मनोज रतन व्यास
बीते शुक्रवार को देश भर के मल्टीप्लेक्स मालिकों द्वारा नेशनल सिनेमा डे घोषित किया गया। कोविड के बाद फिर से दर्शकों का रुख सिनेमाघरों की ओर हो,इसलिए ही 23 सितंबर को देश के लगभग हरेक थिएटर में टिकट की प्राइस महज 75 रुपए थी। गुजरे शुक्रवार को देश भर के सिनेमाघरों में लाखों सिनेमा लवर्स टिकटों के दाम कम होने के कारण आए। विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार 23 सितंबर को करीब 70 लाख लोगों ने बॉक्स ऑफिस पर टिकट खरीदे। सनद रहे 23 सितंबर को ही शाम को इंडिया-आस्ट्रेलिया के बीच दूसरा टी ट्वेंटी मैच भी था। देश के कई हिस्से अतिवृष्टि के भी चपेट में है। इन सब कारणों के बावजूद दर्शकों के सैलाब ने थिएटरों की ओर रुख किया। 75 रुपए टिकट के दाम होने के बावजूद रणबीर कपूर की फि़ल्म “ब्रह्मास्त्र” ने रिलीज के 15वें दिन लगभग 11 करोड़ रुपए का बिजनेस किया। इसी दिन सन्नी देओल की फि़ल्म “चुप” ने भी करीबन साढ़े तीन करोड़ रुपए का धंधा किया।

इतनी बड़ी संख्या में एक ही दिन में फैन्स का सिनेमाघरों की तरफ आना क्या संकेत देता है? संकेत बिल्कुल साफ है,आम लोग सिनेमा के जादू से प्रभावित थे और चिरकाल तक रहेंगे। अब सवाल उठता है कि फिर अधिकांश फिल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल क्यों हो रही है। फिल्मों के कंटेंट,रीमेक और बायोपिक कल्चर से सिनेमा प्रेमी उकता से गए है, इस बात की चर्चा इसी कॉलम में कई मर्तबा की जा चुकी है।
लोग थिएटरों की तरफ आशा के अनुरूप नही आ रहे है क्योंकि सिनेमा को फिल्में बनाने वालों ने ही कॉमन मैन से दूर कर दिया है। सिनेमा को लग्जरी बनाने की बड़ी भूल की गई है। सिनेमा तो समाज का दर्पण है, सिनेमा को तो आम आदमी की रीच में होना चाहिए,बस यही बड़ी गलती हमारे फि़ल्म निर्माता, वितरक और थिएटर मालिक कर रहे है।

वक्त आ गया है टिकटों को प्राइस पर फिर से विचार किया जाए। चार लोगों की फैमिली के लिए फि़ल्म देखना अगर 2000 रुपए से ज्यादा का खर्च आएगा तो आम आदमी फिर सिनेमा से विमुख ही होगा। भारत में यूं भी जनसंख्या घनत्व के हिसाब से सिनेमाघर बहुत कम है, जरूरत है देश के बी और सी सेंटर्स में अधिकाधिक थियेटर खोलने की और साथ में टिकटों की कीमत भी रीजनेबल हो। एक्टर अजय देवगन नेपथ्य में रहकर इस दिशा में बड़ा काम कर रहे है। अजय की कम्पनी एनवाई सिनेमाज देश के छोटे शहरों और कस्बों में थिएटर चैन खोल रही है। अजय देवगन इस बात का भी ध्यान रख रहे है कि फिल्मों के टिकट आम लोगो की पहुंच से बाहर न हो।

फि़ल्म निर्माता और वितरक मेट्रो सिटीज और छोटे शहरों में टिकटों की रेट में अंतर रख कर थिएटरों में गुजरे शुक्रवार की तरह दर्शकों की फुटफॉल बढ़ा सकते है।क्वांटिटी और क्वालिटी का सही सामंजस्य होगा तो कभी भी मूवी बिजनेस में भयंकर गिरावट निकट भविष्य में कभी भी देखने को नही मिलेगी। जनता के एक वर्ग को लगने लगा था कि बॉयकॉट ट्रेंड और साउथ सिनेमा के कारण मुम्बईयां हिंदी सिनेमा घोर संकट में घिर जाएगा। ऐसे अनुमान अतिरेक की भावनाओं से इतर कुछ भी नही था। सिनेमा आम लोगों को दो ढाई घण्टे में पोइटिक जस्टिस देता है,भरपूर मनोरंजन करता है, कभी कभी सार्थक संदेश भी सम्प्रेषित कर देता है,इसलिए सिनेमा पर कोई सवालिया निशान न पहले था और न आने वाले वक्त में होगा,बस जरूरत है सिनेमा को लग्जरी के टेग से हटाकर आम लोगों तक सहज रूप से पहुंचाने की….