हस्तक्षेप

– हरीश बी. शर्मा

शुक्रवार को हुए रेल हादसे के बाद सरकार के उन सभी दावों की पोल खुल चुकी है, जिसमें यह कहा जा रहा था कि हमारे पास ऐसी तकनीक विकसित हो चुकी है, जिससे रेल दुर्घटनाओं को टाला जा सकता है। ‘कवच’ नाम की जिस तकनीक के दावे किए जा रहे हैं, उसका तो तब पता चलता, जब यह वहां होती। रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव के गृहराज्य में जहां यह दुर्घटना हुई, वहां ‘कवच’ तकनीक इस्तेमाल ही नहीं की गई, है ना आश्चर्य की बात! इससे भी बड़ा आश्चर्य यह है कि दो जून को हुई दुर्घटना में जबकि अब यह साफ हो चुका है कि पौने तीन सौ लोगों की मौत हो चुकी है। हजार से अधिक घायल हो गए हैं, लेकिन इस दुर्घटना के कारण क्या रहे, कोई नहीं बता पा रहा है।

बालासोर का बहनागा बाजार स्टेशन, जहां यह दुर्घटना हुई वहां एक चार लाइन वाला स्टेशन है। यहां बीच में से दो मुख्य लाइनें निकलती है और दोनों तरफ दो लूप लाइनें हैं। दोनों लूप लाइनों पर लोहे के सामान से लदी मालगाडिय़ां थीं। कोरोमंडल एक्सप्रेस हावड़ा से चैन्नै जा रही थी और बेंगलुरू-हावड़ा सुपरफास्ट एक्सप्रेस हावड़ा आ रही थी। दोनों लाइनों पर ग्रीन सिग्नल था और रफ्तार भी 130 किलोमीटर प्रतिघंटा थी, जिसे निर्धारित गति से तेज नहीं कहा जा सकता है। इन तथ्यों के आधार पर जांच हुई है।
या तो यह हुआ होगा अथवा ऐसा हो सकता है, जैसे कयासों से भरी जांच रिपोर्ट में सिग्नल पर दोष मढ़ा गया है, लेकिन देश यह जो जानना चाहता है, उसका जवाब सरकार के पास नहीं है। देश को लालबहादुर शास्त्री याद हैं, जिन्होंने रेल हादसे के बाद इस्तीफा दे दिया था, अपेक्षा तो अश्विनी वैष्णव से भी ऐसी ही की जा रही है, लेकिन चूंकी मांग ममता बैनर्जी और राहुल गांधी की तरफ से उठी है, तब कमजोर पड़ गई है।
वैसे भी इस्तीफा खुद की आत्मा की आवाज पर दिया जाता है। लोगों के कहने से दिया जाता तो बृजभूषणसिंह कभी दे चुके होते। बहरहाल, दो जून को हुए इस रेल हादसे ने रेलवे के बड़े-बड़े दावों की पोल खोलकर रख दी है, वह भी तब जब हमारे यहां रेल की रफ्तार सामान्य ही रहती है। हम यहां बुलेट ट्रेन चलाने की भी सोच रहे हैं और सामान्य रेल दुर्घटनाएं नहीं रोक पा रहे हैं तो किस मुंंह से कह पाएंगे कि रेल का विकास किया है।

इस बात से इंकार नहीं है कि रेल ने विकास किया है। रेल कार्पोरेट बनती जा रही है। कोरोना काल के बाद वरिष्ठजनों को यात्रा में मिलने वाली छूट को बंद कर दिया गया है। खान-पान की सुविधाओं को बढ़ाया जा रहा है। सब होना चाहिए, लेकिन मूलभूत विषय है यात्रियों की सुविधा का, जिसे लेकर अगर रेल मंत्रालय गंभीर नहीं है तो फिर इससे लोक कल्याण की उम्मीद कैसे की जा सकती है।

हमारे देश में रोजाना जितने लोग रेल का सफर करते हैं, उतने लोग कुल मिलाकर आस्ट्रेलिया में हैं। मतलब आबादी इतनी ही है। इस तथ्य के बाद भी अगर हमारा रेल मंत्रालय मानव जीवन के प्रति इतना लापरवाह हो सकता है तो फिर किसे और क्या कहा जाए। ओडिशा का रेल हादसा सिर्फ सबक ही नहीं, चुनौती है कि मंत्रालय किसी भी गफलत में नहीं रहें। इसे मानवीय भूल समझकर भुलाया भी नहीं जा सकता। इस तरह की गलतियां भविष्य में नहीं हो, इस दिशा में काम होना जरूरी है।

‘लॉयन एक्सप्रेस’ के संपादक हरीश बी.शर्मा के नियमित कॉलम ‘हस्तक्षेप’ के संबंध में आपके सुझाव आमंत्रित हैं। आप 9672912603 नंबर पर वाट्स अप कर सकते हैं।