कथारंग : हिन्दी साहित्य परिशिष्ट अंक 42
निवेदन ‘लॉयन एक्सप्रेस’ लगातार आपको खबरों से अपडेट कर रखा है। इस बीच हमनें यह भी प्रयास किया है कि साहित्य के रसिक पाठकों तक भी कुछ जानकारियां पहुंचे। इसी को देखते हुए ‘कथारंग ’ नाम से एक अंक शुरू कर रहे हैं। इस अंक में कविता, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार आदि का प्रकाशन किया जाएगा। आप से अनुरोध है कि इस अंक के लिए अपनी रचनाएं हमें प्रेषित करें। आप अपनी रचनाएं यूनिकोड में भेजें तो बेहतर होगा। साथ ही अपना परिचय और छायाचित्र भी भेजें। आप चाहें तो अपने मौलिक साहित्यिक रचनाओं की प्रस्तुति संबंधी अपने वीडियो भी हमें भेज सकते हैं।
इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए आप इस अंक के समन्वय-संपादक संजय शर्मा से संपर्क कर सकते हैं। मोबाइल नंबर 9414958700
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मधु आचार्य ‘आशावादी’ मोबाइल नंबर- 9672869385
नाटक, कहानी, कविता और जीवनानुभव पर 72 पुस्तकेंं हिन्दी और राजस्थानी में लिखी हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार संगीत नाट्य अकादमी का निर्देशन पुरस्कार, शम्भु शेखर सक्सैना, नगर विकास न्यास के टैस्सीटोरी अवार्ड से सम्मानित।
व्यंग्य : बड़े मॉल में साहित्य बाजार
जीवन में सपनों का खासा महत्व होता है। हर इन्सान सपने देखता है क्योंकि इस पर कोई बन्दिश नहीं होती। सरकार ने इसको जीएसटी के दायरे में नहीं ले रखा है इसलिए सपनों की ग्रोथ रबड़ की तरह बढ़ती ही रहती है जो निकम्मे होते हैं वो सिवाय सपने देखने के कुछ नहीं करते।
सपनों के बारे में ज्ञानी लोग कुछ अलग तरह की बात कह गये हैं। उनका कहना है कि जागती आंखों से ही सपने देखने चाहिए ताकि उनको पूरा किया जा सके। जागती आंखों के सपने हमेशा आंखों के सामने लक्ष्य बनाकर खड़े रहते हैं। उन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए वो मेहनत करता है।
रईस लोग भी निकम्मों की तरह बंद आंखों से सपने देखते हैं क्योंकि उनको सपने पूरे करने की चिन्ता तो होती नहीं। आकाश में उडऩे तक के सपने देख लेता है वो। ऐसे सपने कभी भी हकीकत से जुड़े नहीं होते। कपोल कल्पना कहना शायद ज्यादा सार्थक होगा।
राजनीति के छोटे नेता भी सपना देखते हैं। उनको सपना अपने क्षेत्र का ही आता है। सपने में खुद को विधायक-मंत्री बनता देखते हैं। ऐसे सपने उनके लिए राजनीतिक खुराक हैं। आत्मबल देते हैं। वे इसी बल के सहारे अपना दिन काटते हैें, लोगों पर रुआब जमाते हैं।
सपनों की कोई हद नहीं होती। कल्पना के सपनों में तो बिलकुल ही नहीं होती। खुली आंखों के सपने तो एक सीमा तक ही देखे जा सकते हैं। बंद आंखों के सपने तो हदों को तोड़ते चलते हैं। हद उनको बर्दाश्त ही नहीं। जब जीवन में हद नहीं होती तो सपने तो हद तोड़ होंगे ही। नजर से भरे लोग और निकम्मे इस तरह के हद तोड़ सपनों के आदि होते हैं। नवाब साहब को न तो बड़ा सेठ बनना था और न ही नेता, इसलिए इस तरह के सपनों को देखने की उनकी कल्पना भी नहीं थी। उन्हें तो जिन्दगी से बहुत सन्तोष था, ज्यादा सपनों की उन्हें जरूरत भी नहीं थी। उन्हें दो जून रोटी और मस्ती ही प्यारी थी। बचा समय वो संगीत और साहित्य के बीच बिताते थे, जिसमें उन्हें आत्मिक सुख मिलता था।
उस दिन शाम को नवाब साहब एक साहित्यिक आयोजन में गए। एक वाटर पॉर्क में राष्ट्रीय काव्य संध्या थी। शहर के अलावा बाहर के भी कवि आए थे। उनका खूब प्रचार-प्रसार हुआ था। शहर से बीस किमी दूर था यह वाटर पॉर्क। आयोजक ही उसके संचालक थे जो अपने को बहुत बड़ा साहित्य सेवी मानते थे। साहित्यकारों को भोजन कराना और आयोजन के लिए पैसे देना, यह उनका काम था।
इसके अलावा वे हर साहित्यकार के पुस्तक लोकार्पण समारोह में जाते, किताबें खरीदने की घोषणा करते। वाह वाही होती और मंच पर उनको शॉल ओढ़ाकर सम्मानित भी कर दिया जाता। अनगिनत किताबें खरीद चुके थे पर उनको वे पढ़ते नहीं थे। बांट देते थे। धीरे-धीरे वो भी कवि हो गए। लोग उनको कविता लिखकर देते और पढ़ देते।
देखते-देखते वो कवि बन गए। मजा जो इस बात का था कि कुछ स्थानों पर कविताओं को प्रकाशित भी कर दिया गया। अब तो जैसे हर दिन कविता के साथ अपना नाम देखने की उनकी आदत हो गई। उनकी प्रतिदिन छपी कविता ने थोड़े समय में वरिष्ठ कवि की उपाधि भी दिला दी। जो लोग कविता लिखते थे और गम्भीर थे, उनको तो छपने में भी अब शर्म आने लगी थी। यकायक बने कवि महोदय भी उस राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में काव्य पाठ करने वाले थे। उनकी अध्यक्षता थी। नवाब साहब को भी वहां निमन्त्रण था, आयोजक मित्र थे। भोजन भी वहीं होना था। भोजन था इसलिए खास-खास लोगों को ही निमन्त्रण दिया गया था। भीड़ की जरूरत नहीं थी।
नवाब साहब भी समय पर वहां पहुंच गये। देखा श्रोता तो उनसे पहले ही काफी संख्या में पहुंचे हुए थे। साहित्य के प्रति इतना लगाव देखकर वो तो गद्गद् हो गए। पर उनका यह भ्रम जल्दी ही टूट गया। लोग भोजन के लिए आए हुए थे। कार्यक्रम से पहले खाना था। देखा तो कवि-शायर तो पहले से ही खाने पर टूट पड़ रहे थे। श्रोता कहां पीछे रहने वाले थे। थोड़ी देर से आने वाले को भूखा ही रहना पड़ा क्योंकि तब तक खाना खत्म हो गया। दुबारा बनना सम्भव नहीं था। आयोजक ने भी हाथ खड़े कर दिए।
थोड़ी देर में काव्य आयोजन आरम्भ हो गया और भोजन पूरी तरह बन्द हो गया। कुछ भूखे रहे लोग वापस लौटने शुरू हो गए और कुछ को कविताओं से ही पेट भरना पड़ा। भूखे रहने वालों में नवाब साहब भी शामिल थे।
आयोजक को शिकायत भी कर नहीं सकते थे क्योंकि वो तो अध्यक्ष बने मंच पर बैठे थे। वहां पहुंचना भी असम्भव था। थोड़ी देर कविताओं का रसास्वादन करना ही नवाब साहब ने उचित माना।
एक हिन्दी और उसके बाद उर्दू के पढऩे वाले का नम्बर था। थोड़ा कच्चा-पक्का माल था कविता में। नवाब साहब को चासनी से भी पता चला गया कि इस कथित राष्ट्रीय आयोजन का स्तर क्या रहेगा। पहले तो मंच पर बोलने के लिए झगड़ा हुआ। एक शायर पहले बोलने की जिद पर लड़ पड़े तो एक कवि इस बात से नाराज थे कि वरिष्ठ होने के बाद भी उनको पहले बुलवा लिया। आयोजक जी बीच-बचाव न करते तो हाथापाई होना तय था। मंच पर ही यह खेल सबके सामने चल रहा था। जब वो आपस में उलझते हुए लडख़ड़ाए तब लोगों के साथ नवाब साहब को भी पता चला कि अधिकतर शराब के नशे में थे। पास बैठे एक श्रोता से अपनी बात को पुष्ट करने के लिए उन्होंने सवाल कर ही लिया।
— लड़ रहे कवि-शायर शायद शराब पीए हुए हैं।
— यह लो, इसमें कौन सी बड़ी बात है। अस्सी फीसदी इस पेय पदार्थ का सेवन कर अपने को बुद्धिजीवी बनाते हैं। साफ दिख रहा है।
नवाब साहब चुप हो गए। उनके पास जवाब नहीं था क्योंकि बात में दम था। गुत्थमगुत्था कवि सम्मेलन-मुशायरा धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। कुछ ने तो अश्लील यानी दोहरे अर्थ की रचनाओं का पाठ कर दिया तो कुछ के इशारे ही अजीबोगरीब थे। अब उनका दोष भी नहीं था क्योंकि जो कुछ हो रहा था वह मदिरा करा रही थी।
नवाब साहब ने वहां से रूखसत करना ही ठीक समझा। पेट में भी चूहे दौड़ रहे थे। उन्हें लगा राजनेता भी इनसे तो ठीक हैं। कम से कम सबके सामने तो वो सब नहीं करते जो अच्छा नहीं है। कुछ शर्म रखते हैं, भले ही वोट के डर से रखते हों। उनको तो किसी से कोई सरोकार नहीं, बेलगाम थे। उन्होंने अनेक शालीन रचनाकार देखे थे, इसीलिए यह सब उसे अच्छा नहीं लग रहा था।
वो उठे और वाटर पॉर्क से बाहर आ गए। अन्धेरा हो गया था और शहर दूर था। जाने में ही उन्होंने समझदारी माना। धीरे-धीरे वाहन चलाना शुरू कर दिया। दुर्घटना का डर उन्हें सदैव सताता था। दिव्याँग के काव्य मंच का दृश्य भी घूम रहा था। घर पहुंच कर ही सांस ली। बेगम को खाना बनाने का कहा तो वह गले पड़ गई। खाना न बनाने का कहकर गए थे और अब मांग रहे थे तो जली-कटी सुनना मजबूरी थी। बेगम तो बेगम होती है, सुनाया भले ही पर खाना बनाकर खिलाया।
जली-कटी सुनी हुई थी और आयोजन से उखड़े हुए थे इसलिए बाहर जाने के बजाय बिस्तर पर सोना ही नवाब साहब ने श्रेयस्कर समझा। बिस्तर पर आंख बन्द करके लेट गए। जीवन में पहली बार सपनों में डूबे और डूबते ही चले गए। नवाब साहब आज सुबह जब अखबार पढ़ रहे थे तो पेज तीन पर छपे एक विज्ञापन पर उनकी नजरें ठहर गई। बहुत ही आकर्षक विज्ञापन था। पहली नजर उसमें लिखे मेटर पर ही पड़ी। इसमें लगे कई फोटो पर पड़ी। एक-एक फोटो को वो अच्छी तरह जानते थे, इसलिए ध्यान ठहरा था।
मंशी प्रेमचन्द, हरिवंशराय बच्चन, निराला, मुक्तिबोध, महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम, नीरज आदि सहित चौबीस साहित्यकारों व शायरों के फोटो थे। इन फोटो का विज्ञापन में उपयोग देखकर नवाब साहब प्रफुल्लित हुए। फोटो के सामने मन ही मन शीश झुकाया और फिर मेटर पढऩा शुरू किया। मेटर पढक़र वो चकित रह गए।
इनकी तरह लेखक बनने का सुअवसर!!!
आपमें भी बड़ा लेखक बनने की क्षमता है। बस अपने भीतर के लेखक को आपको पहचानना है। अगर पहचान नहीं पा रहे हैं तो हमारे पास आइये, हम आईने में आपके भीतर के लेखक को दिखाएँगे।
आइये, अपने आपको पहचानिये।
साहित्य बाजार
खुल गया है शहर के सबसे बड़े मॉल के अण्डर ग्राउण्ड में।
अजीब विज्ञापन था। साहित्य का भी बाजार। इस तरह के बाजार के बारे में पहले तो कभी सुना नहीं था। गौर से प्रोपराइटर का नाम पढ़ा तो गश खाकर गिरने जैसी हालत थी। इस बाजार को नकली घी, तेल बनाने वाले व्यापारी गुलकन्द सेठ ने खोला था। नकली सामान बनाकर बेचने के मामले में वो कई बार जेल जाकर आ चुके थे। छूटते तो गाजे-बाजे के साथ आते थे।
नवाब साहब समझ ही नहीं पा रहे थे कि जिसने उम्र भर नकली सामान बेचने का काम किया वो अब सत्य यानी साहित्य को बेचने कैसे आ गया। यह तो पहले के काम से बिलकुल उल्टा काम है। जरूर कुछ दाल में काला है। दुकानें किस तरह की होगी, इसकी भी नवाब साहब ने खूब कल्पना की पर पार नहीं पड़ी।
अपनी कल्पना को रेसकॉर्स के घोड़े की तरह दौड़ाने के बाद भी इस अनूठे बाजार का चित्र वो अपनी कल्पना से नहीं बना पाते। बार-बार तस्वीर बनाते और प्रोपराइटर से जोडक़र देखते, तुरन्त ही तस्वीर धुमिल हो जाती।
हारकर उन्होंने तय किया कि दिमाग का बेवजह अपव्यय करने से बेहतर है वहाँ जाकर ही बाजार देख लिया जाए। सारी जिज्ञासा अपने आप शान्त हो जाएगी। फटाकर कपड़े पहने और बिना खाना खाये नवाब साहब साहित्य बाजार की तरफ निकल लिए। मॉल के सामने पहुंचकर उन्हें स्कूटर पार्क किया। चौकीदार से नये खुले साहित्य बाजार के बारे में पूछा तो उसने हाथ के इशारे से जगह बताई। मॉल के पिछले हिस्से में खुला था नया बाजार। उसे लगा साहित्य को अब सामने की जगह तो मिल नहीं सकती। वो मुस्कराते हुए साहित्य बाजार की तरफ बढ़ गए।
वहां पहुंचकर उन्होंने देखा और देखते ही रह गए। कमाल का माहौल था। विज्ञापन जैसे ही बड़े-बड़े फोटो उन साहित्यकारों के लगे थे। उनकी विधा के अनुसार बोर्ड नाम लिखा था। कथा, नाटक, कविता, लघुकथा, गजल आदि की अलग-अलग साहित्यकारों की ख्याति के अनुरूप दुकानें थी।
नवाब साहब अब भी दुकानों को लेकर असमंजस में थे। अभिमन्यु की तरह बाजार के मध्य खड़े थे और कलाकारों से मॉडर्न पैंटिण्ग बना रहे थे। उन्हेंं लगा शायद महादेवी वर्मा के चित्र वाली दुकान में छायावादी काव्य साहित्य मिलता होगा और मुंशी प्रेमचन्द के चित्र वाली दुकान पर कथा साहित्य। मुक्तिबोध के चित्र वाली दुकान पर आधुनिक भाव बोध की प्रगतिशील कविताओं का साहित्य रखा होगा। भारतेन्दु के चित्र वाली जगह नाट्य साहित्य निश्चित रूप से होगा।
वो बस दुकानों को घूम-घूमकर निहार रहे थे। समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। उन्होंने देखा दुकानों पर सामान देने के लिए सुन्दर कन्याओं को रखा गया था। हर दुकान पर ग्राहक थे। एक भी दुकान ऐसी नहीं थी जिस पर कोई ग्राहक न हो। वो खुश थे कि अभी-अभी बाजार खुला पर खुलते ही दुकानों पर ग्राहक आने भी शुरू हो गए। नवाब साहब ने दुकान पर जाकर ही सच जानने का तय किया। सोचने लगे कि पहले किस दुकान की तरफ बढ़े। महिला लेखिका के चित्र वाली दुकान का विचार त्याग वो प्रेमचन्द के चित्र वाली दुकान की तरफ बढ़ गए। वहां कुछ ही ग्राहक थे। चुपचाप खड़े हो गए और अपने नम्बर की प्रतीक्षा करने लगे।
नम्बर आया तो काउण्टर पर खड़ी लडक़ी ने पूछा।
— क्या चाहिए?
— कथा साहित्य।
— उसकी ही तो दुकान है।
— किस-किस की किताबें हैं।
— आपकी ही है। आपके नाम की है।
— मैें समझा नहीं।
— अरे भई, आप लेखक हैं। यह कह रही हूं।
— क्या यहां कथा साहित्य नहीं मिलेगा क्या?
— अजीब मूर्ख आदमी हैं। कह रही हूँ कि वही मिलता है।
— आप तो कह रही हैं कि मेरा लिखा मिलता है।
— बिलकुल सही कह रही हूँ।
— सच कह रहा हूं मेरे कुछ भी समझ नहीं आ रहा है।
— लेखक नहीं हो क्या?
— नहीं, पाठक हूं।
— अच्छा-अच्छा। पाठक से लेखक बनना चाहते हो। सीधे कथा साहित्य में आने की इच्छा है। मुंशी प्रेमचन्द की तरह वर्षों तक याद रहे, ऐसा साहित्य चाहते हो।
— आपकी बातें मेरी समझ में आ ही नहीं रही हैं।
— सीधी-सीधी बात है।
— सीधी बातें ही तो समझ नहीं आती हैं।
— अजीब किस्म के आदमी हो।
— गनीमत मानो आदमी हूं।
— वक्त बर्बाद मत करो, और ग्राहक भी हैं।
— सच कह दूं।
— बिलकुल कहो, दोनों ही फायदे में रहेंगे।
— मुझे अभी तक समझ ही नहीं आया कि आप क्या बेचते हो। मैं तो सुबह अखबार में विज्ञापन पढक़र चला आया। साहित्य से लगाव रखता हूं। पढऩे का शौक है। खानदानी श्रोता हूं। अब यहां आकर कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूं।
— ओहो, यह बात है। मतलब तुमको नया ग्राहक मानकर सब कुछ बताना पड़ेगा।
नवाब साहब ने चुप रहकर हाथ जोड़े ताकि वो विनम्र हो सब बताये। उसने मन से दया करना तय कर लिया। हाथ के इशारे से सामने की स्टूल पर बिठाया। पानी की बोतल सामने रखी। नवाब साहब ने तुरन्त पानी पिया। गला सोचते-सोचते कब सूख गया, यह पानी सामने आने पर ही पता चला।
पानी पीने से नवाब साहब में थोड़ा आत्म विश्वास भी बढ़ा। काउण्टर पर बैठी लडक़ी मुस्कराई।
— अब बताओ, क्या पूछना चाहते हो?
— दरअसल मैं अभी तक समझ ही नहीं पाया हूं कि यह दुकान किस चीज की है। यहां क्या मिलता है। इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए घर से दौड़ा-दौड़ा यहां आया था। बिना वजह आपको भी परेशान कर दिया, माफी चाहता हूं। पहले पता तो चले कि क्या मिलता है, फिर खरीदने की बात हो।
— तुम्हारी परेशानी अब मैं भी अच्छी तरह से समझ गई।
— तो इस परेशानी को दूर कीजिए ना।
वो मुस्कराई। नवाब साहब के भोलेपन पर उसे बार-बार तरस आ रहा था।
— दरअसल हम यहां कहानियां बेचते हैं। अनेक लोगों को लेखक बनने का शौक होता है पर लिखना आता नहीं। ये पैसे वाले लोग, बड़े-बड़े अफसर, नेता आदि भी लेखक बनना चाहते हैं। यह चाह इसलिए है कि लोग उनको बुद्धिजीवी मानें। बुद्धिजीवी होना इस जमाने में बड़ी बात है।
— यह तो आप सही कह रही हैं।
— अब इन लोगों के पास लिखने के लिए समय तो होता नहीं।
— वाजिब है, दूसरे काम ही बहुत हैं।
— बस इसीलिए यह बाजार खोला है। जिसको जिस विधा का लेखक बनना है, हमारे पास आये। हम उसको माल सप्लाई करेंगे वो अपने नाम से किताब छपवाये और लेखक बन जाये।
— ओहो।
— हाँ, हम उसको एक सुविधा और देते हैं।
— क्या?
— यदि वो कहता है कि किताब छपवा कर दीजिए तो वो भी छपवा देेंगे। उसके दाम अलग से वसूलते हैं। जिस प्रकाशक से चाहे उससे छपवा देेंगे। हमने सब प्रकाशकों से कान्टे्रक्ट किया हुआ है। उनको भी अपने काम से मतलब होता है। आपको को पता ही होगा कि आजकल चाहे कितना भी बड़ा लेखक हो अपनी किताब पैसे देकर छपवानी पड़ती है। गिनती के लेखक ही होते हैं जिनसे पैसा लिये बिना प्रकाशक किताब छापता है।
— यह तो साहित्य का कड़वा सच है। इसकी मुझे भी जानकारी है।
— बस, इस कमजोरी से हमें भी आसानी हो जाती है।
— इसका अर्थ बाकी दुकानों में भी इसी तरह का माल मिलता होगा।
— अब बात अच्छी तरह से समझ गये।
— लेकिन एक बात का मुझे एतराज है।
— क्या?
— इन दुकानों पर इन बड़े लेखकों के फोटो क्यों लगाए हैं। ये इस तरह लेखक नहीं बने हैं। इस बात से मैं नाराज हूं।
— हमने इनके महत्व को कम नहीं किया, जिस विधा से ये पहचाने जाते हैं उनको सम्मान दिया है।
— यह सम्मान का तरीका नहीं। मैं इसका विरोध करूंगा।
— करो, मगर हमने अपनी भावना साफ-साफ बताई है।
नवाब साहब चुप हो गए। फिर कुछ सोचकर पूछा।
— पर आपके पास इतनी सामग्री आती कैसे है? एक साथ तो मिल नहीं सकती।
— यह सवाल तुमने सही किया। चलो भीतर आओ।
नवाब साहब डर गए।
— डरने की बात नहीं, भीतर आओ।
वो थोड़ी झिझक के बाद साथ हो लिए। एक गेट खोल दिया उसने। देखा एक कमरे में छोटी टेबिल लिये बीस लोग बैठे हैं, सब लिख रहे हैं।
— ये सब नये लेखक हैं। बेरोजगार भी हैं। लेखक का दूसरा कोई फायदा नौकरी के लिए है ही नहीं। केवल साहित्यकार का लेबिल लगा लेने से पेट नहीं भरता। रोटी के लिए कुछ कमाना पड़ता है। अब इनको काम कौन दे, ये भी भटक रहे थे।
— सही बात है।
— सेठजी के दिमाग में आइडिया आया और यह बाजार खोल दिया। लिखने वालों को रोजगार मिल गया। भले ही नाम न हो इनका लिखा तो पाठकों तक ही पहुँच रहा है। नाम की जगह दाम मिल रहा है। इनके लिए घाटे का सौदा नहीं यह।
— कमाल का आइडिया लाए हैं सेठ।
— तभी तो तुरन्त ग्राहकी शुरू हो गई।
— एक बात बताओ।
— पूछो। तुम भले आदमी लगते हो।
— लेखिकाओं की दुकान पर इतनी भीड़ कैसे लगी हुई है?
वो हंस दी।
— मैंने गलत पूछ लिया क्या?
— नहीं, सही पूछा है। आजकल लेखक बनने का क्रेज आधी आबादी में सबसे ज्यादा है।
वो मुस्कराई और सवाल किया।
— आपको लेखक नहीं बनना है क्या?
वो चुप रहे।
— मेरी सलाह है, लेखक बन जाओ।
तब ही उनके कानों तक तेज स्वर पहुंचा। हड़बड़ाकर आंखें खोलीं तो बेगम साहिबा खड़ी थीं। वे कह रही थीं
— लेखकों की तरह सपने देखना बन्द करो। दूधवाला आवाज लगा रहा है, जाओ दूध ले आओ।
उर्दू के अलमबरदार
हाजी खुर्शीद अहमद …
पैदाइश … 2 जनवरी 1931 वफ़ात 19 दिसंबर 2007
– सीमा भाटी, मोबाइल नंबर- 9414020707
उर्दू रचनाकार सीमा भाटी का राजस्थानी, उर्दू ,हिंदी तीनों भाषा में समान लेखन। आपका कहांनी संग्रह, कविता संग्रह, और एक राजस्थानी उपन्यास भी आ चुका है। इन्हें राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर का प्रतिष्ठित अल्लामा इक़बाल अवार्ड 2017 उर्दू साहित्य में मिला।
वो शख़्स सच्चा शाइर नवाज़ है जिसकी बीकानेर में पहचान एक समाजसेवी के तौर पर होते हुए भी बीकानेर के उर्दू अदब के उन गुमनाम अदीबों और उनकी उर्दू ख़िदमात को ज़ेरे रोशनी में लाना अपना फ़र्ज़ समझा हो। जिन्होंने उर्दू अदब कि दुनिया से मुतअल्लिक़ तमाम बनावटी बातों से ख़ुद को दूर रखकर ख़ामोशी से अपने काम को अंजाम तक पहुँचाया, क्यूंकि बचपन से उनके ख़ून, माहौल और सीने में उर्दू ज़बान धड़कती रही थी उर्दू अदब की ऐसी बेमिसाल ख़िदमात देने वाली मख़सूस शख़्सियत में हाजी खुर्शीद का नाम सरे फ़ेहरिस्त हो तो ये कोई हैरत की बात नही बल्कि बीकानेर के उर्दू अदब के लिए ये बाइस ए फ़ख्र बात है।
बीकानेर के नस्री अदब कि दुनिया में हाजी खुर्शीद अहमद साहब की ख़िदमात ना क़ाबिले फ़रामोश रही हैं। हाँ हम ये ज़रूर कह सकते हैं कि खुर्शीद साहब अपने अहले ख़ानदान की तरह शाइर तो नही, लेकिन उर्दू ज़बान के प्रति उनका जो समर्पण और लगाव था वो तारीफ़े क़ाबिल था। शेर कहे नही मगर शेर को समझने की सलाहियत ग़ज़ब की थी। आपकी पैदाइश 2 जनवरी 1931 को मुहल्ला चुनगरान में हुई थी। खुर्शीद अहमद साहब सरकारी मुलाज़िम थे आपने सी. ए. आई. आई. बी तक तालीम हासिल की और बैंक में मुलाजिमत करते हुए मुख़्तलिफ़ जगह और ओहदे पर रहते हुए अपने फ़र्ज़ को अंजाम दिया। इस दरमियान 1974 से 1976 तक लीड बैंक अधिकारी, शाखा प्रबंधक, कृषि विकास शाखा लूणकरणसर, क़ृषि विकास अधिकारी बीकानेर, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक बीकानेर और आगे तरक़्क़ी करते हुए विभागाअध्यक्ष( केंद्रीय लेखा),स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एन्ड जयपुर, प्रधान कार्यालय जयपुर में चीफ़ मैनेजर तक पहुंचे,
जनवरी 1991 को सदर शुअबा के ओहदे से सबकदोश हुए । खुर्शीद साहब ने जिस माहौल घर में आँखे खोली वो इल्म -ओ- अदब का दबिस्तान था और तालीम की फरावानी थी। जैसा कि पहले भी कई मर्तबा ज़िक्र किया जा चुका है कि आपके वालिद और आपके दादा उर्दू ज़बान के बेहतरीन शाइर होने के साथ क़ाबिल इंसान भी थे, जो महकमे के ज़िम्मेदार ओहदे पर फायज़ रहते हुए बीकानेर की अदबी फिज़ाओं को अपने कलाम की खुशबू से महकाया, वो खुशबू बीकानेर की अदबी दुनिया में आज भी क़ायम है। घर में अक्सर अदबी व शे’री नशसतें हुआ करती थी लिहाज़ा कहा जा सकता है कि अहले इल्म खुर्शीद साहब के खून में शामिल था क्यूंकि आपके चाचा मुहम्मद सुलेमानी मुज़्तर, मुहम्मद उस्मान आरिफ़ साहब, और मुहम्मद अयूब सालिक साहब भी फ़न्ने उरूज़ के माहिर व मयारी शाइर थे जिन्होंने उस दौर में बहुत कुछ फ़ैज़ हासिल किया। मुहल्ले चुनगरान के मुशाइरे आपके बगैर मुक़्क़मल नही होते थे उनमें अक्सर आपकी निज़ामत रहती थी। बीकानेर के उर्दू अदब के लिए खुर्शीद साहब की खिदमात बाइस ए फ़ख्र थी। जिनमें से सब से अहम अपने वालिद रासिख़ बीकानेरी के तमाम मुन्तशिर कलाम को फराहम करना और उसे एक जिल्द में जमा कर किताबी शक़्ल में लाने का तजवीज़ करना था, ये काम सन 2000 में औराक़-ए -परीशां ” (कुलियाते रासिख़ ) के उनवान से दुनिया के सामने आया। खुर्शीद साहब के इस काम को आलमे जूनून कहे तो भी ग़लत बयानी नही होगी क्यूंकि असल में ये काम बहुत मुश्किल था
इसकी वजह भी थी कि रासिख़ साहब का सारा कलाम बेतरतीबी शक़्ल इख़्तियार किये हुए था। कोई कलाम किताबों के हाशिये पर, पर्चीयों पर ,तो कोई लिफाफ़ों वगैरह पर लिखा हुआ था। एक शे’र यहाँ तो दूसरा कहीं और, ऐसे हालात में खुर्शीद साहब ने बड़ी मशक़त के साथ तमाम असआर को जमा कर 600 सफ़हात पर मुशतमिल ये किताब शाया करवाकर शोरा-ओ-अदबा तक पहुंचाने जैसा बेहतरीन कारनामा करके सर्फ़ हासिल किया था। किताब औराक़े परीशान में हम्द ,नअत, ग़ज़ल सलाम रुबाईयात, मनक़बत, शामिल है इस किताब को हाजी साहब ने देवनागरी में शाया करवाने की कोशिश की ताकि हिंदी पाठको के सामने इसे अदबी तोहफ़े के तौर पर पेश कर सके। सारा काम मुक़्क़मल पर था कि अचानक हाज़ी साहब की तबियत ख़राब हो गई और वो इस दुनिया ए फ़ानी को अलविदा कह गए, फिर ये काम अधूरा रह गया।
”खुर्शीद साहब समाज सेवी के तौर पर भी मुख़्तलिफ़ ओहदे पर , जैसे राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर, मेमब्रान नगर परिषद बीकानेर, उपाध्यक्ष, जिला कांग्रेस कमेटी बीकानेर शहर, अध्यक्ष, हल्का -ए -अदब बीकानेर, कांग्रेस पार्षद दल नेता, नगर बीकानेर,उपसचिव ,राजस्थान बैंक कर्मचारी संघ 1956 से 1963 तक ,मंत्री ,राजस्थान बैंक कर्मचारी संघ ,उपाध्यक्ष ,बैंक अधिकारी संगठन 1968 से 1982 तक फायज़ रहते हुए अपने फ़र्ज़ को अंजाम देने के साथ साथ उर्दू अदीबों की कई अमीन और बेहतरीन किताबों को मरतब करने का अहम तरीन काम किये जिन में से सन 2001 में “बीकानेर के अलम बरदार” के उनवान से किताब शाया करवाई। इस किताब में बीकानेर के मरहूम और हयात नामवर उर्दू शुअरा की ज़िन्दगी और हालात का मुख़्तसर बयां किया गया, साथ ही नमूने के तौर पर बेशकीमती कलाम भी शामिल किये गए थे। देश के नामचीन अदीबों से आपका मुरासलत (पत्रव्यवहार) होता रहता था ।
ख़ुर्शीद साहब का गुमनामी के अंधेरों में रहने वाले बहुत से शाइरों के कलाम को अवाम तक लाने में हमेशा अहम किरदार रहा। जाम रिसाला के बाद बीकानेर की अदबी दुनिया में ख़ुर्शीद साहब ने उर्दू पत्रिका लाला ए सहरा का भी सन 2001 में असाअत किया, ये रिसाला बहुत मक़बूल हुआ और इसने बीकानेर की अदबी दुनिया को हमेशा ताब दार बनाये रखा। इस रिसाले में बेदिल साहब, आरिफ़ साहब, रासिख़ साहब, राना लखनवी साहब, वगैरह आला तरीन शाइरों के कलाम शामिल किया गया था, दीगर शाइरों के कलाम के साथ खुर्शीद ने भी अपना एक मज़मून उसमें लिखा जिसने बीकानेर के उर्दू अदब पर रोशनी डाली |ख़ुर्शीद साहब ने अदबी कामों के लिए एक तंजीम “हल्का ए अदब” का भी गठन किया था ।जिसके ज़ेरे इंतज़ाम से वक़्त वक़्त पर बेमिसाल अदबी कामों को अंजाम दिया गया ।ख़ुर्शीद साहब ने एक ओर अहले अक़्ल काम किया कि अपने वालिद रासिख साहब का तमाम हस्तलिखित कलाम मौलाना आज़ाद अरबी फारसी शोध संस्थान टोंक को पेश नज़राना कर दिया। खुर्शीद साहब की अहलियत और अहले नज़र में उनके खानदानी और ज़ाती तजुर्बात के साथ उनका मुताला और ख़ुदा की दी हुई सलाहियत का अक्स ज़ाहिर होता है आपकी शीरी ज़ुबान की नफ़ासत और नज़ाक़त से तमाम अफ़राद चंद पलों में ही आप से मुतासिर हो जाते थे।
खुर्शीद साहब शानदार व्यक्तित्व के मालिक थे। समाजी कामों में भी आप हमेशा पेश रहे। आपकी शख़्सियत, अहले फ़न, और असलूब पर एक किताब किरण किरन के उनवान से 2005 में मन्ज़रे आम पर आई थी ,जिसमें डाक्टर मुहम्मद हुसैन साहब एहतशाम अख़्तर, मुख़्तयार टोंकी जैसे कई दबीरों, अदीबों और नक़ादों ने आपकी अदबी और आलमी इल्मियत व ख़िदमात का हर ऐतबार से इक़बाल किया।
खुर्शीद साहब बेहद उत्साही और हौसलामंद इंसान थे। आला दर्ज़े की सरकारी मुलाज़िम होने के बावजूद भी आपने बहुत सी तसानीफ़ात को मुरत्तिब किया था, जिनमें से यहाँ ख़ास ख़ास का ज़िक्र करना अपना फ़र्ज़ समझती हूँ। तसनीफ़ बादा -ख़ुश -रंग में खुर्शीद साहब के वालिद साहब ने लिखी थी इस किताब के तमाम कलाम नायब है ये कलाम ख़ुमारियत रूहानियत और से भरपूर है बादा – ए – ख़ुश रंग को पढ़कर जो रासिख़ साहब को ज़ाती तौर पर नही जानते हो उनके लिए एक एक शे’र ये सोचने पर मजबूर करता है कि रासिख़ साहब अव्वल नंबर के बादह नौश होंगे ,जो हर वक़्त शराब में ही मशरूफ़ रहकर शेर लिखते हैं
मगर हैरत अंगेज़ बात है कि रासिख़ साहब ने अपनी
ज़िन्दगी में कभी शराब को हाथ तक नही लगाया ।
इस बात को ताईद करते कुछ शेर आपकी नज़र कर रही हूँ ग़ौर फ़रमाए ….
”वही जाम -ओ -सुराही है वही है पीर -ए -मैख़ाना
नज़र आती है ज़न्नत भी मुझे तस्वीर -ए -मैख़ाना …
”रिन्द- ए -ख़राब हूँ मेरी प्याली में मस्त हूँ
दुनिया से क्या गरज़ मेरी दुनिया ही और है …
”आज पी लेने दो न टोको जी भर के न टोको मुझ को
कुछ तो ता ‘अल्लुक़ नही , आगाज़ का अंजाम के साथ …
मनाक़िब- ए -महबूब तशनीफ़ को भी खुर्शीद साहब ने मुरत्तिब की थी। ये किताब 1999 में देवनागरी आई। इस किताब में बीकानेर के एक सूफ़ी बुज़र्ग हज़रत पीर महबूब बख़्श चिश्ती की शान कही गई मन्क़बत के साथ बेदिल साहब, रासिख़, सादिक साहब, आरिफ़ साहब वगैरह के कलाम भी शामिल था। तसनीफ़ शीर -ओ -शक्कर देवनागरी रस्मुलख़त में, किस्त रासिख़ दर ज़मीन ग़ालिब उर्दू ज़बान में, बेदिल बीकानेरी तआरुफ़ ओ तब्सरा सन 2000 में मुरत्तिब की गई “हुसन अदब” दीवान चंद दीवां का नातिआ मज़्मुआ था इसे 2007 में, और “परवाज़ शाहीन” ये भी दीवान चंद दीवां का ग़ज़लों का मज़्मुआ हैं इन दोनों को भी खुर्शीद साहब ने मुरत्तिब किया था।
खुर्शीद साहब को ऐसी सादगी भरी अहले नज़र और शऊर अपने वालिद रासिख़ साहब से ही मौसूल हुई थी, जो ख़ुद
उर्दू और फ़ारसी अदब, ख़ास तौर पर शे’री सरमाया पर अच्छी नज़र रखते थे। खुर्शीद साहब को उनकी सरकारी ख़िदमात और उर्दू ज़ुबान के नशवोनुमा के लिए कई तरह के एज़ाज़ से नवाज़ा गया था जिसमें ए .डी .बी लूणकरण सर शाखा प्रबंधन से ,राजस्थान बैंक एम्प्लॉयज यूनियन दवारा 1999 में ,सन 2002 में उर्दू भाषा के लिए जिला प्रशासन से एज़ाज़, ऑल इंडिया रिटायर्ड बैंक एम्प्लॉयज एसोसिएशन द्वारा 2003 में ऐसे कई एज़ाज़ उनकी झोली में थे।
खुर्शीद साहब की ज़ाती ज़िन्दगी और उनकी अदबी ज़िन्दगी ज़ौक़ के बीच कोई हाशिये नही खींच सकता क्यूंकि ये दोनों तक़रीबन यकसा थी। नेक दिली, हस्सास दिल और अलग ही क़िस्म का अलहदा अंदाज़ आपकी शख़्सियत को सबसे अलग करती नज़र आती थी। ऐसे कुछ मख़सूस लोग ही होते है जो किसी ज़ुबान से बेपनाह मोहब्बत का अंजाम इस तरह की ख़िदमात से देते है इतेफ़ाक़ से इस अज़ीम शख़्सियत का कल यानि 2 जनवरी को यौमे पैदाइश भी था। उर्दू अदब बीकानेर की सरज़मीन पर रहने वाले तमाम लोगों के दिलों में अपनी इस आला तरीन ख़िदमात से धड़कते रहोगे, ज़िंदा रहोगे, याद किये जाओगे।
आमीन
अवि साईं
अध्ययन के साथ-साथ हिन्दी साहित्य लेखन में रुचि, विशेष रूप से कविता लेखन, साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशन
कविता : भ्रष्टाचार बढ़ा रहा
नींव को खोखला बना रहा, यह आधारशिला डिगा रहा
हुनर को यह दबा रहा ,हर एक भ्रष्टाचार को आगे बढ़ा रहा ।
काबिलियत को यह किनारे करके, तबके से चुन लेता है
कला दबी रह जाती है भ्रष्टाचार अपने धागे बुन लेता है।
पहचान तुम्हारी ऊंचे तक हो ,हस्ती तुम्हारी खूब बढ़ेगी
अगर यही तुम सामान्य हो तो ,
तुम्हारी काबिलियत दबी की दबी रहेगी।
यह गंदा भ्रष्टाचार का फैला जाल चारों तरफ है
ईमान बेच चंद पैसों की खातिर , खींच जाता इसकी तरफ है।
समझ में उनको ये नहीं आता कि खैरात में मिली नाम से,
नाम कमाया नहीं जा सकता
आवाज दबी वो एक दिन गूंज बनेगी ,
उस हस्ती को कभी मिटाया नहीं जा सकता।
रुपयों की खातिर तू यूं ना डिगा ईमान अपना
भ्रष्टाचार ले डूबेगा, विकसित भारत का सपना।
डॉ. प्रमोद कुमार चमोली मोबाइल नंबर- 9414031050
नाटक, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, स्मरण व शैक्षिक नवाचारों पर आलेख लेखन व रंगकर्म जवाहर कला केन्द्र की लघु नाट्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान। अब तक दो कृतियां प्रकाशित हैं। नगर विकास न्यास का मैथिलीशरण गुप्त सम्मान
कुछ पढते.. कुछ लिखते… (लॉकडाउन के दौरान लिखी गई डायरी के अंश)
भाग 11
मेरी डायरी
भारतीय सन्दर्भ में स्त्री के प्रति अन्तर्विरोध
दिनांकः 13.04.2020
कल रात को सोते समय डॉ. अर्जुनदेव चारण की राजस्थानी कविता की पुस्तक ‘अगनसिनांन’ को पढ़ना शुरू किया था। अग्नसिनांन यानी अग्निस्नान या कि अग्निपरीक्षा भी कह सकते है। अग्निपरीक्षा की बात आती है तो पौराणिक आख्यान रामायण के पात्र ‘सीता’ का ख्याल हो आता है, होना जरूरी भी है। बचपन से कहानियों में रामायण की कई कहानियाँ हमने सुनी होती है। सुबह उठते ही तय था कि आज इसे पूरा पढ़ना हैं। हालांकि राजस्थानी में पढ़ना मेरे लिए थोड़ा जटिल जरूर लगता है। वैसे भाषा कोई भी हो उसके दो स्पष्ट रूप होते हैं। एक बोलने वाली भाषा जो कि सामान्यजन द्वारा बोली जाती है। दूसरी लिखने वाली भाषा, यह भाषा थोड़ी कुलीन हो जाती है। ऐसे में पढ़ना और समझने के लिए विशेष प्रयास करना पड़ता है।
सुबह उठने के बाद बाहर खुली हवा में बैठा, अखबार पढ़ने की अपनी बारी का इंतजार करने लगा था। आज देखा कुछ कबूतर, कमेड़ी, चिड़ियाएँ चारों ओर तारों पर, पेड़ो पर बैठी हैं। ऐसा लगा सबने मिलकर कुछ सोच रखा है। इनमें से चिड़ियाएँ सबसे चंचल होती है। एक स्थान पर बैठती नहीं। उनकी फुर्र-फुर्राहट लगी रहती है। काफी देर तक चिडियाओं की हरकत देखता रहा। कभी इधर-कभी उधर कुल मिलाकर निष्कर्ष ये निकला की चिड़ियाएँ टिकती नहीं हैं। ध्यान चिड़िया नाम पर अटक गया। शब्दों की अलग लीला है। कहीं ये पुलिंग के रूप में ही देखने के मिलता है। कहीं स्त्रीलिंग के रूप में रुढ़ि बन जाते हैं। जैसे चिड़िया शब्द है स्त्रीलिंग सामान्यतः दोनो के लिए प्रयोग में आता है इसी प्रकार कबूतर शब्द पुल्लिंग है लेकिन यह दोनो के लिए प्रयोग में आता है। ऐसे बहुत से शब्दों के बारे सोचा जा सकता है। फिलहाल अखबार में मेरा नम्बर लग गया था।
अखबार कोरोना की खबरों से भरा होता है। अब तो कोफ्त भी होने लगी है। पूरे देश में कल 816 नए संक्रमित मिले। इनमें से 104 राजस्थान में और राजस्थान मे भी सिर्फ जयपुर में मिले हैं। राजस्थान के 33 जिलों में से 25 जिले इससे प्रभावित कहे जा रहें हैं। बीकानेर मे कल कोई संक्रमित नहीं मिला है। लॉकडाउन 14 से खुलना है। राजस्थान में मॉडिफाई लॉकडाउन रहने की संभावना है। टास्क फोर्स ने अपनी सिफारिशें दी है। बीकानेर में तीन प्रभावित क्षेत्रों में कर्फ्यु जारी है। इधर अखबार राहत सामग्री के लिए पार्षदों द्वारा घरों तक सुविधा पहुँचाने की बात कही जा रही है। मैंने अपनी गली में आज तक पार्षद को नहीं देखा है। हकीकत क्या है? ये वे लोग सही बता सकते है। जो सरकार की तरफ से हैं और मोहल्लों में काम कर रहें है। बीएलओ की डयूटी लगी हुई है पर क्या उसका दिया सर्वे माना जाएगा। जो लोग बीएलओ या सुपरवाईजर हैं उनकी परेशानी अलग किस्म की है। प्रशासन अपनी इस छोटी ईकाई के प्रति गम्भीर नहीं होता और सारी जिम्मेवारी इन पर डाल कर बेफिक्र रहता है। मेरा मानना है कि यह समय राजनीति से अलग रहकर सभी को साथ लेकर चलने की बात है। ऐसे में पार्षद या नेताओं को अपनी सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए।
अखबार में यह भी खबर है कि सावों पर लॉकडाउन, हलवाईयों के सामने रोजी-रोटी का संकट। ये बात बहुत गहरी नजर आती है। मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूँ जो केवल हलवाई के सीजनल कार्य से ही अपनी रोजी रोटी चलाते हैं। हलवाई के साथ पूरी बटने वालियाँ, स्टाल लगाने वाले, तन्दुर रोटी बनाने वाले बर्तन धोने वाले और भी ऐसे बहुत से लोग हैं जिनकी सावों की कमाई आगे पूरे वर्ष के लिए होती है। इनकी ओर शायद ही किसी का ध्यान गया हो। हमारे यहाँ शादियों का भव्य रूप भले ही फिजुलखर्ची की श्रेणी में रखा जाए पर ये भी रोजगार के अवसर मुहैया करवाते हैं। ऐसे में कोरोना के कारण और तो पता नहीं शादियों के तौर तरीके एक बार तो बदल ही जाएँगे। इस काल में जिनकी शादियाँ होगी वे आने वाली पीढ़ियों को अपनी शादी के किस्से सुनाया करेंगे। हलवाई ही नहीं ऐसे बहुत से धंधे हैं जो इस काल के कारण मंदी के कगार पर पहुँच गए हैं। बड़े उधोगों को पैकेज मिलेंगे इनको क्या मिलेगा? आज बीकानेर के रंगकर्म के पुरोधा डॉ. राजानन्द भटनागर जी इस दुनिया ए फानी को छोड़ गए हैं। मैं कभी उनसे मिला नहीं था पर देखा हुआ जरूर है। बीकानेर का रंगकर्म को उनकी देन बहुत है लेकिन क्या उनकी इस देन को बीकानेर चुका पाएगा? क्या बीकानेर का कोई कार्यक्रम कभी उनके नाम पर रखा जाएगा?
खैर, आज अगनसिनांन को पढ़ना तय था। सुबह के समस्त कामों को से निपट कर इस किताब को लेकर बैठ गया। अर्जुनदेवजी को सबसे पहले बीकानेर में एक कार्यक्रम में काव्यपाठ करते सुना था। उनके कविताओं और बोलने के अंदाज का कायल उसी दिन हो गया था। एक दिन प्रकाशचित्र सिनेमा की तरफ गया था तो सूर्य प्रकाशन मंदिर चला गया। प्रशान्तजी तो मिले नहीं पर वहाँ से कुछ किताबें पढ़ने के लिए ले आया था। उनमें से अगनसिनांन भी थी। 2013 में प्रकाशित इस किताब के कुछ अंशों को पहले पढ़ चुका था। जब इसको पहली बार पढ़ा था तो इसमें एक नाटक नजर आया था। जिसका जिक्र अर्जुनदेवजी के साथ भी किया था। बहरहाल यह पुस्तक एक अलग तरह की पुस्तक हैं। इस पुस्तक में सात लंबी कविताएँ हैं। ये सभी कविताएँ स्त्री पात्रों पर हैं। कालक्रम से देखे तो ये पौराणिक सती से शुरू हो कर आज से कुछ सो वर्षों पहले तक की कृष्णा कुमारी तक आती हैं।
इतने लंबे काल में बहुत कुछ बदला होगा लेकिन यदि नहीं बदला तो स्त्री की दशा। यही इस काव्य संग्रह का मूल प्रतिपाद्य है। इस पुस्तक की विशेषता यह भी है कि लेखक ने प्रत्येक कविता से पहले उस पात्र का परिचय को कथात्मक रूप में दिया है। यह अलग तरह का प्रयोग है। यह पाठक को कविता के आस्वाद में सुविधा प्रदान करता है। इस पुस्तक के फ्लैप पर जो लिखा है उसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह से है ‘‘दुनिया में अन्याय का सिलसिला अनादि काल से चला आ रहा है। पुरूष का अहम् शायद न्याय-अन्याय के तराजु में तुलने के बाद ही संतुष्ट होता है। पुरूष के इस अंहकार की सबसे बड़ी मार स्त्री को सहनी पड़ती है। आश्चर्य तो इस बात का है कि सत्ता के सर्वोच्च शिखर की अधिकारी होने के उपरांत भी उसे पौरूषीय अंहकार को संतुष्ट करने के लिए अग्नि परीक्षाएं देनी पड़ी है। ये पुरूष कोई दूसरा नहीं था-यह तो उसकी जिन्दगी में उसका सबसे नजदीक, उसका अपना ही था।’’ बहरहाल आदिकाल से आज तक की स्त्री द्वारा भोगी गई इस पीड़ा की यात्रा में सात यात्री हैं। जो कि क्रमशः इस प्रकार से हैं सती, सीता, अम्बा, पद्मणी, मीरां, उमादे और क्रिस्णाकुमारी। ये सातों स्त्रियां की दुःख को कवि ने अपने शब्द दिए हैं। वे इन शब्दों के माध्यम से इन के साथ हुए अन्याय का जबाब मांग रहें है।
साहित्य का मूल संवेदना है। यहाँ उन अनदेखे पात्रों के प्रति उमड़ी संवेदना को समझना जरूरी होता है। इन पात्रों के बारे में पढ़ा तो बहुतो ने होगा हो सकता जिस तरह लेखक सोच रहें है। वैसा औरो ने भी सोचा हो लेकिन उन्हें शब्द देने के लिए अनदेखे-अनजाने पात्रों की संवेदना तक पैठना एक समर्थ और व्यापक दृष्टि का होना आवश्यक है। बहरहाल इन कविताओं से गुजरते हुए आप एक अलग लोक में विचरण करने लगते हैं। यहाँ सीता कविता से का एक अंश पूरे कविता संग्रह के भाव को प्रकट करने के लिए पर्याप्त नजर आता है। इस कविता के ये अंश केवल सीता की स्थिति को बयां नहीं करता वरन् तब से अब की स्त्री की स्थिति के दुःख का एक व्यापक रूपक प्रस्तुत करता है-
जाणगी थूं
कै सराप दियां
आचमित जळ
हमेसा
धरती रै खोळै
क्यूं घालीजै
अर
क्यूं दीखै
आभै कांनी जावती
वरदानी हथालियां
यहाँ धरती और आसमान और श्राप और वरदान के बिंबों के माध्यम से कवि ने सदियों -सदियों से पुरूष के वर्चस्ववादी अहं से स्त्री को चोट पहुँचा रही उस मनोवृत्ति को बड़े ही मार्मिक ढंग से रखा है। सतीत्व के बहाने स्त्री पर पुरूषवादी अंहकार हमेशा चोट करता आया है। सती से क्रिस्णा कुमारी तक की स्त्रियों के साथ हुए अन्याय पर अपनी संवेदनात्मक दृष्टि रखते हुए कवि द्वारा यह दिखाया गया है कि स्त्री को वस्तु समझ लेना आज के जमाने की बात नहीं है। युगों-युगों से यह परिपाटी चली आ रही है। इसी परिपाटी को आज तोड़ने हुंस प्रकट करती कविताएँ बहुत कुछ कह जाती हैं। इसे स्त्री विमर्श से जोड़कर देखा जा सकता है। स्त्री विमर्श के मूल में लैंगिक असमानता के आधार पर होने वाला विभेद है। स्त्री विमर्श संबंधी राजनैतिक प्रचारों का जोर आज चहुँ ओर देखने को मिलता है। इसके कारण कुछ अधिकार जैसे प्रजनन संबंधी अधिकार, घरेलू हिंसा, मातृत्व अवकाश, समान वेतन संबंधी अधिकार, यौन उत्पीड़न, भेदभाव एवं यौन हिंसा पर कुछ कानून भी बने हैं। लेकिन समाज में यह विभेद आज तक जारी है। हालांकि स्त्री विमर्श एक वैश्विक विचारधारा है लेकिन विश्वभर की स्त्रियों का संघर्ष उनके अपने समाज सापेक्ष है। इसलिए इसे भारतीय सन्दर्भों में देखे जाने की आवश्यकता है। भारतीय सन्दर्भ में देखे तो स्त्री की स्थिति अन्तर्विरोधों से भरी है। एक ओर वह शक्ति स्वरूपा है तो दूसरी ओर अबला। इस सन्दर्भ में देखें तो डॉ. अर्जुनदेव चारण इस पुस्तक के पात्रों के माध्यम से इस अन्तर्विरोध को बहुत ही मजबूती से रखतें हैं।
आज इस कोरोना काल में भी यह देखा जा सकता है। जब कोरोना के कारण उत्पन्न हुए इस लॉकडाउन काल में सोशियल मीडिया पर पति-पत्नि पर बने मीम्स भी तो यही प्रकट करते हैं कि घर का काम करना स्त्री कर्त्तव्य है और आराम करना पुरूष का धर्म। दरअस्ल ये मीम्स आज कि स्त्री के अपने अधिकारों के लिए खड़े होने की चेष्टा को हतोत्साहित करने की पुरूष मानसिकता हैं। उसका अहं मजाक के बहाने बहुत कुछ कह जाता है।
इसे पूरा पढ़ने के बाद डॉ. कौशल ओहरी से बात की जानी थी। लेकिन इसे पूरा करते-करते और डायरी लिखते-लिखते समय का ध्यान ही नहीं रहा। घड़ी की ओर देखा तो रात के 11.45 हो चुके थे। अब फोन करना उचित नहीं लगा। हमेशा तो मेरे फोन नहीं करने पर डॉक्टर का फोन आ जाता था। दिमाग में यही रहा कि आज उसने फोन क्यों नही किया होगा। एक बार फिर दिमाग में आया कि अभी फोन करलूँ। पर फिर एक शिष्टाचार ने अवरोध पैदा कर दिया कि इतनी रात को किसी को फोन करना अच्छा नहीं है। बहरहाल आज के लिए इतना ही। लॉकडाउन का एक ही दिन बाकी है और गीता के चार अध्याय और कुछ ओर किताबें शेष रह गई है। इन्हें तो पढ़ना ही इस संकल्प के साथ आज बस इतना ही।
-इति-
ऋतु शर्मा : मोबाइल नंबर- 9950264350
हिन्दी व राजस्थानी में समान रूप से कविता-कहानी लिखती हैं। हिंदी व राजस्थानी में चार किताबों का प्रकाशन। सरला देवी स्मृति व कर्णधार सम्मान से सम्मानित
साक्षात्कार : कीर्ति शर्मा, मोबाइल : 7230805913
अच्छा लेखक बनने से पहले अच्छा पाठक बनना जरूरी : कीर्ति शर्मा
– राष्ट्रीय स्तर की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी एवं राजस्थानी में रचनाओं का नियमित प्रकाशन। हिन्दी और राजस्थानी साहित्य पढऩा और लेखन। मधुर संगीत सुनना। हिंदी और राजस्थानी में यूजीसी नेट, प्रकाशन : पिघलते लम्हों की ओट से तथा बूंद भर सावन (हिन्दी कथा संग्रह) – भारतीय साहित्य सृजन संस्थान, पटना की ओर से ‘कथा सागर साहित्य सम्मान- 2013। प्रस्तुत है कीर्ति शर्मा की लॉयन एक्सप्रेस के साहित्य प्ररिशिष्ट ‘कथारंग’ के लिए कवयित्री-कहानीकार ऋतु शर्मा की बातचीत के अंश।
प्रश्र : साहित्य से आपका जुड़ाव कैसे हुआ? आप अपनी प्रेरणा किसे मानती हैं?
उत्तर : साहित्य से जुड़ाव तो बचपन से ही रहा। लेखन करूंगी, यह तो कभी सोचा भी नहीं था। परंतु जब भी किसी विधा में रचना पढ़ती तो मन को छू जाती थी। एक अलग ही अनुभूति होती थी। मन उन रचनाओं के मर्म या कहानी के पात्रों के साथ आसपास के वातावरण व दुनिया में खो जाता था। मन को छूने वाली रचना दिलो-दिमाग पर जीवंत रूप में अंकित हो जाती थी। वैसे तो मैं खुशकिस्मत रही कि मुझे बचपन से ही अच्छी पुस्तकों और पत्रिकाओं में रहने का अवसर मिला। पापा के पास धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान के साथ कुछ अन्य पत्रिकाएं आती थीं। मम्मी भी अपने लिए गृहशोभा, मनोरमा, सरिता, मुक्ता आदि पत्रिकाएं मंगवाती थीं। साहित्य की ज्यादा समझ नहीं थी फिर भी इन सब पत्रिकाओं के पन्ने अवश्य उलट-पलट लेते थे। मुझे चंपक, चंदा मामा, पराग, नंदन, लोटपोट आदि बाल पत्रिकाएं बहुत पसंद थीं। उन दिनों ये सब पत्रिकाएं किराए पर मिलती थीं। मैं इन सब पत्रिकाओं को किराए पर लाकर पढ़ती थी। सबसे प्रिय पत्रिका थी चंदा मामा। इसमें छपे चित्र व कहानियां आकर्षित करते थे। खासतौर से विक्रम-बेताल व राजकुमारियों की कहानियां। यहीं से प्रेरणा मिली। आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रारंभ से अब तक के लेखकों का लिखा मैं निरंतर पढ़ती रही हूं। ‘रानी केतकी की कहानी’ से लेकर वर्तमान में अलका सरावगी का उपन्यास ‘सच्ची-झूठी गाथा’ तक निरंतरता बनी रही है। मैंने हिंदी साहित्य में जिन लेखकों को पढ़ा, उन सभी के लेखन से प्रेरणा ली है।
प्रश्र : किन लेखकों को आपने पढ़ा है? आप स्वयं लिखने के लिए समय कब निकालती हैं और क्यों लिखती हैं?
उत्तर : सवाल अच्छे हैं आपके। जब मैंने हिंदी में एम.ए.और फिर नेट किया तो प्रेमचंद से लेकर वर्तमान साहित्यकारों तक सबको खूब पढ़ा। एक-एक का नाम लेना तो मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि उनकी संख्या बहुत अधिक है। मेरी अपनी निजी लाइब्रेरी है, जिनमें बड़ी संख्या में पुस्तकें हैं। उन्हें पढ़कर लगा कि ये लोग कितनी गहराई में डूबकर लिखते हैं। लिखते क्या हैं, वे लिखे हुए को अपने भीतर जीते हैं। इन रचनाओं को पढ़ते हुए लगता है कि इनमें एक मुकम्मल व्यक्तित्व की अथाह मेहनत दिखाई देती है। इसी से साहित्य से जुड़ाव हुआ। जहां तक लिखने के लिए समय निकालने की बात है तो यह वाकई बहुत मुश्किल है। ड्यूटी और घर -परिवार के कार्यों में समय बहुत कम मिल पाता है, लेकिन रुचि के चलते जब भी थोड़ा बहुत समय मिलता है, लेखन को समर्पित कर देती हूं। अब यह कहना कुछ टेढ़ा है कि क्यों लिखती हूं! मुझे कोई गलतफहमी नहीं है। इसलिए स्पष्ट कहती हूं कि समाज सुधार अथवा कोई शिक्षा देने के लिए मैं नहीं लिखती। समाज में घटने वाली घटनाओं और मन को छू जाने वाले परिदृश्यों के कारण जब कभी भीतर से उद्वेलित हो उठती हूं तो कभी-कभार कहानी लिखी जाती है। बाल कहानियां भी ऐसे ही कागज पर उतरीं और कभी-कभी कविता भी। पर मैंने कभी लक्ष्य तय करके नहीं लिखा और न कभी यह सोचा है कि मुझे तो लिखना ही है! हाँ, स्वत: ही कुछ लिखने को मन कर गया तो लिख लिया।
प्रंश्र : हिंदी के वर्तमान लेखन से आप सबसे अधिक किससे प्रभावित हैं और क्यों?
उत्तर : समकालीन कथाकारों में मुझे मन्नू भंडारी, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, अलका सरावगी की कहानियां पसंद हैं लेकिन मधु कांकरिया की कहानियां मुझे विशेष प्रभावित करती हैं। सीधी-सादी भाषा में सहज और सरल कहानियां एकदम साफ-सुथरी तो हैं ही, जीवन में उत्साह का संचार करने वाली भी हैं। उनसे जब भी फोन पर बात होती है, बहुत प्रेरणा मिलती है मुझे। वैसे उदयप्रकाश, संजीव और स्वयंप्रकाश की कहानियां भी मुझे पसंद हैं।
प्रश्र : आपकी सबसे प्रिय विधा कौनसी है और क्यों?
उत्तर : मुझे गद्य रचनाएं अधिक पसंद हैं, उन्हें पढऩा व लिखना दोनों ही रुचिकर लगते हैं। कहानी विधा मेरी प्रिय विधा है। हालांकि मुझे निबंध, संस्मरण, जीवनी, आत्मकथाएं आदि पढऩा बहुत पसंद है लेकिन फिलहाल लेखन विशेष रूप से कहानी विधा पर ही है। कहानी विधा इसलिए पसंद है कि इसमें मुझे अपनी बात कहना सहज व सरल लगता है। पढऩे में भी कहानी पढऩा मेरी पसंद है। एक बात यहां बताती चलूं कि जैसा मैंने बताया कि गद्य की अन्य विधाएं भी मुझे रुचती हैं। उनमें ललित निबंध व संस्मरण आदि प्रिय हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय आदि ललित निबंधकारों के निबंध बड़े चाव से पढ़े हैं।
प्रश्र : अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताएं।
उत्तर : रचना प्रक्रिया क्या है, इस पर कभी विचार ही नहीं किया। सच तो यह है कि जब कोई कहानी मन में जन्म लेती है, उसका प्लॉट मन-मस्तिष्क पर छाता है, तो उसे अपने विचारों-मनोभावों की गहराइयों से महसूस करती हूं और पन्नों पर उतार देती हूं। मेरी रचना प्रक्रिया के मूल में आत्मसंतुष्टि का भाव रहता है, यह कभी मन में नहीं आता कि अपनी रचना को इस तरह का बना दूं, कोशिश करूं कि वह सबको प्रभावित करे। हां, स्वाभाविक रूप से लिखा सबको पसंद आए। यही आशा रहती है। वैसे भी साहित्य को लेकर मेरे विचार कुछ अलग हैं।
प्रश्र : आपका कहना है कि साहित्य के प्रति आपके विचार थोड़े अलग हैं। क्या अलग विचार हैं आपके?
उत्तर : मैं साहित्य को भी उन कलाओं की तरह ही मानती हूं जो कठिन साधना, तपस्या से प्राप्त होती हैं। साहित्य भी अपने आपमें बहुत बड़ी साधना है। अच्छा लेखक बनने से पहले जरूरी है कि हम अच्छे पाठक बनें। अन्य कलाओं की अपेक्षा साहित्य का दायरा भी बहुत विस्तृत और विशाल है। साहित्य सृजना कड़ी मेहनत और गहरी साधना के बाद ही हो पाती है, यह कार्य सरल नहीं है। शब्दों को अर्थ और भाव-संवेदना की गहराई तक तालमेल बैठाते हुए साधना पड़ता है। जब तक विस्तृत अध्ययन, पठन, चिंतन, मनन नहीं होगा तब तक हम साहित्य की गहराइयों, उसकी ऊंचाइयों के मर्म व उद्देश्य नहीं समझ पाएंगे। उस समझ के बिना साहित्य पन्नों पर उतरी मात्र शब्द यात्रा रह जाएगी।
हम लेखन के प्रति न्याय नहीं कर पाएंगे। मेरा मानना है कि कुछ विषय ऐसे हैं जिन्हें पूर्णतया खुले रूप में प्रस्तुत न कर उन्हें प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाए। स्त्री-पुरुष संबंधों की कहानियों में भी बेहद सावधानी की जरूरत मैं महसूस करती हूं। यहां भी सब कुछ खुलेपन में न कहकर प्रतीकात्मक रूप से इस प्रकार कहा जाए कि आपकी बात बेहद सुंदर तरीके से स्पष्ट हो जाए। अपनी बात को कहने का प्रभावशाली तरीका जो विषयवस्तु के अनुरूप हो वहीं एक लेखक को दूसरे लेखक से पृथक पहचान दिलाता है। यही लेखकीय कला है। साहित्य समाज से ही पोषित होता है पर जो कुछ चारों और घटित हो रहा है, उसे यथार्थ के नाम पर हूबहू लिख देना मेरी नजर में आँखों देखा हाल होगा जबकि साहित्य इससे हटकर है। इन्हीं बातों को देखते हुए कई बार मुझे वर्तमान में लिखे जा रहे साहित्य से संतुष्टि नहीं होती।
प्रश्र : लेखन को लेकर आपका कहना है कि अभी जो धारा चल रही है, उससे आप संतुष्ट नहीं हैं। क्यों?
उत्तर : ऐसा नहीं है कि मैं बिल्कुल ही संतुष्ट नहीं हूं। परंतु लगता है कि पिछले कुछ वर्षों से एकाएक लेखकों की बाढ़-सी आ गई है। कई बार तो लगता है कि देखा-देखी भी लोग लेखक बनने की कोशिश करते हैं। फेसबुक, वाट्सएप, यू-ट्यूब और सोशल मीडिया के अन्य माध्यमों से हम ऐसे लेखकों की भरमार देखते हैं। उनका लिखा देखकर सोचना पड़ता है कि यह सब लिखकर वे लोग क्या वाकई साहित्य की उन्नति कर रहे हैं या अवनति? हो सकता है सोशल मीडिया के ये प्लेटफार्म अच्छे हों, परंतु या तो मैं समझ नहीं पा रही हूं और या मैं गलत हूं अथवा सचमुच जिस तरह आज के नए-नए रचनाकार उड़ान भर रहे हैं, वहां कुछ कमी है! एक और चीज, आजकल इस क्षेत्र में आने वाले रचनाकार पुरस्कारों की अंधी दौड़ में भागे जा रहे हैं। पुरस्कार सृजन के लिए होते थे लेकिन अब तो पुरस्कार के लिए सृजन होने लगा है। यह स्थिति बेहद खतरनाक है। साहित्य मानसिक-चारित्रिक विकास का सशक्त माध्यम है, मानसिक तृप्ति की गारंटी है। इसके प्रभाव अपरिमित हैं। बहुत कुछ अच्छा व बेहद प्रभावशाली भी लिखा जा रहा है पर यह भी विचारणीय है कि इन अनगिनत प्लेटफार्मों के माध्यम से विपुल मात्रा में लिखा साहित्य अपनी प्रकृति के अनुरूप अपना प्रभाव बना सका है या बना सकने में सक्षम है? इन सब बातों पर चिंतन आवश्यक है ।
प्रश्र : लेखन में कल्पना और यथार्थ का कितना सम्मिश्रण है?
उत्तर : आप किस विधा में रचना कर रहे हैं, यह उस पर निर्भर करता है। सच तो यह है कि साहित्य कोई कोरी कल्पना नहीं होता,न ही पूर्णतया यथार्थ होता है। हां, उसमे यथार्थ, कल्पना का मिश्रण इस प्रकार होता है कि वास्तविक जान पड़ता है। समाज से, अपने आसपास से ली छोटी सी घटना, भाव-विचार का यथार्थ लेखकीय कल्पना से ऐसा अद्भुत आकार प्राप्त करता है कि वह नवीन ताने बाने के रूप में सामने आता है।
प्रश्र : आपके साहित्यिक जीवन के वे यादगार पल, जो आप हमसे साझा करना चाहें।
उत्तर : अभी तो साहित्यिक जीवन प्रारंभ ही हुआ है। इस बहुत छोटे से साहित्यिक जीवन में हालांकि अच्छे और बुरे दोनों तरह के अनुभव हैं लेकिन फिर भी मैं मानती हूं कि चर्चा करने लायक कोई यादगार साहित्यिक पल अभी मेरे जीवन में आना बाकी है। पर फिर भी वह पल जो मेरी अनुभूति में उस बीते क्षण की तरह आज भी प्रफुल्लित है, वह साझा कर लेती हूं। जिस दिन मेरी पहली पुस्तक ‘पिघलते लम्हों की ओट से’ (कहानी संग्रह) छपकर मेरे हाथ में आई, मैंने उसे स्पर्श किया, पन्ने उलटे पलटे तो उस वक्त मुझे जो खुशी हुई, आँखें भर आईं। वह पल मेरे मन-मस्तिष्क में आज भी जीवित है। एक पुस्तक एक लेखक की अथाह मेहनत, भावनाओं, मान्यताओं, अनुभवों, संस्कारों व मूल्यों आदि का दस्तावेज होती है। उसके मानसिक तानों-बानों का बुना रूप..।
प्रश्र : राजस्थानी राजस्थान के हर निवासी में बसी हुई है। फिर भी क्या कारण है कि ये अन्य मान्यता प्राप्त भाषाओं से पिछड़ी हुई है?
उत्तर : देखिए ऋतु जी, राजस्थानी भाषा न तो साहित्य की दृष्टि से किसी भी अन्य भाषा से पिछड़ी हुई है और न ही इसे बोलने वाले लोगों की संख्या बल की दृष्टि से यह पीछे है। बोली की मिठास, शब्द भंडार और व्याकरणीय दृष्टि से भी हमारी राजस्थानी भाषा विश्व की किसी भी भाषा से कम नहीं है। हां, अब तक संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया गया है। इस कारण इसे कमतर मान लें, यह बहुत बड़ी भूल होगी। राजस्थानी भाषा को जानने के लिए ही मैंने इसमें एम.ए. किया। फिर नेट एग्जाम उत्तीर्ण किया। मैंने पाया कि राजस्थानी भाषा का वाकई कोई मुकाबला नहीं है। यह समृद्ध भाषा है। यह सत्य है कि आठवीं अनुसूची में शामिल न हो पाने का मलाल हर राजस्थानी को है। साथ ही यह भी सत्य है कि संवैधानिक मान्यता भी आज नहीं तो कल मिल ही जाएगी।
प्रश्र : स्त्री विमर्श के बारे में आपके क्या विचार हैं?
उत्तर : आज स्त्री किसी भी क्षेत्र में पुरुष से कमतर नहीं है। पुरुषों ने भी घर में उसके महत्व को समझा है और स्त्री आज घर और दफ्तर दोनों जगह अपनी क्षमता का भरपूर उपयोग कर रही है। जहां तक साहित्य में जो चलन स्त्री विमर्श का चल पड़ा है कि इसके नाम पर पुरुष को दुत्कारा ही जाए तो माफ कीजिएगा, मुझसे यह नहीं हो पाएगा। मेरा स्पष्ट मानना है कि स्त्री और पुरुष दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और दोनों को ही एक-दूसरे के सहारे, सहयोग की आवश्यकता होती है। दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। इसलिए मैं तो यही कहूंगी कि स्त्री और पुरुष को साथ मिलकर चलना चाहिए। स्त्रियों पर अबला के नाम पर अत्याचार रोके जाने चाहिए, स्त्री को पूर्ण सम्मान, साझेदारी व स्थान मिलना चाहिए जिसकी वह अधिकारिणी है, तो पुरुषों को नाजायज दबाने वाली महिलाओं का मैं समर्थन नहीं कर सकती।
प्रश्र : एक महिला जब लिखती है तो उसको पढऩे वाले उसे उसकी जिंदगी से जोडऩे लगते हैं। ऐसा क्यों होता है और कहां तक सच है?
उत्तर : देखिए, यह बहुत गंभीर विषय है। इस पर बात चलेगी तो बहुत लंबी हो जाएगी। संक्षेप में आप यह समझ लीजिए कि यह तो पढऩे वाले की सोच पर निर्भर करता है। निराला ने ‘वह तोड़ती पत्थर’ कविता लिखते समय सड़क पर पत्थर तोड़ती महिला को देखा था, खुद पत्थर नहीं तोड़े थे। लेखक परकाया प्रवेश करता है। सामने वाले के दर्द को जीता है, तब रचना जन्म लेती है। परंतु इसका मतलब यह नहीं कि जो कहानी लिखी है, वह लेखिका के साथ ही हुआ है। यह सोच गलत है और पाठकों को इस सोच से बाहर आना चाहिए। वह जो भी आसपास देखती है, महसूस करती है वह सब पात्रों और थोड़ी-बहुत कल्पना के माध्यम से अपनी बात कहती है, उसके निजी जीवन से जोड़ देना मेरी नजर में गलत
है।
प्रश्र :आज जितना लिखा जा रहा है अपेक्षाकृत उतना पढ़ा नहीं जा रहा। क्या कारण मानती हैं आप?
उत्तर : यह बात बिल्कुल ठीक है आपकी कि आज जितना लिखा जा रहा है, उसके मुकाबले पढऩे वाले हैं ही कहां? परंतु ऐसा भी नहीं है कि पढऩे वाले रहे ही नहीं। अगर ऐसा नहीं होता तो पुस्तक मेलों की सफलता यूं ही नहीं साबित होती। अच्छे पढऩे वाले आज भी हैं लेकिन उनके सामने संकट यह है कि उन्हें अच्छा साहित्य नहीं मिल पाता। हर तीसरा व्यक्ति लेखक बन रहा है, यह भी है कि जो लेखक बना है, वह पाठक नहीं बन पाता, तो बताएं, पाठक आएंगे कहां से? दूसरी बात यह कि इंटरनेट से जुड़े सॉफ्टवेयर प्लेटफार्मों पर साहित्य पढ़ पाना सबके बस की बात नहीं और फिर इस तरह पढऩा न एकाग्रता ला पाता है, न सुकून, न साहित्य की भावात्मक गहराई। जैसी हम पुस्तक हाथ में लेकर पढ़ते, पन्ने उलटते हुए महसूस करते हैं। दराजों में, अलमारियों में लगे कांच के दरवाजों से झांकती पुस्तकें, मेज पर रखी बेतरतीब पुस्तकें, तकिए के पास, पलंग के सिरहाने रखी आकर्षक साहित्यिक पुस्तकें जैसा सुकून व आँखों को ताजगी देती हैं, वह इन प्लेटफार्मों में कहां! इसलिए अब पढऩा भी एक कला हो गया है ।
प्रश्र : आज की महिला साहित्यकारों के बारे में आप क्या कहना चाहेंगी?
उत्तर : कुछ भी नहीं। बस इतना ही कि आज की महिला साहित्यकार खुद बहुत समझदार है। खूब लिख रही हैं व साहित्यकारों में अपना बेहतरीन मुकाम बना रही हैं।
प्रश्र : आपने बाल उपन्यास और बाल कथाएं लिखी हैं। उन्हें लिखते समय किन विशेष बातों का ध्यान रखना पड़ता है?
उत्तर : बाल साहित्य बहुत कठिन कार्य है। दरअसल बाल उपन्यास हो या बाल कहानी, उसे लिखते समय बाल मनोवृत्ति को ध्यान में रखना चाहिए। मेरा बाल उपन्यास और अधिकतर बाल कहानियां किशोरवय के बच्चों के लिए हैं। उन बच्चों को उनकी बढ़ती उम्र के साथ सामाजिक परिवेश, पर्यावरण, शिक्षा और जिम्मेदारियों का अहसास करवाने वाले विषय उठाए गए हैं। बाल साहित्य में न तो उपदेशात्मक बात हो और न ही जबरदस्ती थोपी हुई शिक्षा। बच्चों के लिए बच्चा बनकर लिखेंगे तो ज्यादा सफल हो पाएंगे।
प्रश्र : आपके बालकथा संग्रह की कहानियों में से आपकी सबसे प्रिय कहानी कौन सी है और कौनसा चरित्र आपको सबसे प्रिय है और क्यों?
उत्तर : वैसे तो मुझे अपनी लिखी सभी बाल कहानियां पसंद हैं लेकिन अगर विशेष रूप से किसी एक कहानी का जिक्र करना पड़े तो मैं ‘प्रकृति मुस्कुराई’ कहानी का जिक्र करना चाहूंगी। इस कहानी में दस वर्ष की बालिका मधु आस पास फैली गंदगी को साफ करने का संदेश देती है। यह कहानी पर्यावरण और स्वच्छता के प्रति जागरूक करती है। इसलिए मधु जैसी बालिका का चरित्र मुझे प्रभावित करता है।
प्रश्र : साहित्यिक पुरस्कारों के लिए आपका क्या कहना है?
उत्तर : मैं मानती हूं कि साहित्यिक पुरस्कार लेखक को प्रोत्साहित करने के लिए होते हैं और वे अपना काम बेहतर तरीके से करते हैं। पुरस्कार लेखन के लिए हैं, लेखन पुरस्कार पाने की होड़ लिये नहीं होना चाहिए। न तो किसी लेखक को मिले पुरस्कारों से उसका मूल्यांकन करना चाहिए और न ही उसकी कितनी किताबें छपी हैं, इससे परखा जाना चाहिए। उसने लिखा क्या है, यह उसके मूल्यांकन का आधार होना चाहिए। लेखक को चाहिए कि वह रचना रचने के लिए लेखन करे, पुरस्कार हासिल करने के लिए नहीं! यह भी स्मरण रखें कि एक बार अगर पुरस्कार मिल गया तो आपकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। ऐसे में पुरस्कारों की संख्या बढ़ाने के लिए उनके पीछे दौडऩे के बजाय अपने सृजन और उसमें और अधिक परिपक्वता हासिल करने पर जोर दिया जाना चाहिए।
प्रश्न : समाज के नाम संदेश ?
उत्तर : बस इतना ही कि वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ कीजिए जैसे व्यवहार की आप सामने वाले से अपने लिए अपेक्षा रखते हैं, अपनी संवेदना, आवश्यकता, अहंकार में इतना मत खोइए कि सामने वाले की कोई बात समझ ही न पाएं। कहने का तात्पर्य इतना ही है कि सकारात्मक मानसिकता के साथ जीया जाए। अगर इतना हो जाए तो यह संसार बहुत सुंदर हो जाएगा।
‘क्रिटिक्स ऑफ क्रिएटिविटी’ कार्यक्रम में प्रख्यात साहित्यकार प्रेम तन्मय की विद्रोह के कवि राजेश विद्रोही से बातचीत में साथ हैं हरीश बी. शर्मा।