– शशांक शेखर जोशी

आज जब लॉयन एक्सप्रेस पर इस हफ्ते के अपने स्तंभ के बारे में विषय तलाश रहा था तो यकायक ही दिल ने कहा कि क्यों न बात वर्तमान परिपेक्ष्य में हिंदी के हालातों और हिंदी दिवस की सार्थकता के बारे में ही हो। वर्तमान पीढ़ी की भाषाई समझ और उसके लिये अभिभावकों एवं हिंदी साहित्यकारों का दायित्व, कभी इस ओर हमने सोचने की जहमत तक भी उठाई है? निजी स्कूलों पर तो इस विषय में बात तक करना बेमानी है।

आज के युग में टूटी फूटी अंग्रेजी बोलना जहां हम शर्म की विषय वस्तु मानते हैं वहीं अपनी मातृभाषा के शब्दों से अनजान होती पीढ़ी शायद किस प्रगती की द्योतक है? कुछ दिन पहले की अपने साथ घटी हुई घटना का उदाहरण आपसे साझा करना चाहूंगा। मेरे कार्यालय में एक मेरी सहकर्मी है जो कि कम से कम मुझसे 10 वर्ष छोटी होगी। मेरी साहित्य और पुस्तकों के प्रति रुचि जानकर उसने एक दिन मुझसे अमिश त्रिपाठी की शिव रचनात्रय की प्रथम पुस्तक पढ़ने के लिए मांगी। जिस दिन मैंने वो पुस्तक उसको उपलब्ध करवाई ठीक उसी दिन मात्र कुछ पन्ने टटोलने के बाद वह मुँह बनाते हुए कहने लगी कि सर ये हिंदी किताबें पढ़ना भी एक सरदर्दी का काम है। मैंने चौंकते हुए पूछना चाहा तो जवाब मिला कि हिंदी में इतने कठिन कठिन शब्द होते हैं जो कि मुझे समझ तक नहीं आते अतः इससे सरल तो अंग्रेजी किताब को पढ़ना है। उसकी बात की पैरवी उसकी हमउम्र के अन्य सहकर्मियों ने भी की। मैं बड़े ही कोतुहल से उसे देखता रहा। बी. कॉम, एम. बी. ए, और अब मार्केटिंग में पीएचडी कर रही वह सहकर्मी अपनी मातृभाषा से इतनी अनजान कैसे हो सकती है यह सोच सोच कर मैं अब तक हैरान हूँ। चलो मैंने उसको एक युक्ति सुझाई और कहा कि तुम जब भी इस किताब को पढ़ो पेंसिल से हर उस शब्द के नीचे एक सीधी रेखा खींच देना जो तुम्हें पढ़ते हुए समझ न आये। उसके दूसरे ही दिन से आज तलक रोज वह मुझसे उन शब्दों के अर्थ पूछती है जो उसे समझ न आये हों। घोर आश्चर्य की बात यह है कि उनमें से अधिकांश शब्द ऐसे निकले जो कि सामान्य से हैं जैसे वेला, भ्रमित, माधुर्य, गाम्भीर्य, त्योरी, बयार, कश, परिपाटी आदि।

मेरे अनुसार किसी भी हिंदी भाषी के लिए उन शब्दों की अनभिज्ञता आज की पीढ़ी को हमारी मातृभाषा से कितना दूर ले जा रही है। आज की पीढ़ी की ये हालत है तो आने वाली पीढियां हिंदी को कितना अपनाएंगी यह एक विचारणीय बिंदु है। यहां चर्चा करने लायक बात यह है कि आज के अभिभावक भी जबरन अपने बच्चों को अंग्रेजी की तरफ धकेल रहें हैं शायद उनको ऐसा लगता है कि आज के सामाजिक परिवेश में अगर उनके बच्चे अच्छी लय में अंग्रेजी बोलेंगे तो समाज एवं परिवार में उनका रुतबा बढ़ेगा। ये ठीक उसी तरह है जैसे नई नवेली दुल्हन के मोह पाश में बंधकर अपने माता पिता की उपेक्षा करना अथवा उनको वृद्धाश्रम में छोड़ आना। शायद ही ऐसा कुछ बर्ताव आज की पीढ़ी हिंदी के साथ कर रही है।

साहित्यकारों के इरादों पर मैं कोई सवाल नहीं उठाना चाहता पर उनसे करबद्ध सिर्फ इतना पूछना चाहूंगा कि क्या पिछले कई सालों में हमारे स्थापित साहित्यकारों ने इस ओर कोई कदम उठाया है? क्या हमने हिंदी साहित्य को आज की पीढ़ी तक पहुंचाने का कोई सार्थक प्रयास किया है? रचना कर्म कर लेने और प्रकाशित हो जाने भर से ही हमारे कर्तव्यों की इति श्री नहीं हो जाती। पुस्तक प्रदर्शनियों को अगर छोड़ दें तो आजकल के शोरूमनुमा बड़े बड़े बुकस्टोर्स में 20 प्रतिशत से भी कम हिंदी साहित्य की पुस्तकें मिलेंगी।

कुछ वर्षों पहले मेरी मसूरी यात्रा के दौरान वहां स्थित एक किताबों की शोरूमनुमा दुकान के मालिक से जब मैंने हिंदी किताबों की अनुपलब्धता के बारे में चर्चा की तो उन्होंने बताया कि हिंदी किताबों की मांग साल दर साल गिरती जा रही है, वहीं अंग्रेजी किताबें खूब बिकती है अतः हिंदी पुस्तकों को रखना हमारे लिए नुकसान का व्यापार है।

वर्तमान की उम्दा स्कूलों से तो मैं इस लेख के शुरू में ही इस विषय बाबत किनारा कर चुका हूँ। वहीं सरकारी प्रयास भी इस चिंताजनक विषय पर न के बराबर ही हैं।

हिंदी दिवस पर अखबारों के रोगन, समाचार चैनल, सोशल मीडिया और व्हाट्सएप भर जाएंगे पर उपरोक्त व्यक्त की गई चिंताओं से अगर इन सबको तौला जाए तो ये ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत के जैसा होगा। सरोकार स्तंभ में अपनी इस चिंता को आप सबके समक्ष रखना ही शायद मेरे लेखन की सार्थकता हो। बाकी मेरी ओर से सबको हिंदी दिवस पर असीम शुभकामनाएं।