निवेदन  ‘लॉयन एक्सप्रेस ’ लगातार आपको खबरों से अपडेट कर रखा है। इस बीच हमनें यह भी प्रयास किया है कि साहित्य के रसिक पाठकों तक भी कुछ जानकारियां पहुंचे। इसी को देखते हुए ‘कथारंग ’ नाम से एक अंक शुरू कर रहे हैं। इस अंक में कविता, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार आदि का प्रकाशन किया जाएगा। आप से अनुरोध है कि इस अंक के लिए अपनी रचनाएं हमें प्रेषित करें। आप अपनी रचनाएं यूनिकोड में भेजें तो बेहतर होगा। साथ ही अपना परिचय और छायाचित्र भी भेजें। आप चाहें तो अपने मौलिक साहित्यिक रचनाओं की प्रस्तुति संबंधी अपने वीडियो भी हमें भेज सकते हैं।

इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए आप इस अंक के समन्वय-संपादक संजय शर्मा से संपर्क कर सकते हैं। मोबाइल नंबर 9414958700

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मधु आचार्य ‘आशावादी’  मोबाइल नंबर- 9672869385

नाटक, कहानी, कविता और जीवनानुभव पर 72 पुस्तकेंं हिन्दी और राजस्थानी में लिखी हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार संगीत नाट्य अकादमी का निर्देशन पुरस्कार, शम्भु शेखर सक्सैना, नगर विकास न्यास के टैस्सीटोरी अवार्ड से सम्मानित।

 

व्यंग्य  : साहित्य के लिए शोक सभा

साहित्य के जरिए जो अपनी पहचान नहीं बना पाते वो दूसरे तरीके से खुद को साबित करने की गलती प्राय: करते हैं। साहित्यकार की पहचान साहित्य से हो इस मूलमंत्र को भी वे भूल जाते हैं। गैर साहित्यिक कार्यों से अपने को स्थापित करने की छटपटाहट में वो साहित्य भूल जाते हैं और झूठ के साये में खो जाते हैं। साहित्यकार की पहली और आखिरी पहचान साहित्य है, यह शास्वत सत्य है। सत्य से विमुख लोग मार्ग से भटकते हैं। नवाब यह पढक़र सोच मेंं पड़ गया। एक साहित्यिक पत्रिका में छपे आलेख की इन पंक्तियों में उसे सच नजर आया। नवाब शहर के अनेक लोगों को जानता था जो साहित्य में पहचान बनाने के लिए हाथ-पांव मार रहे थे पर जल्दी ही कुछ हासिल करने की फिराक में राह भटक रहे थे। उनकी सक्रियता लिखने के बजाय दूसरे कामों में ज्यादा थी। अन्य कामों के कारण वो साहित्य में कुछ नहीं कर पा रहे थे।  शहर के एक साहित्यकार तो बहुत प्रभावशाली थे मगर राह भटक गए। पुरस्कार प्राप्त कर जल्दी से जल्दी राष्ट्रीय पहचान पाने की फिराक में वो मार्ग से भटक गए। महीने मेंं 15 से अधिक साहित्यिक और गैर साहित्यिक आयोजन करते थे। आयोजनों मे इतने उलझे कि उनका लेखन काफी पीछे छूट गया। लिखना अब उनको भार लगने लगा। साहित्य की भ्रूण हत्या आयोजनों के बोझ तले दबकर हो गई। नवाब को आलेख पढऩे के बाद ही उनकी याद आई। नवाब पत्रिका पढक़र बैठा ही था कि आयोजन वीर नाजिम भाई आ पहुंचे।

– आदाब नवाब साहब।

– आदाब।  – क्या चल रहा है।

– पढ़ रहा था। – आप भी कमाल के आदमी हैं।

 – कैसे?

– लिखते नहीं, पर पढऩे का शौक रखते हैं।

 – इसमें कमाल क्या हो गया?- यह कमाल ही तो है।

– बताओ तो सही।

– बताओ तो सही।

– आजकल तो लिखने वाले ही नहीं पढ़ते, आप बिना लिखने का काम करके पढ़ रहे हैं। यह तो बहुत बड़ा कमाल है।

– जो केवल लिख रहे हैं और पढ़ नहीं रहे, उनके साहित्य का स्तर देख लो। पाठक पर कोई असर ही नहीं पड़ता। निरंतर पढऩे वाले के दिमाग की डिक्शनरी में शब्द बढ़ते हैं जो कालांतर में उसी के काम आते हैं। वर्तमान साहित्य क्या है और उसमें क्या  नया प्रयोग हो रहा है, इसका पता चलता है। इसीलिए लिखना तभी संभव है जब हम बराबर पढ़ते भी रहे।

– पर नवाब तस्वीर का दूसरा पहलू भी है।

 – वो क्या?

– साहित्य में निरंतर सक्रिय दिखना भी जरूरी है। ‘रियाज’ की अपनी परंपरा है। – दिखना और रियाज में अंतर है। रियाज संगीत में अभ्यास करना है, पढऩा साहित्य में अभ्यास करना है।

 – बस, सोच में फर्क यही है।

 – कैसे।

– तुम अभी तक साहित्य तक अटके हो मैं दिखने की बात कर रहा हूं।

-उससे फायदा।

 – जो दिखता रहता है उसे पुरस्कार मिलते हैं, लोग जिसे चर्चा में रखते हैं। उसे सम्मान मिलता है, पहचान मिलती है।

 – पर जिस रूप में यह सब पाने की चाह हो, उसका आधार भी हो। साहित्य रचना भी जरूरी है। – जमाना बदल गया। अब लोग दिखने में अधिक विश्वास करते हैं। – बात मेरी समझ में नहीं आई।

– हर साहित्यकार का जीवन आयोजनों में अटका है आजकल। आयोजन करना, अतिथि बनना, अध्यक्षता करना भले ही आयोजन किसी का हो। भले ही गैर साहित्यिक आयोजन हो। अपने को दिखते रहना है। तभी लोग साहित्य की बात चलते ही आपका स्मरण करते हैं।

 – मैं इससे सहमत नहीं। – तुम साहित्यकार नहीं हो ना। साहित्य अनुरागी हो। आजकल के साहित्यकारों को यह सब पापड़ बेलने ही पड़ते हैं।

 – अब यार, साहित्यकार एड्स चेतना शिविर में अतिथि क्यों बने?

– जरूर बने।

 – क्यों?

– प्रचार मिलता है खबर में नाम के आगे साहित्यकार लिखा जाता है। यही छपना तो उसे स्थापित करता है।

– बेतुकी बात है।

 – तुम्हारी नजर में होगी।

 – मेरी नहीं, साहित्य की नजर में है।

– साहित्य की नजर होती ही नहीं, इसकी कोई सीआरपीसी नहीं बनी हुई है और खबरों के लिए हर आयोजन में जाना पड़ता है। यही वर्तमान साहित्य का गणित है। – तभी साहित्य का स्तर प्रभावित हो गया है।

 – साहित्यकार का स्तर बढ़ गया है।  नवाब निरुत्तर हो गया चुप रहना ही बेहतर समझा।  नवाब ने हाथ जोडक़र कहा।

– नाजिम भाई, आपके इन तर्कों का जवाब नहीं है। आपकी जो मर्जी आए वो करिए। मैं साहित्यकार तो हूं नहीं जो इतनी चिंता करूं। साहित्य की चिंता तो आप साहित्यकारों को करनी है। आप करें या न करें, आप जानें।  नाजिम भाई मुस्करा दिए।

– बात मानी, पर हारकर मानी।

 – मैं हारा नहीं हूं।

 – हार ही हुई है।

– जी नहीं, यह मेरी तल्खी है पढ़ते रहते तो पता चलता।

– सिक्के के दो पहलू होते हैं। तुम्हारी नजर में तल्खी और मेरी नजर में हार।

– हे राम।  नाजिम भाई को इस बात पर हंसी आ गई।

 – आप अब इस बहस को छोडि़ए नाजिम भाई।

 – उसी में बेहतरी है।

– मान लिया।

 -अच्छा किया।

– यह बताइये इधर कैसे आना हुआ।

– चाय पीने आ गया।
– आपका घर है। अभी बनवाता हूं।
– पर, ठहरो।
– क्यों?
– दो लोग और आने वाले हैं। वो आ जाएं तभी एक साथ चाय पीयेंगे।
– अच्छा, कार्यक्रम तय करके आए हो। मैंने तो सोचा यूं ही आ गए।
– बिना ध्येय किसी को परेशान क्यों करें।
– बात तो यह भी ठीक है।
– एक सामूहिक काम था तो सोचा तीनों आपसे ही शुरुआत करते हैं।
– मेरा सौभाग्य।
– भाई, जब साहित्य का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें तुम्हारा नाम स्वर्ण अक्षरों से अंकित होगा।
– मैं इस लायक नहीं।
– हां इसीलिए तो इतिहास बनेगा।
– मुझे तो नहीं लगा।
– हमें तो लगता है।
– कैसे?
– साहित्य के विकास में तुम्हारा अतुलनीय योगदान है।
– मुझे तो अहसास नहीं।
– साहित्यकारों को साहित्य जगत को है।
– मुझे भी तो बताओ।
– जितने साहित्यिक आयोजन तुमने अटेंड किए हैं उतने किसी दूसरे ने नहीं किए। खुद साहित्यकारों ने नहीं किए।
– यह कोई अहसान नहीं किया। मेरा शौक है।
– साहित्य पर तुम्हारा उपकार है। इसीलिए इतिहास में दर्ज होओगे। तुम बिना किसी ग्रुप की तरफदारी किए हर एक के आायोजन में जाते हो।
– साहित्य है, इसमें ग्रुपबाजी ठीक नहीं। राजनीति में होती है यह तो।
– साहित्य की अपनी राजनीति होती है।
– साहित्य और राजनीति दो अलग-अलग विषय है। एक दूसरे के विपरीत। एक में नैतिक अनुशासन है, दूसरे में सब चलता है।
– पर नवाब, दुनिया में अब ऐसा एक भी क्षेत्र नहीं जिसमें राजनीति न हो। हम जो रोटी खाते है उसमे भी राजनीति।
– हां, अन्न उगाने वाला किसान ही तो राजनीतिक दलों के वोट मांगने का सबसे बड़ा साधन है।
– यार नाजिम भाई, राजनीति विषय को छोड़ दो। इस विषय पर सोचने से ही मुझे घृणा है। राजनीति अब सभ्य लोगों का काम रहा ही नहीं।
– पर राजनीति से बच भी नहीं पाते हम।
– बात करने से तो क्यों।
– चलो, छोड़ देते हैं। राजनीति की बात। यह तो तुमने ही शुरू की थी।
– मैंने साहित्य और उसकी राजनीति को मिलाने पर तुम्हारी बात का विरोध किया था। शांत हो जाओ। आजकल तो साहित्य राजनीति है।
– कैसे?
– देश में, प्रदेश में कुछ ही राजनीतिक दल है। यह तो मानते हो।
– बिल्कुल मानता हूं।
– पर साहित्य में तो हर शहर में कई गुट है। प्रदेश के गुट अलग है, देश के गुट अलग है। अब तो राजनीतिक दलों ने भी अपने- अपने लेखक संगठन बना लिए हैं। साहित्यकार भी उससे जुड़े हैं।
– तभी तो साहित्य का यह हश्र हुआ है। खेमेबंदी ने साहित्य का बहुत बड़ा नुकसान किया है।
– पर साहित्य में खेमे तो हैं।
– इसे मैं भी मानता हूं।
– सच को मानना और स्वीकार करना पड़ता है।
– मान लिया ना।
– इसके बावजूद तुम सभी के आयोजनों में जाते हो, इसीलिए निर्विवाद हो। इसी वजह से तुम्हारा नाम साहित्य के इतिहास में दर्ज होगा।
नवाब चुप हो गया। उसकी तरकश के सारे तीर समाप्त हो गए। नाजिम भाई ने सभी तीरों को नकारा साबित कर दिया। हारकर नवाब ने विषय ही बदल दिया।
– नाजिम भाई, आपने बताया ही नहीं कि दो लोग कौन आने वाले हैं।
– तुमने अवसर ही नहीं दिया बताने का नवाब।
– तुमने ही राजनीति की बात छेड़ दी।
– मेरी बात को कहते ही मान लेते तो इतना वक्त बर्बाद नहीं होता। राजनीति… – कसम है आपको नाजिम भाई, अब राजनीति पर कोई बात नहीं करोगे।

– कसम है आपको नाजिम भाई, अब राजनीति पर कोई बात नहीं करोगे।  नाजिम भाई मुस्करा दिया।

– मैं भूलकर भी यह शब्द अब नहीं बोलूंगा।

– यह ठीक है। बताओ तो सही, मेरी कुटिया पर कौन-कौन लोग तशरीफ ला रहे हैं। – एक तो अजय कविराज और दूसरे मदन महाराज रंगकर्मी।

 – वाह !

– यह क्यो?

– दोनों तुम्हारे ही तो गुट के हैं। एक तुम्हारा उस्ताद और दूसरा तुम्हारे उस्ताद का चोटी कटिया चेला।  नाजिम भाई चुप हो गए। बात तो सही कही थी।

 – एक बात कहूं नाजिम भाई।

 – कहो।

– मैं बता सकता हूं कि वो दोनों भी यहां क्यों आ रहे हैं।

 – अच्छा।

– हां।

 – बताओ।

 – लगता है इस हफ्ते का कोई पांचवा आयोजन कर रहे हो तुम लोग।  नाजिम मुस्करा दिया।

– तुम तीनों आयोजनों के लिए ही एक होते हो।

 – खूब पहचाना।

 – उस आयोजन का मुझे निमंत्रण दोगे।

 – ठीक बात।

– क्योंकि तुम्हारे यहां आने वाले 10 श्रोताओं में एक मैं होता हूं।  नाजिम चुप हो गया। – मुझे पक्का बुलाने के लिए तुम लोग यहां जमा हो रहे हो। इसीलिए आज तुमने मेरा नाम साहित्य के इतिहास में दर्ज होने का जुमला दिया। मैं तो तभी ताड़ गया था बोलो, गलत तो नहीं कह रहा। यार, तुम लोगों को इतने आयोजन करने की जरूरत क्या है। लिखने का काम करो ना।  अब नाजिम निरुत्तर हो गया।  अचानक मुख्य दरवाजे की घंटी बजी। नाजिम और नवाब एक दूसरे का चेहरा देखने लगे। नवाब मुस्करा दिया।

 – लो तुम्हारे उस्ताद आ गए। साथ में चोटी कटिया चेला भी। जाओ दरवाजा खोलो। नाजिम उठा और दरवाजा खोला। अजय और मदन महाराज के साथ नाजिम ने नवाब के कमरे मे प्रवेश किया। राम-राम हुई। नवाब ने उनको बैठने का कहा। पहले उस्ताद अजय कविराज बैठे, उसके बाद दोनों चेले। नाजिम बैठने लगा तो नवाब ने रोका।

 – नाजिम भाई बैठने से पहले बेगम साहिबा को चाय बनाने का तो कहकर आओ। नाजिम मुड़ा तो नवाब फिर बोलाअपने उस्ताद के लिए बीकानेरी भुजिया की प्लेट भी देने का कह देना।  नाजिम भीतर चाय का कहने चला गया। बात अजय ने शुरू की। – वाह नवाब, तुम्हारा जवाब नहीं। साहित्य, साहित्यकारों की जमकर खिदमत करते हो।

 – सब आप लोगों का स्नेह है।

– भई आपसे तो हमारे पारिवारिक संबंध हैं। आपके अब्बा और मेरे पिताजी के तो एक दांत रोटी टूटती थी। आपके अब्बा हालांकि उनसे छोटे थे पर दोनों दोस्त थे। हम भी उनको चाचाजी कहकर पुकारते थे। चाचा जी का बड़ा स्नेह था हम पर। तुम भी पूरे चाचा जी पर गए हो। नवाब इस प्रशंसा की वजह जानता था। बस, विनम्रता का भाव दर्शाता रहा।

– नवाब, मैंने तो सोच रखा है कि चाचा जी की स्मृति में एक आयोजन करूंगा। उनकी पुण्यतिथि बताना। उस दिन सर्वभाषा काव्य गोष्ठी कर श्रद्धांजलि देंगे। तुमको भी उसमें सम्मानित करेंगे।

– पर उस्तादजी, अब्बा तो साहित्यकार नहीं थे।

– एक बेहतरीन इंसान तो थे। उनकी स्मृति में साहित्यिक आयोजन हो सकता है। उनका साहित्य से लगाव था, यह तो इस बात से प्रमाणित है कि वो मेरे पिताजी के मित्र थे। अब मैं अपने मुंह से तो क्या कहूं कि मेरे पिताजी की तो राष्ट्रीय साहित्य पर एक खास पहचान है।

– वो तो है। – इसलिए हम उनकी याद में एक काव्य गोष्ठी आयोजित करेंगे ही। तुम तो बस उनकी एक तस्वीर मुझे दे देना।

 – जी।

 – इतने में ही बेगम चाय और भुजिया ले आई। सभी ने चाय की चुस्कियां लेने का काम आरंभ कर दिया। नवाब को आज उनके आगमन से खुशी नहीं हुई। इस तरह की चापलूसी, इस तरह का विचार, साहित्य और राजनीति पर बातें, सब से नवाब को कोफ्त होने लग गई थी। शालीनतावश कुछ बोल नहीं पा रहा था। नहीं तो कब का उठकर चले जाने का कह देता।
नवाब ने अपने तरीके से समाप्त करने की पहल की।
– मैं तो उस्ताद जी आपसे एक बात पूछना भूल ही गया।
– क्या?
– कैसे पधारना हुआ?
– आज शाम को आयोजन है, उसी का निमंत्रण देने आया था। नाजिम भाई ने कहा कि हमारे परमानेंट श्रोता नवाब के यहां से ही लोगों को निमंत्रण देने की शुरुआत करते हैं। तुमको तो पता है कि हम कार्ड नहीं छपवाते। सादगी पसंद है इसलिए जाकर निमंत्रण देते हैं। व्यक्तिगत।
– अच्छा, क्या आयेाजन है।
– एक शोक सभा रखी है। पुण्य का काम है दिवंगत को याद करना। हमारा सामाजिक दायित्व भी है।
– सही बात है।
– बस, उसमें तुम आना। वैसे तुम आओगे तो सही पर व्यक्तिगत निमंत्रण देना मेरा कत्र्तव्य है। मैं व्यक्तिगत मिलने कहीं जाता हूं। बुलाने के मामले में भी इसी सिद्धांत को मानता हूं। शोक सभा है।
– सही कहा उस्ताद जी। पिछले दिनो विष्णु खरे, कृष्णा सोबती, नामवर सिंह जी जैसी साहित्य की महान हस्तियां चल बसी। उनको याद करना हमारा फर्ज है।
– अरे, उनको तो उनके गुट के लोग शोक सभा कर श्रद्धांजलि दे देंगे। हमने तो अलग शोक सभा रखी है। उनको श्रद्धांजलि की तो पहले ही प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दी थी।
– फिर किसकी रखी है।
– प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जी की शोक सभा रखी है।
– उनकी?
नवाब को बड़ा आश्चर्य हुआ।
– अरे भाई, उनकी पार्टी का शासन है। इसलिए सभी जिलों में शोक सभाओं का आयोजन हो रहा है। बीकानेर में यह जिम्मा मुझे दिया है। उसी के लिए निमंत्रण देने आया। अब राज के लोग हैं, कह दिया तो करेंगे ही। थे तो वो सामाजिक प्राणी ही। तुम अवश्य आना।
– साथ में विष्णु खरे, कृष्णा सोबती, नामवर सिह जी को श्रद्धांजलि दे देते।
– इसमें किसी दूसरे का नाम जोडऩे की मनाही है। तुम आना जरूर।
चाय का खाली प्याला रख उस्ताद और उसके चेले उठ गए। नमस्कार करके चल दिए। नवाब देखता रह गया। साहित्यकार होने का दंभ भरते हैं पर शोक सभा साहित्यकारों की नहीं, नेताओं की आयोजित करते हैं। साहित्य का यह रूप नवाब को अच्छा नहीं लगा।
नवाब ने तय कर लिया कि वो शोक सभा में नहीं जाएंगे। सच में, साहित्य में नियम कायदे तो होने ही चाहिए ताकि इस तपस्या को कोई स्वार्थ के कारण भोग न सके।

• डॉ. प्रमोद कुमार चमोली

नाटक, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, स्मरण व शैक्षिक नवाचारों पर आलेख लेखन व रंगकर्म जवाहर कला केन्द्र की लघु नाट्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान। अब तक दो कृतियां प्रकाशित हैं। नगर विकास न्यास का मैथिलीशरण गुप्त सम्मान

कुछ पढ़ते कुछ…. लिखते …..

(लॉक डाउन के दौरान लिखी गई डायरी के अंश)

दिनांक 01.02.2020   “मुझको मेरे बाद यारों एक कहानी चाहिए”

पिछले ११ दिन से मुझ जैसे सभी लोग खाली बैठे हैं। यहाँ ये खाली होना अपने डेली रूटीन से खाली होना है। अनावश्यक घूमने-फिरने को नहीं मिल रहा है। इसलिए खाली होना अखर रहा है। आज भी खाली हैं। इस रिक्तता को भरने के लिए पुस्तकों का सहारा ले रखा है। इस खाली होने का फायदा आज नजर आया। आज एक अप्रेल है जिसे  जिसे मूर्खता दिवस भी कहा जाता है। सुनते तो बचपन से आ रहे हैं। किंतु आज नेट पर सर्च किया तो समझ आया कि यह मूर्खता दिवस क्यों है। इस बारे में कोई प्रमाणिक तथ्य नहीं है।  पश्चिम देशों मे इसे मनाया जाता है। यहाँ भी मनाया जाता है। मनाने का तरीका भी दिलचस्प है। इस दिन को प्रेक्टिकल जोक्स (शरारतें) और अफवाहें फैला कर मनाया जाता है। जोक्स और शरारतें जिनके साथ की जाती हैं उन्हें अप्रैल फूल या अप्रैल मूर्ख कहा जाता है। लोग अपनी शरारतों का खुलासा, अप्रैल फूल चिल्ला कर करते हैं। ये दिवस कब से या क्यों मनाया जाता है इस बारे में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। इसका प्रथम उल्लेख अंग्रेजी साहित्य के पिता ज्योफ्री चौसर की कैंटरबरी टेल्स (१३९२) में मिलता है। खैर, आज कोई किसी को बेवकूफ नहीं बना रहा है। आज पूरी दुनिया को कोराना वायरस ने बेवकूफ बना दिया है। बहरहाल कुछ भी हो आज ०१ अप्रेल २०२० है। इस दिन पूरा भारत लॉक डाउन में घर में बंद है। हालात सामान्य होने का नाम नहीं ले रहे। प्रवासी लोगों का अपने घर आना जारी है। सभी को होम आइसोलेसन या क्वारेंनटाईन किए जाने की खबरों के बीच राजस्थान सरकार ने मंत्री विधायको से लेकर कर्मचारियों तक के वेतन में कटौती किए जाने का फैसला लिया है।  गीता का सातवाँ अध्याय को कल पूरा पढ़ लिया था। आज इसी के विषय में जितना समझ पाया वही यहाँ पर है। गीता के सातवाँ अध्याय ज्ञान-विज्ञान योग है। डॉ राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक में ईश्वर और जगत् संज्ञा दी है इस अध्याय में कुल ३० श्लोक वर्णित है। इस अध्याय की संज्ञा से प्रतीत होता है कि ज्ञान-विज्ञान वास्तव में क्या है? यही इस में बताया है। इस अध्याय में मनुष्य में ज्ञान और विज्ञान का विकास क्यों और कैसे होता है उसी का विस्तृत वर्णन किया गया है।इस अध्याय में भगवान अर्जुन को ज्ञानविज्ञान के बारे में बताते हुए कहते हैं कि तू योग का अभ्यास करते हुए मुझमें अनन्य भाव से मन को स्थित करके और मेरी शरण होकर सम्पूर्णता से मुझको बिना किसी संशय के जान सकेगा। मैं परम-ज्ञान को अनुभव सहित कहूँगा, जिसको पूर्ण रूप से जानने के बाद भविष्य में इस संसार में तेरे लिये अन्य कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रहेगा। लेकिन हजारों मनुष्यों में से कोई एक मेरी प्राप्ति रूपी सिद्धि की इच्छा करता है और इस प्रकार सिद्धि की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले मनुष्यों में से भी कोई एक मुझको तत्व रूप से साक्षात्कार सहित जान पाता है। आगे श्रीकृष्ण परमसत्ता और उसकी प्रकृति बताते हुए कहते हैं कि पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अँहकार मेरी प्रकृति इन आठ रूपों में बंटी हुई है और यह दो प्रकृति परा व अपरा बताते हैं। इस अध्याय में बताया गया है कि इस संसार में जो कुछ हूँ, मैं हूँ,  ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो मुझसे अलग है। जलो में स्वाद हूँ चन्द्रमा और सूर्य का प्रकाश हूँ। आकाश मे ऊँ हूँ, पुरूषों का पौरूष हूँ। पृथ्वी में सुगन्ध हूँ। आग में चमक हूँ। सभी विद्यमान वस्तुओं मैं जीवन हूँ। तपस्वियों का तप हूँ। यानी जो भी है उसके मूल में हूँ और जो घटित हो रहा वह मेरे कारण ही। जो कुछ  होगा मेरे कारण ही होगा। इसलिए इस संसार में रहने वाला यदि जो मनुष्य केवल इतना जान गया है कि च्मैं हूँज् अथवा मेरे अस्तित्व को पहचान गया वही ज्ञानी है। लेकिन संसार मेरी पहचान नहीं कर पाता है। मेरी पहचान करने ज्ञानी कर सकता है।  इसके लिए ज्ञान और विज्ञान को जानना जरूरी है। ब्रह्म को शब्द और अर्थ से जानने का नाम च्ज्ञानज् है और ब्रह्म को विशेष रूप से जानकर उसमें निरन्तर विलास करना, ब्रह्मानन्द में डूबा रहना विज्ञान है। उन्होंने विज्ञानी के लक्षण में बताया है कि विज्ञानी के ८ पाश (बन्धन) खुल जाते हैं केवल काम क्रोध आदि का आकार मात्र रहता है विज्ञानी सदा ईश्वर का (ब्रह्म)दर्शन करता रहता है। इस अध्याय के इस श्लोक में इसे कुछ इस तरह व्यक्त किया गया है-साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।। जो मनुष्य मुझे अधिभूत (सम्पूर्ण जगत का कर्ता), अधिदैव (सम्पूर्ण देवताओं का नियन्त्रक) तथा अधियज्ञ (सम्पूर्ण फ़लों का भोक्ता) सहित जानता हैं और जिसका मन निरन्तर मुझमें स्थित रहता है वह मनुष्य मृत्यु के समय में भी मुझे जानता है।यहाँ इस अधि का मतलब अध्यात्म है अध्यात्म मतलब है वैयक्तिक आत्मा के नीचे विद्यमान सत्य हो सकता है जिसको जानने का प्रयास करके ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। दरअस्ल भारतीय दर्शन में मोक्ष का बड़ा महत्व है। मोक्ष के मायने है कि जन्म-मृत्युके चक्करों से छुटकार पाकर ब्रह्मलीन होना।इस अध्याय को पढ़ते हुए दिनकर जी की रश्मिरथी के उस प्रकरण की याद आ गई जिसमें पांडवों के वनवास से लौटने के बाद भगवान हस्तिनापुर आते हैं और कौरवों से समझौते की बात करते हैं। लेकिन दुर्योधन मानता नहीं है और भगवान को बांधने लगता है। उस समय जो भगवान कहते हैं वही इस अध्याय में मिलता है। रश्मिरथी एक शानदार महाकाव्य है। मेरा सोभाग्य रहा कि इसके नाट्य रूपान्तरण के उपरांत किए गए दो नाटकों में मैंने दुर्योधन का छोटा सा रोल किया था। पहला कर्णकथा मे दयानंद जी के निर्देशन में यह मेरी जिन्दगी का पहला नाटक था। इसी नाटक में मुझे ऐसे अग्रज मित्र की प्राप्ति हुई जिसे मैं कभी भूल नहीं सकता। ये थे आनंद वी आचार्य। दूसरा नाटक आनंदजी के निर्देशन में रश्मिरथी के रूप में किया गया था। इन दोनो नाटकों में मंच में कृष्ण का विराट रूप देखने वाला मैं ही था। वह कविता मुझे आज भी बहुत अधिक याद है और मेरे दिल के करीब है। यहाँ मैं मेरे अग्रज मित्र आनंदजी की बात इतनी छोड़ दूँ तो उचित नहीं है। अग्रज मित्र शायद अपने आप में पहली बार प्रयोग होने वाला शब्द बंध होगा। दरअस्ल आनंदजी उम्र और अनुभव में अग्रज की तरह थे। उनसे मेरा बहुत आत्मिक जुड़ाव इतना था कि उन्होंने जब गाँधी नाटक लिखा तो मुझे बुलाकर सुनाया और कहा कि सरदार का रोल तेरे को देख कर रचा है। मैंने उनसे पूछा तो ऐसा क्यों ? एक निर्देशक की दृष्टि और एक सहज मित्र का भाव में यही कहा च्च्यार! तेरी जो अकड़ है ना उसमें मुझे सरदार नजर आता है।ज्ज् मैं आज तक समझ नहीं पाया हूँ कि ये मेरे लिए क्या था? एक कॉम्पिलीमैंट था या एक सुधार की आशा आह्वान।  आनंद जी से मेरी मित्रता के कई पहलु थे। उन सबका खुलासा करना मैं जरूरी नहीं समझता। लेकिन एक बात यह है कि वे जब भी परेशान होते तो मुझे फोन कर बुला लिया करते थे। एक दिन उन्होंने कहा भी था कि च्च्चमोली तू मेरा इतना राजदार कैसे होता जा रहा हैज्ज् उसके बाद दोनो के बीच चुप्पी थी। शायद इसे ना तो वे समझा सकते थे न ही मैं। उनसे मित्रता के बाद उन्होंने जितने भी नाटक किए प्रत्येक नाटक के बाद मुझसे जरूर मिले और उन नाटकों में हुई परेशानी का जिक्र मुझसे किया। किस ने उनके साथ क्या किया?कैसे वे परेशान हुए सब बातें मुझे बताकर ही नाटक की पूर्णाहुति होती थी।   एक अंतिम घटना का जिक्र किए बगैर आनंदजी की बात पूरी नहीं हो पाएगी। १३ अगस्त २०१९ की बात है। मुझे आज जैन कन्या महाविद्यालय से फोन आया कि आपको कल विद्यार्थियों से नाटक पर चर्चा करनी है। मैंने हाँ कह दिया। अब मेरे लिए संकट यह था कि वहां जाकर नाटक पर क्या बात की जाए। मैं शाम को ६ बजे के बाद ऑफिस से घर पहुँचा तो बड़े बेटे हिमशिखर ने ऊपर के कमरे से कोई नाटक की किताब लाकर दे कल भाषण देना है। उसने छुटते ही कहा क्यों पापा! किताब के पीछे पड़े हो। अपने गुरूजी आनंदजी ताऊजी से बात करलो वे आपको एक मिनिट में बता देंगे। मैंने तुरंत ही फोन लगाया। आनंदजी ने उठाया तो मैंने उनसे पूछा कि घर पर हो क्या? क्यों? मैं आपके पास आ रहा हूँ। उन्होंने मुझे मना कर दिया कि नहीं तू नहीं आएगा। मैंने कहा जरूरी काम है और काम बताया। तो उन्होंने कहा कि च्च्तू पैन कॉपी लेकर बैठ जाना फिक्स ८-१५ पर तुझे लिखा दूँगा। मैंने एक बार फिर पास आने की जिद्द कर पूछा आप कहाँ हो तो उन्होंने डांटते हुए कहा कि तेरा काम हो जाएगा। परेशान मत कर।ज्ज् यह पहला मौका था कि आनंदजी ने मुझे मना किया था। खैर! मैं अपनी तैयारी हेतु कार्य में जुट गया। कुछ इधर-उधर ढूँढने लगा। कुछ बना कुछ अधुरा पर विश्वास था कि  आनंद जी पूर्ण कर देंगें। बहरहाल ८-१५ भी हो गए। आनंद जी का फोन नहीं आया। मुझे गर्मी सी लग रही थी। मैं स्नान करना चाहता था लेकिन आनंद जी के फोन के इंतजार में असंमजस में ८-३० पर मैं आखिर बेटे के पास मोबाइल रखकर यह कहकर चला गया कि आनंदजी का फोन आए तो उठा लेना और बता देना। मैं नहा कर आ गया। ९-०० बज गए तो श्रीमतीजी ने खाना खाने के लिए कहा। खाना भी खा लिया। आनंदजी को फोन करने जा रहा था कि रंगकर्मी मित्र भाई अशोक जोशी का फोन आया। जोशीजी मुंबई से फोन कर रहे थे। मैंने फोन उठाते ही कहा कि आनंदजी ने अपना काम आपको दे दिया क्या? यह बात जोशीजी के समझ से बाहर थी। उसने खुलासा चाहा तो मैंने सारी बात बताई और ९-१५ के इंतजार की बात कही और बताया कि मुझे ऐसा लगा कि जोशी जी को आनंदजी ने कह दिया होगा कि प्रमोद को बता देना। तब यह बात कही। जोशीजी चुप थे । मैंने हैल्लो बोला तो उन्होंने कहा कि आपकी बात आनंदजी से हुई है। मैंने बताया हाँ लगभग ६-३० बजे हुई है। आगे जो जोशी ने कहा वह मेरे लिए एकदम अविश्वसनीय था। मैं धक रह गया। मेरे लिए गहरा आधात था। पूरी रात सो नहीं पाया था मैं। एक धर्मसंकट यह भी था कि सुबह भाषण देने के लिए जाऊँ की नहीं। पूरी रात सोच-विचार के बाद निष्कर्ष यह निकला की आनंदजी अपने अंतिम समय में कलाकारों के बीच ही थे। इसलिए ऐसे रंगयोगी को सच्ची श्रद्धाजंली नाटक के कार्यक्रम में जाकर ही दी जा सकती है। एक आदमी अपने जाने के बाद अपनी सुनहरी यादें लोगों के मन में छोड़ जाए तो समझा जा सकता है कि वह अपने होने को सिद्ध कर गया। आनंदजी की ये पंक्तियां जेहन में उभरना स्वाभाविक ही है।गो तुझे पूजा नही है हाँ तुझे समझा तो हैतेरी रहमत कुछ तो मेरे हिस्से आनी चाहिए।एक दिन मरना सभी को है यकीनन दोस्तोंमुझको मेरे बाद यारों एक कहानी चाहिए।आनंदजी जिंदादिल मित्रवत्सल इनसान थे। उनको भुलापाना संभव नहीं है। वे अपने बाद बहुत सी कहानियाँ छोड़ गए हैं। मेरे जैसे उनके सैकड़ों मित्र हैं प्रत्येक के पास कोई न कोई कहानी है। आनंदजी का जाने से मुझे व्यक्तिगत जितनी हानि हुई है उससे कहीं ज्यादा बीकानेर के साहित्य और रंगकर्म को हुई है। उनकी बात गीता से जुड़ती नजर आती है। भले ही पूजा आप करते हैं कि नहीं करते है पर अपने सत्कर्म करते हुए भी परमसत्ता को समझा जा सकता है। उसकी रहमत से कर्मयोगी वंचित नहीं रह सकता। तो ऐसे में आनंद जी कैसे वंचित रहेंगे। जब तक जिए शान से जिए और जाते हुए भी यूँ चुपचाप बिना किसी को कहे, ऐसे चले गए जैसे गंगा टी स्टॉल से उठकर घर जाते हैं। ऐसे भी कोई जाता है। इतना ही कह सकता हूँ कि आनंदजी  आज इस याद ने अन्दर से पुनः तरलता ला दी। दिनकर की भाषा में कहूँ तो च्च्मित्रता बड़ा अनमोल रत्न, इसे तौल सकता कब धन।ज्ज्बहरहाल दोस्ती के किस्से हैं शायद ही कभी खत्म हो। कोरोना लॉक डाउन में एक पुरानी दोस्ती का सिलसिला फिर शुरू हुआ है। डॉ. कौशल से बात करने का। आज भी बात की दुःखी है। परेशान है। पर संघर्षरत है। यही जीवन है। जीवन की शाश्वतता चलना है। वह चलता रहता है। भले ही अभी कुछ व्यवधान है लेकिन यह व्यवधान समाप्त होगा और जीवन चलेगा और जब जीवन चलेगा तो मुझे भी चलकर डॉ. कौशल के पास चार-पांच दिन के लिए जाना होगा। ऐसा वादा वह ले चुका है और रोज इस बात को करके पक्का भी करता रहता है।

-इति-

‘जिसके मन की भावना श्रेष्ठ, उसका सृजन भी श्रेष्ठ’ : डॉ. उषा किरण सोनी

ऋतु शर्मा  :  मोबाइल नंबर- 9950264350

हिन्दी व राजस्थानी में समान रूप से कविता-कहानी लिखती हैं। हिंदी व राजस्थानी में चार किताबों का प्रकाशन। सरला देवी स्मृति व कर्णधार सम्मान से सम्मानित

हिन्दी की वयोवृद्ध लेखिका हैं, जिनसे नई पीढी की महिलाएं न सिर्फ सीख ले सकती है बल्किी प्रेरणा लेकर लिख भी सकती है। एक शिक्षक होने के कारण उनका रचनाकार समाज को एक दिशा देने के लिए प्रयास करता दिखता है।

एक ऐसी रचनाकार होने के साथ यायावर भी हैं जिन्होंने आजादी के बाद करवट लेते हुए देश को करीब से देखा है और उस पृष्ठभूमि के साथ आज वे 21 वीं सदी में खड़ी हैं। उषा जी नारी होने के साथ-साथ समूची सभ्यता में आए आमूलचूल परिवर्तन की एक ऐसी साक्षी भी हैं जो इस बदलाव का रेशा-रेशा खोल कर रख सकती हैं। उनके रचना संसार में कृतियों, किरदारों, कविताओं व निबंधों में यह सहज सुलभ दृष्टिगोचर है
उषा जी ने जिस तरह अपने जीवन और अनुभव को अपनी रचनाओं में पिरोया है उससे ऐसा लगता है मानो इन्होंने जी भर जीने के साथ-साथ कहने का हौसला भी पाया है। यही एकमात्र वजह है कि विभिन्न विधाओं में 16 कृतियों का प्रणयन कर चुकी डॉ. सोनी की शोध दृष्टि देखती ही नहीं बेधती भी है। उषा जी की रचनाएं गहराई लिए होती हैं जो अपने पाठक को एक तुष्टि प्रदान करती हैं और यहीं किसी भी पाठक या किसी भी कृति का अभीष्ट या प्रयोजन होता है। उषा जी अपने किरदारों के माध्यम से मन में उतरती और एकाकार हो जाती हैं संभवत: इसकी बड़ी वजह इनके व्याख्याता संबद्ध होने के कारण देशभर में हुए तबादले भी हो सकते हैं।
कहा जा सकता है कि उषा जी ने जो रचा है वह सामान्य नहीं, असाधारण है। इनके लिखे हुए की विवेचना व मूल्याकंन करने पर इनके होने को स्वीकारा जा सकता है। आप आकाशवाणी से लगभग 30 वर्षों से जुड़ी हैं। मां के आशीर्वाद से बचपन से ही लिखती छपती रहीं उषा जी के लिखे पर लघु शोध हो चुके तथा पीएच डी स्तरीय शोध और अनुवाद हो रहे हैं। पंजाब विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक, आंध्र प्रदेश से युद्धवीर फाउंडेशन पुरस्कार, दिल्ली से सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान, बंगलूरू से मैढ़ महिला दीप पुरस्कार तथा राजभाषा गौरव सम्मान, राजस्थान से शंभु शेखर सक्सेना पुरस्कार, सुंदर सुरभी बीकाणा गौरव अवार्ड आपको अर्पित किये जा चुके हैं। उषा जी निरंतर रच रही हैं। और रचे हुए के लिए सम्मानित हो रही हैं। इन पुरस्कारों को पाकर वे अपने सामाजिक ऋण नहीं भूली हैं। आपके द्वारा स्थापित ज्ञान फाउंडेशन ट्रष्ट साहित्यिक शोध व रचनात्मक गतिविधियों के लिए पंजीकृत हैं आप अखिल भारतीय साहित्य परिषद्, भारत विकास परिषद तथा मैढ़ क्षत्रिय स्वर्णकार समाज की कार्यकारिणी सद्स्य के रूप में भी सेवाएं दे रही है। आप नाटक, कविता, कहानी, यात्रा वृतांत और बाल साहित्य मे समान रूप से लिख रही है। उषा जी के लिए कहा जा सकता है कि आपने कलम को साधा है यही वजह है कि आप की कलम से निकले शब्द सार्थक हो रहे हैं। साहित्यकार व कथाकार ऋतु शर्मा से लॉयन एक्सप्रेस के कथारंग: साहित्य परिशिष्ट के लिए हुई डॉ. उषाकिरण से बातचीत के अंश प्रस्तुत है।

प्रश्र :  आपके लिए कहा जाता है की आप रचनाकार होने के साथ-साथ यायावर भी हैं। यात्राओं ने किस तरह आपकी सृजनात्मकता केा समृद्ध किया?

उत्तर- सृजन के तीन क्षण होते हैं पहला है अनुभव , दूसरा है अनुभव से प्राप्त संवेदना तथा तीसरा है संवेदना में कल्पना का मिश्रण कर नव सृजन करना; साहित्य की भाषा में कहूं तो शब्द बद्ध करना । यायावरी में अनेक प्रकार के स्थानों पर विचरण व दर्शन व अनेक प्रकार के लोगों से मिलना अनुभव के कोष को समृद्ध करता है और इस प्रक्रिया में उमड़ी संवेदना साहित्य सृजन में दिग्दर्शक , प्रेरक व सहायक होती है । मेरी यायावरी प्रवृत्ति ने कई रचनाओं को जन्म व आकार दिया है।

प्रश्र :  आपने जिस तरह अपने जीवन और अनुभव को अपनी रचना में पिरोया है उससे ऐसा लगता है मानो आपने जी भर जीने के साथ-साथ कहने का हौसला भी पाया है, इस हौसले का राज़ क्या है,कौन हैं आपकी प्रेरणा?

उत्तर- प्रत्येक रचनाकार अपने जीवन के अनुभवों को रचना में पिरो कर ही सृजन करता है । मेरी स्वर्गीया माता जी को श्रेष्ठ साहित्य पढऩे का बड़ा शौक था। उनकी यही आदत मुझे भी मिली। मूल में तो मेरी माता जी ही मेरी प्रेरणा स्रोत हैं परंतु प्रत्यक्ष में समाज परिस्थितियों में भांति- भांति के चरित्र भी मेरे प्रेरणास्रोत रहे हैं ।अपनी बात को सही ढंग से कहने का हौसला भी मुझे अपनी माताजी से ही मिला है।

प्रश्र : आप अब तक विभिन्न विधाओं की सोलह कृतियों का प्रणयन कर चुकी हैं आपकी प्रिय विधा क्या है और क्यों?अपनी रचनाप्रक्रिया के बारे में भी बताएं।

उत्तर-मेरी प्रिय विधा कविता है, क्योंकि कविता में कभी-कभी बहुत कुछ कह कर भी बहुत कम कहा जाता है और कभी-कभी बहुत कम कह कर भी बहुत अधिक कह देना संभव होता है। कभी-कभी कुछ अनुभव तुरंत शब्दों में ढल जाते हैं और कभी-कभी कुछ अनुभव हृदय की अतल गहराइयों में बैठ कुलबुलाते रहते हैं जो समय आने पर कागज पर उतरते हैं।

प्रश्र  :  साहित्य की दूसरी विधाओं के साथ-साथ आप बाल साहित्य भी लिख रही हैं, जो अपेक्षाकृत दुष्कर है?

उत्तर-हर व्यक्ति के हृदय में एक बच्चा होता है यह सच है परंतु बाल साहित्य रास्ते समय स्वयं रचनाकार को एक बच्चे के मानसिक स्तर पर उतरना पड़ता है तभी वह सार्थक बाल साहित्य रच सकता है । यात्रा वृतांत लिखने से पहले की यात्रा में रचनाकार को अपने हाथ पांव व सभी क्रियाकलापों को आंखें बना लेना पड़ता है और बच्चे की तरह उस यात्रा का आनंद लेना पड़ता है तभी वह उस दृश्य का ऐसा शब्दांकन कर पाता है जो बालक समझ सके उनके लिए उपयोगी हो मैंने भी यही प्रयास किया है।

प्रश्र  : आपकी कहानियों में नारी संवेदना विषय पर शोध भी किया गया।आपकी दृष्टि में क्या है स्त्री विमर्श?

उत्तर- स्त्री विमर्श रूढ़ हो चुकी मान्यताओं और परंपराओं से असंतोष और स्त्री का इनसे मुक्ति का स्वर है। पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री पुरुषों के समान मान पाने के अधिकारी हों तथा अपनी पहचान से पहचानी जाए। उसे निर्णय लेने का अधिकार हो, सरल शब्दों में यही है- स्त्री विमर्श। 2009 में मेरी कहानियों में नारी संवेदना विषय पर लघु शोध हुआ था और 2020 में हुआ मेरी अब तक की सभी रचनाओं पर पीएचडी स्तरीय शोध मेरे लेखन को सम्मान देकर मुझे और बेहतर लिखने के लिए प्रेरित कर रहा है।

प्रश्र  : मन,सृजन और जीवन यहाँ मैं आपकी किताब की बात नहीं कर रही बल्कि आपसे जानना चाहती हूँ क्या है ये ताना बाना,क्या जुड़ाव है इनका ?

उत्तर- मन , सृजन और जीवन तीनों परस्पर अन्योन्याश्रित है। अलग-अलग मन: स्थितियों में मनुष्य अलग-अलग प्रतिक्रिया देता है । मानव की सकारात्मक दृष्टि या मन : स्थिति उससे सृष्टि यानी सृजन कराती है और नकारात्मक दृष्टि उससे विध्वंस कराती है। जहां विध्वंस उसे अशांति व दुख देता है वही सृजन उसे शांति व तुष्टि देता है ।मन की भावना जितनी श्रेष्ठ होती है उसका सृजन भी उतना ही श्रेष्ठ होकर उसके जीवन को उत्सव के समान आनंददायी व शांति प्रदायक बना देता है अत: भावना को श्रेष्ठ करना आवश्यक है। मन की श्रेष्ठ भावना सृजन की ओर उन्मुख कर जीवन को उत्सव बना देती है।

प्रश्र  : लेखन यायावरी के साथ साथ आप सामाजिक गतिविधियों में भी सहयोग देती रहीं है कैसे निकालती हैं समय ?

उत्तर- सामाजिक गतिविधियों के लिए समय निकालना भी मन की श्रेष्ठ भावना का परिणाम है । जब घर- परिवार अर्थात पति, बच्चे व परिजन सभी सहयोगी व सकारात्मक दृष्टि रखते हैं तो समय निकालना सहज हो जाता है। यदि स्थिति विपरीत हो तो भी श्रेष्ठ भावना सामाजिक गतिविधियों के लिए समय निकाल लेती है।

प्रश्र  : अब तक के लिखे आपके पाँच कहानी संग्रह में से आपकी सबसे प्रिय कहानी और किरदार कौनसा है और क्यों ?

उत्तर- मां को अपनी हर संतान समान रूप से प्यारी होती है। कहानीकार को भी अपनी प्रत्येक कहानी अपनी संतान की भांति प्रिय होती है , स्वाभाविक है मुझे भी अपनी सभी कहानियां प्रिय हैं फिर भी तपस्या (काम्या संग्रह से), भूकंप के बाद (नेपथ्य का सच संग्रह से ),अधिकार (तृष्णा तू न गई संग्रह से) तथा चाह को राह( जस करनी तस संग्रह से) मुझे ज्यादा पसंद है क्योंकि इन कहानियों के स्त्री चरित्रों ने अपने जीवन में भरपूर संघर्ष किया है और विजय पाई है।

प्रश्र  : ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ सभी मानते हैं फिर भी आज जितना लिखा जा रहा है उतना पढ़ा नहीं जा रहा। क्या कहना है आपका ?

उत्तर- इसका कारण है मनोरंजन के दृश्य माध्यम, परंतु यह भी सच है कि सोशल मीडिया के ये साधन भी लिखित साहित्य से ही शब्दों, वाक्यों, स्थितियों व चरित्रों को उठाकर दृश्य माध्यमों द्वारा पाठक या दर्शक तक पहुंचाते हैं। अत: समाज के दर्पण रूपी श्रेष्ठ साहित्य सदैव ही पढ़ा व गुना जाता है प्रेरक व दिग्दर्शक साहित्य सदैव पढ़ा जाता था, पढ़ा जाता है और पढ़ा जाता रहेगा।

प्रश्र  : साहित्यिक पुरस्कारों के बारे में आपका क्या कहना है ?

उत्तर- शब्दकार का उद्देश्य विचारों व अनुभवों को शब्दों में ढालकर पाठक तक पहुंचाना होता है। वह पुरस्कार पाने के लिए नहीं लिखता परंतु यह सच है कि पुरस्कार मिलने पर नए रचनाकारों का रचनाकार्य प्रोत्साहित होता है। विभिन्न संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत होने एवं रचनाओं में उत्तरोत्तर गांभीर्य
आने पर यह बातें शब्दकार के लिए गौण हो जाती हैं तब संस्थाएं उस शब्दकार को पुरस्कृत कर स्वयं को सम्मानित एवं गौरवान्वित महसूस करती हैं।

प्रश्र  : समाज के नाम संदेश।

उत्तर- श्रीमदभगवद्गीता , रामायण आदि ग्रंथ सदैव मानव समाज के दिग्दर्शक रहे हैं और रहेंगे अत: श्रेष्ठ साहित्य पढ़ें, श्रेष्ठ सृजन करें, मनन करें और अपने जीवन को उत्सव की भांति जिएं।

 

 

 

खुद्दारी और ज़िंदादिली के शाइर प्रेम सिंह कुमार ‘प्रेम’

पैदाईश -1913,  वफ़ात -1979

– सीमा भाटी,  मोबाइल नंबर- 9414020707

उर्दू रचनाकार सीमा भाटी का राजस्थानी, उर्दू ,हिंदी तीनों भाषा में समान लेखन। आपका कहांनी संग्रह, कविता संग्रह, और एक राजस्थानी उपन्यास भी आ चुका है। इन्हें राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर का प्रतिष्ठित अल्लामा इक़बाल अवार्ड 2017 उर्दू साहित्य में मिला।

“चली थी वो कश्ती किनारे किनारे
हंसीं वो तबस्सुम हंसीं वो नज़ारे
लगाये से जो आग लगती नही हैं
बुझाये से जो आग बुझती नही हैं
उसे अब बुझाना है तुझको मुसाफ़िर
बहुत दूर जाना है तुझको मुसाफ़िर”…

जिसके कलाम में
हद दर्जा सादगी हो ,
ज़बान में सादगी
बयान में सादगी
मज़मून में सादगी
उस सादगी में ताज़गी भी
पाकीज़गी भी
नज़्मों में पांबदी के साथ
संगम भी हो आज़ादी का
जिसकी शाइरी को
हासिल हुआ हो
पांबदी का वक़ार और
आज़ाद शाइरी का परवाज़ भी…

 

जिसका क़ुदरत की बेहतरीन बख़्शिशे और अताये लेकर पैदा होना और इस दुनिया में सुबह के सूरज की मानिंद ताबदार होकर ज़ाहिर भी होना, दुनिया के रंग में रंगने की बजाए, अपने ताबो ताक़त से उसे अपने रंग में रंगने का हौसला रखना, ये तमाम खुशुसियात एक ऐसे ही शख्शियत में थी जो प्रेम कुमार ‘प्रेम ‘के नाम से अदब की दुनिया में मारूफ़ हुए।
बीकानेर में अपना वतन छोड़ आने वाले शोरा’ओं में जनाब प्रेम सिंह कुमार प्रेम का अहम नाम था जो बीकानेर की पड़ोसी रियासत भावलपुर के एक मोअदब और तालीम याफ़्ता ख़ानदान में पैदा हुए थे। आपके वालिद जनाब देवीदयाल फ़ारसी ओर उर्दू के आलिम और पेशे से वकील थे ये घर इल्मों अदब का गहरावा था । इस अदबी माहौल में प्रेम कुमार की परवरिश हुई । प्रेम के वालिद को उर्दू फ़ारसी पर अच्छी क़ुदरत हासिल थी । उन्होंने अपने बेटे को स्कूल के अलावा घर पर भी
तालीम दी। इस तरह उर्दू फ़ारसी प्रेम की घुट्टी में शामिल थी। लिहाज़ा प्रेम को उर्दू ज़बान व अदब से प्रेम होना लाज़मी बात थी। प्रेम साहब ने भावलपुर की स्कूल से मेट्रिक का इम्तिहान पास किया और लाहौर कॉलेज से बी .टी के इम्तिहान पास करने के बाद खानपुर स्कूल में बतौर हैड मास्टर ख़िदमात अंजाम दी।
लेकिन 1947 के हंगामा तक़सीम की वजह से आप तर्क वतन करके बीकानेर आ गए और यहाँ के सादुल स्कूल में मुदर्रिस हो गए, तो कभी फ़ोर्ट स्कूल में हैड मास्टर भी। आपने राजस्थान यूनिवर्सिटी, जयपुर, से तारीख़ में एम .ए किया। तरक़्क़ी करते हुए डी .इ .ओ बने और आख़िर में अपनी मेहनत और लग्न से डिप्टी डारेक्टर एजुकेशन के ओहदे पर फ़ाइज़ हुए और 1979 में इसी ओहदे से सुबुकदोश  (रिटायर) हुए। प्रेम साहब एक हौसलामंद और ख़ुल्क़ इंसान थे तक़सीमे वतन का हादसे से अपना वतन छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा, मगर ऐसे विपरीत हालात में भी मायूस नही हुए और अपनी ज़िन्दगी का सफ़र बड़ी  कामयाबी के साथ पूरा किया। वो कहते हैं …

” इस कुलफ़त -ओ रंज की धरती पर
क्यू प्रेम परेशां होता है,
सब अक़्दे हल हो सकते हैं
हर दर्द के दरमाँ होते हैं ”

प्रेम सिंह कुमार ‘प्रेम ‘ऐसे ही खुद्दारी और ज़िंदादिली के शाइर थे ,जिसकी शाइरी को किसी मुक़र्रर वक़्त में बांधकर रखना मुमकिन नही था वो तो हर काल में सामयिक लगती है कहने का अंदाज़ भी सबसे जुदा था और नपी तुली ज़बान से गहरी बात कह जाना उनका इल्म का गहराई से मुताला की निशानी है अपनी नज़्मों और ग़ज़लों में उन लोगों की तारीफ़ करते जो ख़ुद की हिम्मत के बुते ज़िंदा रहते हैं ,न कि दूसरों के सहारे और क़िस्मत के भरोसे। बकौल प्रेम …

“नही बदला ज़माना तो ,बदल दो तुम ज़माने को ,
यूँ ही होता रहेगा शिक़वा -दौरे -ज़मां कब तक ”

“क्या लबे -साहिल खड़ा तकता है हैरानी के साथ ,
कूद जा तूफ़ान में और खेल तुग़यानी के साथ ”

प्रेम का मज़्मुआ कलाम ” बहुत दूर जाना है तुझ को मुसाफ़िर ” जनवरी 2001 में मज़रे आम पर आ चुका था। इस किताब का प्रकाशन हाजी मोहम्मद यूनुस जोइया साहब के ट्रस्ट नेशनल पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा किया गया था। और इस किताब का इज़रा भी बहुत शानदार कार्यक्रम में हुआ था। इस किताब का मौज़ूअ ही इंसानी ज़िन्दगी के लिए एक बहुत बड़ी इबरत है कि चलना ही ज़िन्दगी है रुकना तो मौत है। उसके बाद ज़िंदगी के सफ़र में आने वाली मुश्किलों का सामना करके मंज़िल कि तरफ़ मुसलसल बढ़ते रहना, हर छल, कपट और भुलावे को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ते रहना ही असल ज़िन्दगी है।
प्रेम के फ़नी जौहर उनकी आज़ाद नज़्मों में खुल कर सामने आता है क्यूंकि उन नज़्मों में तखलियात का दायरा इतना वसीह है कि उसमें कोई भी परिंदा आसमाने फ़िक़्र पर आज़ादाना परवाज़ बुलंदी के साथ भर सकता है , उसके परो को नोचे जाने का डर नही होगा। प्रेम कि इस तरह कि नज़्में तारीकी के बाद उजाले के तलबगारों के लिए हर युग में रहनुमाई करती नज़र आएगी। ‘प्रेम ‘के असआर में सलासत, रवानी, फ़साहत की ख़ूबियाँ हैं। जो ज़माने के ग़म को भी माशूक़ के ग़म की शक़्ल में पेश करती हैं इसलिए उनके कलाम में कहीं ख़िताबत ,खुदरापन महसूस नही होता। उनके अल्फाज़ के इस्तेमाल का मख़सूस तरीक़ा ख़ुशगवारी का अहसास पैदा करता है जो शाइरी के लिए लाज़मी और ज़रूरी चीज़ है कुमार की शाइरी में ख़ुदा से बंदो का प्रेम करने का अलग अलग अंदाज़ है ,ख़ुदा रोम रोम में है हर जगह है तो फिर उसे क़ाबे या बुतख़ाने में मुज़रिम की तरह बंदी बनाकर क्यू रखा जाता है, की पेशकश लाजवाब है ये अंदाज़े बयां प्रेम की शख़्शियत को चार चाँद लगाती है पेश है ऐसा ही एक शे’र आपकी नज़र …

” ‘प्रेम ‘ क्या ढूंढ़ता है काबे में बुतख़ाने में
उसको हर ज़र्रे में देखे ,वो नज़र पैदा कर ”

ज़ाहिर सी बात है कि प्रेम सिंह कुमार का शुमार राजस्थान के मोअतबिर शाइरों में होता था। बड़े बड़े मुशायरों में आपकी शिरक़त रहती थी। एक बार जोधपुर में आयोजित मुशाइरे में मुख्यमंत्री बरकतुलला खान की सदारत थी, उसमें ‘प्रेम ‘ने अपनी शाइरी का ख़ूब रंग जमाया और दाद लूँटी। नागौर उर्स में भी आपका आना जाना बना रहता था। कामेश्वर दयाल हज़ीं हो या दीन मोहम्मद ‘मस्तान ‘हो, हिंदी-उर्दू गंगा जमनी तहज़ीब के दूसरे शाइर हो प्रेम सबके चहेते थे।
प्रेम की नज़्म ‘फूल की कहानी आप अपनी ज़बानी, मज़दूर,किसान ये तो बता, भूल गए, भंवर को अपनी कश्ती मौज को साहिल समझते हैं, बेहतरीन नज़्में कही जा सकती है। ‘प्रेम’ की ये बातें जब तक क़ायम रहेगी तब तक खुद्दारी और ज़िंदादिली भी ज़िंदा रखेगी और, ‘प्रेम’ !! प्रेम हम सबके दिलों में हमेशा ऐसे ही ज़िंदा रहेंगे।