हस्तक्षेप

– हरीश बी. शर्मा

लोकसभा चुनाव में इन दिनों यह बात तो हो रही है कि कौन जीतेगा या कौन हारेगा, लेकिन इस बात पर चर्चा करने के लिए कोई तैयार नहीं है जनहित के मुद्दों पर आखिर कब चुनाव होंगे। जो किसी भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया की सबसे बड़ी शर्त होती है कि ऐसे प्रत्याशी का चयन किया जाए, जो जनहित के मुद्दों को तरजीह देने वाला हो। इस लोकसभा चुनाव में तो तस्वीर ही अलग सामने आ रही है। अवसरवादी नेताओं के चेहरे जिस तरह से बेनकाब हुए हैं, पहले कभी नहीं हुए। हालांकि, इससे पहले भी नेताओं का अपनी पार्टी से मोह-भंग हुआ होगा, लेकिन इस तरह के हालात पहली बार पेश आए जब नेताओं में भगदड़ मची हुई है।

पिछले विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस ने जिस तरह राजस्थान के अलावा छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश जीता, उसके बाद से माहौल ही बदल चुका है। ऐसे में इस विषय पर कौन बात करे कि ऐसे प्रत्याशी का चयन किया जाए, जो जनहित के मुद्दों पर काम करता हो। भाजपा ने इस पूरे चुनाव को पूरी योजना के साथ लड़ा है, जिसमें मतदाताओं को पूरी तरह से राष्ट्रीय मुद्दों पर मतदान करने के लिए प्रेरित किया है।

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भाजपा की केंद्र सरकार ने पिछले पांच सालों में अपने वादों को पूरा किया। राममंदिर से लेकर कश्मीर से धारा 370 हटाने सहित ऐसे अनेक मुद्दों को राष्ट्रीय कहकर प्रचारित किया गया, ताकि आम देशवासी अपने घर, शहर या समाज की समस्या पर बात ही नहीं कर सके।
दुखद तो यह रहा कि कांग्रेस भी इस मुद्दे पर जनता को नहीं जगा सकी। उनकी जेएनयू के सिपहसालारों की टीम को यह पता ही नहीं चला कि जनता उन्हें तरजीह नहीं दे रही है और उन्होंने राहुल गांधी को पहले ‘भारत जोड़ो यात्राÓ और फिर ‘भारत न्याय यात्राÓ के लिए तैयार कर लिया। इन दो सालों में अगर राहुल गांधी देश की वास्तविक जनता से मिलने में अपना समय लगाते तो अच्छे परिणाम मिल सकते थे, लेकिन राहुल गांधी, कांग्रेस और जनता के बीच ऐसा फासला बना कि लोग असमंजस में पड़े रहे। प्रारंभिक दौर में तो राहुल गांधी का पद नहीं लेने का फैसला ही कांग्रेस के लिए मुश्किलों भरा था। फिर अध्यक्ष पद का चुनाव और फिर विधानसभा चुनावों में हारने के बाद भी सीख नहीं लेने की जो जिद चली, उसने भाजपा के कमल को और अधिक खिलने का अवसर दिया और अब अगर भाजपा का कोई भी नेता स्थानीय मुद्दों पर नहीं बोल रहा है तो इसके लिए भाजपा को दोष देने की बजाय कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए कि उसने जनता को देश में सशक्त विपक्ष होने का अहसास भी नहीं होने दिया।

ऐसे में अगर भाजपा ने देश के आम चुनावों को राष्ट्रीय मुद्दों पर खड़ा करने में सफलता पाई है तो इसे भाजपा की रणनीतिक चतुराई तो कहा जा सकता है, लेकिन कांग्रेस को इसके लिए माफ नहीं किया जा सकता। भाजपा ने आम लोगों के मन में यह भाव बना दिया है कि लोकसभा चुनाव के लिए मतदान नेतृत्त्व के नाम होना चाहिए और इस रूप में देखा जाए तो सारा चुनाव नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा जा रहा है। कांग्रेस इस तरह का भरोसा नहीं जगा पाई और राहुल गांधी का परिदृश्य से गायब रहना इस बात का प्रतीक है कि खुद ने भी भरोसा खो दिया।

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