाब जो
पूरे न हो सके
एक बार फिर से
नींद में
वो ख्वाब बोने दो

#मनोज रतन व्यास