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मधु आचार्य ‘आशावादी’  मोबाइल नंबर- 9672869385

नाटक, कहानी, कविता और जीवनानुभव पर 72 पुस्तकेंं हिन्दी और राजस्थानी में लिखी हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार संगीत नाट्य अकादमी का निर्देशन पुरस्कार, शम्भु शेखर सक्सैना, नगर विकास न्यास के टैस्सीटोरी अवार्ड से सम्मानित।

व्यंग्य : तीन मीहने में खेमा बदली

– यार हासिम सुनो तो।

– कहिए नवाब साहब।

– जरा साइकिल के ब्रेक लगाओ।

– अभी लगाता हूं।  हासिम ने साइकिल के ब्रेक लगाए। नीचे उतरा।

– आदाब।

– अम्मा इतनी जल्दी क्या है जाने की?

– बस, किसी से मिलने जा रहा था।

– हमारी आधा कप चाय तो पीते जाओ।

– जरूर। दोनों पास में बनी ताई की चाय की थड़ी पर पहुंच गए। ताई सडक़ के एक कोने में चाय की दुकान लगाती थी। साहित्य के घुड़सवार यही आधा कप चाय में तीन घंटे निकालते थे। किसी पट्टी पर बैठ जाते या बैंच पर। ताई की दुकान के यह लोग शोभा थे। ताई इनको बैठने के बाद उठने का नहीं कहती थी। उसके अपने कारण थे। इनके बैठे रहने से दुकान चलने वाली है, यह समझा जाता था। नवाब के मन में था कि एक दिन ताई से इस थ्योरी को जानेगा। हासिम और नवाब ताई की दुकान तक पहुंच गए। एक बैंच पर दोनों बैठ गए। ताई की दुकान पर उस समय ग्राहकी नहीं थी। नवाब ने कट चाय का ऑर्डर दिया और सीधे ताई से सवाल कर लिया। – ताई, कई दिनों से एक बात पूछना चाह रहा था।

– अरे, तो पूछा क्यों नहीं?

– तुम काम में लगी रहती हो ना?

– चलो, अभी पूछ लो।

– तुम्हारी दुकान पर यह साहित्यकार घंटों बैठे रहते हैं, एक बार चाय पीते हैं। तुम इनको उठने के लिए क्यों नहीं कहती हो। ताई मुस्करा दी।

– अपनी थ्योरी बताओ ना ताई।.

– देख बेटा, मैं इनको नहीं बैठने दूंगी तो यह कहां बैठेंगे। हर एक तो इनको बैठने की जगह देता नहीं है।

– सही है।

– दूसरे दुकान हर समय भरी दिखती है, मुझे अच्छा लगता है।

– तीसरी बात भी है।

– वो क्या?

– जब हम चाय, पान जैसी दुकानें खोलते हे तो उसकी सजावट करते हैं।

– बिल्कुल करते हैं।

– टीवी लगाते हैं। स्टीरियो बजाते हैं। रोशनी करते हैं। कागज के फूल से सजाते हैं।

– हां, यह सब तो करते हैं।

– सजावट पर हमारा खर्च भी लगता है। ताकि ग्राहक उनमें रौनक देखें।

– बिल्कुल ठीक।

– यह सभी साहित्यकार मेरी सजावट है। क्योंकि दूसरी चीजें मैंने रखी हुई नहीं है। अब सजावट को हटाया नहीं जाता। न उठने के लिए कहा जाता है। ताई की इस बात पर नवाब व ताई खूब हंसे। नवाब को थ्योरी समझ आ गई।

– चलो ताई, हमारे लिए चाय बना दो।

– अभी बनाती हूं। ताई चाय बनाने लग गई। नवाब अब हासिम की तरफ मुड़ा।

– हासिम भाई, क्या खबरें हैं।

– अभी तक कुछ खास नहीं।

 – यार, हमसे क्यों छुपाते हो।

– अरे नहीं नवाब, तुमसे क्यों छिपाऊंगा।

 – छुपा तो रहे हो।

– मुझे तो खबर पता नहीं। तुम्हें पता हो तो बताओ।

– तुमने खेमा बदल लिया, यह कोई कम बड़ी खबर है क्या? हासिम मुस्करा दिया।

– इसमें बड़ी खबर कैसे हुई।

– भई तुम जिस खेमे में जाते हो वहां की जरूरत बन जाते हो। लोगों को कार्यक्रम में आने के लिए फोन करना। आयोजन स्थल पर पर्दा टांगना। आयोजन के बाद प्रेस विज्ञप्ति सब अखबारों को भेजना। दूसरे दिन छपी खबरों की कटिंग काटकर खेमे के नेताजी को देना। पूरा काम तुम्हारे ही जिम्मे रहता है। तुम काम के आदमी हो इसलिए  तुम्हारा खेमा बदलना बड़ी खबर है। – भई तुम जिस खेमे में जाते हो वहां की जरूरत बन जाते हो। लोगों को कार्यक्रम में आने के लिए फोन करना। आयोजन स्थल पर पर्दा टांगना। आयोजन के बाद प्रेस विज्ञप्ति सब अखबारों को भेजना। दूसरे दिन छपी खबरों की कटिंग काटकर खेमे के नेताजी को देना। पूरा काम तुम्हारे ही जिम्मे रहता है। तुम काम के आदमी हो इसलिए  तुम्हारा खेमा बदलना बड़ी खबर है।  हासिम मुस्करा दिया।

– नवाब साब, चुनाव चाहे पालिका के हो या लोकसभा के, नेता दल बदलते हैं। उनको तो कोई कुछ नहीं कहता। सामान्य अदला-बदली मानते हैं।

– वो राजनीति है और यह साहित्य, फर्क है।

– साहित्य में कौनसी राजनीति नहीं होती।

– मुझे ज्ञात नहीं।

– भोले मत बनो नवाब।

– पर तुमने तो खेमा बदला है ना? क्यों? यही पूछ रहा हूं। चाय की एक चुस्की लेकर हासिम ने अपना सिर गर्व से उठाया। उसे लगा मैं भी साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण हस्ती हूं। भले ही उसकी एक भी पुस्तक नहीं छपी थी। संयुक्त संकलनों में ही आया था। गर्वानुभूति से उसने जवाब दिया।

– अली साहब के साथ रहकर क्या करता मैं। प्रतिभा कुंठित हो रही थी।

– कैसे?

– इस हफ्तेे किस कवि को बुलाना है? क्या आयोजन करना है? इन पर मेरी राय भी नहीं लेते थे। खुद निर्णय कर केवल आदेश सुनाते थे।

– यह तो गलत बात थी।

– इसके अलावा भी एक शिकायत थी।

– वो क्या?

– 50 से अधिक कवियों का काव्य पाठ करा लिया, जिसमें खुद भी शामिल थे। इसके बावजूद मेरा एकल काव्य पाठ नहीं रखवाया। तब साथ रहकर क्या करें? सारा काम तो मैं ही करता था, इस खेमे को मूलत: मैं ही चलाता था।

– इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता।

 – बस, इसीलिए खेमा छोड़ दिया। – तो अभी किस खेमे में हो।

– उस्ताद अमीलाल के खेमे में आ गया।

– अच्छा, वो जो केवल सुबह ही काव्य गोष्ठी आयोजित करते हैं।

– हां। सुबह काम खत्म और दिनभर फ्री। ज्यादा समय भी बर्बाद नहीं होता।

– बात में दम है।

– इसके अलावा भी उनकी खासियत है।

– वो क्या?

– नए लोगों को प्रोत्साहन देना। उनके साथ आते ही उस दिन प्रात:काल मेरा एकल काव्य पाठ रखा। सम्मान में शॉल ओढ़ाया। सम्मान पत्र दिया। बहुत अच्छी कवरेज आई अखबारों में। अब तो उस्ताद अमीलाल के साथ ही रहूंगा।

– ठीक निर्णय किया। जब कोई प्रतिभा का सम्मान न करे तो उसके साथ रहने का फायदा नहीं। खेमा बदलने में ही सार है। हासिम ने चाय पीकर खाली कप वहीं रख दिया।

– हमें तो नवाब, साहित्य से मतलब है। शब्दों की तपस्या करते हैं। जहां शब्द को मान मिलता है वहां ठहरते हैं।

– शब्दों की साधना करनी होती है। उस साधना में कोई बाधा डाले तो खेमा बदलना ही पड़ता है। आपका काव्य पाठ न रखवाना शब्द का अपमान था। अपमान वाली जगह को त्यागना ही तपस्वी का गुण है। अपनी इस तारीफ से हासिम फूल कर कुप्पा हो गया। गर्व की अनुभूति हुई। नवाब ने बात आगे बढ़ाई।

– तो भाई, अब तो अमीलाल उस्ताद के ही साथ रहोगे।

– जहां शब्द की पूजा वहीं अपना डेरा। अब यहीं धुनी रमाएंगे। काव्य तपस्या करेंगे। उस्ताद अमीलाल आदमी भी बहुत अच्छे हैं। जब इनके साथ आया तब यह जाना।

– उन्होंने भी तुम्हारे जिम्मे सारा काम कर दिया होगा?

– यह तो मेरी काबलियत है। मेरे जैसा दूसरा आदमी ढूंढने पर भी नहीं मिलता।  इतना कहकर हासिम मुस्करा दिया।

– नवाब, अब चलूंगा।

– कहां,

– इस हफ्ते की काव्य गोष्ठी के लिए अध्यक्षता करानी है, उस्ताद ने नरेश जी का नाम बताया है। मेरी भी यही सलाह थी। उन्हें निमंत्रण देने जा रहा हूं।

– ठीक है भाई, जरूरी काम है ये तो।

नवाब ने सोचा घर चला जाए। फिर सोचा घर में कोई है तो नहीं, यही बैठकर समय बिताते है। कोई न कोई तो आ ही जाएगा थोड़ी देर में। नवाब वहीं बैठा रहा, उठा नहीं। अंजान व्यक्ति की इंतजारी में बैठा ही रहा। नवाब ने सोचा घर चला जाए। फिर सोचा घर में कोई है तो नहीं, यही बैठकर समय बिताते है। कोई न कोई तो आ ही जाएगा थोड़ी देर में। नवाब वहीं बैठा रहा, उठा नहीं। अंजान व्यक्ति की इंतजारी में बैठा ही रहा। उसे लंबा इंतजार नहीं करना पड़ा। अली साहब आ गए। हासिम पहले इन्हीं के खेमे में था। नवाब को अकेला देखकर उनकी बांछे खिल गई। वो किसी के साथ भी सीटिंग करते थे तो उसे चार घंटे लगते थे। रिटायर्ड थे, इसलिए पूरे टाइम खाली थे। आयोजन करते और लोगों के पास जाकर लंबी-लंबी गप्पे हांकते। काफी पहले दो पुस्तकें लिखी थीं, अभी तक उसकी ही जुगाली कर रहे थे। नया लिखने का उनके पास टाइम ही नहीं था।  अली ने नवाब को देखते ही आवाज लगाई

– अरे नवाब, साहित्य में अनुरागी, दर्शकों का पथ प्रदर्शक। कई दिनों बाद दिखा।

– नमस्कार अली भाई। पर आप हमेशा इतने विशेषण क्यूं लगाते हैं। भले ही लोग उन्हें न जानते हो। आप अपने कार्यक्रम में भी ये विशेषण बुलवाते हो, दूसरे आयोजक तो नहीं बोलते।

– मैं मेरी जानता हूं, दूसरों की नहीं। मैं लगाता हूं तो दो अखबार भी उनको छाप देता है। जो लगाए उसका भला, जो न लगाए उसका भी भला। मुझे तो लगाना है, मेरे को कोई रोक नहीं सकता।

– हां, साहित्य में कोई सीआरपीसी तो है नहीं। विषय भी नहीं बने।

– कभी बन भी नहीं सकते।

– लोग बनने ही नहीं देंगे।  इस बात पर दोनों ही हंसने लगे। अली ने अपना तकियाकलाम हंसी के बाद दोहराया।

– मस्त रहो मस्ती में, आग लगे बस्ती में।

– आपका जीवन दर्शन अनूठा है।

– तभी जी रहे हैं, नहीं तो कुंठा से मर जाते। अब चाय तो पिलाओ। नवाब ने ताई को कट चाय का ऑर्डर दिया। चाय आने पर दोनों ने पीना आरंभ कर दिया। बात को नवाब ने आगे बढ़ाया।.

– एक बात पुछूं।

– अवश्य।

– ये हासिम भाई आपका खेमा छोडक़र कैसे चले गए? इस सवाल पर अली मुस्कुराया।

– भई उसकी ख्वाहिशें बड़ी थी, जो मैं पूरा नहीं कर सकता।

– क्यों?- अपनी पूरी करुं या उसकी।

– यह भी वाजिब बात है।

– इसका सच बताऊं।

– बताओ।

– हासिम खुद खेमा छोडक़र नहीं गया, मैंने उसे भगाया है।  नवाब के लिए यह रहस्योद्घाटन था।

– क्या बात करते हो।

– उसे सब अपने लिए चाहिए और मुझे सब अपने लिए। एक म्यान में दो तलवारें कैसे रहे।

– रह भी नहीं सकती।

– मैंने एक तलवार निकालकर फैंक दी। कोई नया हासिम आएगा। अपनी दुकान तो यूं ही चलेगी। महीेने में सात आयोजन करता हूं। सबको मंच चाहिए।

– आपकी बात में दम है। साहित्य में मंच मिलना ही तो बड़ी बात है।

– सही समझे। तूं नहीं और सही, जिसको कुछ चाहिए वो पास आए।

– साहित्य में आपकी अलहदा ही थ्योरी है।

– यही मेरी खास पहचान है।  चाय समाप्त हो गई थी। दोनों ने कप रख दिए। इस बार नवाब उठकर खड़े हो गए।

– अरे नवाब क्या हुआ?

– घर जाना है।

– इतनी जल्दी क्या है।

– पत्नी ने बाजार से सामान लाने के लिए कहा था, भूल गया। अचानक याद आया।

– भई तब हम आपको रोक नहीं सकते।

– अच्छा, चलता हूं नमस्कार। नवाब वहां से निकल लिया। अगर नहीं निकलता तो उसे 4 घंटे अली को झेलना पड़ता। जो संभव ही नहीं था। अनमने मन से वो घर पहुंचा। सीधे बिस्तर पर आकर बैठ गया। साहित्य की खेमेबंदी के बारे में सोचने लगा।

यहां तो राजनीति से भी बुरी हालत है। राजनीति में दल-बदल कानून बना हुआ है। दल बदलने पर एमएलए, एमपी की सदस्यता समाप्त हो जाती है। यहां तो खुल्लेआम तीन महीने में ही खेमा बदल लिया जाता है। हासिम ही नहीं अनेक लोग हैं जो खेमा बदलते ही रहते हैं।
राजनीतिक दलों के अध्यक्षों की तरह यहां भी बस खेमाध्यक्ष नहीं बदलते। उनके शार्गिद ही बदलते रहते हैं। मजे की बात तो यह है कि इन खेमाध्यक्षों को नित नए शार्गिद मिल ही जाते हैं। कवि बनने, छपने की चाह आजकल फैशन बनी हुई है। युवक, युवतियां और खासकर महिलाओं में इस तरह की चाह वालों की संख्या बहुत ही ज्यादा है। इसके कारण ही खेमाध्यक्षों की सल्तनत चल रही है। किसी के जाने पर इसीलिए इनको ज्यादा तकलीफ नहीं होती।
यह खेमाध्यक्ष ‘यूज एंड थ्रो’ की नीति पर चलते हैं। जो आया उसका उपयोग करो और फिर उसको धक्का दे दो। इन पर सीआरपीसी की तरह 420 धारा का मुकदमा ही नहीं होता। क्योंकि न तो साहित्य की धाराएं बनी हुई है और न कोई बनाने की बात करता है। मठाधीश तो खेमाध्यक्ष ही है।
हां, इन खेमाध्यक्षों की एक और खासियत है। यह अलग-अलग दिखते हैं। मौका मिलने पर सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे की आलोचना करते हैं, पर एकांत में घंटों बैठकर बातें करते हैं। मिले हुए रहते हैं एक दूसरे से। लोगों की मूर्खता पर हंसते हैं मिलकर। यदि कोई देख ले तो उसे साहित्य की शिष्टाचार भेंट बताते हैं। इसको भी सीआरपीसी नहीं होने के कारण गैंगवार नहीं माना जाता।
विचलित मन से नवाब ने साहित्य की इन विसंगतियों पर विचार करना ही बंद कर दिया। अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या में लग गया। समय बीतता गया। ठीक तीन महीने बाद नवाब को मुख्य बाजार में हासिम नजर आ गया। नवाब को देखते ही हासिम की बांछे खिल गई । दूर से ही आवाज लगाई।
– नवाब साहब।
नवाब ने चौंककर देखा, सामने हासिम था। हासिम लगभग रेस में भागीदारी की तरह अपनी साइकिल चलाते हुए उनके पास पहुंचा। पास आकर ब्रेक लगाए और सांस ली।
– आदाब नवाब साहब।
– आदाब। इतनी जल्दी में कैसे हो भाई।
– आपको ही तलाश रहा था।
– मुझे? क्यों भाई।
– बताता हूं। पहले चलो तो सही।
– कहां चलूं?
– ताई की दुकान।
– क्या है वहां?
– अरे, मैं आपको आज चाय पिलाऊंगा।
– आज सूरज गलत दिशा में उग गया क्या?
– मजाक नहीं, सच में चाय पिलाऊंगा।
– चलो।
दोनों ताई की दुकान पर आ गए। हासिम ने कट चाय का ऑर्डर दिया। दोनों एक खाली पड़ी बैंच पर बैठ गए। बात हासिम ने शुरू की।
– आपको एक खुशखबरी देनी थी।
– अरे वाह! जल्दी बताओ।
– मैंने उस्ताद अमीलाल का खेमा छोड़ दिया है।
– ये लो, यह कौनसी नई बात है। हर तीन महीने में तुम खेमा बदलते ही हो। नेताओं की तरह तुम साहित्यकारों पर दलबदल का कानून तो लागू होता नही।
हासिम मुस्करा दिया।
– खेमा छोड़ा ही नहीं, यह भी तय कर लिया कि अब किसी खेमे में नहीं जाऊंगा।
– यह तो तुम पहले भी दो बार कह चुके हो।
– इस बार फाइनल निर्णय है। किसी खेमे में नहीं जाऊंगा।
– इतना कठोर फैसला? देखते हैं कब तक टिकते हो।
– देख लेना।
– अच्छा एक बात बताओ।
– क्या?
– तुमने उस्ताद अमीलाल का खेमा छोड़ा या उन्होंने तुमको निकाला।
– उसकी क्या औकात जो मुझे निकाल दे। पर आप ये सवाल क्यों कर रहे हो।
– अली ने एक दिन मुझे बताया कि उसने खेमा नही छोडा़, मैंने उसको निकाला है। इसलिए पूछा की कहीं उस्ताद अमीलाल भी यही बात न कह दे।
– दोनों झूठे हैं। एक नंबर के मक्कार। स्वयंमुग्धा नर। खुद के अलावा कुछ पसंद ही नहीं। साहित्य के नाम पर पैसा कमाते हैं। दुकान चलाते हैं साहित्य की।

– पहले तो तुम भी इन दोनों की तरफदारी करते थे। तारीफों के पुल बांधते थे।
– खेमे के भी अपने कानून-कायदे होते हैं, उसमें ही सब बोलता था।
– गलत को स्वीकारना या प्रोत्साहित करना भी गलत की श्रेणी में आता है। क्योंकि साहित्य में पूरा व्यवहार व्यैक्तिक नैतिकता पर होता है।
– मानता हूं इसे। पहले गलती पर था।
– अब गलती सुधार रहा हूं। फाइनल है कि कोई खेमा ज्वाइन नहीं करूंगा।
– ऐसा कठोर निर्णय कैसे संभव हुआ?
हासिम अब गंभीर हो गया। बड़े साहित्यकारों जैसी मुद्रा बनाई। स्वर भी गंभीर हो गया।
– नवाब भाई, सब का अंधेरा ढोते-ढोते मैंने अपना ही एक खेमा बनाने का निर्णय कर लिया है।
नवाब को जैसे 440 वोल्ट का करंट लगा हो।
– क्या कह रहे हो।
– सही कह रहा हूं। खेमे में दो लोग शामिल भी हो गए हैं।
– कौन?
– एक तो नमकीन बनाने की दुकान में काम करता है।
– पाक साहित्य का आदमी है क्या?
– नहीं। वो गजल बहुत अच्छी लिखता है।
– पढ़ा लिखा है?
– हां। मेरी तरह आठवीं पास है। साहित्य में पढ़ाई नहीं अनुभव, भाव काम आते हैं। इस मामले में वह अनेक साहित्यकारों से आगे हैं।
– वाह। और दूसरा।
– दूसरा एक मैकेनिक है।
– उसे भी गहरा अनुभव होगा?
– हां। धीरे-धीरे दूसरे लोग भी जुड़ जाएंगे।
– कैसे जुड़ेंगे।
– मैं महीने में 10 आयोजन करूंगा। सबको मंच दूंगा। अब मुझे खेमा चलाने का अनुभव हो गया। तीन खेमों में रहकर सब कुछ निकट से देख लिया।
– इसे खेमा अनुभव कह सकते हैं।
– तुम देखना, आने वाले दिनों में मेरा ही खेमा शहर में नजर आएगा।
– तुम्हारा खेमा बन जाने से साहित्य का क्या भला होगा।
– मैं भी साहित्यकार के रूप में स्थापित हो जाऊंगा।
– मैंने पूछा, साहित्य का क्या भला होगा। मतलब तुम्हारे साहित्य को क्या मिलेगा।
– एक बात गंभीरता से सुन लो नवाब, साहित्य में लिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण दिखना है। दिखना खेमे से ही संभव है।
नवाब कुछ नहीं बोला। साहित्य की इस नई परिभाषा पर वो पछतावा ही कर सकता था। झटके से खड़ा हुआ।
हासिम भाई तुम्हें शुभकामनाएं। चलता हूं। साहित्य के लिए दुआ करूंगा। नवाब ने हाथ जोड़े और हासिम को अकेला छोड़ चल दिए।

 

अवि साईं

अध्ययन के साथ-साथ हिन्दी साहित्य लेखन में रुचि, विशेष रूप से कविता लेखन, साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशन

कविता : “नारी का सम्मान–हमारा उत्थान”

आज पुरुष प्रधान समाज में नारी ,क्यों नहीं बराबर हक पाई है।

कहते हैं नर नारी एक समान ,पर फिर भी सदियों से यही लड़ाई है।

हर क्षेत्र में नारी अव्वल, नारी क्या कुछ नहीं कर पाई है।

साड़ी में सिमटी वह नारी ,कई बार बिना दोष के शर्मसार होती आई है।

आजकल का दौर, समय का पासा कहां पलट पाई है।

पुरुषों का है काम यहां ,क्यों नारी की हुई छंटाई है।

कसूर क्या नारी होना है ,यह वह खुद भी ना समझ पाई है।

घर गृहस्थी के कामकाज ,बस क्या इतने में उसकी दुनिया समाई है।

सहनशीलता तो काबिले तारीफ ,जो बिन बात के ताने सुन पाई है।

बहन तनया आया भार्या ,सब कुछ नारी की ही पाई पाई है।

यह पाई जुड़कर ही रिश्ता बनाती ,क्योंकि नारी इस संसार में आई है।

कविता : हाय रे कोरोना

खुलेआम बेफिक्री की मदमस्तियो को कोरोना ने जकड़ लिया है ,

जागरूक नागरिक सुरक्षित, बिना मास्क वालों को कोरोना ने पकड़ लिया है।

गरीब अमीर में भेद न करता हर एक को ये छूता है , अर्थव्यवस्था डुली हुई है आज कौन सा देश कोरोना से अछूता है।

अपने स्वास्थ्य के प्रति तुम करो ना समझौता,

2 गज की दूरी बना लो क्यों देना है कोरोना को न्यौता।

कोटगेट में भरा यह खचाखच बाजार,

पर्याप्त दूरी के बिना कैसे होगी कोरोना की हार,

समय रहते गौर फरमा लो आंकड़ा हो रहा लाखों पर।

जाने जाती हजारों हैं हर दूसरा कोरोना पॉजिटिव आया है,

महामारी का यह सिलसिला विश्वव्यापी स्तर पर मंडराया है ।

कोरोना का उद्भव हुआ है मांसाहार से,

इस आहार से बचो नहीं तो कोई न बच पाएगा कोरोना के वार से।

लॉकडाउन के इस दौर में सब बिखरे उखड़े से रहते थे,

भाग कोरॉना भाग़ कहते बालकनी में दीए लिए खड़े रहते थे।

इस corona काल ने किसी किसी के हुनर को जगाया है,

और कुछ ऐसे भी हैं जिनको महामारी ने खूब उबाया है।

सेनेटाइजर लेकर अब हम अपने ही पहचान वालों पर छिड़कते हैं,

भीड़ भाड़ वाली जगह से बचते हाथ मिलाने से भी दूर खिसकते हैं।

उचित नियमों का पालन करोगे तो बच जाओगे कोरोना महामारी से,

अन्यथा परिणाम भयावह होगा दुनिया सारी से,

सेनेटाइजर,मास्क,पर्याप्त दूरी,अंत में जीत हमारी है।

डॉ. प्रमोद कुमार चमोली  मोबाइल नंबर- 9828600050

नाटक, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, स्मरण व शैक्षिक नवाचारों पर आलेख लेखन व रंगकर्म जवाहर कला केन्द्र की लघु नाट्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान। अब तक दो कृतियां प्रकाशित हैं। नगर विकास न्यास का मैथिलीशरण गुप्त सम्मान

कुछ पढते.. कुछ लिखते…  (लॉकडाउन के दौरान लिखी गई डायरी के अंश)

अपने भीतर के कृष्ण की खोेज

सुबह का मौसम खुशगवार था। आज सुबह उठने के बाद कल जैसी अन्मयस्कता नहीं थी। प्री-डिसाईडेड अनुशासन के तहत कल रात सोने से पहले आज के काम तय कर लिए थे। आज मुझे सबसे पहले कुछ दो पुरानी कहानियों में आवश्यक सुधार करने थे ये भाई मदन गोपाल लढ़ा ने सुझाए थे। गीता के अध्याय 5 का भी अध्ययन करना है।
बहरहाल सुबह की चाय के साथ आज के समाचार पत्रों पर दृष्टिपात किया तो ज्ञात हुआ कि पैदल चलने वाले लोग अभी तक पैदल ही चल रहे। कुछ लोग पैदल चलते-चलते इस दुनिया से भी चले गए। ये लॉकडाउन में आने वाली समस्या के पीछे दूरदृष्टि के अभाव को प्रदर्शित कर रही थी। खैर, हर बड़े काम में कुछ कमियां रह जाती है। पूर्वानुमान शायद किसी को नहीं था कि हमारे बड़े शहरों में इतने लोग बेघर हैं। जो या तो अपने कार्यस्थलों यथा-दुकानों, कारखानों या सड़कों पर रहते हैं। प्रयास जारी है जो जहां है वहां रूकने का नाम नहीं ले रहा है। सबको घर पहुँचना है। आखिर घर ही तो वह जगह है जहां सुकुन मिलता है। भारतीय जनमानस में समाज की संरचना जटिल किंतु सद्भावना पूर्ण है। यहाँ परिवार की बुनियाद समझौता नहीं है वरन् एक कर्त्तव्य, जिम्मेवारी और सुरक्षा का अहसास है। शायद यही अहसास परिवार के पास जाने की तीव्र उत्कंठा का परिणाम है जो पैदल चलने से पैरों में पड़े छालों को भूल निरंतर चलता जा रहा है।
आज दैनिक भास्कर, बीकानेर में ‘डायरी खामोश शहर में डर का शोर’ कॉलम में डॉ. मदन केवलिया का आलेख ‘‘दृढ़ इच्छाशक्ति से समाप्त होगा कोरोना का काला अध्याय’ प्रकाशित हुआ है। डॉ. केवलिया के कृतित्व शोध के उपरांत ही मुझे डॉक्टर ऑफ फिलासफ़ी की उपाधि प्राप्त हुई है। वैसे ये मेरे बचपन के सहपाठी शरद के पिता भी है। इसलिए एक आत्मिक जुड़ाव महसुस करता हूं। इस आलेख का अपना लालित्य है। डॉ. मदन केवलिया के कोराना पर कुछ दोहे कल युगपक्ष में छपे थे। उन्हीं का संयोजन करते हुए इस आलेख की निर्मिति हुई है। इस आलेख में एक दोहे का उल्लेख करना चाहूँगा।
बुढिया नब्बे साल की, लेकर कुछ सामान।
दिल्ली से पैदल चली, जाना राजस्थान।।
इस दोहे को पढ़कर यह अनुमान करना मुश्किल नहीं है कि लॉकडाउन के कारण उभरे पलायन और पैदल चलने की मजबुरी ने किस तरह से सभी संवेदनशील लोगों को आहत किया है। इसे पढ़कर सोशियल मीडिया पर पैदल जाती उस वृद्ध महिला की मार्मिक तस्वीर का आंखों के आगे आना स्वाभाविक ही है।
अखबार को छोड़ अपने नित्यकर्म को पूर्ण करने के उपरांत अंदर आया तो मोबाइल घनघना रहा था। घर पर मेरी सबसे प्रिय दोनो गुडियाएँ टीवी देख रही हैं। उनका प्रेम भरा उलाहना मिला कि ताऊजी आप अपना फोन अपने पास रखा करो। दूसरी बार कॉल आ रही है। मैंने देखा तो मधुजी भास्कर कॉलिंग स्क्रीन पर उभर रहा था। फोन उठाया तो भाईसाहब का उलाहना था कि ‘तू फोन नहीं उठाता और स्विच ऑफ रखता है। कल भी फोन किया था। स्विच ऑफ था।’ उनका उलाहना इतना आत्मिक था कि अन्दर तक भीग गया। अब उन्हें क्या बताता कि मूूढ़ ऑफ था इसलिए फोन भी ऑफ था। खैर, भाईसाहब ने आदेश दिया कि भास्कर में डायरी पढ़ रहा है कि नहीं। मैंने हाँ कहा और दो दिन की डायरी के बारे में बता दिया। अब उनका कहना था कि कल तेरी डायरी आएगी। चार बजे से पहले आलेख तैयार कर। मुख्य विषय कोरोने से डर है। पर बात सूचनात्मक नहीं भावपूर्ण होनी चाहिए। इतना कहकर उन्होंने तो फोन रख दिया।
हांलाकि रोजाना डायरी में शार्टनोटस ले रहा था। पर अब तो कुछ लिखना ही पड़ेगा। नाश्ता करने के बाद चिंतन का समय शुरू हो गया। हाथ में लैपटॉप ले लिया। आजकल वैसे भी पैन से थोड़ा ही लिखता हूँ। समझ नहीं आ रहा था कि कहाँ से शुरू करूँ। कई बार शुरूआत कर पेजों को सेव करता रहा। बैचेनी बढ ़रही थी। दबाब महसुस हो रहा था पर मुश्किल मैं चाय साथ देती है। श्रीमतीजी को चाय के लिए कहा तो कुछ नाराजगी के बाद चाय मिल ही गई। जिस प्रवाह का इंतजार था अन्ततः वह प्राप्त हो ही गया। मेरे लिए लिखने में जब तक प्रवाह नहीं बनता सब कुछ गढमगढ होता रहता है और एक बार फ्लो बना नहीं कि अंगुलियां की-बोर्ड पर थिरकने लगती है। अक्सर मेरा लेखन एक ही सीटिंग का होता है। पहले उसे लिख लेता हूँ फिर आवश्यक संशोधन के एक-दो पाठ करता हूँ। कहानी हो तो यह पाठ कुछ दिनों या कुछ महीनों बाद होता है। बहरहाल प्रवाह बनने के बाद मैंने आलेख को पूरा करके ही दम लिया।
मेरा मानना है कि लिखने के बाद उसे एक बार भूलने की प्रक्रिया में डाल देना चाहिए क्योंकि इससे अपने शब्दों से मोहपाश टूट जाता है। इस मोह-माया से निकल कर ही संशोधन हो सकता है। लंच के बहाने इस प्रक्रिया को पूर्ण किया और फिर आधा घंटा आराम करने के बाद दुबारा आलेख को देखा तो 1500 शब्दों को आलेख सरलता से 950 शब्दों का गया। गीता अध्ययन चल रहा था सो इसका नामकरण ‘‘अपने भीतर के कृष्ण की खोेज’’ कर दिया। दरअस्ल निराशा के साथ आशा नहीं होती तो क्या होता? ये आशा ही है जो इस विकराल समय में जीने की प्रेरणा देती है।
इस छोटे से वायरस ने मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति स्वतंत्रता का अपहरण कर लिया है। वैसे, पहले से ही मनुष्य की इस स्वाभाविक स्वतंत्रता का अपहरण अप्रत्यक्ष रूप से तमाम तरह के गैजेट्स कर चुके हैं। इसलिए आज जीवन में तमाम सुविधाओं और अपनों के बीच रहता हुआ आदमी अकेलापन महसूसता है।
अकेलेपन और एकांत के बीच एक बारीक सी रेखा है। यह रेखा दृष्टि की है। ये दृष्टि बाहर की ओर है तो अकेलापन का अहसास है, जहाँ निराशा है, दुःख है। लेकिन ये दृष्टि भीतर की ओर है तो एकांत का अहसास है, जहाँ पर आशा है, आनन्द है।
आज हमारे पास अर्जुन के साथी के समान कृष्ण की भौतिक उपस्थिति भले ही नहीं हो लेकिन वह हमारे साथ जरूर है। हमें अपने भीतर के कृष्ण को ढूँढना है। इसकी व्याप्ति चहुँ ओर है, मेघा में, सामाजिकता में, धैर्य में, दया में, दान में, समभाव में, सखा में, सकारात्मकता, स्वास्थ्य में, समरसता में और सबसे अधिक डर के पार जाने में कृष्ण है।
आलेख को कुछ समय के लिए छोड़कर। एक बार पुनः पढ़कर फाईनल किया और भाईसाहब की समयसीमा से एक घंटा पूर्व यह भाईसाहब को आलेख भेज दिया। इससे ये सिद्ध हुआ कि रचना के लिए आंतरिक हो अथवा बाह्य दबाब आवश्यक होता है। बाह्य दबाब के साथ शर्त यह है कि बाह्य दबाब का आत्मिक होना आवश्यक है। बहरहाल रचना करने के बाद रचनात्मक सुख के परितोष स्वरूप आँख लग गई।
एक अलग तरह का दबाब सामने था वह दबाब आज का प्री-डिसाईडेड काम को नहीं कर पाने का था। सो दुबारा लैपटॉप लिया और अपनी कहानियों का संग्रह तैयार करने के लिहाज से भाई मदन गोपाल लढ़ा से सुझावानुसार कुछ के शीर्षक तय करने थे कुछ के अंत में सुधार करना था। तीन कहानियों में ऐसा करते हुए लगा कि एक कहानी तो पूर्णतया बदल चुकी थी। इन कहानियों को ड्रॉफ्ट भी मदनजी को प्रेषित कर दिया। यह कार्य समाप्त करने के बाद दिन अभी ढला नहीं था।
रात्रि हो चुकी थी। वादा निभाने का वक्त आ गया था। डॉ. कौशल ओहरी से बात करनी थी। इससे पहले सोचा कि क्यों ना दूसरे बालसखाओं से भी बात कर ली जाए। सोशियल मीडिया का एक फायदा ये हुआ कि बचपन के गुम हुए दोस्तों से पुनः मिलाप हो गया। एक मित्र जो सुधीर माथुर जो पीडब्लयुडी में एडीशनल चीफ इंजीनियर है से बात की। वह मेरे फोन से आश्चर्य युक्त हर्ष से सरोबार हो गया। बातचीत लंबी चली। सुधीर की एक विशेषता है कि वह बड़ा होकर भी अपने अंदर उस बच्चे को आज तक सहेजे हुए जो बचपन में था। खैर अब हमेशा की तरह डॉ. कौशल ओहरी से बात की उसका हँसकर यह कहना कि उम्मीद नहीं थी कि तू इतनी शिद्दत से वादे को निभाएगा। ये मेरे साथ भी था अक्सर मैं वादे तोड़ने वालों की श्रेणी में आता हूँ। खैर, लंबी बातचीत चली। बचपन के कई किस्से बातचीत के हिस्से बने। उसका रोज यह कहकर बातचीत को खत्म करना कि तुझसे बात करके मन हल्का हो जाता है लॉक डाउन में उसका यह वाक्य हमेशा की तरह आज भी सुकुन की नींद के लिए पर्याप्त था।
10 बज चुके थे। गीता अध्ययन का कार्य शेष था। छटा अध्याय के अंत तक परसों पहुंच गया था। उसे पूरा करने के बाद गीता के सांतवे अध्याय को भी पूर्ण कर लिया था। यह अध्ययन करते हुए रात्रि के 1 बज गए थे। इस अध्ययन को आज की डायरी से पृथक रखना ही उचित समझा।

-इति-

 

ऋतु शर्मा  :  मोबाइल नंबर- 9950264350

हिन्दी व राजस्थानी में समान रूप से कविता-कहानी लिखती हैं। हिंदी व राजस्थानी में चार किताबों का प्रकाशन। सरला देवी स्मृति व कर्णधार सम्मान से सम्मानित

केवल नाम व छपने के लिए साहित्य सृजन गलत है: प्रकाश अमरावत

डॉ. श्रीमती प्रकाश अमरावत 1 जुलाई 1961 को रायपूरिया जिला पाली मारवाड़ में श्री खेंतदान आढ़ा जी के घर जन्मी। बचपन से ही शिक्षा व संस्कारों के साथ लालन पालन हुआ। पढ़ाई के प्रति विशेष लगाव रखने वाली श्रीमती अमरावत की शिक्षण स्थली जोधपुर है। विवाह के बाद 10 वीं की परीक्षा दी और फिर एमए,पीएच,डी, नेट, जेआरएफ़ आदि परीक्षाओं में सफलता हासिल की। 1986 से लगातार राजस्थान उच्च शिक्षा सेवा में राजकीय डूंगर महाविध्यालय में कार्यरत हैं। वर्तमान में आप राजस्थानी विभागाध्यक्ष है। आप साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली में राजस्थानी परामर्श मण्डल की सदस्य रह चुकी हैं। विगत कई वर्षों से आप एमजीएसयू बीकानेर में बीओएस पाठ्यक्रम मण्डल की संयोजक हैं। आपने अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया है तथा पत्रवाचन किया है। आप राजस्थानी पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लेखन करती हैं। आपने कई पुस्तकों का सम्पादन भी किया। पुस्तकों की भूमिका व प्रस्तावना भी लिखी है। आकाशवाणी व दूरदर्शन पर भी परिचर्चाओं में आपकी भागीदारी रही है। आपको कई साहित्यिक संस्थाओं ने सम्मानित किया है जिनमें से मंडलिय चारण महासभा बीकानेर, लोकसंस्कृति शोध संस्थान नगर श्री चूरू का विद्वत जन सम्मान मुक्ति संस्थान एवं वरिष्ठ नागरिक समिति बीकानेर द्वारा मातृ भाषा गौरव सम्मान श्री केसरी सिंह बारठ सेवा संस्थान जोधपुर द्वारा, टेस्सीटोरी अवार्ड व सरला देवी स्मृति संस्थान बीकानेर द्वारा महिला प्रतिभा सम्मान आदि प्राप्त हैं। आप अपने चारण समाज की महिलाओं में जन जागृति का कार्य भी करती हैं। प्रस्तुत है कवियित्रि कथाकार ऋतु शर्मा द्वारा ‘लॉयन एक्सप्रेस’ के साहित्य परिशिष्ठ ‘कथारंग’ के लिए डॉ. अमरावत से की गयी बातचीत के अंश

प्रश्र 1 किसी भी लेखक के लेखन जीवन की शुरुआत प्राय: संघर्षमय होती है विशेष रूप से जब किसी महिला की बात हो। आपने अपने लेखन की शुरुआत कब की और क्या अनुभव रहा।

उत्तर. पढऩे लिखने की शुरू से शौकीन रही। मेरे भाई बहन मुझे ’विद्या बावली’ कहा करते थे। लेखन की शुरुआत की बात करूं तो मैं ये कहती हूँ की ये हमारा जातीय गुण है, जो मुझे वंशानुगत वरदान स्वरूप मिला है। वेसे भी ये कहा जाता है कि चारणां रो टाबर तो जनम लेवे जदी पाँचवी पास होवे है। जीवन के उतार-चढ़ाव, संघर्षों से हुई पीड़ा ने मेरी संवेदनाओं को शब्द दिये और वो मेरा लेखन बना। बात आज से तीस साल पहले की है जब परिवार में संकट आने पर मुझे कुछ जिम्मेदारियों को निभाने के लिए जूझना पड़ा तब कुछ शब्द उमड़े। मुझे याद है मैं बस में सफर कर रही थी और अनायास ही माता करणी के लिए रचना लिखी और साथ ही मेरे सहयोगियों पर भी कुछ रचनाएं मैंने लिखी। तब से मैं लगतार लिख रही हूँ।

प्रश्र 2. आपके जीवन की प्रेरणा कौन रहे?

उत्तर. पढऩे लिखने की शौकीन ‘प्रकाश’ को अपने परिवार का पूरा सहयोग मिला। विवाह के बाद मेरी दादी सासुजी का मुझे विशेष सहयोग मिला जिन्होंने मुझे हौसला दिया। मैंने अपनी आगे की शिक्षा को पूरा किया। मैं आज जो कुछ भी हूँ मेरे जीवनसाथी और दादी सासुजी के सपोर्ट के कारण ही हूँ। जहां तक प्रेरणा का सवाल ह,ै मैं स्वयं के लिए प्रेरणा बनी और यही सत्य है की जब तक हम स्वप्रेरित नहीं होते तब तक श्रेष्ठ को हासिल नहीं कर पाते।

प्रश्र 3.कैसे बनती है कविताए कैसे बुनी जाती है कहानियां, कैसे लिखा जाता है? क्या है रचना प्रक्रिया।

उत्तर. मेरा लेखन मेरे जीवन का अनुभव है। परिवार की जिम्मेदारियों को निभाते हुए रात्रि को मैं अपने लेखन के लिए समय निकलती थी। कोइ्र्र विचार मेरे मन में आता तो एक हूक सी उठती थी कि उस पर लिखंू दिन भर वो मेरे मन मस्तिष्क में उमड़ता -घुमड़ता रहता अपनी दैनिक प्रक्रियाओं में रहते हुए उसका मंथन मन-मस्तिष्क में चलता रहता और फिर रात्री को वो मेरी कलम से कागज़ पर उतरता। आस-पास घटित होती घटनाओं में कब, क्यूं कहां और कैसे? की बुनावट मेरी कविता-कहानियों में होती और मेरे जीवन में जुड़े कुछ चरित्रों को मैं अपनी लेखनी के किरदारों के रूप में लेती रहती हूं।

पंश्र 4. आप शिक्षा जगत से हैं आप पाठ्यक्रम का निर्धारण करती हैं क्या परेशानियां सामने आती हैं? निर्धारण के दौरान क्या नजरिया रहता है आपका?

उत्तर. पाठ्यक्रम निर्धारण का नजऱिया लेखन से बिलकुल अलग होता है। पाठ्यक्रम को हम लेखन से नहीं जोड़ सकते क्योंकि लेखन तो स्वयं की रुचि पर निर्भर करता है, किन्तु पाठ्यक्रम ऐसा हो जो विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास एवं उसके बेसिक को ध्यान में रखकर बनाया जाये। मूल रूप से इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना पड़ता है की पाठ्यक्रम में प्राचीन,मध्य और वर्तमान समय के लेखकों और साहित्य को उसमें जोड़ा जाये। जब भी कोई रचना पाठ्यक्रम में शामिल की जाती है तो ये ध्यान रखना पड़ता है की वह उसके नैतिक विकास के लिए हो व उस रचना का उद्धेश्य विद्यार्थियों के स्तर के अनुरूप हो ।

प्रश्र 5. आपने पद्य में रीसर्च किया है कोई खास वजह?

उत्तर. हालांकि कहानियों की किताब प्रकाशित हैं आर्टिकल्स भी बहुत लिखे हैं मैंने, किन्तु पद्य से मेरा विशेष लगाव है क्योंकि जब मैंने अपनी समवेदनाओं को पहली बार कलम से प्रकट किया तो वो भाव काव्य के रूप में प्रकट हुआ। सबसे पहले जो भाव निकले वो कविता के रूप में ही निकले इसलिए मुझे पद्य से लगाव है।

प्रश्न 6. आज जितना लिखा जा रहा है उतना पढ़ा नहीं जा रहा मूल क्या कारण है?

उत्तर- इसका विशेष कारण मैं सोशल मीडिया को मानती हूँ। आज की पीढ़ी मोबाइल से ही बाहर नहीं निकलती तो पढ़ेगी कैसे? ये तो हुई आज की पीढ़ी की बात। अगर मैं अपनी पीढ़ी के लोगों की भी बात करू तो वो भी पढऩे में इतना रुझान नहीं रखते। बस अपना -अपना लिखने में उनकी रुचि रहती है। ज्ञान लेना नहीं चाहते बस देना ही चाहते हैं। मैं तो यहाँ तक भी कहूँगी कि पढऩे तो क्या सुनना भी नहीं चाहते अपनी रचना पढ़ ली और दूसरों की रचना सुनने की बजाए उठकर चले जाते हैं। यह एक विडम्बना है।

प्रश्र 7. समय और काल का लेखन पर क्या प्रभाव पड़ता है? आज के लेखन के परिप्रेक्ष्य में बताएं।

उत्तर- ‘जेड़ो बाजे बायरो वेड़ी लीजे ओट’। जो भी रचनाकार लिखता है वो समय के अनुसार लिखता है। समय परिवर्तनशील है जो आज का लेखन आज की समय की मांग को लेकर है।आज भी जो लेखन हो रहा है बहुत अच्छा लिखा जा रहा है। हंा कहीं-कहीं ये जरूर है की केवल छपने और नाम के लिए लिखा जा रहा है।फिर भी मैं ये कहूँगी की आज का लेखक भी मेहनत कर रहा है।

प्रश्र 8. राजस्थानी भाषा के लेखन के उतार-चढ़ाव के बारे में आपका क्या कहना है?

उत्तर- राजस्थानी लेखन में उतार चढ़ाव है ये मैं नहीं मानती क्योंकि राजस्थानी में बहुत लिखा जा रहा है। खासतौर पर अगर बीकानेर की ही बात करूँ तो बीकानेर में भी राजस्थानी में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। यहाँ तक की बीकानेर के ही कुछ राजस्थानी रचनाओं को हमने पाठ्यक्रम में भी शामिल किया है। राजस्थानी साहित्य समृद्ध है और राजस्थानी लेखन की भी कोई कमी नहीं है।

प्रश्र 9. जैसा की आपने कहा राजस्थानी साहित्य समृद्ध है और लेखन में भी कोई कमी नहीं है तो फिर ये भाषा अपनी मान्यता को क्यूँ तरस रही है?

उत्तर- इसका सबसे बड़ा कारण हम सभी ही हैं। मान्यता के मुद्दे को राजनैतिक मुद्दा बना दिया गया है। भाषा की मायता के लिए संघर्ष लगातार चल रहा है लेकिन सफलता नहीं मिल पा रही। मेरा मानना है की राजस्थानी भाषा की एकरूपता में कमी हैं, यहाँ बोली जाने वाली बोलियाँ इसके लिये बाधा बनती है ।हाड़ौती वाला हाड़ौती को राजस्थानी कहता है ढूंढाणी वाला ढूंधाड़ी को राजस्थानी कहते। पिछले 50 सालों से ये संघर्ष चल रहा है। ये अपने स्वार्थ के चलते क्षेत्र विशेष के लोग जब मुद्दा उठाते हैं तो बात फिर वहीं अटक जाती है ‘किसी राजस्थानी’।

प्रश्र 10. आप राजस्थानी भाषा का प्रतिनिधित्व करती हैं इसकी मान्यता के लिए आप अपनी ओर से क्या सहयोग देंगी ?

उत्तर- मुझे फक्र है की मैं राजस्थानी भाषा का प्रतिनिधित्व करती हूँ और दुख है की मेरी मायड़ भाषा को मान्यता नहीं मिल पा रही। मैंने तो आज से 4-5 साल पहले ही अपने परिवार में घोषणा करदी थी की यदि आत्मबलिदान की बात आती है तो दो। हमने तो राजस्थानी की ही रोटी खाई है। मान्यता के लिए जिस किसी भी तरह के संघर्ष में हमारा सहयोग किसी भी रूप में आवश्यक है तो हम जी-जान से तैयार हैं। एक सुझाव मैं जरूर यहाँ देना चाहूंगी की यदि हम राजस्थानी भाषा की कोई एक लीपि बना दे तो शायद मान्यता मिलने में आसानी हो। मैंने आज के विद्यार्थियों की पीड़ा को महसूस किया है की जब यूनिर्वसिटी के बच्चे राजस्थानी पढ़ते हैं तो उनका ये सवाल रहता है कि मैडम, इस भाषा का आगे क्या फायदा है मैं निरुत्तर हो जाती हूँ और एक टीस सी उभरती है कि मैं क्या कहूँ।

11.महिला लेखन और पुरुष लेखन में क्या फर्क है ?

उत्तर- बिल्कुल फर्क है। एक महिला की पीड़ा को संवेदनाओं को एक महिला ही समझ सकती है। जैसे की अगर मैं कहूँ की एक पुरुष किसी महिला के लिए लिखेगा तो वो उसकी खूबी को भी उस रूप में लिखेगा जिससे सिर्फ ये जाहिर होगा की महिला मात्र भोग की वस्तु है।जब एक स्त्री लिखेगी तो वो उसके मातृत्व भाव से लेकर उसके सम्पूर्ण स्त्रीत्व पर लिखेगी।

प्रश्र 12. स्त्री विमर्श के बारे में आपका क्या कहना है?

उत्तर- मेरा सवाल ये है की स्त्री विमर्श है तो पुरुष विमर्श क्यों नहीं है। स्त्रियों की स्थिति के लिए स्त्रियां खुद दोषी हैं। वो खुदको बराबर का क्यूँ नहीं समझती। हम एक गाड़ी के दो पहिये हैं जिससे समाज चलता है। मैत्रयी, गार्गी, लोपामुद्रा समाज के लिए उदाहरण हैं। मैं स्त्री विमर्श को तो मानती ही नहीं हूँ।

प्रश्र 13. साहित्यिक पुरस्कारों के बारे में आपका क्या कहना है?

उत्तर- मेरा मानना है की निष्पक्ष न्याय नहीं होता। अपनी जान- पहचान और राजनीति से ये पुरस्कार अर्जित किए जाते हैं। मेरा इनपर विश्वास थोड़ा कम है।

प्रश्र 14. अंग्रेजी,हिन्दी व अन्य भाषाओं का शब्दकोश गूगल पर उपलब्ध है क्या कारण है की राजस्थानी इतनी समृद्ध होने के बावजूद भी उस स्तर पर नहीं है ?

उत्तर- बहुत खूब। आपका प्रश्न ही मेरे लिए एक सीख बन गया है।राजस्थानी साहित्य आज कल ऑनलाइन उपलब्ध है, लेकिन राजस्थानी गूगल शब्दकोश के स्तर पर अब हमें काम करना होगा जिससे नयी जेनेरेशन इसे आसानी से पढ़ सके और समझ सके।

प्रश्र 15.आज की पीढ़ी किताबों से दूर होती जा रही है और सोशल मीडिया की ओर रुझान बढ़ रहा है।साहित्य इस समस्या के निदान में क्या रोल अदा कर सकता है।

उत्तर- खरी-खरी बात कहूँ तो हम ही मोबाइल के बिना नहीं रह सकते, तो बच्चे भी हमें देखकर ही सीखेंगे। घर में जैसा वातावरण मिलता है बच्चा वैसा ही सीखता है। सोशल मीडिया आज के समय की मांग हो गई है और निदान यही है की हमें साहित्य को ही मोबाइल पर डालना पड़ेगा और उसे ई-साहित्य बनाना पड़ेगा।

16.आज की महिला लेखिकाओं के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगी?

उत्तर- यही कहना चाहूंगी की जो लिखा जा रहा है वो बहुत अच्छा लिखा जा रहा है और ये प्रयास जारी रहना चाहिए उनकी कलम उनका हथियार बने। आपके जीवन के दायित्व आपका सामाजिक जीवन और अपने चरित्र को निभाते हुए अगर आप लेखन करेंगी तो निश्चित रूप से निखार जरूर मिलेगा।

पैदाइश -24 फ़रवरी 1916,  वफ़ात -27 नवंबर 1997

मौसिक़ी और शाइरी के यकज़हदी शाइर  मुहम्मद सुलेमान नक्शबंदी ‘मुज़्तर’

– सीमा भाटी,  मोबाइल नंबर- 9414020707

उर्दू रचनाकार सीमा भाटी का राजस्थानी, उर्दू ,हिंदी तीनों भाषा में समान लेखन। आपका कहांनी संग्रह, कविता संग्रह, और एक राजस्थानी उपन्यास भी आ चुका है। इन्हें राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर का प्रतिष्ठित अल्लामा इक़बाल अवार्ड 2017 उर्दू साहित्य में मिला।

बीकानेर में आसमान ए उर्दू अदब में कई सूरज उभरे, उनमें मुहम्मद सुलेमानी मुज़्तर भी एक नाम था। जो उर्दू ज़बान के आला तरीन शाइर थे, और जिन्हें अंग्रेजी ज़बान से भी ख़ास रग़बत थी मुज़्तर बेहतरीन शाइर होने के साथ नेक दिल और निहायत मुखिलस इंसान भी थे। जो मुहल्ला चूनगरान, बीकानेर के उस घराने में पैदा हुए जहाँ मज़हब -ओ -मिल्ल्त की तफ़रीक़ बिल्कुल नही था जिनका घर एक मुस्तकिल सर -चश्मा -ए -इल्म था। इनके वालिद को उस वक़्त की बीकानेर रियासत में पहला मुस्लिम ग्रेजुएट होने , बीकानेर के पहले मुस्लिम डिसिट्रक्ट एडिशनल जज व बीकानेर में जन्मे रियासत के पहले शाइर होने का सर्फ़ हासिल था, नाम था बेदिल बीकानेरी । जो उर्दू फ़ारसी के जिद आलिम थे ऐसे शख़्स के यहाँ जिनकी पैदाइश हुई हो, वो शे’र ओ अदब की दौलत से कैसे महरूम रह सकता था। जनाब मुज़्तर अपने वालिद की तरह ज़हीन थे और उर्दू ,फ़ारसी ,व अंग्रेजी के जिद आलिम थे। इब्तदाई तालीम बीकानेर के सादुल स्कूल में हुई और बी .ए पाकिस्तान में ।बेदिल साहब का घराना जहाँ दुनियावी तालीम से मालामाल था वहीं दीनी तालीम से भी किसी से पीछे नही था। आपके छोटे भाई जनाब उस्मान आरिफ़ जो एम.पी, मिनिस्टर, गवर्नर और जिनका उर्दू अदब से लगाव किसी ताआरुफ का मोहताज़ नही है आप भी बहुत जल्द शे’र कहने लगे और तख़ल्लुस मुज़्तर रख लिया। आपका शुरू से ही अंग्रेजी ज़बान में शग़फ़ रहा। ज़बान और तबीयत की बेबाक़ी का ये आलम था कि किसी से नही दबते थे और ना ही तहरीर और तक़रीर में किसी से मुतासिर होते। उनका ख़ुद का अपना मख़सूस अंदाज़ था। आप 1947 से पहले ही कराची मुन्तक़िल हो गए और एक चाय कम्पनी में एजेंट भी रहे। इस सिलसिले में मुज़्तर साहब ने यूरोप के कई ममालिक के दौरे भी किये, मगर तबीयत में ठहराव की थोड़ी कमी थी इस वजह से कई जगह नौकरी की और छोड़ दी, फिर तिजारत कि तरफ़ माइल हो गए और अपने ख़ुद के ही एक्सपोर्ट इंमपोर्ट का कारोबार शुरू किया।
मुज़्तर साहिब का मौसीक़ी की तरफ़ भी बहुत रुजहान था, और अपनी ज़िन्दगी का काफ़ी वक़्त मौसीक़ी सीखने में लगाया और वैसे भी संगीत और शाइरी का तो चोली दामन का साथ रहा है आपने शाइरी मुसलसल जारी रखी और मशहूर शाइर रईस अमरोही के शागिर्द हो गए। आपकी पहचान कराची के अच्छे शाइरों में से होने लगी थी। आपने हिंदुस्तान पाकिस्तान के मशहूर शाइरों के साथ मुशाइरे पढ़े। आपकी पुर आवाज़ ही मुशाइरा लूटने के लिए काफ़ी थी। शोहरत की हवस से कोसों दूर रहते थे और अपनी बुलंद आवाज़ में अच्छा कहते अच्छा पढ़ते थे। रईस अमरोही जैसे उस्ताद के शागिर्द थे मगर शोहरत की क़ैद -ओ -बद से ख़ुद को हमेशा आज़ाद रखा। कराची में हिंदुस्तान के बड़े बड़े मारूफ़ शाइरों का आना जाना लगा रहता था और , उनके एहतराम में मुशाइरे भी होते। आज से पचास बरस पहले हज़रत जिगर मुरादाबादी की सदारत में ग़ज़ल “जाम नही जाम नही” में तरही मुशाइरा हुआ। वो दौर जिगर के उरूज़ का था। आसमाने शाइरी पे छाए हुए थे जिगर साहब के सामने हर शख़्स की कलाम पढ़ने की तो हिम्मत ही नही होती थी। मगर मुज़्तर के हिम्मत और हौसले की दाद पर उस मुशाइरे का एक वाक़िया यहाँ बताना चाहूंगी जब मुज़्तर साहब ने मख़सूस तरन्नुम में अपनी ग़ज़ल को पढ़ना शुरू किया तो हर तरफ़ तहसीन ओ दाद का माहौल बरपा हो गया था। जलसा तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। वो शेअर आपके भी नज़र कर रही हूँ ग़ौर फ़रमाए …
” मदहोश बना कर मस्तों को दीवाना बना कर रिंदों को
हर फूल ही हँस कर कहता है देखो न मुझे मैं जाम नही “…
मुज़्तर साहब के कलाम पेशगी और अदायगी के ग़ज़ब अंदाज़ को देख कर जिगर साहब ने भरे मुशाइरे में कहा ‘”वाह मुज़्तर साहब क्या शेअर कहे हैं ऐसा शेअर तो मेरी ग़ज़ल में भी नही है।”..

इस वाक़िये से यहाँ एक बात और वाजेह तौर पर कहना चाहूंगी कि एक दौर वो भी था जब लोग तरही मुशायरों की सुनने के लिए जलसे में बड़ी तादाद में कसरत से शामिल होते थे और मुशाइरे को आगाज़ से लेकर आख़िर तक सुनकर जाजम से उठते थे मुख़लिसी और ईमानदारी से अच्छे शेर की माक़ूल दाद भी दिया करते थे,चाहे वो शे’र किसी का ही क्यों ना हो। मगर आज ये आलम है कि मुशायरों में मस्तनद पर बैठे शाइर अच्छे से अच्छे शे’र पर दाद नही देते, सिर्फ़ बुत बने बैठे रहते हैं और अपना कलाम पढ़ा और खिसक लेते और ऐसे में अदब के रखवाले बेअदब होने में जरा भी देर नही लगाते हैं।
मुज़्तर साहब की फ़िज़ा में क्लास की शाइरी का रंग भी शबाब पर था, उस मौसम कि ख़ुशगवारी में माशूक़ की जुदाई कैसे परेशान करती है उसका अहसास मुज़्तर साहब के इस शे’र से होता है ग़ौर फ़रमाए ….

 “जब ख़याले बहार आता है
क्यों उदासी छा जाती जी
मयक़दा था रिंद थे बरसात थी
आप आज जाते तो,
फिर क्या बात थी “…

मुज़्तर साहब ने ‘मुसद्दस हाली ‘का अंग्रेजी में तर्जुमा भी किया जो शाया होकर मक़बूले आमीन भी हो चुका था । कराची में तिजारत के ज़रिये बड़े बड़े लोगों से ताल्लुक़ात थे मगर मुज़्तर साहब ने अपनी शान व शौक़त का कभी तकब्बुर नही किया।क्यूंकि आला ताला ने मुज़्तर साहब को सलाहियत व शऊर भी बख़्शा था कि तिजारत में एक जैसा वक़्त किसी का भी नही रहता है। एक बार पाकिस्तान में मार्शल लॉ लग गया, जनरल अयूब की हुक़ूमत आई तो उसके साथ ही साथ सरकार और कारोबार सब कुछ बदल गया, मगर मुज़्तर साहब की ज़बान पर कभी शिक़वा नही रहा बल्कि सुकूं ही देखा। तिजारती मसफ़ियात के बावजूद शे’रों अदब को आख़िरत तक माक़ूल वक़्त देते रहे और 1997 में आप इस दुनिया ए फ़ानी को अलविदा कह गए।