–  राजा अवस्थी (Raja Awasthi)
राजस्थान के प्रख्यात् नाटककार, कवि, कथाकार और उपन्यासकार हरीश बी शर्मा का वृहद्काय उपन्यास ‘श्रुति शाह काॅलिंग’ ऐसे समय में प्रकाशित होकर आया है, जब लोग बड़ा उपन्यास तो क्या लम्बी कहानी और लम्बी कविता तक नहीं पढ़ना चाहते! कम से कम माना तो ऐसा ही जा रहा है। ऐसे समय में 464 पृष्ठों का उपन्यास इस मिथ को तोड़ता है।
इस उपन्यास में दो कथाएँ एक दूसरे के समानांतर चलते हुए भी पात्रों की एक-दूसरे में आवाजाही से परस्पर सम्बद्ध भी हैं। बल्कि, यह कहें कि अपरिहार्य रूप से सम्बद्ध हैं। ये दोनों कथाएँ अन्त में एक बिन्दु पर जाकर मिल भी जाती हैं और कथा सुखान्त बन जाती हैं। उपन्यास का गठन ऐसा है, कि इसके पात्रों का चरित्र-गठन और विकास उपन्यास में घटने वाली घटनाओं के बीच संघर्ष से बनता और विकसित होता है।
उपन्यासकार ने ‘श्रुति शाह काॅलिंग’ को बहुत सारे उपशीर्षकों में बाँटा है। बिल्कुल पहले ही शीर्षक ‘वरेण्य’ में वह एक ऐसी फन्तासी रचता है, जिसमें इस वृहद्काय उपन्यास के सारे कथासूत्र ढूँढ़े जा सकते हैं। उपन्यास का अंत भी ‘समाधि’ उपशीर्षक में ‘वरेण्य’ की बारिश, बरखा अर्थात् वर्षा और ऊँट के साथ ही होता है और यहाँ भी पूर्णमासी और सपने की बात होती है। जो सपना उपन्यास के आरम्भ में निखिल देखता है, उपन्यास के अन्त में वर्षा भी वैसा ही सपना देखने की बात करती है। पूरे उपन्यास में ‘देह’ और ‘रमण’ आद्यांत छाये हुए हैं, लेकिन पात्रों के लिए महत्वहीन से हैं। यद्यपि यह एक युग सत्य की तरह होता जा रहा है। वर्षा, जो उपन्यास में बहुत बाद में आती है, वह और उसके साथ रमण की कामना और संतुष्टि भी पहले ही अध्याय में निखिल के फैन्टेसी से भरे सपने में आ जाती है। हरीश बी शर्मा उपन्यास में बहुत बाद घटने वाली घटनाओं के भी सूत्र बहुत पहले ही छोड़ देते हैं। बेदिल अहसास भी एक ऐसा नाम है, जो किसी शुरुआती पृष्ठ पर केवल नाम के रूप में आता है। लेकिन बाद में उपन्यास के बड़े हिस्से में वही बना रहता है। रिंकी भी इसी तरह आती है। रिंकी, श्रुति का यथार्थ है और बेदिल अहसास एक सपना था, जो श्रुति की सास, रिंकी और आयाम के साथ मिलकर उपन्यास को अंत तक पहुँचाता है।
हरीश बी. शर्मा अपने उपन्यास ‘श्रुति शाह काॅलिंग’ में अपने समय पर सशक्त टिप्पणी की तरह कथा को बुनते और विकसित करते हैं। उपन्यास के प्रवेश में ही लोन देने वाली कम्पनियों के लिए काॅल करने वाली लड़कियों की नौकरी की अस्थिरता और उनके रोजगार की तुलना ‘दिहाड़ी’ से करते हुए एक कड़वे सच को ही कथा में बुन दिया गया है। वहीं अगले ही पृष्ठ में भी टी वी देखते हुए कथानायक की यह टिप्पणी कि “मिस्टर रिमोट! तुम अब कुछ भी नहीं कर सकते, चैनलों ने एका कर लिया है।” बहुत मायने रखती है और न्यूज़ चैनलों के नाम पर निरर्थक और एकरस से हो चुके चैनलों की स्थिति को बताती है।
वर्षा जिन्दगी भर निखिल के दिमाग पर छाई रहती है। वह कभी उसकी स्मृतियों को झटक नहीं पाता। वर्षा के साथ उसकी स्मृतियों का और उसके साथ बीते पलों का केनवास बहुत छोटा है, लेकिन वही दूसरे सारे केनवासों को ढक लेता है। शायद जो अपने आप को हमसे छीन लेता है और इस बात के कारण हम स्वयं होते हैं, उसका पश्चाताप बना ही रहता है और समय के साथ और सघन होता जाता है। वर्षा भी निखिल की जिन्दगी में कुछ इसी तरह छाई हुई है। जमात शीर्षक में पृष्ठ 210 में ‘लंगर’ शब्द की आमद होती है। वे लिखते हैं कि ” बहुत सारे लोग रोज देश भर से नाना की जमात पर पहुंचते और इस तरह दिन में सैकड़ो लोगों में देशभक्ति का सागर हिलोरे मारता। रोज लंगर जैसा माहौल रहता।” गिरधर के बहाने लेखक एक और महत्वपूर्ण और बड़ी बात कहता है। वह लिखता है कि ” नाना परांजपे के आसपास जुट रहे लोगों को भले ही यह नजर आ रहा था, कि नाना के इर्द-गिर्द सत्ता केंद्रित हो रही है, लेकिन गिरधर को पता था, कि नाना जैसे लोग सत्ता के लिए हथियार का काम करते थे।”
लेखक बी हरीश शर्मा कई जगह दार्शनिक हो उठते हैं। श्रुति निखिल के लिए एक पत्र में लिखती है,” प्रेम ओर देह, आकर्षण जगाने के दो अलग-अलग उपकरण हैं। प्रेम दिखता नहीं है, देह दिखती है। इसलिए बहुत सारे लोग देह को पाना ही प्रेम समझ लेते हैं। प्रेम तो एक बार ही होता है, जैसे मुझे सौरभ से हुआ।” (पृष्ठ 217)। श्रुति ऐसी स्त्री के रूप में उभरी है, जिसके लिए देह और प्रेम दो बिल्कुल अलग चीजें हैं, लेकिन वह जिससे प्रेम करती है, वह भी पुरुष ही है और श्रुति बार-बार उसके साथ देह को संतुष्ट करती है। अपनी भी और उसकी भी। वह हमारे समय में देह को महत्वहीन मानकर उसे किसी को भी सौंपकर कुछ खोने जैसे भाव को मन में न लाने वाली पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती है। श्रुति जैसा चरित्र अस्वीकार्य लेकिन दुर्लभ कोटि का चरित्र है। वह सौरभ से प्रेम करती है। विशाल से शादी करने के बाद भी सौरभ को छोड़ती नहीं। यहाँ तक कि सौरभ की चाल समझने के बाद भी उसके बीज को अपनी धरती पर पनपने देती है। उसके द्वारा ठुकरा दिए जाने पर भी उसी को पाने के लिए निखिल का उपयोग करती है। यहाँ भी उसकी देह माध्यम की तरह ही है। सुख पाने का माध्यम। सुख! जो उसे सौरभ को पाकर मिलता और जो अभी देह को मिल रहा है, वह? वह भी तो है ही।
उपन्यास में श्रुति के अलावा दो तरह की स्त्रियाँ और हैं। एक वर्षा है, जो निखिल के द्वारा पहली ही बार समर्पण के समय – “और किस-किसके लिए ऐसी हसरत है।” कहने पर उसे दुत्कार देती है, लेकिन फिर किसी और को अपने मन तक नहीं पहुँचने देती और न ही देह तक। वह फिर उपन्यास के अन्त में ही निखिल से मिलती है। उसके लिए उसकी देह भी बहुत अर्थ रखती है। दूसरी साँवरी है, जिसके साथ चार लोग एक ही रात में! लेकिन वह इसे भी अपनी ड्यूटी या जरूरत मानकर हँसते हुए करती है।
इस उपन्यास में जो एक और कथा समानान्तर चलती है, वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। उसमें चौरासी के दंगों और नरसंहार की चर्चा के साथ अन्ना के आंदोलन और उससे फायदा उठाने वालों का पूरा विवरण मिलता है। लेखक ने सीधे-सीधे किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन पाठक पढ़ते हुए सही जगह पहुँच ही जाता है।
लेखक इस उपन्यास में अपने समय के पूरे चरित्र को, चाहे वह सामान्य मानवीय चरित्र हो, चाहे निरन्तर आगे बढ़ने और प्रगतिशील दिखने में लगा स्त्री चरित्र हो, चाहे साँवरी की तरह विवशता को मुस्कुराते हुए स्वीकार करता शोषित चरित्र हो, चाहे बाबाओं, मठों, महन्तों के बीच पलते डरावने और कुत्सित चरित्र हों अथवा सूरज, नेगी और गिरधर जैसे राजनीति के चरित्र हों, सभी का यथार्थ और पठनीय चित्रण किया है। उनके बीच निखिल ऐसा चरित्र है, जो इन सबमें श्रेष्ठ होकर भी इनके द्वारा ही उपयोग किया जाता है। ऐसा हमेशा ही होता रहा है और यह भी सार्वकालिक सत्य है।
उपन्यासकार ने निखिल के आदर्श ग्राम बनाने के संकल्प के साथ उपन्यास का अन्त करके उपन्यास में न सिर्फ एक आदर्शोन्मुख यथार्थ की पुनः स्थापना की है, बल्कि उपन्यास को सुखान्त तक पहुँचाकर पाठक को भी एक शुकून तक पहुँचा दिया है।
आज ऐसे पठनीय, संग्रहणीय और यथार्थबोध वाले उपन्यास बहुत कम लिखे जा रहे हैं। ऐसे में ‘श्रुति शाह काॅलिंग’ एक प्रकाश स्तम्भ की तरह भी हो सकता है। इसे पढ़कर पाठक को जो संतुष्टि और आनन्द मिलेगा, उसके आगे इसका मूल्य कुछ भी नहीं है।
– इस आलेख के लेखक चर्चित कवि एवं समीक्षक है।