हस्तक्षेप

– हरीश बी. शर्मा
राजस्थान में एक बार फिर से तबादला-नीति बनाने का कवायद शुरू हो गई है। सरकार ने एक प्रारंभिक मसौदा सभी विभागों के पास भेजा है ताकि इस संबंध में सुझाव लिए जा सके, लेकिन मोटे तौर पर इस नीति में सबसे बड़ा जो नियम होगा, वह किसी भी सरकारी नौकरी पाने वाले को पहले तीन साल तक ग्रामीण क्षेत्र में सेवाएं देना रहेगा। इस नीति से खासतौर से ऐसे लोग, जो सरकारी नौकरी सिर्फ शहरी क्षेत्र में रहते हुए करना चाहते हैं, में हड़कंप मचा हुआ है, लेकिन सिर्फ यही नहीं। अगर तबादला-नीति प्रदेश में लागू हो गई तो काफी कुछ बदल जाएगा।

सच्चाई तो यह है कि राजस्थान में भले ही लंबे समय से कांग्रेस और भाजपा की सरकार बनती रही हो, लेकिन तबादला-नीति के नाम पर चुप्पी ही रही है। हालांकि, 1994 में पहली बार तबादलों के लिए नीति बनाने की बात शुरू हुई थी। तब के शिक्षा सचिव अनिल बोर्दिया के नेतृत्त्व में बनी कमेटी ने कुछ प्रस्ताव भी दिए थे, लेकिन ये प्रस्ताव ठंडे-बस्ते में चले गए। हर बार समीक्षाएं होती रही। प्रस्ताव मांगे जाते रहे, लेकिन नीति लागू नहीं हो सकी।

इस दौरान एक शब्द प्रचलन में आया और वह था ‘तबादला-उद्योगÓ। तबादलों के लिए बड़ी राशि दिए जाने की बातें चली। यहां तक कि दबी-जुबां में सरकारी कर्मचारी यह तक कहते हुए दिखाई दिए कि अगर एक साल का वेतन भी तबादला करवाने वाले दलालों को दे दिया जाता है तो क्या बुरा है। इसके बाद तो आराम की नौकरी करेंगे। शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक निर्माण विभाग में तो इस तरह के अनेक मामले सामने आए। भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो की कार्रवाई भी हुई लेकिन ‘तबादला-उद्योग’ खूब फला-फूला।

तबादलों पर बैन खुलने का किसी अवसर की तरह इंतजार होने लगा। बहुत सारे राजनेताओं के पास तबादले करवाने वालों का तांता लगा रहता। तबादले होते भी थे, जिससे राजनेताओं के दलालों के संबंधों के सूत्र भी उद्घाटित हुए। तबादला नीति नहीं होने की वजह से अनेक ऐसे कारण बना दिए जाते, जिससे तबादलों को न्यायसंगत बना दिया जाए। नहीं तो राज्यादेश तक जारी हो जाते। और कुछ नहीं होता तो डेपुटेशन पर भेज दिया जाता। इसके अलावा राजनीतिक दलों से जुड़े सरकारी कर्मचारियों के प्रकरण भी होते। सत्ताधारी पार्टी से जुड़े सरकारी कर्मचारियों के तबादले नहीं होते बल्कि विपक्ष से जुड़े सरकारी कर्मचारियों को तबादलों के लिए चिह्नित किया जाता।

ऐसा नहीं था कि इन सारे तौर-तरीकों से लोग अनभिज्ञ थे। समय-समय पर इसके खिलाफ आवाज भी उठती रही, लेकिन बार-बार के प्रयासों के बाद भी नीति नहीं बन सकी, लेकिन राजस्थान की नई भाजपा सरकार ने अपने कार्यकाल के पहले छह महीने में ही इस संबंध में पहल कर दी है।
देखना यह है कि सरकार इस मसौदे को आगे बढ़ाते हुए नीति बनाए जाने के स्तर पर लाने में सफल होती है या फिर इससे पहले ही यह ठंडे-बस्ते में चला जाएगा। जिस तरह के हालात सामने हैं, उसे देखते हुए यही लग रहा है कि इस बार राजनेता, मंत्री या विधायक इस मसौदे का विरोध नहीं करेंगे, क्योंकि उनके विरोध करते ही यह संदेश जाएगा कि अमुक-अमुक नेता लोग तबादला-उद्योग चाहते हैं। भाजपा में ऐसा कोई भी विधायक नहीं है, जो यह रिस्क लेने की सोचे भी।

‘लॉयन एक्सप्रेस’ के संपादक हरीश बी.शर्मा के नियमित कॉलम ‘हस्तक्षेप’ के संबंध में आपके सुझाव आमंत्रित हैं। आप 9672912603 नंबर पर वाट्स अप कर सकते हैं।