-हरीश बी.शर्मा
कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदुरप्पा का इस्तीफा, पंजाब में अमरिंदरसिंह के पक्ष को दरकिनार रखते हुए एक समानांतर व्यववस्था और राजस्थान में मंत्रियों की उठापटक सिर्फ इसलिये हो रही है कि भाजपा और कांग्रेस हर हाल में सत्ता में रहना चाहती है।
इन दोनों पार्टियों को सत्ता की चाशनी चाटते रहने की ऐसी लत लग चुकी है कि नहीं मिले तो बदहवास हो जाये। हर हाल में सत्ता बची रहे। इसके लिए अजीबोगरीब समझौते। भाजपा में रहकर कांग्रेस को पानी पी-पीकर कोसने वाले नवजोत सिद्धू जब पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष बन सकते हैं तो ज्योतिरादित्य पर तो कोई सवाल ही नहीं होना चाहिये।
अगर अमरिंदर सिंह एक ट्वीट को अपमानजनक मानते हुए माफी के लिये अड़े हुए हैं तो सिद्धू का तर्क हो सकता है कि ऐसे वार तो उन्होने पूरी कांग्रेस पार्टी पर ताबड़तोड़ किये हैं, उसकी भी माफी मांगनी पड़ेगी क्या।
सिद्धू की यह वाकपटुता ही तो उनकी यूएसपी है, जिसके चलते वे जिस किसी भी पार्टी के पक्ष में माहौल बना सकते हैं। कांग्रेस को लगा कि कहीं आम आदमी पार्टी में सिद्धू गये तो वोट न कट जाए तो उन्हें उनकी शर्तों पर ले लिया गया।
येदुरप्पा बार-बार सफल होकर भी आक्रामकता नहीं रख पाए। बार-बार बाहर हो रहे हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि कल सिद्धू को इसी तरह आउट कर दिया जाए जैसे राजस्थान में चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस ने सचिन पायलट के साथ किया। जो कल भाजपा ने येदुरप्पा के साथ किया, वह अमरिंदर सिंह के साथ भी हो सकता है। कोई बड़ी बात नहीं कि थोड़ी-बहुत हील-हुज्जत के बाद अशोक गहलोत को भी केंद्र संभालने की स्वीकृति देनी पड़े, लेकिन फिलहाल तो राजस्थान में कुछ मंत्री जाने हैं, कुछ बनाये जाने हैं।
यहां भी मंत्रियों को हटाए जाने का बड़ा आधार पार्टी की छवि और वोट बटोरने की रणनीति ही है, जिसे नाम ‘परफॉर्मेंस’ दिया जा रहा। जबकि ऐसा है कुछ भी नहीं। अगर साल भर पहले गोविंद डोटासरा को कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में मनोनीत करवाया जाता है तो एक ही साल में उनकी बतौर शिक्षा मंत्री भी परफॉर्मेंस का आंकलन कैसे किया जा सकता है जबकि सारे फैसले तो अशोक गहलोत ही कर रहे थे। चर्चा है कि उन्हें हटाया जा रहा तो क्या यह माना जाय कि आरएएस परीक्षा में धांधली के लिए गोविंद डोटासरा की प्रथम दृष्टया जिम्मेदारी मान ली गई है। मतलब सरकार और पार्टी की छवि को देखते हुए उन्हें विदा किया जा जा सकता है।
रघु शर्मा पहले सचिन पायलट के साथ दिखे, फिर अशोक गहलोत के हो लिये, लेकिन कोरोना ने उनके साथ न्याय नहीं किया, लेकिन सरकार उनके बड़बोलेपन से परेशान है। दूसरी ओर उच्च शिक्षा राज्य मंत्री भंवरसिंह भाटी पर सुभाष गर्ग हावी रहे। आक्रामक स्वभाव के नहीं होने की वजह से भाटी को भी इधर-उधर किये जाने की अटकलें हैं, लेकिन पूछा तो जाए कि काम क्यों नहीं कर पा रहे हैं।
बहरहाल, पार्टी के लिए सचिन पायलट अब बड़ी चुनौती नहीं रही है। अब तो राजस्थान कांग्रेस में आमूल-चूल परिवर्तन होना है। देखना यह है कि अशोक गहलोत इसे कब तक रोके रखने में कामयाब होते हैं। राजस्थान में भेजे गए प्रभारियों और समन्वयकों की रिपोर्ट और सर्वे यह तो मानते हैं कि अशोक गहलोत अच्छे नेता हैं, पार्टी लाइन को नहीं छोड़ते, लेकिन किसी की सुनते नहीं हैं। किसी की मानते नहीं हैं। करते अपनी मर्जी की ही है। पहले केंद्रीय नेतृत्व यह मानने को तैयार नहीं था, सचिन पायलट प्रकरण के बाद यह माना जाना लगा है। अशोक गहलोत की छवि को सचिन पायलट इतना खराब करने में तो सफल हुए ही हैं।