हस्तक्षेप

– हरीश बी. शर्मा
भारतीय जनता पार्टी में इन दिनों विरोध का स्वर एक नये मुद्दे पर उठ रहा है। इस विरोध का राजनीतिक कारण नहीं बल्कि एक ऐसा कारण है जो अपनी अस्मिता से जुड़ा हुआ है। फिर यह विषय राजनेताओं से ही नहीं बल्कि कार्यकर्ताओं से भी जुड़ा है। हालांकि, यह मुद्दा पूरे देश में उठने की संभावना है, लेकिन राजस्थान में यह सामने आ गया है। मुद्दा है कि कांग्रेस से आए नेताओं को भाजपा में जगह मिलना बल्कि सम्मानजनक जगह मिलना।

अवसरवादिता के इस दौर में एक सामान्य बात है कि कोई भी नेता इधर से उधर हो सकता है। कांग्रेस में यह दौड़-भाग काफी तेजी से देखने को मिल रही है, जिसके चलते पिछले दिनों मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ तक के भाजपाई होने कयास लगा लिए गए थे। इससे पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया और जतिन प्रसास के भाजपाई होने के बाद सचिन पायलट के भी भाजपा में जाने की अटकलें तेज हो गई थीं। इनकी वजह हेमंत बिसवा जैसे कांग्रेसी का भाजपा में शामिल होकर फिर से मुख्यमंत्री बन जाना था।

यह तो राष्ट्रीय स्तर के चुनिंदा घटनाक्रम थे। स्थानीय स्तर पर तो ऐसे कई उदाहरण सामने आए, जिसमें अनेक कांग्रेसी नेताओं ने भगवा दुपट्टा ओढऩे में कोताही नहीं बरती। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के बाद तो इस तरह की घटनाएं तेजी से बढऩे लगी। भाजपा का बढ़ रहा विजय-रथ कमजोर दिल के कांग्रेसी नेताओं के लिए इस बात का डर बिठाने के लिए पर्याप्त था कि पांच साल कैसे निकलेंगे।

पांच साल में नेतागीरी खत्म होने की आशंका में बहुत सारे कांग्रेसी नेताओं ने भाजपा के नेताओं की पूंछ पकड़कर वैतरणी पार करने की युक्ति अपनाई और सफल भी रहे। लेकिन गुरुवार को चित्तौडग़ढ़ की रावतभाटा नगर पालिका में  में पालिका उपाध्यक्ष सहित छह पार्षद भाजपा में शामिल हो गए हैं। इस पर रावतभाटा के भाजपा कार्यकर्ताओं में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस तरह अगर कांग्रेस के लोगों को शामिल किया जाता रहा तो फिर भाजपा के कार्यकर्ताओं की जरूरत ही कहां रही।
कायदे से देखा जाए तो भाजपा के कार्यकर्ताओं का विरोध सही भी है। भाजपा के कार्यकर्ताओं ने इस पार्टी को बनाने में काफी मेहनत की है, लेकिन मलाई खाने के लिए अगर कांग्रेस के कार्यकर्ता और नेता पहुंचने लगे हैं तो प्रतिक्रिया तो होनी ही है।

इस प्रतिक्रिया का असर राष्ट्रीय स्तर पर पड़ेगा या नहीं, यह दीगर है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे अवसरवादियों को भाजपा में शामिल करना भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन जाएगा। सारे दिन एक जैसे नहीं रहते। कल अगर भाजपा हारने लगी तो यही वे नेता होंगे जो सबसे पहले कूदकर दूसरे दलों में शामिल होंगे। इससे बेहतर है कि भाजपा अपने स्तर पर एक नीति बनाए और अगर कोई भाजपा में शामिल होता भी है तो उसे राजनीतिक लाभ देने से पहले यह तय करे कि इस लाभ का वास्तविक दावेदार भाजपा में है या नहीं। बेशक राजनीति में जीत के मायने हैं, लेकिन पार्टी के लिए खून-पसीना लगाने वाला कार्यकर्ता सर्वोपरि रहना चाहिए। कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया, जिसका परिणाम सामने है। कांग्रेस अगर अपने कार्यकर्ताओं का कद्र करती तो उसे ये दिन नहीं देखने को मिलते। भाजपा अगर कुछ बनी है तो कार्यकर्ताओं के आधार पर ही।

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