– हरीश बी.शर्मा
आजादी के बाद देश में विपक्ष की ताकत का सर्वे किया जाए तो 2000 के बाद दिनोंदिन कमजोर होते विपक्ष की रिपोर्ट मिलेगी। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हालात ठीक थे, लेकिन जाने क्यों नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में विपक्ष की आवाज़ पूरी तरह से दब गई है।
मंगलवार के तीन घटनाक्रमों पर गौर कीजिए-सुबह राहुल गांधी विपक्ष के साथ साइकिल पर संसद पहुंचते हैं। इधर, शरद पंवार की अमित शाह से मुलाकात हुई है। पवार के अनुसार वे शाह को सहकारिता मंत्री का नया कार्य मिलने पर बधाई देने गये थे। इस बीच लालूप्रसाद यादव की सक्रियता भी चर्चा में है। वे मुलायम सिंह यादव से तो मिले ही हैं, शरद पवार से भी चर्चा की है।
भारतीय राजनीति में शरद पवार एक ऐसे नेता हैं, जिन्हें अपरिमित राजनीतिक परिपक्वता वाला व्यक्तित्व कहा जा सकता है, लेकिन उनकी इस ताकत का इस्तेमाल नहीं होना एक बड़ी त्रासदी रही है। यह अहसास शरद पवार में भी है और यहीं से जन्म ले चुकी इच्छाशक्ति उन्हें सक्रिय बनाये रखे है। यह एक मात्र कारण है कि राजनीतिक पंडित उन्हें कम नहीं आंक पाते।
इधर, जब लालूप्रसाद यादव सक्रिय हो गए हैं तो राजनीति में रुचि लेने वालों की जिज्ञासा जागनी स्वाभाविक है कि वे अब क्या करेंगे। नरेंद्र मोदी के उदयकाल मे लालू यादव प्रतिष्ठित नेता थे। मुलायम सिंह का रुतबा भी कम न था। अब सुनने में आ रहा है कि मुलायम भी लालू यादव के साथ एक और पारी खेलने के मूड में है। यह पारी शुरू भी हो चुकी है। लालू यादव ने इस अभियान में रामविलास पासवान के पुत्र चिराग को भी शामिल कर लिया है और बिहार की लड़ाई में चिराग को तेजस्वी के साथ खड़ा करने की योजना में है।
चिराग और तेजस्वी की जुगलबंदी क्या रहती है, यह वक़्त पर निर्भर करता है, लेकिन कांग्रेस के लिए यह चुनौती है कि वह अब भी नहीं संभली तो कब सम्भलेगी?
कांग्रेस या भाजपा अभी जिस मकाम पर है, उन्हें स्वाभाविक विपक्ष नहीं माना जा रहा बल्कि ऐसी दो राजनीतिक पार्टियों के रूप में देखा जा रहा है, जो सत्ता के लिए ही है। कभी ये तो कभी वो। भाजपा भी अब विपक्ष में रहकर संघर्ष करने की आदत भूल चुके है। इस पार्टी के नेता हारने के बाद सीधे एकांतवास में चले जाते हैं।चुनाव से पहले सक्रिय होते हैं। कांग्रेस भी ऐसा ही करती रही है। दोनों ही राजनीतिक पार्टियों के पास संघर्ष करने और सत्ता भोगने वाले नेताओं की भी श्रेणियां बन चुकी है।
इसलिये, देश में जो बड़ी जरूरत महसूस की जा रही है वह गैर कांग्रेसी-भाजपाई विपक्ष की है। यह विपक्ष लालू यादव, मुलायम सिंह और शरद पवार के नेतृत्व में तैयार होता है या इसमें ममता की निर्णायक भूमिका रहती है,यह देखना बाकी है।
लेकिन यह यह तय है कि राहुल गांधी के साथ कोई बड़ा गठबन्धन विपक्ष नहीं करेगा। इससे बेहतर है कि राहुल गांधी कांग्रेस को एक करे। अगर राहुल के नेतृत्व को लेकर भी कांग्रेस में सर्वमान्यता बन जाये तो बड़ी समस्या का निराकरण हो सकता है। इसकी पहली शुरुआत तब होगी जब आम संबोधन में राहुल गांधी को विपक्ष द्वारा दिये गए’ पप्पू’ नाम से राहुल गांधी को पहचानने से हर कांग्रेसी का इनकार हो।
राहुल गांधी को जब तक उनकी पीठ पीछे ‘पप्पू’ कहा जाता रहेगा, उनकी सर्वमान्यता सिद्ध नहीं होगी। संभवतया यही वह बड़ी वज़ह है जो राहुल गांधी को बार-बार ताजपोशी के लिए पीछे कर रही है। भारतीय राजीनीति में जब भी राहुल गांधी पर अध्ययन होगा, यह बात मानी जायेगी कि उनके लिए पप्पू संबोधन रणनीतिक तरीके से उन्हें भले ही कमतर साबित करने के लिए नहीं किया गया हो, लेकिन यह एक ऐसा शब्द रहा, जिसने उन्हें कमजोर किया बल्कि समूची युवा पीढ़ी भी प्रभावित हुई।
बहरहाल, विपक्ष को एकजुट करके राहुल गांधी संसद तक ले जाने में तो कामयाब हो गए हैं। अब इस एकजुटता को वे भाजपा को हटाने के मिशन में कांग्रेस के साथ कब तक खड़ा रख पाते हैं, देखने की बात है।