लगभग चार महीने पहले जब हरीश जी का ये उपन्यास मुझे मिला तो उससे पहले से ही उपन्यास की चर्चा से दो-चार हो चुकी थी। और ऐसे में जो होता है वही मेरे साथ भी हुया, उम्मीद कुछ बढ़ ही जाती है। पैकेट खोलते ही उपन्यास का भारी भरकम कलेवर चौंका गया। ऐसे समय में जब लंबे उपन्यास पढ़ने का धैर्य कम ही बचा है। खुद मैं रचना करते हुए उपन्यास लंबा होने लगे तो उसे समटेने में लग जाती हूँ तो हरीश जी का यह उपन्यास जोखिम भरा ही लगा। पढ़ने और लिखने दोनों के ही नजरिए से। नाम देखा तो अधिक प्रभावित नहीं हुई। पढ़ना शुरू किया तो लगा जैसे कि कोई भूली बिसरी प्रेम कहानी में गोता लगाने वाली हूँ।

लेकिन तभी एक वाक्य ने चौंका दिया… ‘अनायास हुआ भी किसी सायास का प्रयास है। इसलिए ना आस्तिक बनो ना नास्तिक। बनना है तो वास्तविक बनो।’  एक ही वाक्य में अपने खुद के जीवन का सार लिखा देख कर मन जुड़ा गया।  इसके बाद तो एक के बाद एक कई ऐसे ही वाक्यों को ढूंढते पढ़ते उपन्यास को आहिस्ता-आहिस्ता पढ़ते हुए गुना। आहिस्ता-आहिस्ता इसलिए कि मैं आदतवश रात के सोने से पहले ही पढ़ायी का काम करती हूँ। दिन में जीवन की अन्य व्यस्ततायें।  अब बात उपन्यास की।

हरीश जी ने उपन्यास में जीवन के कई आयामों को छूते हुए एक ऐसी कहानी का वृहद ताना बाना बुना है जो डबल इक्कत बुनायी की खूबसूरती और बेहद मजबूत टिकाऊ रेशम का आभास देने लगता है। कहानी एक अजब से रोमांस से शुरू होती है जो एक लिविन का रूप लेती हुई आजाद संबंधों की तरफ मुड़ती है।

जिस समाज और वातावरण में इस उपन्यास की पृष्ठभूमि हैं वहाँ ऐसे संबंधों को सहज लेना आसान काम नहीं है। मगर जिस सहजता के साथ उपन्यास के नायक नायिका इसे निभाते हैं। कुछ असहज करता है इस बात से इनकार नहीं करूंगी। मगर सहजता यूं आ जाती है कि लेखक को जितनी कलाकार होने की छूट देनी चाहिए वह मेरा मन भी देने को करता ही है। स्वार्थी जो हूँ। मैं खुद इसी तरह की छूट अपनी लगभग हर रचना में लेती चलती हूँ। हरीश जी का ये कथन इस बात की बानगी है। ‘नयापन गहराई में उतरने पर मिलता है। लेकिन कीमत सतह तक आने में ही बनती है। यही सम्प्रेषण है।’

सम्प्रेषण की बानगी यूं कि उपन्यास एक रहस्यमयी जीवन को पीछे छोड़ कर आई श्रुति अपने पूर्व प्रेमी जो एक मठाधीश बन चुका हैं, के पास पहुँच तो जाती है मगर शीघ्र ही उसका जिस तरह मोहभंग होता है वह वास्तविकता के बेहद नजदीक है। यहाँ कल्पना और वास्तविकता को जिस तरह हरीश ने गूँथा है और पकाया है यह किसी मीठे व्यंजन में नमकीन का तड़का लगे होने का बोध देता हुया लगता है।

और फिर बारी आती है राजनीति की और वो भी राजधानी के बीहड़ की राजनीति। यहाँ जिस काल को उभार कर हूबहू हरीश जी ने आँखों के सामने ला खड़ा किया है वह शब्दातीत है। आज जिस दौर में यह आरंभ पहुँच चुका है इसकी नींव की इबारत हरीश के इस उपन्यास में साफ तौर पढ़ी जा सकती है।  ऐसा नहीं कि उपन्यास मोहभंग होने के सिलसिले ही लिए हुए है। अंत आते आते परंपरा से हट कर सुखद आश्चर्यों के मेल मिलाप भी हैं और कुछ और रहस्यों का उद्घाटन भी।

देखा जाये तो हर जीवन एक उपन्यास अपने आप में समेटे रहता है। फिर भी किसी एक जीवन को परिभाषित करने के लिए यह वाक्य कम नहीं हो सकता। ‘गंभीरता भरे चेहरे पर उभरी हल्की सी मुस्कान भी किसी ठहाके से कम नहीं होती। ठहाके मारने वाले चेहरे की आँखों से आने वाले आँसू हकीकत बयान कर देते हैं।’

उपन्यास ‘ श्रुति शाह कॉलिंग’ एक ऐसी कृति है जो लेखक के श्रम को मन की भीतरी परतों तक पहुंचाती है। साथ ही लेखक से उम्मीद को भी बढा देती है। एक चुनौती है हरीश जी के लिए कि अगला उपन्यास इससे बड़ा हो। इस महत्वपूर्ण रचना के लिए हरीश बी. शर्मा को तहेदिल से बधाई और शुभकामनाएं। लिखते रहें निरंतर..

 

– प्रितपाल कौर
लेखिका ख्यात उपन्यासकार व पत्रकार हैं।

गायत्री प्रकाशन, बीकानेर से प्रकाशित

464 पृष्ठ पैपरबैक संस्करण 

मूल्य 399/- रुपये  

सम्पर्क: 8279206182