इस उपन्यास के मिलने के बाद आदतन इसके पन्ने पलटते हुए यह तो लग गया था कि इसे शुरू करने के बाद रुकना नामुमकिन है क्योंकि आगाज़ बता रहा था कि श्रुति मानेगी नहीं पूरी बात किए बिना। 116 उपशीर्षकों में विभक्त, 464 पृष्ठ एक ही बार में पढ़ने का आइडिया भी मिल गया। रविवार होने से आफिस में भृत्य के सिवाय कोई नहीं होगा। इसको सुकून से पढ़ने की उससे बेहतर कोई और जगह नहीं मिलेगी। यह सोचकर आ बैठा और जैसा मन में विचार आया था, श्रुति शाह ने फोन तब रखा जब बात पूरी हो गई।

मेरे द्वारा पढ़े गये असंख्य उपन्यास में स्मृति में सिर्फ़ वही कथानक स्थाई हैं जो पुरानी स्मृतियों, भावनाओं या पुराने भावनात्मक रूप से उतार चढ़ाव से भरे समय की याद दिला देते हैं।

जब कथ्य जीवन में घटित घटनाओं को भावनाओं से जोड़ देते हैं तो कहानी और उपन्यास के मध्य एक विभाजन रेखा खिंच जाती है और यही अन्तर किसी साधारण कथा को विशिष्टता प्रदान कर उपन्यास की रचना कराता है जिसमें पात्र लेखक के कल्पना लोक से निकलकर पाठक के नज़दीक आ बैठते हैं और उनसे बहुत करीबी रिश्तों की अनुभूति होने लगती है। एक स्त्री और पुरुष के रिश्ते में बुनियादी अंतर महसूस होता है। विशेषकर तब जब रिश्ते का आधार प्रेम, विश्वास, अपेक्षा या महत्वाकांक्षा पर टिका हो। इस उपन्यास में लेखक ने इसी अन्तर का इतना सटीक अवलोकन किया है कि अलग-अलग रिश्तों की जटिलता उभर कर सामने आयी है।

प्रस्तुत उपन्यास के पात्रों को नज़दीक से महसूस करने के लिए उनका लैंगिक वर्गीकरण आवश्यक है क्योंकि लिंग भूमिकाएँ जैविक रूप से भले ही निर्धारित नहीं होती परन्तु सामाजिक रूप से इनकी भूमिका निर्धारित होती है। यूँ तो आरम्भ से अंत तक कई पात्र हैं जिनके रिश्तों के ताने-बाने में कहीं एक गाँठ भी नहीं दिखती कभी वही रिश्ता बेरंग चदरिया सा उधड़ता नज़र आने लगता है।

यदि पुरुष किरदारों की बात करें तो निखिल चौधरी, रोहन, दीपक, अजय, ओम और गिरधर कॉलेज के सहपाठी हैं। कथानक को गतिमान रखने में कुछ पात्र और जुड़ते जाते हैं यथा, सौरभ, विशाल, मगन पान वाला, आदित्य, आयाम, बेदिल अहसास और विवेक। राजनैतिक परिदृश्य के प्रमुख किन्तु मेहमान पात्र के रूप में हैं नाना परांजपे, सूरज अग्रवाल और वीरेन्द्र नेगी। कथानक में अहं भूमिका में निर्विकारेश्वर जी, सुरभित सन्यासी एवं माँ ज्योतिस्वरूपा भी विद्यमान हैं।

महिला किरदारों का ज़िक्र किये बिना श्रुति शाह की बात अधूरी है। कथानक में यदि श्रुति शाह व वर्षा केन्द्रीय भूमिका में हैं तो सुनीता, सांवरी, रिंकी, सुप्रिया देवी और निखिल की माँ को भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है। विशेष भूमिका निभाई है निखिल, सौरभ, विशाल, गिरधर व विजय ने।

शुरुआत में जहाँ रात शीतल धौरों पर बिखरी थी, चाँद भी बदलियों के साथ अठखेलियाँ कर रहा था। रावण-हत्थे की मधुर धुन पर अल्हड़ षोडशी घूमर कर रही थी जिसका 80 कली का नीला घाघरा और कसूंमल कांचली पीली ओढ़नी के साथ रंगीलो म्हारो राजस्थान की टेर लगा रहे थे। बांह पर सजे लूंबे और आटलिए भी सरगोशी कर रहे थे…

यह ख़याल तक नहीं आया था कि इतना खूबसूरत कोई सपना भी हो सकता है और ज़िन्दगी की हकीक़त इसके उलट करुण क्रन्दन कर अपनी बिसात पर शह और मात का खेल खेलती रहेगी। वक़्त हर जाविये से खलनायक की भूमिका निभाता रहेगा। एक नहीं दो बार छात्र नेता रहे निखिल के जीवन में प्रेम ने कई बार दस्तक दी परन्तु उसके भाग्य ने हर बार धोखा दिया। अधूरे प्रेम ने उसे उस जगह ले जाकर खड़ा कर दिया जहाँ सिर्फ़ निराशा और अनिर्णय की स्थिति थी। जिस तरह नदी के प्रवाह में काठपिंड बहाव के साथ बहने लगता है निखिल भी डूबते उतराते हुए स्वयं को मझधार के हवाले कर दिया था। महिला पात्रों में श्रुति शाह की भी यही स्थिति है। जिसे टूटकर चाहा उससे धोखा मिला। पति को वो खुद नहीं अपना सकी और पहले प्यार की टीस को विस्मृत नहीं कर सकी। यहाँ तक कि एक समर्पित दोस्त को सीढ़ी बनाकर अपने प्रेमी तक पहुँचने का प्रयास किया और वही निर्णय पछतावा बन डसने लगा, और जीवन से विरक्ति होने लगी। हिमालय की गुफाओं में जीवन की सार्थकता को तलाशने का विचार मन में जागने लगा। वर्षा और सुनीता के जीवन में भी प्रेम कृष्ण पक्ष बनकर आया जो तिथियों के साथ चाँदनी को समेटकर अमावस्या के अँधेरों को सौंप गया।

प्रेम के साथ राजनीति के वर्तमान स्वरूप को जिस तरह से दिखाया गया है, लगा पिछले कुछ वर्षों की सच्चाई को शब्दों में ढाल दिया है। बोट क्लब पर राजनैतिक आकांक्षा के जिस बीज का प्रस्फुटन हुआ था उसे बड़े सलीके से काट-छांट कर सत्ता की कुर्सी बनाने तक का सफ़र तय किया है छ्द्म लोकतंत्र ने। आंकड़ों का संग्रहण और उपयोग ठीक वैसा ही वर्णित है जो दिखाई दे रहा है आजकल। किसी प्रदेश की राजनीति से निकलकर दिल्ली के साथ देश के दिल को जीतने की असम्भव सी संभावना को पूरी तार्किकता के साथ सच में बदलता दिखाया गया है। धन, बल और बुद्धि की त्रिवेणी में डुबकी लगाने से किस तरह सारे पाप तिरोहित होकर फलदाई बन सकते हैं इसका भी सलीके से सजीव वर्णन मिलता है।

वर्तमान में धर्म और बाबाओं की आड़ में चल रहे गोरखधंधे पर भी दृष्टिपात कर पाखंड की पर्तों को प्याज़ के छिलकों की तरह छीला है हरीश जी ने। कला, साहित्य और प्रकाशन के क्षेत्र की विसंगतियों को उकेरा है तो उसमें धन की धारा से किनारा तलाशने का मार्ग भी प्रशस्त किया है। दो देशों के बीच मजहबी सरहद बनाकर विरोध हमने अनेक बार देखा है और उसकी आड़ में फायदे की फसल को कटते देखा है। जन, जमीन और जीवों में घुल रहे रसायनों के ज़हर से पर्यावरण के होने वाले नुकसान पर ध्यान आकर्षित करना और जैविक खेती अपनाने की मुहिम चलाना आज की महती जरूरत है।

यह लेखन की विशेषता है कि कुछ प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए 464 पृष्ठ एक ही बैठक में पढ़ा जाते हैं। जैसे जैसे कथानक गतिमान होता है, मस्तिष्क में कुछ प्रश्न चिह्न तैरने लगते हैं। जैसे वर्षा का निखिल के प्यार से भरोसा क्यों टूटा? सुनीता क्यों नही निभा सकी वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारी? श्रुति की बात पर सौरभ भरोसा नहीं कर सका या जानबूझकर वो ऐसा दिखावा कर रहा था? सांवरी के समर्पण की असली वजह क्या है? क्या विशाल की आत्म हत्या को सही कहा जा सकता है? क्या सुरभित सन्यासी जो चाहता था उसे मिल सका? निखिल के जीवन से पतझड़ की ऋतु खत्म हुई या नहीं? सुप्रियादेवी की श्रुति की ग़ज़लों को दीवान की शक्ल में प्रकाशित करने की असल वजह क्या थी? क्या श्रुति की सोच पुन: लौट सकी ज़िन्दगी की मुख्य धारा में और हिमाचल जाकर तपस्या का विचार त्याग सकी? क्या निखिल और वर्षा का मिलन हो सका? अंत तक पहुँचते हुए हर जिज्ञासा का समाधान किया है लेखक ने और हर प्रश्न से पर्दा हटाया है। तफ़सील से बताई है हर बात परन्तु इन प्रश्नों के उत्तर के लिए पाठक बन गुजरना होगा कथानक के साथ। विजय के समर्पण और अलौकिक प्रेम ने प्रेम को ही पुनर्परिभाषित कर दिया है।

कहानी के प्रत्येक पात्र के साथ न्याय किया है और अंत इस तरह से हुआ है जहाँ से अनेक सम्भावनाओं के दीप गंगा की लहरों के साथ बहते दिखाई दिए हैं। बहुत अर्से के बाद कुछ ऐसा पढ़ने को मिला है जिसने मेरे अन्दर के पाठक को पूर्ण तृप्त कर दिया है। यह उपन्यास गायत्री प्रकाशन, बीकानेर से प्रकाशित है और 464 पृष्ठ के पैपरबैक संस्करण का मूल्य 399/- रुपये है। हरीश बी. शर्मा जी इस अनुपम सृजन हेतु बधाई के पात्र हैं। इतने विलक्षण कथानक व उससे भी अधिक प्रभावी प्रस्तुतिकरण ने लेखक से आमने-सामने बैठकर चर्चा की आकांक्षा जागृत कर दी है। बहुत कुछ है जिसे जानना चाहता है एक पाठक। अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ,

#किरदार
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हाल ही में एक उपन्यास “श्रुति शाह कॉलिंग” पढ़ रहा था जिसके लेखक हैं बीकानेर के पत्रकार व चर्चित नाटककार हरीश बी. शर्माजी। एक बात मन में कौंध रही थी। किसी भी सृजन में किरदार केवल कल्पनाओं में पकी खीर या महेरी नहीं होते अपितु वास्तविक जीवन से जुड़े किसी व्यक्तित्व में काल्पनिक तड़के की दालफ्राई जैसे होते हैं। यह मेरी व्यक्तिगत सोच है।

शीर्षक से पता चल रहा है श्रुति शाह, इस कथानक में केन्द्रीय पात्र है। तसव्वुर किया जाए तो जो प्रतिबिंब बनता है दिल के आईने में श्रुति का, उसमें ऐसी प्रौढ़ महिला की छवि दिखाई देती है जो सौम्य, शिष्ट और वाकपटु होने के साथ-साथ एक हद तक आधुनिकता की अनुयायी है।
ऐसा होने के पीछे उसकी शैक्षणिक योग्यता एवं व्यावसायिक उपलब्धियाँ जिम्मेदार हैं, मानने में कोई हर्ज नहीं लगता क्योंकि उसने क्रियेटिव राईटिंग में पोस्ट ग्रेजुएशन के साथ एमबीए किया है। लेखन व प्रबंधन के विशिष्ट ज्ञान से ही वो एक प्राइवेट बैंक ‘सनसिटि’ में बिजनेस मैनेजर है। मार्केटिंग लाइन के अनुभव ने भी उसके व्यक्तित्व को निखार कर संवार दिया है और उसका आत्मविश्वास उस जगह तक पहुँच गया है जहाँ नौकरी के लक्ष्य बहुत ज्यादा मायने नहीं रखते।

प्राइवेट सेक्टर में मूलतः दो पद होते हैं। मालिक और नौकर… नौकर को काम व परिस्थिति के अनुरूप सीईओ, जीएम, तरह-तरह के मैनेजर, एग्जीक्यूटिव वगैरह-वगैरह के नाम से जाना जा सकता है। यह भी नितांत निजी व स्वानुभूत राय है मेरी क्योंकि ज़िन्दगी के सिलेबस की पहली यूनिट अर्थात नौकरी का आरम्भ बहुराष्ट्रीय कंपनी से हुआ था और एक दशक से अधिक समय वहाँ कम्पनियों को बदलकर जिया है।

श्रुति को बैंक में हासिल आलामुकाम के बावज़ूद वो अपने अधीनस्थ पर आश्रित न रहकर स्वयं नये क्लाइंट की तलाश में अपने बैंक द्वारा पर्सनल लोन देने के लिये फोन लगाती है। यह अपने काम के प्रति उसके समर्पण का सूचक है।
इसी क्रम में उसकी बात एक ऐसे व्यक्ति के साथ होती है जो पूर्व छात्र नेता और हाजिर जबाव होने के साथ काफी जिंदादिल शख्सियत का मालिक है।

अमूमन जैसा होता है, जब “सर आपको लोन की जरूरत है” पूछता नारी स्वर फोन पर सुनाता है तो या तो गुस्से में फोन बंद होता है। या फिर कुछ लोग अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं और यह भी होता है कि फुर्सत में टाइमपास करने की नीयत से व्यक्ति फ्लर्ट पर आमादा होने लगता है।
अंतिम स्थिति में फोन दूसरी तरफ से काट दिया जाता है।

रामचरितमानस के अनुसार “हुई है वही जो राम रचि राखा” और भगवद्गीता कहती है कि ‘दुनिया में कुछ भी व्यर्थ नहीं होता’। ऐसे में अगर श्रुति और उसके संभावित ग्राहक के बीच कोई रिश्ता आकार लेने लगता है तो कहना पड़ेगा, “ये तो होना ही था”। यहाँ मनोविज्ञान का एक सिद्धांत भी लागू होता है जो कहता है कि दर्द को दर्द से राह होती है। यह भी कह सकते हैं कि घायल की गति घायल जाने। श्रुति और उसका वो शिकार यानि क्लाइंट भी जीवन की उन पगडंडियों से गुजर चुके हैं जहाँ कुछ कदमों के निशान बाकी हैं। हवा में किसी के जिस्म की ख़ुशबू महसूस होती है और बार-बार कोई नाम लेकर पुकारता लगता है।

यहाँ श्रुति कोई कमजोर चरित्र वाली महिला के रूप में नहीं दिखाई देती बल्कि कुशल प्रबंधक एवं सफल कार्यकर्ता के रूप में परिलक्षित होती है। इसी जगह से शुरू होता है उसके मन में दबी किसी कसक की चारागरी का प्रयास। एक बात और निकलकर सामने आती है कि मानव जीवन में प्रेम की पुनरावृत्ति कितनी बार हो रही है यह बहुत साधारण बात है। महत्वपूर्ण यह है कि क्या वो जीवन के पहले प्यार को विस्मृत कर सका है? अधूरी प्रेम कहानी भी जीवन का अमिट हिस्सा होती हैं। प्रेम की पूर्णता की भी अनेक अर्थों में व्याख्या मिलती है। राधा और मीरा के प्रेम आज भी संसार में प्रेम की पराकाष्ठा है क्योंकि इसमें कुछ पाने की नहीं सर्वस्व को समर्पित करने का भाव है। आज के युग में जब दुनिया “गिव एन टेक” के सिद्धांत पर चल रही है तब एक स्त्री के सम्पूर्ण समर्पण के पश्चात भी यदि उसे धोखा या बेवफाई मिले और वो उस प्रेम की लौ बुझने न देना चाहे तो उसे क्या कहा जाए? यक़ीनन ‘दीवानी’ उपयुक्त शब्द होगा उसके लिए। मगर इस दीवानगी में भी बहुत कुछ छुपा है। हर बात का ज़िक्र तो यहाँ करना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा करने से श्रुति के किरदार से पूरी तरह से पर्दा उठ जायेगा जो नवीन पाठकों के लिहाज से ठीक नहीं है। लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि सृष्टि में सिर्फ़ औरत ही धरती की प्रतिकृति है जो सिर्फ़ जन्म ही नहीं देती बल्कि मृत्यु उपरांत अपनी गोद में जगह भी देती है चिरनिद्रा के लिए।

श्रुति के किरदार में ये दोनों बातें बहुत स्पष्ट रूप से नज़र आती हैं। अनगिनत जगह उसने समझौते किये, कई बार ज़हर का घूँट पीकर भी शिव के समान सृष्टि के कल्याण की कामना की लेकिन ठहर नहीं सका वो विष कंठ में और नीलकंठ न होकर, तिल तिल कर मरती गई। यह भी श्रुति के चरित्र की विशेषता है कि उसने कायरता का मार्ग नहीं अपनाया। आत्महत्या का नहीं सोचा। प्रत्येक भूल, सच्चाई व अतीत को स्वीकारकर प्रायश्चित की राह पर चलना चाहा। स्वयं को ध्यान व योग में समर्पित कर हिमालय की कन्दराओं में कठिन साधना करनी चाही। पता नहीं क्या हुआ और क्या मिला, अनेक सवाल हैं। जबाव एक है, उपन्यास #श्रुति_शाह_कॉलिंग।

अब जब किसी बैंक से लोन लेने के लिए कॉल आती है, लगता है श्रुति पूछ रही है। जी चाहता है उसी के उस सिरफिरे क्लाइंट की तरह कहूँ – “श्रुति जी, आप भी! पहली बार में ही कर्जदार बनाने की बात कर रही हैं? वो भी सुबह-सुबह? अपन कुछ और बात करें….?”  फिर हँसी आ जाती है अपनी ही सोच पर। लगता है यह उपन्यास नहीं ज़िन्दगी है। उपन्यास से किरदार निकाल कर जिये नहीं जाते। असल ज़िन्दगी में से जरूर कुछ लोग किरदार बनाये जा सकते हैं, बनते हैं। तो क्या श्रुति शाह भी ऐसा ही किरदार है… खैर, जो भी है! है बड़ी दिलचस्प। बार-बार मिलने को जी चाहता है। मेरे दोस्त, भरोसा नहीं है मेरी बात पर तो मिलकर देखो… रह नहीं सकोगे बिना कर्जदार हुए।

मुकेश दुबे
सीहोर (म. प्र.)

 

गायत्री प्रकाशन, बीकानेर से प्रकाशित

464 पृष्ठ पैपरबैक संस्करण 

मूल्य 399/- रुपये