हरीश बी.शर्मा
प्रदेश में चल रहे कांग्रेस के मंथन में यह तो मोटे तौर पर सामने आ चुका है कि अब संगठन को मजबूत किया जाएगा। यह भी लगभग मान लिया गया है कि सचिन पायलट को कमज़ोर करने की फिराक में संगठन का बंटाधार हो गया, जिसे संभालना बहुत जरूरी है। यह तब ही संभलेगा जब कांग्रेस के दिग्गज जनप्रतिनिधियों को संगठन से जोड़ा जाएगा यानी सत्ता की चाशनी से दूर रहकर ग्रास-रुट पर काम करने के लिए तैयार किया जाएगा। जयपुर में सप्ताह भर से चल रहे मंथन का यह परिणाम है कि जनता से सीधे जुड़े नेताओं को सत्ता की बजाय संगठन से जोड़ा जाए ताकि संगठन को सक्रिय किया जा सके। सैद्धान्तिक रूप से यह बात सही है, लेकिन व्यवहारिक रूप से इस फार्मूले को लागू करने में बड़ी अड़चन यह है कि इस सुझाव के लागू होने में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उनके शुभचिंतकों को कहीं न कहीं यह समझ आ चुका है कि यह किसी लाइन को बिना छेड़े समानांतर एक और बड़ी लाइन बना देने की युक्ति है। राजस्थान में एक नया नेतृत्व खड़ा करने की यह रणनीति कांग्रेस के लिए अपरिहार्य है, लेकिन अशोक गहलोत के लिए सायरन है। यही वजह है कि अजय माकन के बाद के.सी.वेणुगोपाल के बाद कुमारी शैलजा और अब कर्नाटक कांग्रेस अध्यक्ष शिवकुमार भी जयपुर पहुंच रहे हैं
मतलब साफ है कि अशोक गहलोत इस बदलाव, जिसे आमूल-चूल परिवर्तन भी कहा जा रहा है, से सहमत नहीं है। परिवर्तन को यहां तक देखा जा रहा है कि मंत्रिमंडल का पुनर्गठन हो, जिसके लिए सभी मंत्रियों के इस्तीफे भी हों। यह फार्मूला न सिर्फ पेचीदा है बल्कि अस्वीकार्य भी है।
ऐसे में जिस परिवर्तन की बात जुलाई जाने से पहले की जा रही थी, वह हुआ नहीं और  अगस्त आ चुका है। कोई बड़ी बात नहीं कि यह परिवर्तन हो उससे पहले कथित तीसरी लहर भी आ जाये!
इस तीसरी लहर से पहले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को समझाने और सहमत कराने की सबसे बड़ी कवायद है, जिसे लागू करवाने का दायित्व वेणुगोपाल, शैलजा और शिवकुमार को मिला है।  पंजाब में हुए परिवर्तन के बाद चले टिवट्स  ने अजय माकन और अशोक गहलोत के बीच फासला बना दिया है। यह फासला स्वाभाविक भी है, क्योंकि माकन को लगता है कि केंद्र से ताकत लेकर वे यहां आएं हैं और अशोक गहलोत को यह पता है कि केंद्र उनकी सहमति के बगैर कुछ नहीं करने वाला। ऐसे में गहलोत अंतिम समय तक यह चाहेंगे कि जो भी बदलाव हो, उसमें उन्हें नज़र अंदाज़ न किया जाय। यही वजह है कि गहलोत की मान-मनोव्वल जारी है।
यह सही है कि कांग्रेस का संगठन बहुत अधिक निष्क्रिय हो चुका है। प्रदेश ही नहीं जिला इकाईयों का गठन भी लंबित है। गोविंद सिंह डोटासरा को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर खुद पर से ‘जाट-विरोधी’ होने का ठप्पा हटाने की अशोक गहलोत की रणनीति भी औंधे मुंह गिर पड़ी है। डोटासरा जिस तरह के विवादों में उलझें हैं प्रदेशाध्यक्ष पद से विदाई तो तय ही है। शिक्षामंत्री का पद भी छूटता प्रतीत हो रहा है। ऐसे में अगर प्रदेशाध्यक्ष पद पर किसी जाट-नेता की ही ताजपोशी की जरूरत महसूस की जाती है तो रामेश्वर डूडी के पास वह सारी योग्यता और प्रतिभा है, जो संगठन को मजबूती देने के लिए जरूरी है। साथ ही यह भी कि प्रदेश में वे ही ऐसे नेता हैं जो अशोक गहलोत के सामने अपना वजूद कायम रख पाएं हैं।
इसलिये, बार-बार जब रामेश्वर डूडी को किसी भी तरह का नेतृत्व देने की बात उठती है तो एक बारगी सन्नाटा छा जाता है। इस सन्नाटे को खत्म करना कांग्रेस की चुनौती है। संगठन को मजबूत करने से ही समाधान सम्भव है और यहां तक कांग्रेस की सोच सही है कि  जब अशोक गहलोत के समकक्ष व्यक्ति को प्रदेशाध्यक्ष नहीं बनाया जाएगा, जो उनका ‘यस मैन’ नहीं हो, तब तक न तो कांग्रेस का संगठन मज़बूत होगा और न ही कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ेगा।