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मधु आचार्य ‘आशावादी’  मोबाइल नंबर- 9672869385

नाटक, कहानी, कविता और जीवनानुभव पर 72 पुस्तकेंं हिन्दी और राजस्थानी में लिखी हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार संगीत नाट्य अकादमी का निर्देशन पुरस्कार, शम्भु शेखर सक्सैना, नगर विकास न्यास के टैस्सीटोरी अवार्ड से सम्मानित।

कविता सुनने की सजा

नवाब साहब सिंचाई महकमे में काम करते थे। नौकरी करना और अपनी मस्ती में मस्त रहना, दूसरी बातों से उनको कोई सरोकार नहीं था। विरोध किसी का नहीं करते थे पर किसी के भी अंध भक्त भी नहीं थे। आंख मूंदकर तो भगवान के बारे में कही बात भी स्वीकार नहीं करते थे।
सिंचाई विभाग के कर्मचारी अनियमित तबादलों को लेकर पंद्रह दिन से आन्दोलन कर रहे थे। पूरे विभाग में उससे हलचल थी, जाहिर है नवाब साहब को भी इसका पता था। उन्होंने इस कर्मचारी आन्दोलन को बाहर से पूरा समर्थन दे रखा था, जैसे दैवगोड़ा की सरकार को काँग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया था एक समय। बाहरी समर्थन हो तो सरकार के बुरे कामों को ओटना नहीं पड़ता। हम मंत्री नहीं, यह कहकर पल्ला झाड़ा जा सकता है। कभी-कभार विरोध में बयान भी दे सकते हैं।
बिल्कुल वैसा ही समर्थन कर्मचारी आन्दोलन को नवाब साहब का था। धरने, प्रदर्शन या नारेबाजी में वो कभी शामिल नहीं हुए। पूछने पर आन्दोलन के साथ होने की बात कहने से भी नहीं डरते थे। हां, कांग्रेस की तरह कभी भी आन्दोलन की आलोचना नहीं करते थे। मांगों के समर्थन में ही अपना बयान जारी करते थे।
राजनीति का मानव जीवन के साथ अब तो बड़ा घालमेल हो गया है। राशन कार्ड से नौकरी तक में राजनीतिक सिफारिश के बिना कोई सफलता नहीं मिलती है। दिल्ली में राशन कार्ड बनवाने के बहाने हुए नारी शोषण से देश का कोई भी जागरूक नागरिक अनजान नहीं है। तबादलों के बहाने अस्मत, नौकरी के नाम पर देह शोषण आदि राजनीति के विकृत चेहरे हैं। समाज पर इस बीमारी का सीधा असर भी पड़ा ही है। उस दिन नवाब साहब ऑफिस में अपनी सीट पर बैठे काम कर रहे थे। उसी समय कर्मचारी यूनियन के अध्यक्ष आ गए।
— नवाब साहब, क्या हालचाल है?
— सब ठीक चल रहा है।
— हड़ताल है, फिर भी फाइलें निबटा रहे हो।
— काम तो करना चाहिए, पेन डाउन हड़ताल तो है नहीं।
— आप हड़ताल के साथ नहीं हो क्या?
— मेरा पूरा समर्थन है हड़ताल को।
— धरने में तो कभी नहीं आये।
— आप लोग हो ना। मेरा बाहर से समर्थन है।
कर्मचारी नेता हंस दिए।
— भाई, मेरा समर्थन राजनेताओं की तरह नहीं है। मांगों से पूरी तरह सहमत हूं। यदि पेन डाउन करने का निर्णय करोगे तो उसमें साथ रहूंगा।
— वो भरोसा आप पर है। इसी भरोसे के आधार पर आज सहयोग मांगने आया हूं।
— बिलकुल तैयार हूं। बोलो क्या सहयोग चाहिए।
— कल मंत्री जी बीकानेर आ रहे हैं। उनसे सुबह दस बजे वार्ता है। ग्यारह लोगों को बातचीत के लिए बुलाया है। आप पढऩे-लिखने वाले आदमी हो, हमारे साथ चलो ताकि बातचीत ढंग से हो सके।
— यह तो कर्मचारी नेताओं का काम है। मैं कभी आपके यूनियन के दफ्तर में तो आता नहीं। बिना मतलब आपके दूसरे लोग नाराज हो जाएंगे। मुझे रहने दो, उनको ले जाओ।
— कोई नाराज नहीं होगा। कार्यकारिणी ने सर्वसम्मति से आपका चयन किया है।
— फिर ठीक है। मैं सुबह दस बजे सीधे सर्किट हाऊस पहुंच जाऊंगा।
— ठीक है नवाब साहब।
दूसरे दिन सुबह दस बजे से पहले ही नवाब साहब सर्किट हाऊस पहुंच गए। कर्मचारी नेता भी आ गये। मंत्री जी इन्तजार कर ही रहे थे, तुरन्त वार्ता के लिए बुला लिया। मंत्री के साथ विभाग के अफसर भी थे।
पहले कर्मचारियों की बात सुनी गई। नवाब साहब सहित सभी ने तबादलों को निरस्त करने की मांग की। उनका कहना था कि छोटे कर्मचारियों के तबादले नहीं होने चाहिए।
— सरकार को अपने कर्मचारियों के तबादले करने का अधिकार है।
— है, पर जरूरत होने पर। अकारण तबादले करना तो अन्याय है। यह तो प्रताडऩा है। यदि कहीं काम की जरूरत हो तो तबादला करें।
— मैं आपको इन तबादलों का कारण साफ-साफ बताना चाहता हूं, यदि आप नाराज न हो तो।
— आप जब इतनी आत्मीयता से बात कर रहे हैं तो हम भी कारण सुनने को तैयार हैं। आपकी बात भी मान लेंगे पर कारण वाजिब हो।कविता सुनने की सजा

नवाब साहब सिंचाई महकमे में काम करते थे। नौकरी करना और अपनी मस्ती में मस्त रहना, दूसरी बातों से उनको कोई सरोकार नहीं था। विरोध किसी का नहीं करते थे पर किसी के भी अंध भक्त भी नहीं थे। आंख मूंदकर तो भगवान के बारे में कही बात भी स्वीकार नहीं करते थे।
सिंचाई विभाग के कर्मचारी अनियमित तबादलों को लेकर पंद्रह दिन से आन्दोलन कर रहे थे। पूरे विभाग में उससे हलचल थी, जाहिर है नवाब साहब को भी इसका पता था। उन्होंने इस कर्मचारी आन्दोलन को बाहर से पूरा समर्थन दे रखा था, जैसे दैवगोड़ा की सरकार को काँग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया था एक समय। बाहरी समर्थन हो तो सरकार के बुरे कामों को ओटना नहीं पड़ता। हम मंत्री नहीं, यह कहकर पल्ला झाड़ा जा सकता है। कभी-कभार विरोध में बयान भी दे सकते हैं।
बिल्कुल वैसा ही समर्थन कर्मचारी आन्दोलन को नवाब साहब का था। धरने, प्रदर्शन या नारेबाजी में वो कभी शामिल नहीं हुए। पूछने पर आन्दोलन के साथ होने की बात कहने से भी नहीं डरते थे। हां, कांग्रेस की तरह कभी भी आन्दोलन की आलोचना नहीं करते थे। मांगों के समर्थन में ही अपना बयान जारी करते थे।
राजनीति का मानव जीवन के साथ अब तो बड़ा घालमेल हो गया है। राशन कार्ड से नौकरी तक में राजनीतिक सिफारिश के बिना कोई सफलता नहीं मिलती है। दिल्ली में राशन कार्ड बनवाने के बहाने हुए नारी शोषण से देश का कोई भी जागरूक नागरिक अनजान नहीं है। तबादलों के बहाने अस्मत, नौकरी के नाम पर देह शोषण आदि राजनीति के विकृत चेहरे हैं। समाज पर इस बीमारी का सीधा असर भी पड़ा ही है। उस दिन नवाब साहब ऑफिस में अपनी सीट पर बैठे काम कर रहे थे। उसी समय कर्मचारी यूनियन के अध्यक्ष आ गए।
— नवाब साहब, क्या हालचाल है?
— सब ठीक चल रहा है।
— हड़ताल है, फिर भी फाइलें निबटा रहे हो।
— काम तो करना चाहिए, पेन डाउन हड़ताल तो है नहीं।
— आप हड़ताल के साथ नहीं हो क्या?
— मेरा पूरा समर्थन है हड़ताल को।
— धरने में तो कभी नहीं आये।
— आप लोग हो ना। मेरा बाहर से समर्थन है।
कर्मचारी नेता हंस दिए।
— भाई, मेरा समर्थन राजनेताओं की तरह नहीं है। मांगों से पूरी तरह सहमत हूं। यदि पेन डाउन करने का निर्णय करोगे तो उसमें साथ रहूंगा।
— वो भरोसा आप पर है। इसी भरोसे के आधार पर आज सहयोग मांगने आया हूं।
— बिलकुल तैयार हूं। बोलो क्या सहयोग चाहिए।
— कल मंत्री जी बीकानेर आ रहे हैं। उनसे सुबह दस बजे वार्ता है। ग्यारह लोगों को बातचीत के लिए बुलाया है। आप पढऩे-लिखने वाले आदमी हो, हमारे साथ चलो ताकि बातचीत ढंग से हो सके।
— यह तो कर्मचारी नेताओं का काम है। मैं कभी आपके यूनियन के दफ्तर में तो आता नहीं। बिना मतलब आपके दूसरे लोग नाराज हो जाएंगे। मुझे रहने दो, उनको ले जाओ।
— कोई नाराज नहीं होगा। कार्यकारिणी ने सर्वसम्मति से आपका चयन किया है।
— फिर ठीक है। मैं सुबह दस बजे सीधे सर्किट हाऊस पहुंच जाऊंगा।
— ठीक है नवाब साहब।
दूसरे दिन सुबह दस बजे से पहले ही नवाब साहब सर्किट हाऊस पहुंच गए। कर्मचारी नेता भी आ गये। मंत्री जी इन्तजार कर ही रहे थे, तुरन्त वार्ता के लिए बुला लिया। मंत्री के साथ विभाग के अफसर भी थे।
पहले कर्मचारियों की बात सुनी गई। नवाब साहब सहित सभी ने तबादलों को निरस्त करने की मांग की। उनका कहना था कि छोटे कर्मचारियों के तबादले नहीं होने चाहिए।
— सरकार को अपने कर्मचारियों के तबादले करने का अधिकार है।
— है, पर जरूरत होने पर। अकारण तबादले करना तो अन्याय है। यह तो प्रताडऩा है। यदि कहीं काम की जरूरत हो तो तबादला करें।
— मैं आपको इन तबादलों का कारण साफ-साफ बताना चाहता हूं, यदि आप नाराज न हो तो।
— आप जब इतनी आत्मीयता से बात कर रहे हैं तो हम भी कारण सुनने को तैयार हैं। आपकी बात भी मान लेंगे पर कारण वाजिब हो।कविता सुनने की सजा

नवाब साहब सिंचाई महकमे में काम करते थे। नौकरी करना और अपनी मस्ती में मस्त रहना, दूसरी बातों से उनको कोई सरोकार नहीं था। विरोध किसी का नहीं करते थे पर किसी के भी अंध भक्त भी नहीं थे। आंख मूंदकर तो भगवान के बारे में कही बात भी स्वीकार नहीं करते थे।
सिंचाई विभाग के कर्मचारी अनियमित तबादलों को लेकर पंद्रह दिन से आन्दोलन कर रहे थे। पूरे विभाग में उससे हलचल थी, जाहिर है नवाब साहब को भी इसका पता था। उन्होंने इस कर्मचारी आन्दोलन को बाहर से पूरा समर्थन दे रखा था, जैसे दैवगोड़ा की सरकार को काँग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया था एक समय। बाहरी समर्थन हो तो सरकार के बुरे कामों को ओटना नहीं पड़ता। हम मंत्री नहीं, यह कहकर पल्ला झाड़ा जा सकता है। कभी-कभार विरोध में बयान भी दे सकते हैं।
बिल्कुल वैसा ही समर्थन कर्मचारी आन्दोलन को नवाब साहब का था। धरने, प्रदर्शन या नारेबाजी में वो कभी शामिल नहीं हुए। पूछने पर आन्दोलन के साथ होने की बात कहने से भी नहीं डरते थे। हां, कांग्रेस की तरह कभी भी आन्दोलन की आलोचना नहीं करते थे। मांगों के समर्थन में ही अपना बयान जारी करते थे।
राजनीति का मानव जीवन के साथ अब तो बड़ा घालमेल हो गया है। राशन कार्ड से नौकरी तक में राजनीतिक सिफारिश के बिना कोई सफलता नहीं मिलती है। दिल्ली में राशन कार्ड बनवाने के बहाने हुए नारी शोषण से देश का कोई भी जागरूक नागरिक अनजान नहीं है। तबादलों के बहाने अस्मत, नौकरी के नाम पर देह शोषण आदि राजनीति के विकृत चेहरे हैं। समाज पर इस बीमारी का सीधा असर भी पड़ा ही है। उस दिन नवाब साहब ऑफिस में अपनी सीट पर बैठे काम कर रहे थे। उसी समय कर्मचारी यूनियन के अध्यक्ष आ गए।
— नवाब साहब, क्या हालचाल है?
— सब ठीक चल रहा है।
— हड़ताल है, फिर भी फाइलें निबटा रहे हो।
— काम तो करना चाहिए, पेन डाउन हड़ताल तो है नहीं।
— आप हड़ताल के साथ नहीं हो क्या?
— मेरा पूरा समर्थन है हड़ताल को।
— धरने में तो कभी नहीं आये।
— आप लोग हो ना। मेरा बाहर से समर्थन है।
कर्मचारी नेता हंस दिए।
— भाई, मेरा समर्थन राजनेताओं की तरह नहीं है। मांगों से पूरी तरह सहमत हूं। यदि पेन डाउन करने का निर्णय करोगे तो उसमें साथ रहूंगा।
— वो भरोसा आप पर है। इसी भरोसे के आधार पर आज सहयोग मांगने आया हूं।
— बिलकुल तैयार हूं। बोलो क्या सहयोग चाहिए।
— कल मंत्री जी बीकानेर आ रहे हैं। उनसे सुबह दस बजे वार्ता है। ग्यारह लोगों को बातचीत के लिए बुलाया है। आप पढऩे-लिखने वाले आदमी हो, हमारे साथ चलो ताकि बातचीत ढंग से हो सके।
— यह तो कर्मचारी नेताओं का काम है। मैं कभी आपके यूनियन के दफ्तर में तो आता नहीं। बिना मतलब आपके दूसरे लोग नाराज हो जाएंगे। मुझे रहने दो, उनको ले जाओ।
— कोई नाराज नहीं होगा। कार्यकारिणी ने सर्वसम्मति से आपका चयन किया है।
— फिर ठीक है। मैं सुबह दस बजे सीधे सर्किट हाऊस पहुंच जाऊंगा।
— ठीक है नवाब साहब।
दूसरे दिन सुबह दस बजे से पहले ही नवाब साहब सर्किट हाऊस पहुंच गए। कर्मचारी नेता भी आ गये। मंत्री जी इन्तजार कर ही रहे थे, तुरन्त वार्ता के लिए बुला लिया। मंत्री के साथ विभाग के अफसर भी थे।
पहले कर्मचारियों की बात सुनी गई। नवाब साहब सहित सभी ने तबादलों को निरस्त करने की मांग की। उनका कहना था कि छोटे कर्मचारियों के तबादले नहीं होने चाहिए।
— सरकार को अपने कर्मचारियों के तबादले करने का अधिकार है।
— है, पर जरूरत होने पर। अकारण तबादले करना तो अन्याय है। यह तो प्रताडऩा है। यदि कहीं काम की जरूरत हो तो तबादला करें।
— मैं आपको इन तबादलों का कारण साफ-साफ बताना चाहता हूं, यदि आप नाराज न हो तो।
— आप जब इतनी आत्मीयता से बात कर रहे हैं तो हम भी कारण सुनने को तैयार हैं। आपकी बात भी मान लेंगे पर कारण वाजिब हो।

मंत्री ने बताया कि सिंचाई विभाग के एक खण्ड में कोई काम नहीं रह गया है तो उसे बन्द करना पड़ेगा। उसके कर्मचारियों को ही स्थानान्तरित किया जा रहा है। काफी बहस के बाद इस बात पर सहमति बनी कि खण्ड बन्द हो, पर कर्मचारी यहीं समायोजित हों। बात बन गई। इस सहमति में नवाब साहब की बहुत बड़ी भूमिका थी और मंत्री उनके खूब प्रभावित हुए। बाद में मंत्री ने चाय मंगवाई और अनौपचारिक बातचीत आरम्भ की।
— भाइयों, आप भी सरकार के अंग हैं इसलिए आप से बात करना मुझे सही लगा। सरकार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। खर्चा अधिक और आय कम। इसी कारण खर्चों की तरफ ध्यान न देकर बचत की तरफ ध्यान दिया जा रहा है। सरकारी खर्चे को कम करने के बारे में आप लोग अपनी राय दें। उस पर यह सरकार गम्भीर है।
नवाब साहब को हंसी आ रही थी पर उन्होंने व्यक्त नहीं किया।
— बात तो चिन्ता की है। सरकार भी तो हमारी ही है।
— तभी तो कम खर्चे पर आपसे राय ले रहा हूं।
— मंत्रीजी, सबसे पहले विधायकों, मंत्रियों के खर्चों को कम करना चाहिए। इनके वेतन कम हो, भत्ते कम हो, सुविधाओं में कटौती हो। बहुत बड़ी बचत हो जाएगी।
— यह सम्भव नहीं। गठबन्धन की सरकार चला रहे हैं, उसकी अपनी मजबूरी है। किसी ने भी नाराज होकर समर्थन वापस ले लिया तो सरकार गिर जाएगी। यह काम तो हो ही नहीं सकता।
— गलत है बात। अब आप बताओ, आपकी सरकार बनने से पहले दूसरी पार्टी के नेता मुख्यमंत्री बने थे। एक दिन रहे। बहुमत साबित कर नहीं सकते थे तो इस्तीफा देकर चल दिए। अब उनको भी पूर्व मुख्यमंत्री वाला वेतन, सुविधाएं मिलेगी। यह तो तर्क संगत नहीं।
— मैं मानता हूं कि तुम्हारी बात तर्कसंगत है मगर इसे स्वीकारा ही नहीं जा सकता। आंख मूंदकर खारिज करना पड़ेगा।
— राज का सबसे अधिक खर्च विधायकों, मंत्री और खुद राज पर ही होता है इसलिए उसमें ही कटौती पर विचार करना चाहिए। या तो खर्च कम हो या फिर आमदनी बढ़े, इससे ही आर्थिक स्थिति सुधर सकती है।
— वाह, आप बातें तो कमाल की करते हो। खरी है बातें, पर इस राजनीति में उनको अमल में चाहकर भी नहीं लाया जा सकता।
— सर, आप कहें तो एक कहानी सुनाऊं।
— जरूर। मगर सबके सामने नहीं।
यह बात उन्होंने नवाब साहब के कान में कही। बाकी नेताओं और अफसरों को उन्होंने यह कहर बाहर भेज दिया कि अब कोई काम नहीं है। नवाब साहब को रोक लिया। पूछने पर बताया कि उनके पुराने ताल्लुकात हैं इसलिए प्रदेश की राजनीति पर गम्भीर चर्चा करनी है। गम्भीर है तो गोपनीय तो होनी है, इसीलिए आप लोग बाहर जाइये।
सबके चले जाने के बाद मंत्री जी नवाब साहब के पास सोफे पर आकर बैठ गए।
— हां, अब सुनाओ कहानी।
— कहानी सुनने के लिए मुझे रोका है सर?
— हाँ, बड़े दिलचस्प आदमी हो तुम। कहानी, कविता सुनने का मुझे बचपन से ही शौक है, पर राजनीति में आने के बाद वक्त ही नहीं मिलता। इसीलिए कहानी सुनाने को कह रहा हूं।
नवाब साहब यह सुनकर मुस्करा दिए। साहित्य को छोड़ राजनीति में आया है इसीलिए स्थिर विचार नहीं है। कल्पना और यथार्थ के मध्य की मुठभेड़ से हर समय घिरा रहता है। नवाब साहब कहानी सुनाने लगे।
— सेठ का लडक़ा अठारह साल का हो गया। अब तक पढ़ रहा था और ग्रेजुएशन कर लिया था। एक दिन सेठ ने कहा कि अब पढ़ाई बन्द। आखिर में मिल ही तो चलानी है, आज से मेरे साथ चलो। लडक़ा साथ चल दिया। मिल के अन्दर सेठ ने मुनीम को बुलाया और बताया कि आज से इसे सारा काम दिखा दो, यही सम्भालेगा काम। मुनीम के साथ अब लडक़ा रहता और सेठ ने दूसरा काम देखना शुरू कर दिया। एक सप्ताह बाद सेठ ने मुनीम को अकेले बुलाया और पूछा कि बेटा कैसा काम कर रहा है।
— साहब, सब ठीक है। धीरे-धीरे काम सीख रहा है।
— मुझे उसके आई क्यू के बारे में बताओ। मुझमें और उसमें क्या फर्क है।
— सेठ साहब आपने आज तक कमाकर खाया है और वो बचाकर खायेगा।
— कैसे?
— तीन दिन तक मजदूरों की मेस देखने के बाद उसने मुझे कहा कि इनको रोज पूरा खाना दिया जाता है जो जरूरी है। साथ में रोज एक पापड़ भी दिया जाता है, यह जरूरी नहीं। कल से एक की बजाय आधा पापड़ देना शुरू कर दो।

— ओहो!
— इसीलिए कहा कि बचाकर खा लेगा वो।
मंत्री जी कहानी सुनकर हँसे बिना नहीं रह सके।
— यार कमाल के आदमी हो तुम। बड़े ही खुशमिजाज। मजाक की बातों से पूरा तनाव हल्का कर देते हो। मैं सुबह ही जेल का निरीक्षण करके आया था, बहुत तनाव में था। इस कहानी ने हलका कर दिया।
नवाब साहब को अब मसखरी करने की इच्छा हुई।
— आप लोगों को जेल बनानी ही नहीं चाहिए। हमारे मेकेनिकल डिर्पाटमेन्ट की तरह उसे भी बन्द कर देना चाहिए। बहुत बड़ा खर्चा बच जाएगा। आपकी सरकार की हालत सुधर जाएगी। हो सकता है आर्थिक दृष्टि से सरकार फायदे में आ जाए।
मंत्री जी चौेंक गए।
— जेल कैसे बन्द हो सकती है। खूंखार अपराधी खुले नहीं छोड़े जा सकते। इससे तो अराजकता हो जायेगी। अपराधियों को दण्ड मिलना ही चाहिए।
— अपराधियों को सजा इसके बाद भी मिलेगी।
— वो कैसे?
नवाब साहब कल ही एक बुरी काव्य गोष्ठी को सहन करके आये थे। इस पर रात भर सोचते भी रहे थे और उसी के आधार पर अपनी कल्पनाओं को बताने का निर्णय किया। उनको पता था कि मंत्री दिलचस्प तो मान ही चुके हैं इसलिए बुरा भी नहीं मानेंगे।
— मंत्री जी आपको नया कानून बनाना होगा। जो आदमी चोरी करे उसे जेल भेजने के बजाय सात दिन वीर रस के नवोदित कवि के साथ चौबीस घण्टे रहने की सजा सुनानी चाहिए।
— वाह, क्या आइडिया है।
— इस सजा में सात दिन बाद उसकी आने वाली सात पुश्तें भी चोरी का नहीं सोचेंगी।
— सोच ही नहीं सकती।
— कोई खून करे तो उसे एक साल छायावादी कवि के साथ रहने की सजा दीजिए। डकैती करने वाले के साथ हास्य कवि, बलात्कारी के साथ व्यंग्य कवि आदि। बस इस तरह की सजा दीजिए। कोई अपराधी भूलकर भी दुबारा अपराध करने की नहीं सोचेगा। जेल से बड़ी यातना होगी यह। कान पकड़ लेगा।
मंत्री जी खुलकर हंसने लगे।
— वाह, कमाल का आइडिया दिया है। सीधे सीएम को बताता हूं।
उनकी हंसी रोके नहीं रुक रही थी।
अचानक नवाब साहब की आंख खुल गई। सोफे पर बैठे-बैठे उन्हें झपकी आ गई थी। न तो मंत्री पास था, न कोई दूसरा। नितान्त अकेले थे, भीड़ मंत्रीजी के जाने के बाद भीड़ कब की निकल चुकी थी। चपरासी दरवाजे पर खड़ा नींद में उन्हें हंसते हुए देख रहा था। नवाब साहब भी मुस्करा दिए, चपरासी पर नहीं अपने सपने के आइडिया पर।

चांदनी मेहता  ” चारू “

MA हिन्दी साहित्य  M phil कविता,कहानी,लघुकथा लेखन में रुचि हिन्दी लघुशोध लक्ष्मी नारायण जी रंगा के नाटको पर। अध्यन अध्यापन में जुड़ाव, नारी जीवन,समसामयिक,समाजिक विषयों में लेखन मे रुचि ।

कविता : दिल की उस दुनिया में सोचो

दिल में बसी एक प्यारी दुनिया,
हाँ दिल में बसी है एक न्यारी दुनिया,
ना जाने कितने ख्वाबों अरमानो से सजी,
लेकिन देख वही पाया जिसनें,
शिव सा त्रिनेत्र पाया,
मरुस्थल में कटहल के पेड़ों को,
पतझड़ की वीरान राहों में,
प्रेम के आसक्त गलियारों में,
मिलन की गहराई में,
ना मिलपाने की कसक ,
दिल की वो दुसरी दुनिया ,
हाँ वही दुनिया जिसे देखना,
सबके बस की बात नहीं,
गहरा इतना गहरा उतरना,
कैसे उतरेगा कोई,कैसे,
अहंकार खड़ा है द्वारपाल बना,
तुम युधिष्ठिर से सत्यवक्ता,
क्या हो धर्मनिष्ठ,
फिर केसे देखोगे वो भीतरी दुनिया,
जिसमें अनगिनत,अनकही,अव्यक्त,
नजाने कितनी शब्दावलिया सुप्त है,
तुम हौले से गुजरना कभी,
लेकिन तभी जब मौन में भी,
मेरे अंतस को छू लेने वाली,तुम्हारी प्रेमतरंग झंकृत करे मेरे मनमंदिर को,
तभी देख पाओगे तुम ,
दिल की वो हसीन दुनियाँ,
जिसे कोई नही देख पाया,
ला पाओगे ऐसे प्रेमचक्षु,
नारी मन के उदगारों को,
जिनमें रूप-लावण्य,अकूत खजाने तुम्हारे प्रेम-समर्पण है,
रिक्त है एहसासो का आँगन,
क्या कभी तुम पहूँच पाओगे,
दिल की उस धरा पे ,
दिल की उस दुनिया में सोचो

डॉ. प्रमोद कुमार चमोली, मोबाइल- 9414031050

नाटक, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, स्मरण व शैक्षिक नवाचारों पर आलेख लेखन व रंगकर्म जवाहर कला केन्द्र की लघु नाट्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान। अब तक दो कृतियां प्रकाशित हैं। नगर विकास न्यास का मैथिलीशरण गुप्त सम्मान

कुछ पढ़ते कुछ…. लिखते …..

(लॉक डाउन के दौरान लिखी गई डायरी के अंश)

मेरी डायरी  6   रूहानी प्रेम कहानी

दिनांकः 09.04.2020

आज सुबह उठने के बाद ये तय कर लिया था कि आज तय कार्य को पूरा करना ही है। इसमें पहला तय कार्य था। नदीम अहमद च्नदीमज् का अभी हाल ही में प्रकाशित उपन्यास को पढ़ना और उस पर फेसबुक पर कुछ लिखना। इसके लिए सुबह उठने के बाद भोर को सुहानी बनाना जरूरी था। थोड़ी देर तक बाहर ठंडी हवा में बैठा रहा। पक्षियों को निहारता रहा। लॉकडाउन में बाहर तो जाना नहीं है। अपने अंदर ही रहना है। चाय के साथ अखबार देखने लगा राजस्थान में ४० संक्रमित पाए गए। बीकानेर में ५ संक्रमित पाए गए हैं। इस प्रकार राजस्थान में कुल ३८३ संक्रमित हो चुके है। बीकानेर में इनकी कुल संख्या २० हो चुकी है। इधर बीकानेर बीकानेर में कर्फ्यू की सख्ती को बढ़ा दिया गया है। इस संक्रमण को कम्युनिटि स्प्रेड से बचाने के लिए इसके अलावा कोई उपाय नहीं है। नदीम अहमद च्नदीमज् का अभी हाल ही में प्रकाशित उपन्यास को वत्सल प्रकाशन, बीकानेर ने प्रकाशित किया है। यहां इस उपन्यास पर बात करें उससे पहले हिन्दी उपन्यास के विकास पर थोड़ा दृष्टिपात कर लिया जाए-उपन्यास एक आधुनिक विधा है। हिंदी में विधा अंग्रेज़ी साहित्य के प्रभाव से आयी है। कहा जाता है कि इस विधा का उद्भव और विकास पहले यूरोप में हुआ। बाद अंग्रेजो के सम्पर्क के कारण बांग्ला के में उपन्यास विकसित हुए तत्पश्चात ये विधा हिंदी साहित्य में आयी। उपन्यास के कथा सूत्र में इतना डूब गया कि समय का मालूम ही नहीं चला। सुबह पढ़ना शुरू किया था। बीच में दोपहर में खाना खाया और फिर उपन्यास को पढ़ने लग गया। लगभग ४ बजे उपन्यास को पूर्ण कर दिया था।  उपन्यास च्च्इबादतज् नदीम अहमद च्नदीमज् का पहला उपन्यास है। साहित्य की दुनिया में लघुकथाकार के रूप में ख्याति प्राप्त हैं। दोनो विधाओं में के मध्य एक लंबी दूरी है, एक लंबा फासला है। लेकिन इस उपन्यास से गुजरते हुए नदीम भाई अपने के इस साहित्यिक कायान्तरण की यात्रा को एक सफल और सुफल यात्रा के रूप में देखा जा सकता है। इस उपन्यास को पढ़ते समय जैसा महसुस किया वह इस प्रकार से है- इस उपन्यास की कहानी को नदीम भाई ने रूहानी प्यार की कथा कहा है। आज के समय में जब प्रेम जैसा शब्द के अर्थ मांसलता के पर्याय होते जा रहें हैं। रूह जब देह के दावानल में सिसक रही है तब इस तरह के रूहानी प्रेम की कल्पना कर नदीम भाई ने जो जोखिम लिया है वह शलाघनीय है। इसकी एक भूमिका में हरीश बी शर्मा द्वारा लिखा गया है कि च्च् बाकि पात्रों के लिए यहां तक कहा जा सकता है कि कि सारे लुबना के किरदार को मजबूती देने के लिए आते-जाते रहें हैं। यहां तक की महिला पात्र के रूप में ममता, प्रमिला या उमा भी।ज्ज् इस उपन्यास से गुजरने के बाद मेरी पूर्ण सहमति हरीश बी शर्मा के इस कथन से है। दूसरे शब्दों में कह दूं कि इसकी सम्पूर्ण कथा लुबना स्त्री पात्र के इर्द-गिर्द बुनी गई है। लुबना इस कथा का केन्द्रिय पात्र  है और कहना गलत नहीं होगा कि मैं तो यह कहता हूं कि एकमात्र पात्र है। इसकी सम्पूर्ण कथा इतनी है कि इसमें लुबना एक बहुत सुन्दर और ज़हीन आत्मतत्व से लवरेज स्त्री है। जिसके साथ कहीं भी न्याय नहीं होता। उसकी शादी भी वचनबद्धता की मजबूरी का परिणाम है। वह दाम्पत्य से बंधी है। फिर भी उसकी तलाश है, एक प्यास है। जो उसे अधुरा किए हुए है। वह पूर्णता की तलाश में है। इस कहानी को प्रेम त्रिकोण तो कतई नहीं कहा जा सकता क्योंकि लुबना जिस दाम्पत्य में जी रही है आभास मात्र है। वहाँ अभाव है, अतृप्तता है। यह अतृप्ता दैहिक नहीं है, यह अतृप्तता प्रेम की है। उसे प्रेम की तलाश है जिसकी वह तीव्रता से दरकार रखती है। ऐसे मे नवेद एक पात्र इस उपन्यास में उसकी तीव्रता को कम करने के लिए उतरता है। नवेद के चरित्र का गठन इस प्रकार का है कि वह इस जमाने का है थोड़ा संदिग्ध जरूर लगता है। वह प्यार लुबना से प्यार करने लगता है। इस प्यार को रूहानी प्यार की संज्ञा दी जा सकती है या प्लैटोनिक प्यार कहा जाता है। लेकिन यह कथा इतनी नहीं है। यह इससे इतर नजर आती है। इसमें स्त्री की मुक्ति छटपटाहट को देखा जा सकता है। उसकी मुक्ति की आंकाक्षा समाज के पुरूषवादी रवैये से है। लेकिन इस कहानी में कहीं इस मुक्ति की छटपटाहट की लाउडनैस नहीं है। जिस ढांचे से वह आती है वहां खुलकर कहने की आजादी नहीं है इसलिए परंपराओं का खुलकर विरोध नहीं कर पाती। उसे विरोध के लिए उसे एक आलम्बन की तलाश है। लुबना के लिए वह आलम्बन नवेद है।  अब समझना यह है कि मुक्ति की छटपटाहट च्इबादतज् उपन्यास में किस प्रकार दिखाई देती है। इसको पढ़ते हुए पाठक इसे लुबना की जीवनी का कथानक समझे तो गलत नहीं होगा। इस कथानक को नदीम भाई ने बड़ी खूबसूरती से जीवनी की शुष्कता से अलग करते हुए उपन्यास की शक्ल में उतारा है। लुबना सरकारी विद्यालय में प्रधानाध्यापक है। उसके जीवन की तरह उसके कार्यस्थल पर भी उसकी सुन्दरता आड़े आती है। उसके चारों के लोग उसकी चंदन रूपी काया से अजगरों की तरह लिपट कर अपनी हवस मिटाना चाहते हैं। वह कुछ कहना चाहती है पर इसके लिए उसे एक सहारे की जरूरत है जो कम से कम उसका शौहर मुनीर तो नहीं दे सकता। किसे राजदार बनाए? ऐसे में नवेद उसका सहारा बनाता है। नवेद उसकी मुक्ति की छटपटाहट को पहचानता है। उससे बहुत चाहता है, ऐसा ही कुछ लुबना के साथ भी है। उनका सारा प्रेम टेलिफोनिक बातचीत और मैसेज के माध्यम से चलता है। इजहार के लिए लंबी बातचीत है जो कि कथा का ताना-बाना भी है। कथा कि गत्यात्मकता, संवेदना की भावप्रवणता के साथ-साथ अन्य अन्तर्कथाओं की विविधता इसे मुकम्मल उपन्यास बनाती हैं। समसामयिक घटनाओं मे स्त्री को वस्तु समझने समस्या को कथा उठाती है और उसका तत्संबंधी निवारण प्रेम को इंगित करती है।  इस कहानी उपन्यास का पूरा परिवेश मुस्लिम जीवन का है। मुस्लिम जीवन में व्याप्त संकीर्णताओं की और लेखक इशारा करता है। लेखक द्वारा इसके कथानक में विद्यालय, अस्पताल, बाजार और और अन्य दृश्यों का यथार्थ चित्रण करना उसकी सूक्ष्म अवलोकन दृष्टि का परिणाम है। इस उपन्यास को रूहानी प्रेम का उपन्यास कह दिया लेकिन लेखक ने स्त्री मुक्ति के संघर्ष के अधिकार और चेतना सरलता से जिन नर्म और नाजुक संवेदनाओं  के साथ रखा है, वह निश्चित  रूप से प्रशंसनीय है। उपन्यास की भाषा-शैली वर्तमान प्रचलन की रोज़मर्रा वाली हिंदी है। इसकी भाषा में एक रवानी है। उर्दू शब्दों का प्रयोग भाषा के प्रवाह और मुस्लिम परिवेश की दृष्टि से कथा की प्रवाहशीलता को बढ़ाता है। अंत में यही कहा जा सकता है कि नदीम अहमद च्नदीमच् का उपन्यास च्इबादतज् की कथासहज संप्रेषणीय है। इसकी रोचकता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि एक बार उपन्यास को हाथ में लेने के बाद पूरा पढ़े बगैर छोड़ नहीं जा सकता। इसकी सुंदर छपाई के श्रेय वत्सल प्रकाशन को दिया जाना चाहिए। लगभग सायं ६.०० बजे इस उपन्यास पर लिखी टीप को फेसबुक पर पोस्ट कर दिया था। घर की छत पर समय पास करने के लिहाज से घुम रहा था। आज शरद केवलिया से बातचीत की थी। शरद भी बचपन का मित्र है। आजकल जागती जोत का संपादन कार्य कर रहा है। इसके बाद कुछ अन्य मित्रों से बात की। थोड़ी ही देर में नदीम भाई ने फेसबुक पर पढ़कर फोन कर दिया था। नदीम जी से उपन्यास पर पूर्ण चर्चा की नदीम भाई ने मेरी आपतियों को स्वीकारा।  रात्रि का गहरापन दिखाई देने लगा था। मित्रवर कौशल ओहरी से बात करनी थी। लगाया उसने कहा कि च्थोड़ी देर में फोन करता हूँ।ज्ज् मेरे पास इंतजार करने के अलावा कोई काम नहीं था। नीचे सभी लोग महाभारत देख रहे थे। मैं छत पर बैठा व्हाट्स एप्प टटोल रहा थां। अपने प्रभारित जिले को कुछ सूचनाएं प्राप्त करनी थी। कोरोना काल में अब विद्यार्थियों को  स्माईल योजना शुरू की जा रही है। उसके लिए बच्चों और शिक्षकों के ग्रुप बनवाने थे। अपने प्रभारित जिले में इसका प्रबोधन करना था। प्रबोधन दूरभाष और व्हाट्स एप्प के माध्यम से चल रहा था। व्हाट्स एप्प पर संदेशों के आदान-प्रदान उपरांत डॉ. कौशल का फोन आ गया था। बातचीत चली वह अपनी परेशानियां बता रहा था। खैर, नौकरी है तो परेशानी भी है। लेकिन इन दिनों चिकित्सा से जुड़े लोगों के लिए परेशानियाँ कुछ अधिक थी। उसने बताया कि कोई बाहर से अन्य राज्य या अन्य जिले से भी आए तो हमें उसे क्वारेन्टीन करना होता है। लोग अपने आदमियों के बारे में बताते नहीं है। इस पर समझाना पड़ता है। खैर, अभी तक जितने भी लोग आए हैं सबको वह क्वारेन्टीन कर चुका है। उसने यह भी बताया कि यहां पर शिक्षकों के बगैर कोई काम पूरा नहीं हो सकता। हमारे सेन्टरों वही लोग संभाल रहें हैं। इसके बाद उसे हल्का करने के लिए कुछ चुटुकले बाजी चली। पुरानी बातें याद की और बात पूरी हो गई। आज शेष बचे समय में गीता के बारहवे अध्याय को पढ़ना है। इसलिए आज के लिए बस इतना ही।

-इति

 

 

ऋतु शर्मा  :  मोबाइल नंबर- 9950264350

हिन्दी व राजस्थानी में समान रूप से कविता-कहानी लिखती हैं। हिंदी व राजस्थानी में चार किताबों का प्रकाशन। सरला देवी स्मृति व कर्णधार सम्मान से सम्मानित

10 अक्टूबर 1942 को जन्मी आनंद कौर व्यास एक ऐसी लेखिका हैं, जिन्होंने हिन्दी व राजस्थानी में समन रूप से लेखन किया है। कहानी, उपन्यास ही नहीं बल्कि बालसाहित्य भी आपने लिखा है।
आपके सांवर दइया पैली पोथी पुरस्कार व गोदावरी देवी सरावगी पुरस्कार मिला है। साहित्य कि अतिरिक्त ज्योतिष के क्षेत्र में भी अपनी दखल रखने वाली आनंद कौर व्यास से ‘लॉयन एक्सप्रेस’ के कथारंग परिशिष्ट कि लिए कथाकार-कवयित्री ऋतु शर्मा ने बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश।

कब क्यों और कैसे सवालों पर मंथन ही मेरे लेखन का आधार है : आनंद कौर व्यास

प्रश्र 1. आपकी साहित्य यात्रा का यह 50 वां वर्ष है जब अतीत में देखती हैं तो क्या महसूर करती हैं।

उत्तर- बात उस समय की है जब स्त्री शिक्षा को इतना महत्व नहीं दिया जाता था। अगर कहूँ तो 1950 से 1952 तक के बीच की बात होगी ये। मेरा जन्म एक ऐसे घर में हुआ जहां मुझे एक लडक़ी होते हुए भी पढऩे का सुअवसर मिला। जैसे की कहा जाता है माँ प्रथम शिक्षक होती है मेरे साथ भी वही हुआ मुझे पहला आखर-ज्ञान अपनी माँ से प्राप्त हुआ। नाना नानी से अक्सर जब कहानियां सुनती थी तो मेरे मन में कई प्रश्न उठते थे, मुझे याद है एक बार राजा हरिशचंद्र की काहनी सुनते हुए मुझे लगा की आखिर उन्होने इतना सहन क्यूँ किया ,कहने का मतलब ये है की संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के बीज तो मेरे हृदय की कच्ची मिट्टी में ही पड़ चुके थे ऐसे में जब पिताजी का ट्रान्सफर मीरा की नगरी मेड़ता हुआ तो मुझे मीरा के जीवन-चरित्र को समझने का अवसर मिला। मीरा का मुझपर बहुत प्रभाव पड़ा और मैं मीरा की उस जन्मस्थली को अपने लिए एक बहुत बड़ा आशीर्वाद मानती हूँ। वहाँ मैंने तीसरी कक्षा में जिस विद्यालय में प्रवेश लिया वहां हमारी हिन्दी की अध्यापिका इतना रुचिकर पढ़ाती थी कि मेरा कहानी और कविताओं की तरफ रुझान बढ़ता गया। तेरह वर्ष की उम्र में मेरा विवाह आदरणीय भवानी शंकर जी व्यास से हो गया। आप उस समय बीस वर्ष के थे। अंग्रेजी के अध्यापक थे। मेरे पिताजी ने मेरे ससुरजी से मेरे पढऩे के शौक को जाहिर करते हुए कहा च्इसको पढ़ाई के प्रति लगाव है और हमारी इच्छा है की आनंद अपनी आगे की पढ़ाई भी पूरी करें’। उस वक्त मैं 8वीं पास थी। ससुर जी ने हामी दी और मैंने परिवार को निभाते हुए अपनी शिक्षा को पुन: शुरू किया।1955 से 1965 तक मेरा पूरा समय सिर्फ परिवार और बच्चो की जिम्मेदारियों में ही निकला 1966 में जब हम बीकानेर आकर बसे उस समय मैंने 10वीं से एम.ए तक की पढ़ाई को पूरा किया साथ ही कुछ न कुछ लिखती भी रहती थी।जब मैंने पहला उपन्यास इनको बताया तो ये बहुत प्रसन्न हुए। इनके मित्र आदरणीय नंदकिशोर आचार्य और गौरी शंकर जी की सराहना ने मेरा उत्साह वर्धन किया। तब से चला ये सफर अपने 50 साल की यात्रा को सुखद अनुभूतियों के साथ जीते हुए आज तक आनंदित है।इसका श्रेय मैं पूर्ण रूप से अपने पूरे परिवार और अपने हमसफर को देती हूँ।

प्रश्र : 2  किसी भी लेखक की पहली किताब प्रकाशित होने की प्रक्रिया यादगार होती है, आपके साथ भी हुआ कुछ?

उत्तर-इसके पीछे एक दिलचस्प किस्सा है। श्रीमान कृष्ण जनसेवी जो की सूर्य प्रकाशन में काम किया करते थे, उन्होंने अपना प्रेस ‘कल्पना प्रकाशन’ के नाम से खोल लिया था। उनका हमारे घर आना जाना था। उन्होने नयी प्रेस लगाई थी और जनसेवी जी इनकी कविताएं लेने घर आए तो मैंने भी अपना उपन्यास उन्हे पढऩे को दिया वो बहुत प्रभावित हुए और बोले की ‘गुरुजी आपकी कविताएंं बाद में छापूंगा पहले मैं ये उपन्यास छापूंगा’। मैं खुश भी थी लेकिन चिंतित भी क्योंकि पतिदेव ने पहले ही मुझे कह दिया था कि लिखो भले ही लेकिन छपवाने की स्थिति नहीं है । किन्तु कहते हैं कि जहां चाह वहां राह निकल ही आती है श्री कृष्ण जनसेवी मेरे लिए भगवान श्री कृष्ण के रूप में ही आए जिन्होंने मेरी पहली कृति बिना कोई मूल्य लिए प्रकाशित की। लेखन की तपस्या का फल ये मिला की मेरे पहले उपन्यास ने ही धूम मचा दी। किताबें बहुत बिकी और कृष्ण जी ने मुझे उसकी रॉयल्टी भी दी। लेकिन मैंने उनसे कहा कि मुझे इसकी जरूरत नहीं। मेरे लिए तो किताब का छपना ही बहुत बड़ी बात है। आप मुझे सिर्फ 10 किताबे दे दीजिये।उसके बाद लगातार उन्होने मेरी पुस्तकों का प्रकाशन किया ये मेरा गुड-लक रहा की मुझे मेरी पुस्तकों के लिए न तो कोई समारोह करना पड़ा, न ही कभी पैसा लगाना पड़ा। मैंने लगातार 10 हिन्दी की किताबें लिखी और लिखती रही।

प्रश्र : 3  विनोद जी लेखक और आप लेखिका हैं, इस भूमिका में आप किनती सहज-असहज रही हैं?

उत्तर- मैं उन सौभाग्यशाली स्त्रियों में से हूँ जिसे अपने जीवन साथी का हंड्रैड परसेंट सपोर्ट मिला। मेरे पतिदेव ने मेरा सदैव ही हौसला बढ़ाया और सदैव मेरा पथ प्रदर्शन किया। हम एक दूसरे के विचारों का और भावनाओ का सम्मान करते है इसलिए प्रतिस्पर्धा का तो प्रश्न ही नहीं। बल्कि ये कहूँगी कि मैं तो आज तक ये मानती  इनके आगे मैं कुछ भी नहीं। लेखन का जहां तक सवाल है तो मैं गद्य विधा में लिखती हूँ और आप कविताएं ज्यादा लिखते हैं। दोनों ही लेखक हैं और लेखक होने के नाते संवेदनाओं की अभिव्यक्ति ही हमारी लेखन में समानता है।मैं जो कुछ हूँ अपने जीवन साथी की वजह से हूँ।

प्रश्र : 4  आपकी रचना प्रक्रिया क्या है ?

उत्तर- हम जिस परिवार और समाज में रहते हैं उसमें कहानियाँ बिखरी हुई पड़ी हैं जरूरत उन्हीं में से एक को उठाकर शाब्दिक रूप देने की है हमारे आस पास जो घटित होता है उसपर कब क्यों और विशेष रूप से कैसे जैसे सवालो का मंथन करना मेरे लेखन का आधार है और उसके बाद दैनिक व्यस्तताओं के चलते अपने मन में उन्हे गढ़ते, उधेड़ते और बुनते रहना मेरी रचना प्रक्रिया है।

प्रश्र : 5  एक महिला जब लिखती है तो उसको पढऩे वाले उसे उसकी जिंदागी से जोडऩे लगते हैं, ऐसा क्यों होता है कहाँ तक सच है ?

उत्तर- लेखन जिंदगी से तो जुड़ा ही होता है यदि जिंदगी से नहीं जुड़ा होता तो हम कुछ लिख ही नहीं पाते। विशेष रूप से महिलाओं के लिए कहूँगी और खुद का ही उदाहरण दूँगी की मेरा पहला उपन्यास मेरे जीवन के आधार पर ही है। हाँ, उसमें कल्पनाओं के साथ सार्वजनिक जीवन स्तर की बात भी है।यही समान्यत: लेखन में होता है फिर चाहे वह महिला लेखक हो या लेखक हो एक पुरुष।इसलिए ये पढऩे वाले पर निर्भर करता है की उसकी दृष्टि का विस्तार कितना है।

प्रश्र : 6 लेखन में कल्पना और यथार्थ का कितना जुड़ाव है ?

उत्तर- यथार्थ तो होता ही है लेकिन एक लेखन पूर्ण तभी होता है जब उसमें लेखक की कल्पनाओं का सम्मिश्रण होता है।

प्रश्र :7  आप लेखक होने के साथ साथ ऐस्ट्रोलोजर भी है आप अपने किस रूप को ज्यादा महत्व देती है ?

उत्तर- लेखन मेरा पेशन है और ऐस्ट्रोलोजी मेरी हॉबी। मैं ऐस्ट्रोलोजी में बिलकुल विश्वास नहीं करती थी लेकिन मेरे जीवन की दो विशेष घटनाओं ने मुझे ऐस्ट्रोलोजर बना दिया। आपसे साझा करना चहुंगी- मेरी ननद का विवाह जब तय हुआ तब ज्योतिषी ने कहा था की कुंडली मिलान ठीक नहीं है। इसका विवाह 27 वर्ष की होने के बाद करें, लेकिन हम लोग विश्वास नहीं करते थे। सो हमने उसका विवाह कर दिया और कुछ वर्ष बाद ही नंदोईजी का देहांत हो गया। इस घटना ने मुझे झकझोर दिया। तब मुझे ज्योतिषी की कही बात याद आई और दूसरी घटना ये कि मेरी छोटी वाली बेटी सुमन बचपन में बहुत नटखट थी और उसकी पढऩे में भी कोई विशेष रुचि नहीं होती थी। हम चिंतित रहते थे एक बार हमारे घर एक ज्योतिषी आए और उन्होने उसे देखकर कहा की ये खूब पढ़ेगी और इसके ग्रह बहुत तेज़ हैं। इसके बाद जो भी भाई या बहन जन्म लेगा वो जिंदा नहीं रहेगा और बात सच निकली। मेरे जिस बच्चे की मृत्यु हुई उसकी कुंडली भी हम ज्योतिष के पास लेकर गए और उन्होने कुंडली देखकर कहा कि ये जिसकी भी कुंडली है वो जीवित नहीं है या फिर ये कुंडली झूठी है। मैं आश्चर्यचकित थी। बस तब से मेरा रुझान ज्योतिषशास्त्र की ओर होने लगा। मैंने कहीं कोई ट्रेनिंग नहीं ली सिर्फ पुस्तके पढक़र इस विद्या को अर्जित किया।

प्रश्र : 8 आज जितना लिखा जा रहा है, अपेक्षाकृत उतना पढ़ा नहीं जा रहा क्या कारण मानती है आप।

उत्तर- लेखन एक साधना है लेकिन मेरे लिए ये दुख का विषय है की आज जो लिखा जा रहा है वो सिर्फ प्रसिद्धि पाने की दृष्टिकोण से लिखा जा रहा है। लिखा, छपवाया और नाम हो गया।तो उसमे न तो तपस्या न साधना। रही सही कसर इस सोशल मीडिया ने पूरी करदी है, जिस पर सभी लेखक बने हुए हैं। बस जल्दी से लिखा और पोस्ट किया उसपर चिंतन और मनन कुछ नहीं। आज भी हम प्रेमचंद की कहानियों को याद करते हंै लेकिन आज का लेखन जीवन की गहराइयों को लिए नहीं होता। मात्र प्रसिद्धि के लिए होता है।यहाँ तक की कुछ लेखक तो ऐसा भी करते हैं कि आधी कहानी लेखक की और आधी कहानी दूसरे लेखक की मिलकर लो जी एक कहानी तैयार ऐसा चल रहा है । हाँ ये जरूर है की ये बात सभी पर लागू नहीं होती। जहां तक पढऩे का सवाल है तो मोबाइल से फुर्सत मिले तो कोई किताब उठा कर पढे।

प्रश्र : 9  साहित्य लगातार लिखा जा रहा है क्या फर्क महसूस करती है आप पहले की लेखनी में और आज जो लिखा जा रहा है उसमें ?

उत्तर- अगर सटीक कहूँ तो आज के लेखन में आदर्शों की कमी महसूस करती हूँ।पहले साहित्य गहन चिंतन के बाद समाज के हित के लिए लिखा जाता था किन्तु आज लेखन केवल प्रतिस्पर्धा बनकर रह गया है।

प्रश्र : 10  स्त्री विमर्श के बारे में आपका क्या कहना है ?

उत्तर- एक स्त्री की पीड़ा स्त्री ही समझ सकती है। जैसे कि एक माँ कि तकलीफ को बेटी ज्यादा समझती है क्योंकि वो आगे जाकर माँ बनती है। स्त्रियोंं के बारे में जो ज़्यादातर पुरुषों के द्वारा लिखा गया है उसमें उसकी पुरुष दृष्टि झलकती है उसमें जो संवेदना होती है उसमें सहानुभूति झलकती है । एक स्त्री जब स्त्री की पीड़ा को लिखती है तो उसमे प्रामाणिकता होती है क्योंकि वो उस पीड़ा को अंतस से महसूस करती है।

प्रश्र : 11 हमारी मायड़ भाषा केा अभी तक मान्यता नहीं मिली है, क्या कारण मानती हैं आप?

उत्तर : राजस्थानी म्हारी मायड़ भाषा हैं। राजस्थानी साहित्य बहुत समृद्ध है लेकिन उसकी कोई खोज-खबर नहीं ली गई जहां तक भाषा को मान्यता न मिलने का प्रश्र है तो उसे मैं हम राजस्थानियों की कमजोरी मानती हूं। आज के परिवेश में हम देखते हं कि राजस्थानी बोलने से शरमाते हैं हिन्दी या अंग्रेजी भाषा बोलने में अपनी शान समझते हैं, वहीं आप देख लीजिए पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात वगैरह सभी जगह उनकी मातृ भाषा को अपनाया जाता है, लेकिन न जाने क्यों राजस्थानी होकर राजस्थानी बोलने में शर्म करते हैं या स्टेटस सिम्बल नहीं मानते। इस अनदेखी के कारण राजस्थानी भाषा संघर्ष कर रही है। सभी से एक अनुरोध करना चाहूंगी कि मायड़ भाषा को अपनाए। हिन्दी-अंग्रेजी बोलें लेकिन राजस्थानी की माटी से बने है तो राजस्थानी भाषा को गर्व समझें शर्म नहीं और अपनी नई पीढ़ी को भी यह संस्कार दें।

प्रश्र : 12 नव-लेखिकाओं का आपकी सलाह।

उत्तर : साहित्य समाज का दर्पण है और लेखन एक साधना। लेखन निरंतर हो लेकिन गहन अध्ययन के साथ हो। लेखन समाज को एक नयी दृष्टि देता है। अध्ययन, मनन, चिन्तन बाद लेखन हो। लेखन में मौलिकता हो।

प्रश्र : 13 बाल साहित्य कम क्यों लिखा जा रहा है?

उत्तर : आज बाल साहित्य बहुत कम लिखा जा रहा है। दृष्टिकोण में फर्क है, आज का जो समय हो गया है उसमे लेखन प्रतिस्पर्धा बन गया है जो लिखा फटाफट में लिखा बाल साहित्य लिखना कठिन है। बाल मन की भावनाओं को देखते हुए पे्ररणास्पद लिखा जाये। लिखा भी कम जा रहा है पढा भी कम जा रहा है। इस शिक्षा नीति ने बच्चों को बस्ते के बोझ तले दबा दिया है। अंग्रेजी माध्यम में पढते हैं। पढ़ाई,संस्कारों के लिए नहीं नौकरी के लिए हो गई है। इसलिए शायद लेखकों का इस ओर से ध्यान हटता जा रहा है।

प्रश्र : 14   साहित्य पुरस्कारों के बारे में आपका क्या कहना है?

उत्तर : पूरी तरह भाग-दौड़ करके एक-दूसरे को सम्मानित करने के लिए ही दिये जाते हैं। संस्थागत पुरस्कार तो एक दूसरे को ही दिये जाते हैं लेकिन साहित्य अकादमी के पुरस्कार पूरी तरह ठोक बजा कर दिये जाते हंै।

प्रश्र : 15 आपके साहित्य के सफर को यदि मैं 50 वर्ष का स्वर्णिम समय कहूं और आपसे कहूं कि इस सुनहरे सफर को एक वाक्य में बांधिये तो क्या कहेगी?

उत्तर : ‘तपस्या सफल हुुई मेरी’ – साहित्य के सुनहरे 50 साल। सभी से बहुत स्नेह मिला, मान सम्मान मिला।

मुश्तरिका तहज़ीब की पैदावार सेठ दीवान चंद ‘दीवां ‘

पैदाइश -1933, वफ़ात -2011

– सीमा भाटी,  मोबाइल नंबर- 9414020707

उर्दू रचनाकार सीमा भाटी का राजस्थानी, उर्दू ,हिंदी तीनों भाषा में समान लेखन। आपका कहांनी संग्रह, कविता संग्रह, और एक राजस्थानी उपन्यास भी आ चुका है। इन्हें राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर का प्रतिष्ठित अल्लामा इक़बाल अवार्ड 2017 उर्दू साहित्य में मिला।

दीवान चंद ‘दीवां ‘ 13 नवम्बर 1933 को जिला डेरा इस्माईल के क़स्बे टांक में पैदा हुए जो मौजूदा पाकिस्तान में हैं आपकी तहज़ीब में साझेदारी की ख़ुशबू आती थी। वालिद का नाम टिक्कन राम था कहा जाता है कि जब दीवान साहब चंद महीनों के थे तब ही उनकी आँखों कि रोशनी चली गई थी। दीवान साहब कि दादी को फ़क़ीरों पर बेहद यक़ीन था इसलिए फ़ौरन उनको एक फ़क़ीर के पास ले गई। फ़क़ीर के एक चिमटा मारने से भर से ही दीवान साहब की बीनाई वापिस आ गई, और दादी का यक़ीन दीवान की आँखों में पहले से ज़्यादा रोशन होकर चमकने लगा। उस वक़्त आपका नाम बिहारी लाल था। दीवान नाम उस फ़क़ीर ने ही आपको अता किया था। दीवान का बचपन और लड़कप्पन के हालात नासाज़गार ही रहे, इसलिए वो 6 जमाअत से ज़्यादा तालीम हासिल नही कर सके क्यूंकि हंगामा ए तक़सीम कि वजह से उन्हें पाकिस्तान छोड़ कर हिंदुस्तान आना पड़ा। पहले जयपुर और फिर बीकानेर में रच बस गए। शुरुआती दौर बहुत परेशानी वाला रहा, घरों में काम किया ,मजदूरी की, फिर एक दुकान किराये पर ली। दिन रात मेहनत की बलबूते पर एक के बाद एक दुकान और फिर कब चार दुकान के मालिक हो गए मालूम ही नही चला और दीवान को लोग सेठ दीवान चंद कह कर पुकारने लगे, मगर एक बात यहाa ख़ास तौर पर कहना चाहूंगी कि चाहे हंगामा -ए -तक़सीम में भले ही उनका सब कुछ जल कर राख हो गया, उनके पास सिवाय अपनी उर्दू ज़बान के कुछ नही बचा फिर भी कभी अपने गर्दिश के दिनों में ख़ुद को तंग नज़री और नफरतों की आग का शिकार नही होने दिया। ज़ेहन को ऐसी आलूदगी से हमेशा बचाये रखा जो मज़हबी ऐतबार से मुंक़सिम करती हो बल्कि एक मज़हबी रवादारी के अलमबरदार बनकर दरपेश आये।
दीवान साहब की तालीम उर्दू में हुई, वो उर्दू जो सदियों से हमारी तहज़ीब की अलामत मानी जाती रही है जिसे हिन्दू, मुसलमानों ने अपने खून से सींचा है। दीवान साहब को बचपन से ही उर्दू से ख़ास निस्बत थी।
इसका सबूत ये शे’र है पेशे है आपकी नज़र…

“क्या हंसीं है ये उर्दू ज़बां दोस्तो
इसका आशिक़ है सारा जहां दोस्तो”.…

दीवान साहब पेशे से ताजिर थे, मगर उर्दू ज़बान की मुहब्बत के नशे ने उन्हें शाइरी की मैदान में उतार दिया, जो उनके अहसास और ज़ज्बात के इज़हार का ज़रिया बना। मगर दीवान ने शाइरी से कभी माली फ़ायदा नही उठाया बल्कि उस अपने अहसास और जज़्बात का ज़रिया बनाया और जब भी ताजिरना मसरूफियात से वक़्त मिलता शे’र मौज़ू कर लिया करते थे
दीवान साहब ने बाक़ायदा शाइरी की शुरुआत 1970 में की और शम्सुद्दीन साहिल की शागिर्द हुए मगर साहिल कुछ वक़्त की बाद कोलायत जाकर बस गए। ऐसे हालात में दीवान ने गाज़ी साहब से इस्लाह लेने लगे और तब तक लेते रहे जब तक गाज़ी हयात रहे। वैसे तो दीवान साहब ने हम्द, नअत, सलाम, मनक़बत, ग़ज़ल, नज़्म, रुबाइयात, क़तआत, यानि की शाइरी की हर सनफ़ सुख़न में तबअ आज़माई की थी मगर नअत आपकी पहली पसंद थी, और शाइरी की दुनिया में ‘दीवां ‘ नअत गो शाइर की हैसियत से मशहूर हुए। कहा जाता है कि जिस शख्स की यानि दीवान चंद की पैदाइश रईसी में, बचपन मोहताजी में, लड़कपन में नौकर, जवानी ताजिर में, और फिर बुढ़ापे में सेठ बन जाना ये छोटी बात नही है इसकी ख़ास वजह ये है कि हालात से दो चार होते रहने के बावजूद भी आपका अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद से बेपनाह मुहब्बत और अक़ीदत थी। वाजेह के लिये
पेश है एक ना’त शे’र आपकी नज़र….

“कश्ती भंवर में थी, मेरा लाज़िम था डूबना,
अल्लाह के रसूल मेरे काम आ गए “

आपने अपने नातिया कलाम में सीरत पाक के मुख़्तलिफ़ पहलुओं को निहायत ही सलीक़े और ख़ुलूस के साथ बयां किया गया है यही वजह है कि कराची से शाया शुदा नातिया मजमूआ “बहर ज़मां बहर ज़मां” में आपका कलाम शामिल है
दीवान ने ग़ज़लों नज़्मों, रुबाइयात, और क़तआत के ज़रिये भी अपने ख़्यालात व जज़्बात का इज़हार किया था उनके यहा हुस्न की वारदात के साथ तजिरबात भी थे तो इन सब में इस्तेमाल अल्फ़ाज़ को मुशाहिदा करने वाली पारखी नज़र भी थी। जो ज़माने पर नज़र रखने के साथ साथ मुस्तक़बिल के ख़्वाब देखती थी। इसके अलावा हुस्न व इश्क़, वसाल व हिज्र, मय जाम, मयख़ाना सभी कुछ था जिसे उर्दू शाइरी की पुरानी रिवायत मानी गई है पेश है ऐसा ही एक शेर आपकी नज़र …

“आज साग़र न मिला ग़म को भुलाने के लिये ,
आई बरसात मगर आग लगाने के लिये “…

मगर इन सबके बावजूद आपकी शाइरी में शौक़ियापन और बाज़ारी पन नही था। आप हमेशा संजीदा शाइरी की पैरोकारी की है आपकी शाइरी से माज़ी की कसीली यादों के झरोखों के साथ अपने शहर और वतन छूटने की चुभन आज भी महसूस होती है। जो इस शेर की शक़्ल में अयां होती है ….

“आशियाना जले एक मुद्द्त हो गई
दिल से उठता है अब तक धुआँ दोस्तों “

दीवान चंद ‘दीवां ने तक़रीबन चालीस सालों तक मुशाइरे पढ़े और शे’रों अदब की महफ़िलों में शिरक़त करते रहे। आपकी नज़र मुल्क़ और समाज के बदलते हालात पर भी रहती थी साथ ही क़ौमी यकजहती, इंसानी दोस्ती, मज़हबी रवादारी में भी आपकी आवाज़ हमेशा बुलंद रही।
दीवान के इसी बुलंद हौसले पर ‘दीवां ‘ का ही एक शेर आप सब की नज़र …..

“मुझे बरबाद रहकर भी ख़ुशी है
मेरा भी हौसला देखे ज़माना “

यहाँ ये बात वाजेह हो जाती है कि शाइरी करने के लिये कहीं ज़रूरी नही है कि उसे बचपन में वो साजगार माहौल मिले या शाइरी विरासत में मिले या फिर उसके लिये किसी स्कूल ,मदरसों में बहुत जमाअत तालीम हासिल की हो,ज़रूरत है तो सिर्फ़ उर्दू से बेपनाह मोहब्बत और जुनून की, और दीवान साहब की अदबी ख़िदमात ने ये साबित कर दिया है सेठ दीवान चंद ताजिर (व्यापारी ) होने के साथ साथ एक बेहतरीन शाइर के तौर पर आज भी उनको याद किया जाता है। आज भी बीकानेर में ऐसी कई शख्शियतें है जिनकी स्कूल, मदरसों से कुछ ज़्यादा वाबस्तगी नही रही, फिर भी एक बेहतरीन शाइर के तौर पर उनकी पहचान है।

2007 में आपके दो मजमूआ कलाम शाया हुए ।
1.नातिया मजमूआ कलाम परवाज़े शाहीन के उनवान से।
2.ग़ज़लों का मजमूआ “हुस्न अदब ” शाया हुआ था जिस को हाजी खुर्शीद साहब ने मरतब किया ।