-ज्योतिषी मनोज व्यास

क्या है नक्षत्रों की कहानी ?

हिंदू पौराणिक कथाओं में, राजा दक्षण नाम के एक राजा थे और चंद्रमा ने राजा की सभी 27 बेटियों से शादी की थी। वे सभी 27 नक्षत्र थे। हालांकि, चंद्रमा को केवल रोहिणी नाम की एक रानी के साथ समय बिताना बहुत पसंद था, जिसे चंद्रमा का उत्कर्ष बिंदु भी माना जाता है। अन्य सभी 26 पत्नियों (नक्षत्रों) ने राजा दक्षण से शिकायत की। राजा ने चंद्रमा से बार-बार अनुरोध किया, लेकिन, चंद्रमा ने अपना स्वभाव नहीं बदला। इससे राजा क्रूद्ध हो गया और उसने अंततः चंद्रमा को शाप दे दिया, जिससे उसका आकार छोटा हो गया।
शाप के परिणामस्वरूप, चंद्रमा आकार में छोटा होने लगा। परिणाम अच्छे नहीं थे, अतः सभी देवताओं ने हस्तक्षेप किया और राजा दक्षण को अपना शाप वापस लेने के लिए कहा। सभी देवताओं ने राजा को यह आश्वासन भी दिया कि चंद्रमा समान रूप से अपनी सभी पत्नियों के साथ समान समय बिताएगा। लेकिन चूंकि शाप को पूरी तरह से वापस नहीं लिया जा सकता था, इसलिए इसके एक उपाय के रूप में, राजा दक्षण ने कहा कि चंद्रमा केवल आधे महीने के लिए अपनी शक्ति बनाये रखने में सक्षम होगा, अतः यह प्रमुख कारण है कि चंद्रमा सभी राशि चक्रों की परिक्रमा को समाप्त करके एक महीने में सभी 27 नक्षत्रों को पार करता है, जो आकार में वृद्धि और कमी के कारण पूर्णिमा और अमावस्या का कारण होता है।
विष्णुपुराण अट्ठारह पुराणों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा प्राचीन है। यह श्री पराशर ऋषि द्वारा प्रणीत है। यह इसके प्रतिपाद्य भगवान विष्णु हैं, जो सृष्टि के आदिकारण, नित्य, अक्षय, अव्यय तथा एकरस हैं। इस पुराण में आकाश आदि भूतों का परिमाण, समुद्र, सूर्य आदि का परिमाण, पर्वत, देवतादि की उत्पत्ति, मन्वन्तर, कल्प-विभाग, सम्पूर्ण धर्म एवं देवर्षि तथा राजर्षियों के चरित्र का विशद वर्णन है। भगवान विष्णु प्रधान होने के बाद भी यह पुराण विष्णु और शिव के अभिन्नता का प्रतिपादक है। विष्णु पुराण में मुख्य रूप से श्रीकृष्ण चरित्र का वर्णन है, यद्यपि संक्षेप में राम कथा का उल्लेख भी प्राप्त होता है। अष्टादश महापुराणों में श्रीविष्णुपुराण का स्थान बहुत ऊँचा है। इसमें अन्य विषयों के साथ भूगोल, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, राजवंश और श्रीकृष्ण-चरित्र आदि कई प्रंसगों का बड़ा ही अनूठा और विशद वर्णन किया गया है। श्री विष्णु पुराण में भी इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी की सर्वव्यापकता, ध्रुव प्रह्लाद, वेनु, आदि राजाओं के वर्णन एवं उनकी जीवन गाथा, विकास की परम्परा, कृषि गोरक्षा आदि कार्यों का संचालन, भारत आदि नौ खण्ड मेदिनी, सप्त सागरों के वर्णन, अद्यः एवं अर्द्ध लोकों का वर्णन, चौदह विद्याओं, वैवस्वत मनु, इक्ष्वाकु, कश्यप, पुरुवंश, कुरुवंश, यदुवंश के वर्णन, कल्पान्त के महाप्रलय का वर्णन आदि विषयों का विस्तृत विवेचन किया गया है। भक्ति और ज्ञान की प्रशान्त धारा तो इसमें सर्वत्र ही प्रच्छन्न रूप से बह रही है। यद्यपि यह पुराण विष्णुपरक है तो भी भगवान शंकर के लिये इसमे कहीं भी अनुदार भाव प्रकट नहीं किया गया। सम्पूर्ण ग्रन्थ में शिवजी का प्रसंग सम्भवतः श्रीकृ्ष्ण-बाणासुर-संग्राम में ही आता है, सो वहाँ स्वयं भगवान कृष्ण महादेवजी के साथ अपनी अभिन्नता प्रकट करते हुए श्रीमुखसे कहते हैं- .

नक्षत्र सूची अथर्ववेद, तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण और लगध के वेदांग ज्योतिष में मिलती है। भागवत पुराण के अनुसार ये नक्षत्रों की अधिष्ठात्री देवियाँ प्रचेतापुत्र दक्ष की पुत्रियाँ तथा चन्द्रमा की पत्नियाँ हैं।
ज्योतिष शास्त्र में विभिन्न प्रकार के नक्षत्रों का जिक्र किया गया है। ये सभी नक्षत्र जितने महत्वपूर्ण हैं उतने ही वैयक्तिक जीवन पर भी असर डालते हैं। आपको यकीन नहीं होगा लेकिन ये सच है कि जिस नक्षत्र में इंसान जन्म लेता है वह नक्षत्र उसके स्वभाव और आगामी जीवन पर अपना असर जरूर छोड़ता है। आइए जानें भिन्न-भिन्न नक्षत्रों में जन्म लेने वाले लोगों की क्या-क्या खासियत होती है।
कैसे ज्ञात करते हैं नक्षत्र?

जैसा कि हम सभी जानते हैं जन्म के समय चंद्रमा जिस नक्षत्र में स्थित होता है, वही उस व्यक्ति का जन्म नक्षत्र होता है। यदि किसी व्यक्ति के वास्तविक जन्म नक्षत्र की जानकारी हो तो उस व्यक्ति के बारे में बिलकुल सही भविष्यवाणी की जा सकती है। आपके नक्षत्रों की सही गणना आपको काफी लाभ पहुंचा सकती हैं। साथ ही आप अपने अनेक प्रकार के दोषों और नकारात्मक प्रभावों को दूर करने के उपाय भी ढूंढ सकते हैं। सभी नक्षत्रों के अपने शासक ग्रह और देवता होते हैं। विवाह के समय भी वर और वधू का कुंडली मिलान करते समय नक्षत्र का सबसे अधिक महत्व होता है।

दरअसल हम जब अंतरिक्ष विज्ञान या अंतरिक्ष शास्त्र की बात करते हैं तो चंद्रमा या तमाम ग्रहों की गति या चाल से बनने वाले समीकरणों की बात होती है। अंतरिक्ष में चंद्रमा की गति और पृथ्वी के चारों ओर घूमने की या परिक्रमा करने की प्रक्रिया अनवरत चलती है। चंद्रमा पृथ्वी की पूरी परिक्रमा 27.3 दिनों में करता है और 360 डिग्री की इस परिक्रमा के दौरान सितारों के 27 समूहों के बीच से गुजरता है। चंद्रमा और सितारों के समूहों के इसी तालमेल और संयोग को नक्षत्र कहा जाता है।

जिन 27 सितारों के समूह के बीच से चंद्रमा गुजरता है वही अलग अलग 27 नक्षत्र के नाम से जाने जाते हैं। यानी हमारा पूरा तारामंडल इन्हीं 27 समूहों में बंटा हुआ है। और चंद्रमा का हर एक राशिचक्र 27 नक्षत्रों में विभाजित है। किसी भी व्यक्ति के जन्म के समय चंद्रमा जिस नक्षत्र में होगा या सितारों के जिस समूह से होकर गुजर रहा होगा वही उसका जन्म नक्षत्र माना जाता है। और यही आपकी किस्मत की चाभी होती है।
कौन-कौन से हैं 27 नक्षत्र
अश्विन नक्षत्र, भरणी नक्षत्र, कृत्तिका नक्षत्र, रोहिणी नक्षत्र, मृगशिरा नक्षत्र, आर्द्रा नक्षत्र, पुनर्वसु नक्षत्र, पुष्य नक्षत्र, आश्लेषा नक्षत्र, मघा नक्षत्र, पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र, हस्त नक्षत्र, चित्रा नक्षत्र, स्वाति नक्षत्र, विशाखा नक्षत्र, अनुराधा नक्षत्र, ज्येष्ठा नक्षत्र, मूल नक्षत्र, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, श्रवण नक्षत्र, घनिष्ठा नक्षत्र, शतभिषा नक्षत्र, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र, रेवती नक्षत्र।

इन 27 नक्षत्रों को भी तीन हिस्सों में बांटा गया है – शुभ नक्षत्र, मध्यम नक्षत्र और अशुभ नक्षत्र।

शास्त्रीय मत से नक्षत्र पुरुष का विचार  :

शरीर के अंगो पर सभी नक्षत्रों का कोई क्रम नहीं है !
“वामनपुराणानुसार ” इनका विभाजन निम्नलिखित है !

क्रम.        नक्षत्र      –       शरीरांग

१.      अश्विनी   –       दोनों घुटने
२.     भरणी     –       सिर
३.     कृतिका    –       कटिप्रदेश
४.    रोहिणी    –       दोनों टांगे
५.    मृगशिरा  –       दोनों नेत्र
६.     आर्द्रा       –        बाल
७.    पुनर्वसु    –       अंगुलियाँ
८.    पुष्य        –       मुख
९.    आश्लेषा  –       नख
१०.   मघा        –       नाक
११.   पूर्वा फाल्गुनी –      गुप्तांग
१२.   उत्तरा फाल्गुनी-      गुप्तांग
१३.    हस्त       –      दोनों हाथ
१४.    चित्रा        –      मस्तक
१५.    स्वाति       –     दांत
१६.     विशाखा     –    दोनों भुजाएं
१७.    अनुराधा    –    ह्रदय, वक्षस्थल
१८.     ज्येष्ठा      –    जिव्हा
१९.     मूल         –    दोनों पैर
२०.    पूर्वा षाढा     –    दोनों जांघें
२१.    उत्तरा षाढा   –    दोनों जांघें
२२.    श्रवण       –    दोनों कान
२३.    धनिष्ठा      –    पीठ
२४.    शतभिषा      –   ठोड़ी के दोनों पार्श्व
२५.    पूर्वा भाद्रपद  –    बगल
२६.     उत्तरा भाद्रपद –   बगल
२७.     रेवती        –   दोनों कांख

नक्षत्रों के गुण
हमने अपने पिछले अध्यायों में नक्षत्रों की नाड़ी, योनि, गण, वश्य और तत्वों के विषय में बात की | नक्षत्रों का विभाजन तीन गुणों – सत्व, रजस और तमस – के आधार पर भी किया जाता है | इन तीनों ही गुणों की आध्यात्मिक तथा दार्शनिक दृष्टि से चर्चा तो इतनी विषद हो जाती है कि जिसका कभी अन्त ही सम्भव नहीं | आज के अध्याय में हम इन गुणों के आधार पर नक्षत्रों के वर्गीकरण के विषय में बात करेंगे |
सभी जानते हैं कि समूची प्रकृति में सत्व, रजस और तमस ये तीनों ही गुण पाए जाते हैं | सृष्टि की रचना प्रक्रिया, सृष्टि का पालन पोषण संवर्धन तथा सृष्टि का संहार आदि जितनी भी प्रत्यक्ष क्रियाएँ हैं वे इन तीन गुणों के माध्यम से ही संचालित होती हैं – इसीलिए प्रकृति को त्रिगुणात्मिका कहा जाता है | जब समूची प्रकृति इन त्रिगुणों से मुक्त नहीं हो सकती तो फिर साधारण मानव की तो बात ही क्या है | ज्योतिष शास्त्र की मान्यता है कि क्योंकि प्रत्येक मनुष्य किसी नक्षत्र में जन्म लेता है तो उस नक्षत्र में जो भी गुण इन तीनों गुणों में से होगा उसका प्रभाव मनुष्य पर निश्चित रूप से पड़ेगा तथा उसी के अनुसार उसका गुण और स्वभाव भी विकसित होगा | यहाँ तक कि इन गुणों के ही कारण कई बार अशुभ नक्षत्रों के भी शुभ फल देखे जा सकते हैं और कई बार शुभ नक्षत्रों के भी अशुभ परिणाम दृष्टिगत होते हैं | वास्तव में ये त्रिगुण मनुष्य के स्वभाव अथवा चरित्र की तीन परतें यानी Layers हैं, समय समय पर कभी कोई गुण प्रधान हो जाता है तो कभी कोई, किन्तु मूल स्वभाव कभी नहीं बदलता |
सत्त्व गुण : सत – जिसका अर्थ होता है मूलभूत घटक – Essence – से सत्व शब्द बना है | यानी किसी व्यक्ति का जो स्वाभाविक चरित्र होता है वह सत्व गुण के अन्तर्गत आता है | सत्व अर्थात जिसकी सत्ता हो, जो विद्यमान हो, जिसका भाव हो अथवा जो सत्य हो | सत्य क्या होता है ? प्रत्यक्ष को सत्य की संज्ञा दी जाती है | इसके अतिरिक्त सम्पूर्णता, समग्रता, प्रकृति, मनुष्य के जन्मजात गुण – जो अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी, जीवन, आत्मा, इच्छा शक्ति, श्वास, जीवनी शक्ति, समानता, चेतना, मन, इन्द्रिय, धन सम्पत्ति, अच्छाई, वास्तविकता, निश्चितता, साहस और बल आदि अर्थों में सत्व शब्द का ग्रहण किया जाता है | देवताओं को सत्व गुणों से युक्त माना जाता है | नक्षत्रों में पुनर्वसु, विशाखा, पूर्वा भाद्रपद, आश्लेषा, ज्येष्ठा एवं रेवती ये छ: नक्षत्र सत्व गुण सम्पन्न नक्षत्र कहलाते हैं |
रजस गुण : रजस अर्थात राजाओं के समान – अर्थात मानवमात्र में जो राजाओं के सामान विशेषताएँ होती हैं वे रजस गुण के अन्तर्गत आती हैं | रज – जिसका शाब्दिक अर्थ होता है धूल – से रजस बना है | इस प्रकार किसी भी प्रकार का Powder भी रज ही कहलाता है | इत्र, Perfumes, सूर्य की किरण का एक कण, कोई भी छोटा सा कण यानी Small Particle, बादल, वर्षा, खेती के लिए जोती जा चुकी भूमि, इदासी, अन्धकार, Passion, अभिलाषा, उत्साह, मनोभाव, सभी भौतिक पदार्थों के वे मौलिक गुण अथवा अवयव जिनके कारण समस्त जगत के समस्त प्राणी क्रियाशील रहते हैं | सभी मनुष्यों में यह गुण विद्यमान होता है | लक्ष्य प्राप्ति के लिए इस गुण का होना अत्यन्त आवश्यक है | समस्त प्रकृति में जगत की उत्पत्ति का मूल कारक रज – जिसे Menstrual Discharge कहा जाता है – का प्रतिनिधित्व भी यही गुण करता है | इसके अभाव में संसार की उत्पत्ति ही सम्भव नहीं | कृत्तिका, उत्तर फाल्गुनी, उत्तराषाढ़, रोहिणी, हस्त, श्रवण, भरणी, पूर्वा फाल्गुनी और पूर्वाषाढ़ ये नौ नक्षत्र रजस गुण के अन्तर्गत आते है |
तमस : तमस अर्थात अन्धकार | इसका सबसे बड़ा प्रतीक है कायिक, वाचिक अथवा मानसिक किसी भी प्रकार की क्रूरता | मानसिक अन्धकार यानी अज्ञानता क एलिए इस शब्द का प्रयोग प्रायः किया जाता है | इसके अतिरिक्त किसी को धोखा देना, किसी प्रकार का भ्रम की स्थिति होना, दुःख और कष्ट, किसी प्रकार की व्याधि अर्थात रोग, विचारों में स्पष्टता का अभाव, किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति, भय, क्रोध, किसी प्रकार का दुष्कर्म, घुटन अथवा Uneasiness का अनुभव होना आदि अर्थों में तमस शब्द का प्रयोग किया जाता है | इच्छाओं के आधीन होने के लिए भी इस शब्द का प्रयोग करते हैं | लोकाचार में राक्षसों को तमस वृत्ति का माना जाता है | अश्विनी, मघा, मूल, आर्द्रा, स्वाति, शतभिषज, मृगशिरा, चित्रा, धनिष्ठा, पुष्य, अनुराधा और उत्तर भाद्रपद नक्षत्र इस गुण का प्रतिनिधित्व करते हैं |

नक्षत्रसंज्ञा

१ स्थिरसंज्ञक— रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र स्थिर या ध्रुव संज्ञक है।

२ चलसंज्ञक— पुनर्वसु, स्वाती, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा नक्षत्रों की चल या चर या चंचल संज्ञक है।

३ उग्रसंज्ञक—भरणी, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रों की उग्र (क्रूर) संज्ञक है।

४  मिश्रसंज्ञक— कृत्तिका, विशाखा नक्षत्रों की मिश्र या साधारण संज्ञक हैं।

५ लघुसंज्ञक— अश्विनी, पुष्य, हस्त, अभिजित नक्षत्र लघु या क्षिप्र संज्ञक हैं।

६ मृदुसंज्ञक— मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा और रेवती की मृदु या मैत्र संज्ञक हैं।

७ तीक्ष्णसंज्ञक—आर्दा, अश्लेषा, ज्येष्ठा और मूल नक्षत्रों की तीक्ष्ण या दारुण संज्ञक हैं।

८ अधोमुखसंज्ञक—भरणी, कृत्तिका, पूर्वाफाल्गुनी, विशाखा, मूल, पूर्वाषाढ़, पूर्वाभद्रपद नक्षत्र की अधोमुख संज्ञक हैं। इन   नक्षत्रों का प्रयोग खनन विधि के लिए किया जाता है ।

९ ऊर्ध्वमुखसंज्ञक—आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र ऊर्ध्वमुख संज्ञक हैं। इन नक्षत्रों का प्रयोग शिलान्यास       करने में किया जाता है ।

१० तिर्यङ्मुखसंज्ञक—अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्ठा, नक्षत्र तिर्यडं मुख संज्ञक हैं।

११ पंचकसंज्ञक—घनिष्ठा के तीसरा चौथा चरण, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती नक्षत्रों की पंचक संज्ञक हैं।

१२ मूलसंज्ञक—अश्विनी, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल, रेवती नक्षत्र मूल संज्ञक हैं। इन नक्षत्रों में बालक उत्पन्न होता है तो लगभग २७ दिन पश्चात् जब पुन: वही नक्षत्र आता है, उसी दिन शान्ति करायी जाती है। इनमें ज्येष्ठा और गण्डांत मूल संज्ञक तथा अश्लेषा सर्प मूल संज्ञक हैं।

अन्धलोचनसंज्ञक—रोहिणी, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी विशाखा, पूर्वाषाढ़, घनिष्ठा, रेवती नक्षत्र अन्धलोचन संज्ञक हैं। इसमें चोरी हुई वस्तु शीघ्र मिलती हैं। वस्तु पूर्व दिशा की तरफ जाती है।

मन्दलोचनसंज्ञक—अश्विनी, मृगशिरा, अश्लेषा, हस्त, अनुराधा, उत्तराषाढ़ और शतभिषा नक्षत्र मंदलोचन या मंदाक्ष लोचन संज्ञक हैं। एक मास में चोरी हुई वस्तु प्रयत्न करने पर मिलती है। वस्तु पश्चिम दिशा की तरफ जाती है।

मध्यलोचनसंज्ञक—भरणी, आद्र्रा, मघा, चित्रा, ज्येष्ठा, अभिजित और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र मध्यलोचन या मध्यांक्ष लोचन संज्ञक हैं। इनमें चोरी हुई वस्तु का पता चलने पर भी मिलती नहीं। वस्तु दक्षिण दिशा में जाती है।

सुलोचनसंज्ञक—कृत्तिका, पुनर्वसु, पूर्वाफाल्गुनी, स्वाती, मूल, श्रवण, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र सुलोचन या स्वाक्ष लोचन संज्ञक है। इनमें चोरी हुई वस्तु कभी नहीं मिलती तथा वस्तु उत्तर दिशा में जाती है।

दग्धसंज्ञक—वार और नक्षत्र के मेल से बनता है, इनमें कोई शुभ कार्य प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। रविवार में भरणी, सोमवार में चित्रा, मंगलवार में उत्तराषाढ़, बुधवार में घनिष्ठा, वृहस्पतिवार में उत्तराफाल्गुनी, शुक्रवार में ज्येष्ठा एवं शनिवार में रेवती नक्षत्र होने से दग्ध संज्ञक होते हैं।

मासशून्यसंज्ञक—चैत्र में रोहिणी और अश्विनी, वैशाख में चित्रा और स्वाति, ज्येष्ठ में पुष्य और उत्तराषाढ़, आषाढ़ में पूर्वाफाल्गुनी और घनिष्ठा, श्रवण में उत्तराषाढ़ और श्रवण, भाद्रपद में शतभिषा और रेवती, आश्विन मेंपूर्वाभाद्रपद, कार्तिक में कृत्तिका और मघा, मार्गशीर्ष में चित्रा और विशाखा, पौष में अश्विनी, आद्र्रा और हस्त, माघ में मूल श्रवण, फाल्गुन में भरणी और ज्येष्ठा नक्षत्र मास शून्य नक्षत्र हैं।

नक्षत्रों की भूकंप आदि संज्ञाएँ—

विचारणीय काल में सूर्य जिस नक्षत्र में स्थित हो उस से पांचवें को विद्युत्, सातवें नक्षत्र को भूकंप, आठवें को शूल, दसवें को अशनि, चौदहवें की निर्घातपात  ,पन्द्रहवें को दण्ड,अठारहवें को केतु,उन्नीसवें को उल्का, इक्कीसवें की मोह,बाइसवें की निर्घात,तेइसवें की कंप,चौबीसवें की कुलिश तथा पच्चीसवें की परिवेश संज्ञा होती है इन नक्षत्रों में कार्य आरम्भ करने पर प्रायः सफलता नहीं मिलती |

शुभ नक्षत्र
शुभ नक्षत्र वो होते हैं जिनमें किए गए सभी काम सिद्ध और सफल होते हैं। इनमें 15 नक्षत्रों को माना जाता है – रोहिणी, अश्विन, मृगशिरा, पुष्य, हस्त, चित्रा, रेवती, श्रवण, स्वाति, अनुराधा, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढा, उत्तरा फाल्गुनी, घनिष्ठा, पुनर्वसु।

मध्यम नक्षत्र
मध्यम नक्षत्र के तहत वह नक्षत्र आते हैं जिसमें आम तौर पर कोई विशेष या बड़ा काम करना उचित नहीं, लेकिन सामान्य कामकाज के लिहाज से कोई नुकसान नहीं होता। इनमें जो नक्षत्र आते हैं वो हैं पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, विशाखा, ज्येष्ठा, आर्द्रा, मूला और शतभिषा।

अशुभ नक्षत्र
अशुभ नक्षत्र में तो कभी कोई शुभ काम करना ही नहीं चाहिए। इसके हमेशा बुरे नतीजे होते हैं या कामकाज में बाधा जरूर आती है। इसके तहत जो नक्षत्र आते हैं वो हैं- भरणी, कृतिका, मघा और आश्लेषा। ये नक्षत्र आम तौर पर बड़े और विध्वंसक कामकाज के लिए ठीक माने जाते हैं जैसे – कोई बिल्डिंग गिराना, कब्ज़े हटाना, आग लगाना, पहाड़ काटने के लिए विस्फोट करना या फिर कोई सैन्य या परमाणु परीक्षण करना आदि। लेकिन एक आम आदमी या जातक के लिए ये चारों ही नक्षत्र बेहद घातक और नुकसानदेह माने जाते हैं।
पंचक
आपने पंचक और गंडमूल नक्षत्रों के बारे में भी अक्सर सुना होगा। हमारे घर के बुजुर्ग अक्सर ये कहते हैं कि पंचक लग गया, या पंचक में कोई काम नहीं करना चाहिए या फिर इस बच्चे में गंडमूल दोष है या गंडमूल की पूजा करानी है आदि-इत्यादि। आखिर ये पंचक और गंडमूल या मूल है क्या। पहले जानते हैं पंचक के बारे में।

जब चंद्रमा कुंभ और मीन राशि पर होता है तब उस समय को पंचक कहते हैं। इसे शुभ नहीं माना जाता। इस दौराना घनिष्ठा से रेवती तक जो पांच नक्षत्र (घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद और रेवती) होते हैं, उन्हें पंचक कहते हैं। इस दौरान आग लगने का खतरा होता है, इस दौरान दक्षिण दिशा में यात्रा नहीं करनी चाहिए, घर की छत नहीं बनवानी चाहिए, पलंग या कोई फर्नीचर भी नहीं बनवाना चाहिए। पंचक में अंतिम संस्कार भी वर्जित है।

गंडमूल
उसी तरह गंडमूल या मूल नक्षत्र को भी बेहद अशुभ माना जाता है। दरअसल नक्षत्रों के अलग अलग स्वभाव होते हैं और मूल नक्षत्र के तहत आने वाले आश्विन, आश्लेषा, मघा, मूला और रेवती नक्षत्रों को उग्र श्रेणी का माना जाता है। इन्हें ही मूल, गंडात या सतैसा भी कहा जाता है। जो लोग इसमें पैदा होते हैं, उनका जीवन बेहद उथल पुथल और तनावों से भरा होता है, इसीलिए बच्चों के जन्म के 27 दिन के बाद इसकी पूजा करवाई जाती है और इसके बुरे प्रभावों को खत्म किया जाता है।

वैदिक ज्योतिष में जब भी हम नक्षत्रों की बात करते हैं, हमें इन पहलुओं को जानना जरूरी होता है। साथ ही आपके व्यक्तित्व और स्वभाव का आईना होते हैं ये नक्षत्र। आप मानें या न मानें लेकिन जिस नक्षत्र में आपका जन्म हुआ है, उसका असर कहीं न कहीं आपके व्यवहार, जीवन शैली और व्यक्तित्व पर जरूर पड़ता है।