हस्तक्षेप
– हरीश बी. शर्मा
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इन दिनों दो दिवसीय दौर में पर बीकानेर हैं। नागौर में उन्हें एक कार्यक्रम मे शिरकत करने आना था। सोचा बहती गंगा में हाथ धो लेना चाहिए। रवींद्र रंगमंच पर कार्यक्रम हो गया। राजनीति के लिए ‘रगड़ाई’ के महत्व को फिर से रेखांकित किया। यह भी बताया कि उनकी भी बड़ी रगड़ाई हुई। कुछ शब्द बहुत अच्छे होने के बाद भी उनकी ध्वनियां विकृत दृश्य पैदा करती है। जैसे एक शब्द है मजा। इसके आगे क लगते ही यह मजाक बन जाता है, लेकिन अगर आप कहते हैं कि मजा आ गया या नहीं आया तो इसके दूसरे अर्थ निकाले जा सकते हैं। ऐसे ही शब्दों में शुमार है रगड़ाई। यह रगड़ तक तो फिर भी पावन-पवित्र रहता है, लेकिन रगड़ाई बनते ही सुनने वाले पर निर्भर करता है कि वह इसे किस तरह लेता है। हालांकि अशोक गहलोत यह कहते हुए बच सकते हैं कि उन्होंने जो कहा है, उसके लिए जिम्मेदार हैं। उसके लिए नहीं, जो आप समझ रहे हैं। लेकिन अगर प्रदेश का मुख्यमंत्री यह कहता है तो क्या वह यह कहना चाहता है कि राजनीति में आने के रगड़ाई करवानी जरूरी है?

ऐसे में राजनीति में रगड़ाई का अर्थ किन-किन अर्थों मे लिया जाए, यह भी बहस का विषय है। यह जानते हुए कि भारतीय लोकतंत्र महिला और पुरुषों को समान रूप से राजनीति में आने के लिए अवसर देता है। लिंग, जाति या रंग के भेदभाव को नहीं मानते हुए इस देश का प्रत्येक व्यक्ति राजनीति में भागीदारी कर सकता है तो फिर यह रगड़ाई की क्या शर्त हुई?
जब इस शब्द की यात्रा पर चर्चा करते हैं तो ध्यान आता है कि रगड़ाई शब्द अकेला नहीं आता, लेकिन निजी और व्यक्तिगत बातों में जरूर आता है। अगर कोई अनुभवहीनता का प्रदर्शन करता है तो उसमें परिपक्वता की कमी  को बताने के लिए व्यंग्योक्ति के रूप में रगड़ के साथ आई का प्रत्यय लगाते हुए कहा जाता है कि इसकी रगड़ाई नहीं हुई है, इसलिए इसे पता नहीं है। ऐसे में अगर इस तरह का कोई निर्देश भी दिया जाता है तो वह भी बंद कमरे में और बहुत की पर्सनली कहा जाता है कि कुछ दिन इसकी रगड़ाई करो।

इस तरह के निर्देश बहुत ही कम लोगों के बीच बातचीत का निर्णायक बिंदु होते हैं। सार्वजनिक रूप से यह कहा नहीं जाता कि उसकी रगड़ाई होगी आदि। बीकानेर मे अशोक गहलोत के कहे का अर्थ संदर्भों से निकाला जाए तो उनका कहना था कि बीकानेर के नेताओं की रगड़ाई नहीं हुई है। और अर्थ निकाले जाएं तो परोसी हुई थाली मिली है। और आगे चलें तो समझ आएगा कि रावळे रोटी मिली है तो बातें आती है। और यह मान लें कि अशोक गहलोत ने प्रकारांतर से कुछ भी नहीं कहा तो यह भी अर्थ है कि एनएसयूआई के कार्यकर्ता रगड़ाई के लिए तैयार हो जाएं। अभी तो नरेंद्र मोदी का ही शासन रहना है, लेकिन संघर्ष जारी रहा तो कांग्रेस को फिर से वैसे ही सत्ता मिलेगी, जैसी इंदिरा गांधी को प्रचंड बहुमत के साथ मिली थी।

 

अशोक गहलोत ने डेढ़ साल पहले सचिन पायलट के लिए इस शब्द का उपयोग किया। शनिवार को एनएसयूआई के सम्मेलन में उन्होंने इसे सिर्फ पायलट के लिए ही नहीं समूची कांग्रेस के लिए कहा। निजी बातों में उपयोग लाए जाने वाले इस तरह के शब्दों का उपयोग अगर एक जिम्मेदार राजनीति सार्वजनिक रूप से करता है तो इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके मन में अपने संगठन में हो रहे क्षरण का कितना दुख है। वे सामने दिख रहे भविष्य के प्रति बेचैन है, लेकिन कुछ नहीं कर पाने की छटपटाहट के कारण वे भड़के हुए भी हैं। कांग्रेस की दृष्टि से अगर देखा जाए तो वे देश के उन गिने-चुने नेताओं में शुमार है, जो कांगे्रस की संभावना है, लेकिन जैसे ही उन्हें पता चलता है कि बीकानेर में एक वर्ग सिर्फ इसलिए लॉबिंग कर रहा है है कि उसे यूआईटी का टिकट मिल जाए। एक मंत्री सिर्फ इसलिए नाराज है कि उसके पूछ बगैर फैसले हो रहे हैं। एक मंत्री को ऐसा लग रहा है कि उसके विभाग को बदलकर पर कतरे गए हैं तो एक मंत्री को लगता है कि उसे ऐसा विभाग दिया गया है, जिसका कोई काम नहीं है तो उनका बेचैन होना स्वाभाविक है। जो लोग अपनी सीट नहीं बचा सके, वे चाहते हैं कि उनके हाथ में संगठन की कमान रहे। जो कभी नहीं जीत सके वे कामकाज में व्यवधान का कारण बने तो भड़कना कहां गलत है। बीकानेर को क्या नहीं मिला। तीन मंत्री और तीन आयोगों के अध्यक्ष, कम होता है? यहां से तो एक निगम भी जीतकर नहीं दे सके, लड़ रहे हैं कि हमारा नेता प्रतिपक्ष बने!

ऐसे में अगर अशोक गहलोत चिढ़ें नहीं तो आरती तो उतारने से रहे।
ऐसे में उनका भवानीशंकर शर्मा या तिलक जोशी का याद आना स्वाभाविक है, जिनका कभी कोई सवाल ही नहीं होता था। कोई शिष्ट या अशिष्ट मंडल ही नहीं होता था। मित्रवत मिलते। गप्पें होती और इस बीच जिम्मेदारियां निभाई जाती। अगर अशोक गहलोत के लिए यह कहा जाए कि वे रगड़ाई शब्द की शक्तियों से परिचित नहीं हैं, तो यह उनकी विद्वता पर आक्षेप होगा। इस आलेख को पढ़ते हुए जैसे सभी के सामने रगड़ाई से जुड़े हुए सारे दृश्य तैर रहे हैं। गहलोत भी उनसे अनभिज्ञ नहीं होंगे, लेकिन कई बार ऐसा करना पड़ता है। सोई हुई कांग्रेस को जगाने के लिए ऐसे शब्द टंकारे की तरह काम लिये जाते हैं। अपेक्षाओं से भरे नेताओं को समझाने के लिए यह जरूरी है कि सिर्फ लेने के लिए ही नहीं, देने के लिए भी मन बनाएं। मेहनत करें। संगठन को मजबूत करे न कि इस बात के लिए खुद को तैयार रखें कि कल कांग्रेस के दिन खराब हुए तो भाजपा में चले जाएंगे। सामने दिख रहे भारत के राजनीतिक भविष्य मेंं कांग्रेस को बचाने के लिए यह शब्द कांग्रेसजनों को अंदर से झकझोरने का एक शस्त्र है। ऐसे प्रयास करते हुए हम अशोक गहलोत में एक ऐसे नेता को देख सकते हैं जो विचलित जरूरत है, लेकिन डरा हुआ नहीं है। इतने विपरीत समय में भी जो व्यक्ति इस तरह ललकारे वह अगर अशोक गहलोत है तो मान लीजिये कि सोती हुई कांग्रेस को जगाने का उपक्रम है।  देखना यह है कि इस स्वार्थी और अवसरवादी राजनीति में अशोक गहलोत की इस सीधी बात का कितना असर होता है।