निवेदन  ‘लॉयन एक्सप्रेस ’ लगातार आपको खबरों से अपडेट कर रखा है। इस बीच हमनें यह भी प्रयास किया है कि साहित्य के रसिक पाठकों तक भी कुछ जानकारियां पहुंचे। इसी को देखते हुए ‘कथारंग ’ नाम से एक अंक शुरू कर रहे हैं। इस अंक में कविता, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार आदि का प्रकाशन किया जाएगा। आप से अनुरोध है कि इस अंक के लिए अपनी रचनाएं हमें प्रेषित करें। आप अपनी रचनाएं यूनिकोड में भेजें तो बेहतर होगा। साथ ही अपना परिचय और छायाचित्र भी भेजें। आप चाहें तो अपने मौलिक साहित्यिक रचनाओं की प्रस्तुति संबंधी अपने वीडियो भी हमें भेज सकते हैं।

इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए आप इस अंक के समन्वय-संपादक संजय शर्मा से संपर्क कर सकते हैं। मोबाइल नंबर 9414958700

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डॉ. उषा किरण सोनी

 कविता, नाटक और बाल साहित्य भी लिखती हैं। हैदराबाद के युद्धवीर फाउण्डेशन पुरस्कार और शम्भु शेखर सक्सेना विशिष्ट साहित्य पुरस्कार, ज्ञान फाउण्डेशन की संस्थापक और शब्दश्री की संरक्षक है निबंध  मोबाइल नम्बर कविता

 

निबंध  : हिन्दी साहित्य और व्यंग्य

शब्द का वह अर्थ जो उसकी व्यंजनावृत्ति से प्रकट होता है – व्यंग्य कहलाता है। हिन्दी में इसे उपहास, मखौल आदि नामों से और अंग्रेज़ी में इसे सेटायर नाम से जाना जाता है। शब्द संसार में हास्य और व्यंग्य दोनों साथ-साथ चलते हैं। व्यंग्य केवल निर्मल हास्य को जन्म नहीं देता और न ही केवल छिद्रान्वेषण इसका उद्देश्य होता है। दरअसल व्यंग्य एक ऐसी विधा है जिसमें व्यंग्य करने वाला अपना कटाक्ष हँसी के साथ करता है और व्यंग्य का पात्र, पाठक या श्रोता उस कटाक्ष को पढक़र या सुनकर भीतर ही भीतर तिलमिला जाता है परंतु मुख पर सजी हँसी को $कायम रखता है। साहित्य में व्यंग्य की सफलता पाठक को झकझोर देने में होती है। पाठक जितना तिलमिलाता है,व्यंग्य उतना ही सफल माना जाता है।
साहित्य के आधुनिक काल (सन 1900 के आस-पास) के प्रारंभ में जब गद्य का जन्म हो रहा था और पद्य में खड़ी बोली का प्रयोग प्रारंभ हो रहा था तभी से गद्य और पद्य दोनों में व्यंग्यात्मक शैली का प्रारंभ होने लगा था। भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा तत्कालीन शासक वर्ग के न्याय, खिताब और नौकरशाही पर नए जमाने की मुकरी में व्यंग्य का प्रयोग-
भीतर-भीतर सब रस चूसैं
हँसि-हँसि कै तन-मन-धन मूसैं
जाहिर बातन में अति तेज
कह सखि साजन, ना अंग्रेज़
भारतेन्दु जी का आद्यंत व्यंग्य प्रधान नाटक है- भारत दुर्दशा। अपने इस नाटक में राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व सामाजिक सभी रूपों में मारक, प्रभावी व सटीक व्यंग्य का प्रयोग किया। तत्कालीन शासकों के प्रभाव से हुए सांस्कृतिक ह्रास को उकेरते हुए आपने इस नाटक के पात्रों के संवाद व्यंग्यात्मक शैली में लिखे। पाश्चात्य संस्कृति के गहरे चमकदार आवरण को देख भारतीयों में माँस-मदिरा सेवन की प्रवृत्ति बहुत बढ़ गई थी। इस नाटक में मदिरा नामक पात्र द्वारा अपनी गुणावली का बखान करते शब्दों में व्यंग्य की बानगी-
स्मृति और पुराणों में भी प्रवृत्ति मेरी नित्य कही गई। तंत्र तो केवल मेरे सेतु बने। संसार में चार मत बहुत प्रबल हैं हिन्दू, बौद्ध, मुसलमान और क्रिस्तान। इन चारों में मेरी पवित्र प्रेम मूर्ति विराजमान है। सोमपान, वीराचमन, शरांबूतहूरा और बापटैजिंग वाइन। भला कोई कहे तो इनको अशुद्ध? या जो पशु हैं उन्होंने अशुद्ध कहा ही तो क्या? हमारे चाहनेवालों के आगे वे लोग बहुत होंगे तो भी सैकड़ों में दस होंगे, जगत में तो हम व्याप्त हैं। हमारे चेले लोग सदा यही कहा करते हैं और फिर सरकार के राज्य के तो हम एकमात्र भूषण हैं।
पाँच दशक पूर्व व्यंग्य, कविता, निबंध, नाटक आदि विधाओं में रच-बस कर दर्शक, पाठक व श्रोता को आनंदानुभूति कराते हुए उन्हें चिंतन व प्रतिक्रिया हेतु आमंत्रित करता था। धीरे-धीरे लगभग तीन दशक पूर्व व्यंग्य ने एक स्वतंत्र विधा के रूप में साहित्य में पदार्पण किया और अत्यल्प समय में प्रतिष्ठित हुआ। जहाँ स्वतंत्र विधा के रूप में व्यंग्य परोसा व पसंद किया गया वहीं सभी गद्य व पद्य की विधाओं में संदर्भानुसार व्यंग्य की फुलवारी से उनका लालित्य बढ़ा। कविता व्यंग्य से सज कर ढेरों अनकहा कह गई तो कुछ विशेष नाटकों का तो आधार ही व्यंग्य बन गया। कहानी व उपन्यास व्यंग्य कथा कहलाने में गौरव का अनुभव करने लगे। अधिकतर लघुकथाओं का तो मूल रस ही व्यंग्य होने लगा।
स्वतन्त्रता के बाद हरिशंकर परसाईं ने अपने श्रेष्ठ व्यंग्य लेखन से व्यंग्य विधा को विशेष पहचान दी। कहा जाता है कि परसाईं ने व्यंग्य को शूद्र से ब्राह्मण बनाया। उनकी इस परंपरा को शरद जोशी, रवीन्द्र त्यागी और श्रीलाल शुक्ल ने विकसित कर, व्यंग्य को स्वतंत्र विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया। शंकर पुणतांबेकर, नरेंद्र कोहली, गोपाल चतुर्वेदी, ज्ञान चतुर्वेदी, हरीश नवल, प्रेम जनमेजय, सुरेशकांत आदि व्यंग्यकारों की रचनाएँ व्यंग्य साहित्य की यात्रा में मील का पत्थर साबित हुईं। रानी, सदाचार का ताबीज, निठल्ले की डायरी, वैष्णव की फिसलन तथा विकलांग श्रद्धा का दौर हरिशंकर परसाईं की प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। ‘विकलांग श्रद्धा का दौर पर’ उन्हें साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया था।
प्रयोगधर्मी व्यंग्यकार शंकर पुणतांबेकर की कैक्टस के काँटे, प्रेम विवाह, विजिट यमराज की, घोंघे और सीपियाँ तथा अंगूर खट्टे नहीं हैं प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। जीप पर सवार इल्लियाँ, परिक्रमा, दूसरी सतह तथा यथासंभव पद्मश्री शरद जोशी की उल्लेखनीय कृतियाँ रहीं तथा व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी की गरुड़वाहन की कथा, शोकसभा, भद्रपुरुष एवं पदयात्रा ने प्रसिद्धि पाई। इस काल के व्यंग्यकारों में श्रीलाल शुक्ल ने राग दरबारी नामक व्यंग्य उपन्यास लिखकर अपनी विशेष छाप छोड़ी है। राग दरबारी पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था। श्रीलाल शुक्ल जी की अन्य प्रसिद्ध कृतियाँ हैं- अंगद का पाँव, यहाँ से वहाँ और यह घर मेरा नहीं।
आज का शब्दकार समाज में फैली अर्थहीन व्यावहारिकता, मर रहे मूल्यों की अराजकता, अव्यवस्था, दोगलापन तथा राजनीति की आधारहीनता, मुखौटापन, अंतर्विरोधों और विसंगतियों को व्यंग्य की सहायता से न केवल उघाडक़र धर देता है वरन् पाठक के साथ-साथ समाज के आ$काओं को सोचने पर विवश भी करता है। शब्दकार संवेदनशील होता है और संवेदनशीलता व्यंग्य का मूल आधार है। कवि और लेखक अपनी संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति व्यंग्य के माध्यम से भी करते हैं। कुछ कवियों व निबंधकारों की लेखनी से उकेरे गए व्यंग्य की धार देखें। डॉ. रामविलास शर्मा ने संवेदनशील नागार्जुन की व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति के विषय में लिखा है-
व्यंग्य की धार भारतेन्दु, निराला, केदार सभी में रही है पर संवेदनशील नागार्जुन ने इसे मुख्य विधा बनाकर एक पैने अस्त्र की भाँति इस्तेमाल किया। नागार्जुन जब कलकत्ते में थे तब उन्होंने वहाँ के रिक्शा चलानेवालों पर एक कविता लिखी थी, वह कविता उन्होंने मुझे सुनाई थी—
खुब गए दूधिया निगाहों में, फटी बिवाइयों वाले खुरदरे पैर
धँस गए, कुसुम कोमल मन में, गुल वाले कुलिश कठोर पैर
नागार्जुन रचित कविताओं में राजनीतिक कविताओं की संख्या सर्वाधिक है। ये कविताएँ साम्राज्यवाद और सामंतवाद के विरुद्ध हैं। शासन किस तरह से जनता से वादे करता है और फिर उन्हें झुठलाता है, इसकी तीखी व्यंग्यात्मक आलोचना करते हुए कवि ने शासन की बंदूक में लिखा-
खड़ी हो गई चाँपकर, कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट सी, शासन की बंदूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी, शासन की बंदूक।
ललित निबंधकार कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ ने अपने ललित निबंधों में व्यंग्य का अत्यंत सुंदर, सटीक व प्रभावकारी प्रयोग किया है। अपने एक ललित निबंध ‘ये घटनाएँ और यह घटना’ में उन्होंने एक घटना का उल्लेख किया है जिसमें वे अपने एक तहसीलदार मित्र के घर पहुँचे, जहाँ भोजन के समय उन्हें एक मेज़ पर भोजन की थाली परोसी गई जबकि तहसीलदार साहब ने अपने शिकारी कुत्ते, जिसे वे पार्टनर और कामरेड कह कर पुकारते थे, के साथ ज़मीन पर बैठ कर अलग-अलग थाली में भोजन किया। रात्रि विश्राम के पूर्व गप-शप में प्रभाकर जी ने उनसे उपहास करते हुए कहा —मित्र के घर पहुँचे, जहाँ भोजन के समय उन्हें एक मेज़ पर भोजन की थाली परोसी गई जबकि तहसीलदार साहब ने अपने शिकारी कुत्ते, जिसे वे पार्टनर और कामरेड कह कर पुकारते थे, के साथ ज़मीन पर बैठ कर अलग-अलग थाली में भोजन किया। रात्रि विश्राम के पूर्व गप-शप में प्रभाकर जी ने उनसे उपहास करते हुए कहा —      ‘तहसीलदार साहब आपके ये पार्टनर कामरेड तो खूब हैं। हँसी में आरंभ हुई यह बात कुछ ही पलों में वेदना में डूब गई जब उन्होंने कहा- ‘भाई साहब मेरी देह पर जितने भी रोम हैं, मनुष्यों के विश्वासघातों से हुए, उतने ही घाव मेरे मन पर हैं। ये कुत्ते हैं, खाते-पीते हैं पर कम से कम विश्वासघात तो नहीं करते।’ यह सुनकर मैं इतना स्तब्ध हो गया कि कुछ घडिय़ों तक उनकी ओर न देख सका।’ प्रसिद्ध व्यंग्यकार परसाईं जी रचित ऊलजलूल लिखने वाले ‘नई धारा’ के लेखकों पर व्यंग्य करते हुए एक व्यंग्यात्मक लघुकथा द्रष्टव्य है

– उस दिन एक कहानीकार मिले कहने लगे ‘बिल्कुल नयी कहानी लिखी है,बिल्कुल नयी शैली, नया विचार, नयी धारा। हमने पूछा- शीर्षक क्या है? वे बोले- चाँद, सितारे, अजगर, साँप, बिच्छू, झील।’ शरद जोशी की एक व्यंग्यात्मक उक्ति ‘प्रणाम के हंटर से नेता कर रहे हैं घायल।’ वर्षों पूर्व लिखे गए ऐसे कुछ व्यंग्य लेख और कहानियाँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक व प्रभावशाली हैं। सच तो यह है कि आज का पढ़ा-लिखा व्यक्ति विसंगतियों को पनपते देख रहा है,वह स्वयं अराजकता एवं अव्यवस्था का शिकार है परंतु वह सामना करने के स्थान पर अपने डर को ढाल बना कर व्यंग्योक्ति का सहारा लेता है। यह उसके भय की स्वीकृति है। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि व्यंग्य का साहित्य में अन्यतम महत्त्व है लेकिन समकालीन साहित्य में व्यंग्य का बढ़ता प्रभाव अनेक प्रश्न खड़े कर रहा है। ‘आज का साहित्य : आज के सवाल’ में डॉ. पुरुषोत्तम आसोपा इन प्रश्नों को उठाते हैं- क्या सचमुच व्यंग्य साहित्य के लिए अनिवार्य है? क्या व्यंग्य के अलावा जीवन की आपाधापी को चित्रित करने का कोई अन्य उपाय नहीं है? क्या व्यंग्य साहित्य को सही पथ पर ले जाने की सामथ्र्य रखता है? क्या व्यंग्य की नकारात्मक दृष्टि से साहित्य में कभी कुछ प्राप्त भी किया जा सकता है? व्यंग्य कहीं हमारी नपुंसकता की निशानी तो नहीं है?      दरअसल व्यंग्य का पाठक से रिश्ता, इतर साहित्य विधाओं से, भिन्न प्रकार का है। जहाँ अन्य विधाएँ पाठक को आनंदानुभूति कराती हैं वहीं व्यंग्य उनमें एक गहरी असंतोषजनक तिलमिलाहट भरने की चेष्टा करता है। इस परिप्रेक्ष्य में पाया गया कि-

1. सामाजिक विसंगतियाँ ही व्यंग्य का विषय बनती हैं। वर्तमान से जुड़े रहना व्यंग्य  की लाचारी है क्योंकि स्थितियों में बदलाव होते ही व्यंग्य महत्त्वहीन हो जाता  है और बीती हुई बातों पर व्यंग्य करना निरर्थक हो जाता है अत: व्यंग्य की आयु  कम होती है। स्थिति बदलते ही व्यंग्य का प्रभाव घट जाता है।

2. व्यंग्य छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति को अपनाता है। जो कुछ भी श्रेष्ठ है उसे छोडक़र  व्यंग्य, कमियों को ही अपना विषय बनाता है। किसी सीमा तक व्यंग्य नकारात्मक  दृष्टि का वितान है।

3. कभी-कभी व्यंग्यकार अव्यवस्थाओं को इतना बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करता है  कि पाठक को चारों ओर केवल अव्यवस्था ही दिखने लगती है जिससे पाठक  की मानसिकता प्रभावित होती है।

4. व्यंग्यकार सदैव मूल्यों के हनन को व्यंग्य का विषय बनाता है जो पाठक की  दृष्टि में मूल्यों का महत्त्व कम करता है जबकि ऐसा होता नहीं है।

व्यंग्यकारों ने अनेक कालजयी रचनाएँ दीं हैं। हिन्दी साहित्य का इतिहास इसका गवाह है। व्यंग्यकार दृष्टिकोण से देखकर केवल छिद्रान्वेषण ही नहीं करता, वह श्रेष्ठता और सुव्यवस्था का अंश भी देखता है। यह अलग बात है कि उसका यह प्रयास समाज की नज़र में ज़्यादा सम्मान हासिल नहीं कर पाता। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि व्यंग्य का साहित्य में सकारात्मक प्रभाव और उसकी छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति दोनों पृष्ठाबद्ध हैं जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता। अभावों, अव्यवस्थाओं और विसंगतियों में सुधार लाने हेतु पहले उनकी  व उनके कारणों की खोज करना अनिवार्य होता है और यह कार्य व्यंग्यकार करता है। कारण पता लग जाने पर सभी दोषों का निवारण करना संभव भी होता है और सरल भी। मँजे हुए श्रेष्ठ व्यंग्यकार अपनी रचनाओं में केवल छिद्रान्वेषण ही नहीं करते वरन् वे उन छिद्रों को पाटने या मूँदने के लिए सामग्री का सूत्र भी छोड़ते हैं जिन्हें ढूँढ व पहचान कर चतुर पाठक तथा राजनीतिक-सामाजिक शीर्षस्थ व्यक्ति परिस्थितियों को बदलने का भरपूर प्रयास करते हैं। तात्पर्य यह कि व्यंग्य साहित्य का प्रयोग समाज (पाठक) के तन में कड़वी दवा की भाँति सदैव हितकारी होता है। समाज और राजनीति में फैली अव्यवस्थाओं, असंगतियों और दोगलेपन की बीमारियों या दोषों का शोधन व परिष्कार सशक्त व्यंग्य द्वारा किया जा सकता है।

 

 

चांदनी मेहता  ” चारू “

MA हिन्दी साहित्य  M phil कविता,कहानी,लघुकथा लेखन में रुचि हिन्दी लघुशोध लक्ष्मी नारायण जी रंगा के नाटको पर। अध्यन अध्यापन में जुड़ाव, नारी जीवन,समसामयिक,समाजिक विषयों में लेखन मे रुचि ।

कविता 1 : “पिता हो या कल्पवृक्ष “

पिता नही कल्पवृक्ष हो,

       हा मेरे कल्पवृक्ष हो,

उदार,हसमुख,सयंमी,सशक्त,

       मेरी हर उम्मीद हो,हा मेरे कल्पवृक्ष हो

मेने देखा है पिता को अपने सपनों की धरती को बंजर छोड़ते हुए,

   मुझें सपनों के रथ से बाधते हुए।

हा मेरे कल्पवृक्ष हो,

    देह के परकोटे मे नेह का नगर बसाते वाले,

पुत्र,पति,पिता का किरदार निभाने वाले,

     मजबूत हो,स्थिर हो,दिशा दिखाने वाले,

पिता नहीं कल्पवृक्ष हो,

     हा मेरे कल्पवृक्ष हो।

 

 

कविता 2 :  “हाथरस”

उपनाम है ब्रज की देहरी,
मेरा कृष्ण है ब्रज का प्रहरी,
द्रौपदी का चीर बढाया तुमने,
दू:शासन से बचाया तुमने,
पीडिता भी तुम्हे पुकार रही थी,
चीर,चीर होते वसनो को सम्भाल रही थी,
कलयुगी दू:शसनो से मूझ्को भी बचाओ
हे कृष्ण कभी तो आओ,
“ब्रज की देहरी”को यू ना लज्जओ
हे त्रिभंगी भंग कर दो इन दुष्टो के अंगो को,
हे चक्रधारी काट डालो इन नर-मुन्ड़ो को।
गीता के उपदेश अब ये वहशी समझ ना पायेगे।
गान्डीव उठा सर्वनाश इनका अब मुझको ही करना होगा,
अपने मान के लिए मुझको ही लड़ना होगा,
हे कृष्ण इस कुरुक्षेत्र में मेरे सारथी बन जाओ
घर की देहरी भी अब रक्षा न कर पायी।
छोड़ अब मन्दिर तुम रणछोर आ जाओ।
नरपिशाचो,वहशियो के विनाश मे मेरे सारथी तुम बन जाओ,
हे कृष्ण कभी तो आ जाओ

 

मधु आचार्य ‘आशावादी’
 नाटक, कहानी, कविता और जीवनानुभव पर 72 पुस्तकेंं हिन्दी और राजस्थानी में लिखी हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार संगीत नाट्य अकादमी का निर्देशन पुरस्कार, शम्भु शेखर सक्सैना, नगर विकास न्यास के टैस्सीटोरी अवार्ड से सम्मानित।

व्यंग्य : संकट है, महासंकट

– साहित्य गोष्ठी विषय ‘पाठक का संकट’।
– नाट्य विचार मंथन ‘मंचन में दर्शक का संकट’।
– संगीत-नृत्य आयोजन व परिचर्चा ‘शास्त्रीयता पर संकट’।
– कला समारोह विचार प्रकल्प ‘रंगमंच का संकट’।
– शिक्षक संघ विचार गोष्ठी ‘शिक्षा में गिरते स्तर से संकट’।
– स्वयंसेवी संस्था समूह परिचर्चा ‘पानी-बिजली का संकट’
– मुख्य विपक्षी दल का सम्मेलन, ‘शहर में प्रदूषण का संकट’।
– शिशु रक्षा अभियान संख्या का अभियान ‘भ्रूण हत्या का संकट’।
– बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ की गोष्ठी ‘संवेदना का संकट’।
– पापड़ भुजिया श्रमिक मंच बैठक ‘मजदूरी का संकट’।
– पान एसोसिएशन का सम्मेलन ‘महंगाई में कम दाम से संकट’।
– निर्माण ठेकेदार एसोसिएशन का सम्मेलन ‘भुगतान न होने से संकट’।
– भक्तजन मंडल में संत-जी का प्रवचन ‘भगवान के लिए भोग का संकट’।
– जागरूक महिला मोर्चा की गोष्ठी ‘महिलाओं के सामने सुरक्षा का संकट’।
– पैदल यात्री संघ की बैठक ‘फुटपाथ का संकट’।
– गो सेवा समिति का प्रदर्शन ‘गायों के लिए चारे का संकट’।
– मरीज भक्त मोर्चा की रैली ‘असपतालों में डॉक्टर ना मिलने का संकट’
– एक महीना और इतने आयोजन। नवाब साहब सभी कार्ड देखकर चकरा गए। सिर पकड़ कर बैठ गए। अलग-अलग वर्ग, अलग अलग संगठन, अलग अलग उनके काम। इतना होने के बाद भी एक चीज कॉमन। कॉमन था ‘संकट’ सबके सामने संकट। संकट ही संकट।
इस संकट ने नवाब साहब को संकट में डाल दिया था और वे सिर पकडऩे पर मजबूर हो गए थे। उनको लगने लगा जैसे वो खुद एक संकट हो। उनका होना ही संकट है, तभी तो इतने संकटों से घिरे थे और उनको पता ही नहीं था। उनको शहर ही संकटों का शहर लगने लगा और हर शहरवासी संकट-ग्रस्त।
अजूबा हो गया शहर तो, जहां संकट के अलावा कुछ नहीं। हर किसी को केवल संकट नजर आ रहा है। कहीं कुछ अच्छा दिख ही नहीं रहा। दिखे भी कैसे, महासंकट उस अच्छे को लग रहा है अच्छाई तो संकट के सामने बौनी हो गई है।
संकट के सैलाब में डूबे नवाब साहब ने सभी आमंत्रण पत्रों को फिर से एक एक करके पढऩा शुरू किया। इस बार पढऩे की रफ्तार भी तेज थी, बात ही कुछ ऐसी थी। एक नई बात उनकी पकड़ में आई और आंखें चमक उठी। आंखों की चमक से होठों पर मुस्कुराहट आनी भी स्वाभाविक थी। कहते हैं, आदमी के मन के भाव उसके चेहरे क बजाय आंखों से अधिक प्रकट होते हैं। हिन्दी फिल्मों के अधिकतर प्रेम गीत आंखों के आईना होने की बात को पुष्ट करते हैं प्रेम केवल आंखों में ही तो दिखता है।
अब नवाब साहब के मुस्कुराने का समय था। आंखों की चमक बढ़ती ही जा रह थी। आयोजन स्थल को पढक़र वो कुछ हल्के हुए थे। संकट का हर आयोजन शहर के किसी न किसी आलीशान होटल में था और साथ में था लंच। बात संकट पर साथ में लंच। खाते पीते ही संकट पर चर्चा शायद सार्थक होती है।
संकट पर चर्चा में तेज तर्रार भागीदारी तभी होती है जब भागीदारों के सामने भोजन का संकट न हो। भोजन का संकट न होने पर ही वो जोश खरोश से बोलते हैं। आंदोलन और क्रांति की बातें करते हैं। भूखे पेट दूसरा कोई संकट याद ही नहीं आता, केवल भूख याद आती है। हर जगह पापी पेट का ही सवाल होता है।
नवाब साहब को अब लगने लगा कि वो संकट से उबरे हुए हैं। उनके तो इर्द गिर्द संकट नहीं आ सकता। जब मुफ्त के भोजन के इतने निमंत्रण जग में हो तो फिर काहे का संकट, कौन सा संकट। अब तो हर संकट की बातें गिटी जा सकती है। मौका मिले तो उगली भी जा सकती है। नवाब साहब ने सभी संकटों के मंथन संकट में भागीदारी का निर्णय तुरंत फुरत में कर लिया।
पहले दिन पहुंचे साहित्यक गोष्ठी में, ‘पाठक का संकट’ पर चर्चा करने के लिए। शहर के प्रसिद्ध मॉल के एक होटल के हॉल में था आयोजन। नवाब साहब पहली बार इतनी बड़ी होटल में आए थे इसलिए सकुचाते हुए भीतर प्रवेश किया। उनको देखते ही आयोजक की बांछे खिल गई। दौडक़र पास आया।
– आइये नवाब साहब। मुझे पक्का भरोसा था कि आप आएंगे। आपकी साहित्य में रुचि है। इसीलिए आपको कार्ड भिजवाया।  – आपके आग्रह को टालें कैसे शब्द शिरोमणी जी।
इस नाम पर वो खिलखिलाने लगे।
– आपने भी बहुत मान दिया है ये नाम देकर।
– आप हैं ही इस नाम के योग्य। कवि सम्मेलनों में क्या कविता पढ़ते हैं, मैं तो चकित रह जाता हूं।
– ये तो आपकी जरानवाजी है नवाब साहब। चलिए, कुर्सी पर बैठिए।
नवाब साहब वहां लगी कुर्सियों में से एक पर जाकर बैठ गए। आस-पास की सभी कुर्सियां खाली थी। कुल जमा सात लोग बैठे थे। लोग नहीं आए थे इसलिए कार्यक्रम शुरू नहीं हो सका था।
थोड़ी देर में पांच और उसके बाद तीन लोग आए। वो किसी भी ऐंगल से साहित्यकार नहीं लग रहे थे। नवाब साहब ने सिर झटका, वो खुद भी तो साहित्य से कोसों दूर थे। तीन महिलाएं भी आई। उनको तो नवाब साहब जानते थे। एक आयोजक की पत्नी, दूसरी सास और तीसरी उनकी साली थी। आयोजक जी दौडक़र उनके पास पहुंचे।
– अरे बच्चे-बच्चियों को नहीं लाएं?
– खाने के समय तक पहुंच जाएंगे वो समय उनको बता दिया है
– फिर ठीक है।
– नवाब साहब यह वार्तालाप सुनकर मुस्कुराए बिना नहीं रह सके।
जब हॉल में 20 लोग हो गए तो आयोजन जी ने कहीं फोन किया। थोड़ी देर में शहर की मशहूर मिठाई की दुकान के मालिक सेठ मक्खन लाल आ पहुंचे। उन्होंने आव देखा न ताव सीधे बने हुए मंच के बीच की कुर्सी पर जाकर बैठ गए। स्पष्ट हो गया कि इस चर्चा की अध्यक्षता वो करेंगे।
एक संयोजक बन गए। उन्होंने चार आदमियों को अतिथि, विशिष्टि अतिथि बनाकर ऊपर बिठा दिया। अब साहित्य में पाठकों के संकट पर एक ने भाषण देना आरंभ कर दिया। फिर दूसरे बोले। सेठ मक्खन लाल के कुछ पल्ले पड़ नहीं रहा था। अनमने से इधर-उधर देख रहे थे। जब रहा नहीं गया तो बोल ही पड़े।
– थोड़ा कम बोलो यार। मुझे दुकान जाना है।
– जी सेठ जी।
वक्ताओं ने फटाफट बोलना शुरू किया। अब पाठकों का संकट तो गौण हो गया और सेठजी के साहित्य प्रेम पर कसीदे पढ़े जाने लगे। सेठ जी के होंठों पर भी मुस्कुराहट आ गई। सुनने में भी मजा आने लगा। थोड़ा अकडक़र भी बैठ गये। आखिरकार संयोजक ने बोलने के लिए सेठजी का नाम पुकारा। वो उठे और माइक को इस तरह पकड़ा जैसे पैसा हो, हाथ में आने के बाद भागे नहीं।
– भाइयों, मैं न तो साहित्य लिखता हूं और न ही पढ़ता हूं। बस आपकी सेवा करके सुखी होता हूं। आप आयोजन करते हैं तो मुझे भोजन की व्यवस्था करके असीम सुख मिलता है, मैं इसे ही अपना साहित्य कर्म समझता हूं।
आप पाठकों के संकट का रोना रो रहे हैं, यह बड़ी समस्या नहीं। किताबें बेचने के लिए कूपन स्कीम लागू कर दो। हर किताब के साथ एक किलो मिठाई के पैकेट का ऑफर दे दो। मिठाई मैं दे दूंगा। पाठक ही पाठक, किताबें खूब बिकेंगी।
गजब का तरीका बताया। नवाब साहब को आश्चर्य तो तब हुआ जब उनकी इस बात पर वहां मौजूद सभी लोगों ने तालियां बजाई। साहित्य की बात मिठाई की खुशबू में खो गई। लंच की घोषणा हो गई।
लंच में भीड़ देखकर नवाब साहब दंग रह गए। हॉल में जहां केवल 20 लोग थे, पर यहां तो लोगों की संख 200 के पार थी। जिनमें औरतें और बच्चे भी बड़ी संख्या में थे। नवाब साहब को भोजन की जगह देखकर इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि साहित्य के सामने पाठकों का संकट है।
वो मुस्कुरा दिए और बिना खाना खाए चल दिए। इसलिए चलना बेहतर समझा कि कहीं मुंह से सच न निकल जाए। साहित्य और उसके संकटों का पता भी चल गया, निदान भी हो गया। इसी कारण इस विषय पर ज्यादा समय बर्बाद करना ठीक नहीं लगा उनको। जब नवाब साहब निकल रहे थे तो उनके कानों में आायोजकों के शब्द पड़े जो यह अभिव्यक्त कर रहे थे कि आज की विचार गोष्ठी बहुत सफल रही।
घर आकर नवाब साहब बिस्तर पर लेट गए। मन में संतोष था कि न तो शहर संकटग्रस्त है और न वो खुद एक संकट है। ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है।
बिस्तर पर लेटे-लेटे हुए ही उन्होंने पास की टेबिल पर रखे बाकी कार्ड उठाए। संकट का संदेश देने वाले कार्ड। एक एक करके पढ़ते गए और सीने पर रखते गए। सब कार्ड देख लिए पर कुछ तय नहीं कर पा रहे थे। वापस कार्ड उठाए और शाम को होने वाले आयोजनों पर नजर डाली।
एक कार्ड पर उनकी नजर थम गई। पैदल यात्री संघ का यह कार्ड था उसमें ‘फुटपाथ का संकट’ विषयक बैठक का उल्लेख था। नवाब साहब के पास कार या बाइक तो थी नहीं इसलिए वे अधिकतर फुटपाथ पर ही चला करते थे। चलना मुश्किल था, टकराते और वाहनों से बचते बचते वे अपना रास्ता काटते थे।
यह संकट उनको अपना सा लगा। सोचा, इसमें उनको जाना चाहिए। इस गोष्ठी में कुछ काम की बात हो सकती है। अवसर मिला तो वो अपना भी फुटपाथ पर चलने का दर्द बता सकेंगे। दर्द को स्वर मिलेगा तो शायद दिल पसीजे और राहत का कोई निर्णय हो जाए।
गोष्ठी में बोलने का मन भी नवाब साहब ने लगभग बना लिया। अब बोलने का ज्यादा आभास नहीं था तो एक कागज उठाया और उस पर पॉइंट लिखने शुरू कर दिए। बोलते समय पॉइंट का पन्ना हाथ में रहता तो गड़बड़ नहीं होते। लोग भी प्रभावित होते हैं। पॉइंट बना लिए उन्होंने।
पैदल यात्री संघ की गोष्ठी शहर के उस भवन में थी जहां शादियां होनी थी। अमीरों की। वो बहुत महंगा भवन था। अत्याधुनिक। नवाब साहब के घर से ज्यादा दूर भी नहीं था। चल दिए वो भवन की तरफ।
भवन सजा हुआ था। मुख्य हॉल में एक तरफ मंच बना हुआ था और उस पर महंगी कुर्सियां थी। सामने भी कुर्सियां रखी थी। हॉल के दूसरी तरफ टेबलें सजी थी और उन पर रखा सामान बता रहा था कि गोष्ठी के बाद डिनर है।
नवाब साहब पहुंते तो सबसे पहले संघ के अध्यक्ष सोहनलाल ही टकराए। राम राम हुई।
– सोहन जी, आपने सामयिक विषय पर गोष्ठी रखी है।
– सही कह रहे हो। हमारा संगठन आम नागरिकों के हितों पर ही ध्यान देता है। सवाल खड़े करता है। आयोजन कर समस्याओं से लोगों को निजात दिलाना। जनसेवा में ही लगे रहते हैं हम।
– फुटपाथ की बात उठाकर आपने आम आदमी को राहत देने का काम किया है। ये दुकानदार आधी सडक़ रोक लेते हैं। पुलिस भी उनका कुछ नहीं करती। बेचारा कोई आम आदमी सडक़ पर लाईन से थोड़ा सा बाहर वाहन खड़ा कर देता है तो उसका चालान काट दिया जाता है। बड़े दुकानदार अपना काउंटर भी सडक़ पर लगाते हैं तो पुलिस वाला सेवा शुल्क लेकर सलाम ठोककर चला जाता है।
– आम आदमी कई बार पुलिस को शिकायत करता है। अखबार में खबर छपवाता है मगर कोई असर ही नहीं होता। सडक़ पर इनका कब्जा बढ़ता ही जाता है।
– नवाब साहब, आज इसी पर तो गोष्ठी रखी है। आप बैठिए, बस थोड़ी देर में ही गोष्ठी शुरू हो रही है।
यह कहकर सोहन जी चल दिए। नवाब साहब भी मंच के सामने रखी एक कुर्सी पर बैठ गए। कार्यक्रम शुरू होने में ज्यादा देर नहीं लगी। संचालन सोहनलालजी के पास ही था।
– मित्रों, आज की इस महत्ती गोष्ठी की अध्यक्षता के लिए मैं व्यापार मंडल के अध्यक्ष और व्यवसायी हरिकिशन जी को आमंत्रित करता हूं।
– हरिकिशन जी हाथ जोड़ते मंच पर आए और बीच की कुर्सी पर बैठ गए। नवाब साहब उन्हें देखकर चौंक गए। इनकी ही दुकान तो सडक़ पर कब्जा करके बनी हुई थी और सडक़ के रास्ते को आधा कर दिया था।
– अब मैं हमारे व्यवसायी मुकेश बांठिया जी को मुख्य अतिथि का पद ग्रहण करने के लिए मंच पर आमंत्रित करता हूं।
वे भी मंच पर आ गए। नवाब साहब के लिए यह दूसरा झटका था। इन्होंने भी अपनी आधी दुकान सडक़ पर लगा रखी थी। रोज राहगीरों से तो पैदल चलना ही मुश्किल था। नवाब साहब भीतर तक हिल गए।
– हमारे शहर के सीओ ट्रेफिक मानमल जी को मैं मंच पर आमंत्रित करता हूं। वे हमारी इस विचार गोष्ठी के विशिष्ट अतिथि होंगे।
नवाब साहब उनको भी जानते थे। ये दिन का भोजन मुकेश बांठिया जी के यहां करते थे और डीनर हरिकिशनजी की दुकान पर। साथ में परिवार के लिए खाना बंधवाकर भी ले जाते थे। यह एक और झटका था, जो धीरे से लगा नवाब साहब को।
सबसे पहले मुकेश बांठिया जी बोलने खड़े हुए।
– भाइयों, पैदल यात्री संघ का काम आम आदमियों के लिए है। ये लोग निष्ठा से काम करते हैं। आज भी इन्होंने पैदल चलने वालों के लिए फुटपाथ की बात उठाई है तो बहुत महत्त्वपूर्ण है। अगर फुटपाथ नहीं होगा तो आदमी चलेगा कहां। मैं इनकी इस मांग का समर्थन करता हूं।
हम व्यापारियों को भी आम नागरिकों की इस समस्या का अंदाजा है। मैं सभी व्यापारी भाइयों से अपील करूंगा कि वो अपनी दुकान को थोड़ा पीछे लें ताकि आम आदमी सडक़ पर चल सके।
सबने जोर जोर से तालियां बजाई। कमाल है, जिसने पूरी दुकान सडक़ पर खड़ी कर रखी है वो मंच पर पैदल चलने वालों की वकालात कर रहा था। नवाब साहब के दिमाग में सब गुड़ गोबर हो गया। वो इसी दुकानदार का तो उदाहरण लाए थेे बताने के लिए।
उधर मुकेश जी दनादन पैदल चलने वाले के पक्ष में और व्यापारियों की दरियादिली के बारे में जोश के साथ बोले जा रहे थे। लोग तालियां बजा रहे थे। जब वो भाषण खत्म करके बैठे तब जाकर नवाब साहब की तन्द्रा टूटी। संयोजक सोहनलाल ने अब जनता के विचार आमंत्रित कर लिए।
सबसे पहले उन्होंने नवाब साहब को ही बोलने का आग्रह किया। उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि वे बोलने जाएं या नहीं। यहां उनकी सुनेगा कौन। उनको सुनाना है जो खुद इस समस्या के जनक है। आग्रह ज्यादा था इसलिए नवाब साहब बोलने के लिए खड़े हो ही गए।
– भाइयों, हम पैदल चलने वालों के लिए तो फुटपाथ है ही नहीं। सरकारी नीति के अनुसार हर मुख्य सडक़ पर फुटपाथ होना चाहिए। उस पर लोग पैदल चल सकते हैं पर मुझे बताइयें, एक भी मुख्य सडक़ पर फुटपाथ माइक्रोस्कोप लेकर देखने पर भी नजर आता हो तो।
मंच सहित सभी श्रोताओं में चुप्पी छा गई। सब एक दूसरे का केवल मुंह देखते रहे गए।
– हमारे ये व्यापारी भाई बैठे हैं। इन्होंने ही अपनी दुकानों के आगे की आधी सडक़ रोके रखी है। जब इनसे शिकायत करते हैं तो इनके आदमी लडऩे को तैयार हो जाते हैं। ट्रैफिक पुलिस के पास जाते हैं, तो वे भी नहीं सुनते। इनकी दुकानों के आगे वाहन भी खड़े रहते हैं, उनका कभी चालान नहीं कटता। आप और हम इस तरह से वाहन खड़ा करदें तो 500 रुपए की रसीद कटनी तय है।
सब चुप। ट्रैफिक सीओ घूर घूरकर नवाब साहब को देखने लगे।
– हम धरना लगा चुके। प्रदर्शन कर चुके। प्रशासन हमें सब ठीक हो जाने का आश्वासन देकर चुप कर देता है। पर बदलता कुछ नहीं। अगले दिन सब यथावत रहता है।
अब लोग तीखी नजरों से नवाब साहब को देखने लगे।
– इसलिए माफ करना भाइयों, इस वक्त की गोष्ठी से भी मुझे कोई हल निकलता दिखता नहीं। केवल भाषण हो जाएंगे और बड़े लोगों के अखबारों में फोटो छप जाएंगे।
अचानक आयोजक सोहनलाल ने एक तरफ इशारा किया। तीन चार लोग बारी बारी से बोलना शुरू हो गए।
– आप गलत बयानी कर रहे हैं।
– हमारे संगठन पर तोहमत लगा रहे हैं।
– संगठन को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं।
– विरोधी संगठन से मिले हुए हैं आप।
फिर क्या था, सब शोर करने लगे। नवाब साहब की बोलती बंद हो गई। आयोजक आए और माइक पकड़ लिया, नवाब साहब को उसके सामने से हटा दिया।
– भाइयों, हम विरोधियों से डरते नहीं। हमारे साथ व्यापारी है, प्रशासन है। हम चाहें तो अभी इनको सबक सिखा सकते हैं। हमारा विश्वास लोकतंत्र में है। मेरा निवेदन है नवाब साहब से, वो ये गोष्ठी छोडक़र चले जाएं। हमारा तरीका अहिंसा का है इसलिए निवेदन कर रहे हैं।
नवाब साहब कुछ निर्णय करते उससे पहले ही 4-5 वांलिटियर आए और उनका हाथ पकडक़र मंच से उतार दिया। लगभग धक्का देते हुए हॉल के मेन गेट तक लाए और बाहर धकेल सा दिया। उनको बाहर निकालकर हॉल का दरवाजा बंद कर दिया। वांलिटियर वापस आकर अपनी कुर्सियों पर बैठ गए। मंच पर बैठे सेठ मनोज बांठिया भी मंद मंद मुस्कुरा रहे थे और सीओ ट्रैफिक की तरफ देख रहे थे।
नवाब साहब भी बाहर आकर अपने को बहुत बेइज्जत महसूस कर रहे थे। बिना कुछ बोले चुपचाप घर की तरफ चल दिए। घर आकर बिस्तर पर लेट गए। बाकी संकट तो हो गए किनारे और खुद ही वो संकट में आ गए।
मन ही मन नवाब साहब ने तय कर लिया कि अब जीवन में कोई न तो संकट शब्द सुनेंगे, न बोलेंगे, न ही पढ़ेंगे। संकट शब्द बेमानी है, उसे तो डिक्शनरी में ही नहीं रहना चाहिए।

 

 

पैदाइश – 1927, वफ़ात – 2014

गंगा जमुनी तहज़ीब के थे हामी
हाफ़िज़ ग़ुलाम रसूल शाद जामी
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– सीमा भाटी

उर्दू रचनाकार सीमा भाटी का राजस्थानी, उर्दू ,हिंदी तीनों भाषा में समान लेखन। आपका कहांनी संग्रह, कविता संग्रह, और एक राजस्थानी उपन्यास भी आ चुका है। इन्हें राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर का प्रतिष्ठित अल्लामा इक़बाल अवार्ड 2017 उर्दू साहित्य में मिला।

मशहूर ओ मारूफ़ शाइर खुदादाद ख़ान मुनिस लिखते हैं की 2012 में जब वे इराक़ गए थे तो वहाँ उन्हें शाद साहब के शागिर्द मिले ।
इस वाक़ये से शाद साहब की अदबी शख्सियत का अंदाज़ लगाना मुश्किल नही है। जिन लोगों ने अदबी कामों से बीकानेर का नाम पूरे हिंदुस्तान में रोशन किया उनमें शाद साहब का नाम सरे फेहरिस्त है। शाद साहब की वतन परस्ती से ये बात वाज़ेअ होती है कि हिंदुस्तानी मुसलमान अपने वतन हिंदुस्तान से कितनी मोहब्बत और अक़ीदत रखते हैँ शाद साहब को भी अपने वतन से बेहद मोहब्बत थी वतन की मिट्टी की ख़ुशबू उन्हें इतर से भी ज़्यादा अज़ीज़ थी। शाद साहब ने जिस माहौल में आँखे खोली और होश संभाला वो सियासी और अदबी ऐतबार से मुल्क का इंतहाई नाजुक तरीन दौर था 1857 की गदर ने मुल्क़ की बुनियाद हिला दी।। फिर ये जंग जोर पकड़ती गई ।अदीबों और शाइरों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और उनकी क़लम ने तलवार का काम किया।
वतन परस्ती पर शाद साहब का ही एक शे’र आप सब की नज़र…

“तक़ददुस हिन्द का जाने न देंगे
किसी को भी यहाँ आने न देंगे
तिरंगा ही रहेगा ‘शाद’ अब तो
किसी झंडे को लहराने नही देंगे”

शाद साहब उस्ताद शाइर होने के साथ साथ , उर्दू , अरबी , फ़ारसी के बेहतरीन जानकार थे। 1990 में उन्होंने बाक़ायदा एक दीनी मदरसा दबिस्ताने जामी क़ायम किया। शाद साहब एक ऐसे तने तन्हा शख़्स थे जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी में तीन सौ चालीस हाफ़िज़ तैयार किये जिसमें 6 बच्चियां भी थी। ये काम आज भी अपने आप में एक वहीद और तारीख़ी काम है।
आपकी अदबी खिदमात का एतराफ़ राजस्थान सरकार ने भी किया था और आपको राजस्थान उर्दू अकादमी का मेम्बर मुनक़ीद किया। शीन काफ़ निज़ाम साहब लिखते हैं –
शाद जामी कोहना -मुशक़ शाइर थे उन्होनें मुख़्तलिफ़ असनाफ़े-सुख़न में कामयाबी हासिल की थी इसलिए अहले बीकानेर ओर दीगर अंजुमनों ने अगर उन्हें ‘ बीकानेर रत्न’ से सरफ़राज़ किया है तो इसे हक़ ब हक़दार कहा जायेगा ”
शाद ने ग़ज़ल की हर रिवायत जिसमें तीर हो,नश्तर हो,दिल हो, जोश हो, जुनूं हो , हुस्न हो, इश्क़ हो , यानि वो सब कुछ जिससे ग़ज़ल की इमारत खड़ी की जा सके , ये इल्मों, फ़न देखने को मिला। उस दौरे हाज़िर में कतअ के साथ इंसाफ़ नही हो रहा था,
मगर आपकी कतआतो व रुबाईयात में भी सधी हुईं ज़बान की खूबसूरती झलकती थी और अल्फाज़ का इंतेख़ाब भी बाइस – क़ाबिल थे। जिसमें इश्क़ मिज़ाज थी,
सोज़ व उल्फ़त,
वतन से मोहब्बत थी और जिसे अदबी ऐतबार से पूरा पुख़्तगी और रवानी से सजाया और संवारा गया हो, इस बेशुमार फ़न
पर जिसे क़ुदरत हासिल थी,  बीकानेर के उर्दू शेरों अदब में जिनका नाम बड़ी शान व इज़्ज़त से लिया जाता है उस नाम के
मुस्तहक़ सिर्फ़ हाफ़िज़ ग़ुलाम रसूल शाद ‘जामी ‘थे। जिन्होंने शहर बीकानेर की तहज़ीब की तर्जमानी भी की।
जी हां शाद साहब का ऐहतराम न सिर्फ़ अदबी दुनिया के लोग करते थे बल्कि आप बीकानेर के आवाम ओ ख़ास भी बने हुए थे।उस की वजह ये है कि आप हाफ़िज़ ए क़ुरआन थे, आपने अदबी और दीनी ख़िदमात को 86 बरसों तक अंज़ाम दिया।
आपकी पैदाइश 2 फ़रवरी 1927 को बीकानेर की सर ज़मीन मोहल्ला दमामियाँ में हुई।
आपके वालिद क़ादरी बख़्श थे| आपका बचपन, तालीम व तरबीयत टोंक में हुई। और आपको टोंक के मज़हबी और इल्मी शख़्सियत के मालिक हज़रत मुहम्मद उमर खां ‘जाम ‘टोंकी की शागिर्दी हासिल हुई।
शाद साहब का एक नातिया मजमुआ ‘फैज़ जाम” नाम से जामी उर्दू अकादमी के बीकानेर राक़ीन ने 2004 में मरर्तब किया जिसका इजरा 2005 में हुआ ।इस मौक़े पर एक मुशाइरा भी मुनकी़द किया गया।
आपका दूसरा मजमुआ ‘वतन के रतन’ है जो 2014 में शाया हुआ । इस मज़मूए में गौर तलब बात ये भी है कि इस किताब में शामिल नज़मों में महात्मागांधी , जवाहरलालनेहरु, मौलाना.आज़ाद, इंदिरागांधी, जैसे आलमगीर शोहरत यफ़्ता रहबर ए कौम और सियासतदां भी शामिल है उनकी खि़राज़े अक़ीदत पर पेशगी इस तरह है आपकी नज़र,,,
आज तक बापू नही तेरी मिसाल
हिन्द की आज़ादी है तेरा कमाल
खूँ से सींचा गुलशन हिन्दोस्तां
मरहबा सद मरहबा भारत के लाल”…
आपने बीकानेर के अलावा जोधपुर, जयपुर लखनऊ, के कई ऑल इण्डिया मुशायरों में शिरकत कर आवाम से दादों तहसीन और सरकारी ,गैर सरकारी इनआमात एजाजा़त हासिल किए है सैय्यद अब्दुल मुग़नी ‘रहबर’ लिखतें हैं कि… मोहतरम हाफ़िज़ गुलाम रसूल’
शाद’ साहब मुख़्तलिफुलजिहाज ( multi dimensionl personalty) के मालिक थे।
हाफ़िज़ साहब ख़ुश पोश भी थे, ख़ुशफ़िक्र भी थे, ख़ुशज़िक्र भी थे, ख़ुश कलाम भी थे, ख़ुशपयाम भी ,खुशअदा, भी थे, और ख़ुश नवा भी…
आपके साहबजादे अमीनुद्दीन शौक जामी साहब भी आपकी सरपरस्ती में शाइरी करते थे जो अब इस दुनिया मे नही रहे। आपके एक पोते नईमुद्दीन जी हाफ़िज़ है जो आपके क़ायम मदरसे की कमान संभालते है वहीं दूसरे पोते अलीमुद्दीन जामी समाजसेवी और सियासत से जुड़े हैं ,साथ ही दबिस्ताने जामी के सचिव है ।आप एक मिलाद पार्टी से भी जुड़े हैं और अपने बुजुर्गों की लिखी हम्द नात अपनी आवाज़ में पेश करते हैं । शाद साहब की प्रेरणा से अलीमुद्दीन संस्कृत में भी नात पढ़ते हैं ।
शाद साहब ने तवील अर्से तक मोहल्ला चूनगरान के मदरसे को गुलज़ार रखा और लातादात बच्चों को उर्दू अरबी की तालीम से फैज़याब किया । शानदार शख्सियत के मालिक शाद साहब उस ज़माने में स्कूटर चलाया करते थे ।
बीकानेर की अवाम ने हमेशा आपको बेइन्तहां मान ,ऐहतराम से नवाज़ा ।