– मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘

भाषा व्यक्ति, प्रान्त की अस्मिता से जुड़ी होती है। उनकी संस्कृति की पहचान होती है। दुनिया में शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो अपनी संस्कृति पर प्रहार झेलेगा। अपनी अस्मिता को समाप्त होते देखेगा। भाषा और संस्कृति के लिए दुनिया में बड़ी लड़ाईयां लड़ी गई है। अनेक देशों में सत्ता परिवर्तन का आधार भाषा और संस्कृति बनी है। इतिहास इस बात का गवाह है। मातृ भाषा से मोह व्यक्ति की पहचान है। रूस की क्रांति, भारत का स्वतंत्रता आंदोलन, जर्मनी का इतिहास इस बात की गवाही है कि मातृ भाषा कितनी बड़ी जरूरत है।

बहुल भाषा, संस्कृति की नींव पर खड़ा भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा और स्वस्थ लोकतंत्र माना जाता है। मगर सत्ताओं ने अब तक भाषा को लेकर जो राजनीति की है वो व्यक्ति के लिए चुनोती तो है ही, लोकतंत्र के लिए भी शर्मनाक है। हम जानते हैं, दक्षिण में भाषा के आधार पर कई दलों का गठन हुआ है, जिनको सत्ता भी मिली है। भाषा को लेकर देश ने अनेक उग्र आंदोलन भी झेले है। मगर इसके बाद भी सत्ताओं को भाषा और संस्कृति का संवेदनशील मुद्दा समझ नहीं आ रहा है, ये लोकतंत्र के लिए चिंता की बात है। ये लावा कभी भी बड़ा रूप ले सकता है।

संविधान की आठवीं अनुसूची में अपनी भाषा को शामिल कराने के लिए 12 करोड़ राजस्थानी दशकों से प्रयास कर रहे हैं। मगर चाहे किसी भी दल की सरकार हो, इन प्रयासों पर आंख मूंदे रही है। ये स्थिति खतरनाक है। वो भी तब जब राजस्थान विधान सभा ने 2003 में सर्व सम्मति से राजस्थानी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेज चुकी है। पहले की और अब की सरकारों के दल अलग अलग है, मगर राजस्थानी की मान्यता को लेकर रुख एक सा है। ये चिंता की बात है राजस्थानियों के लिए। जबकि राज ने कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा को भी मान्यता दे रखी है। जिसका राजस्थानी विरोध नहीं करते, स्वागत करते हैं। वे तो अपनी भाषा की मान्यता की मांग करते हैं। जो जायज बात है। उसे भी नहीं माना जा रहा। हर राज केवल वोट की राजनीति करता है और निर्णय लेता है। ये बात भी राजस्थानियों को समझनी चाहिए।

राजस्थान में तो हर पांच साल बाद सत्ता का दल बदलता है, मगर यहां का राज भी राजस्थानी को दूसरी राजभाषा नहीं बना रहा। ये निर्णय तो राज्य की सरकार के हाथों में ही है।
एक भ्रांति ये भी है कि राजस्थानी को मान्यता से राष्ट्र की संपर्क भाषा हिंदी कमजोर होगी। ये झूठ है, राजस्थानी की मान्यता से हिंदी मजबूत होगी। राजस्थानी की मान्यता की मांग हिंदी का विरोध नहीं, इसलिए इस भ्रांति को दूर किया जाना चाहिए।

आज राजस्थानी के जन कवि कन्हैया लाल सेठिया की 102 वीं जयंती है, फिर से हर राजस्थानी भाषा की मान्यता की भावना हिलोरे ले रही है। हर राजस्थानी को अपनी भाषा, संस्कृति, अस्मिता पर सोचना चाहिए। केंद्र और राज्य के राज को भी 12 करोड़ लोगों की भावना पर विचार करना चाहिए। अब राजस्थानी जागा हुआ है, ये राज को समझना चाहिए। शांत राजस्थान शौर्य भी रखता है, इतिहास इसका साक्षी है। राज्य राजस्थानी को राज भाषा का दर्जा दे, केंद्र संवैधानिक मान्यता दे। जै जै राजस्थानी।

इस आलेख के लेखक वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार हैं।