निवेदन

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इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए आप इस अंक के समन्वय-संपादक संजय शर्मा से संपर्क कर सकते हैं। मोबाइल नंबर 9414958700

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आज पढ़ें

 मधु आचार्य ‘आशावादी’ की पुस्तक  से  व्यंग्य

       

मधु आचार्य ‘आशावादी’

मोबाइल : 9672869385

      परिचय : देश की आजादी के लिए बीकानेर में हुए स्वाधीनता आन्दोलन को सबसे पहले सामने लाने वाले पत्रकार। अब तक 200 से अधिक नाटकों में  अभिनय व निदेशन। नाटक, कहानी,कविता और जीवनानुभव पर 71 किताबें राजस्थानी-हिन्दी मे लिख चुके हैं। साहित्य अकादमी, नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार, संगीत नाट्य अकादमी का निर्देशन पुरस्कार। नगर विकास न्यास का टैस्सीटोरी  अवार्ड, जेवियर बीकानेर गौरव, राजीव रत्न, माणक रत्न अवार्ड आदि कई पुरस्कारों से सम्मानित। साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के राजस्थानी भाषा परामर्ष मण्डल के सदस्य और दैनिक भास्कर बीकानेर के कार्यकारी संपादक ।

 

‘पान ले लो पान’

कल नवाब साहब डॉक्टर को दिखाकर आए थे। एसीडीटी और गैस की समस्या बताई डॉक्टर ने। दवाइयां लिखी पर साथ में सुबह-सुबह घूमने की सलाह भी सख्ती से दी। सख्ती इतनी कि नवाब डर गए। डॉक्टर ने साफ-साफ कहा कि यदि घूमे नहीं तो बीमारी महंगाई की तरह बढ़ेगी और सीधे हार्ट तक पहुंच जाएगी। हार्ट की बीमारी से नवाब को शुरू से ही डर लगता था इसलिए घूमने का पक्का तय कर लिया।

बाजार से एक ट्रैक शूट खरीद कर लाए। पुराने जूते निकाले और धोकर उन्हें तैयार किया। बेगम को हिदायत दे दी कि मुझे हार्ट की बीमारी होगी और जिन्दा नहीं रहूंगा। तुम बेवा हो जाओगी। फिर खेल खत्म। न तो कोई तुम्हारी सुनने वाला बचेगा। न तुम्हारी सेवा करने वाला। फ्री का नौकर भी नहीं रहेगा।

नवाब की इस धमकी से बेगम डर गई। भरोसा दिला दिया कि पांच बजे से पांच मिनट पहले उठा दूंगी। चाय बनाकर पिला दूंगी। आराम से घूमने चले जाना। पास में ही पार्क है। बस, तुम स्वस्थ रहना। बेगम की इस  चिंता का नवाब को कारण पता था। उसे पता था कि मेरे जैसा भौंदू इसे अब मिलना नहीं।

खैर। पूरी तैयारी के साथ नवाब सुबह पांच बजे घर से घूमने के लिए अगले दिन निकल लिए। मौहल्ला पूरा सूना था। इक्का-दुक्का बुजुर्ग पुरुष महिला ही दिखाई दे रहे थे। हां, सफाई कर्मचारी झाड़ू लगाने के लिए जरूर आ गए थे। सब पर गहरी नजर डालते हुए नवाब पार्क की तरफ बढ़ रहे थे।

पार्क में पहुंचे तो देखा, वहां काफी लोग थे। कोई योग कर रहा था तो कोई बैंच पर बैठा शुद्ध हवा का भक्षण कर रहा था। एक दो ग्रुप में लोग बैठे सुबह-सुबह राज और नेताओ को गालियां निकाल खुद को जोरदार राजनीतिक विश्लेषक साबित करने में लगे हुए थे। कुछ ट्रैक पर घूम भी रहे  थे। नवाब को लगा जैसे यह सभी लोग गैस, एसीडीटी या हार्ट के रोगी हों। कई तो नवाब से भी ज्यादा मोटे थे।

नवाब का सुबह-सुबह घूमने का यह पहला अनुभव था। उसने गंभीरता से ट्रैक पर पांव रखे और घूमना शुरू कर दिया। अपनी चाल से चल रहे थे। पास ही एक व्यक्ति था जो तेज गति से चल रहा था। दूसरा तो लगभग दौड़ रहा था। उसे समझ नहीं आया कि वो कौनसा तरीका अपनाए। डॉक्टर से यह पूछना तो वो भूल ही गया था।

नवाब ने एक चक्कर सामान्य लगाया। दूसरों की देखादेखी दूसरा चक्कर तेज चलकर लगाया। तीसरा चक्कर थोड़ा दौडक़र लगाना शुरू किया पर आधे रास्ते में ही टैं बोल गई। हारकर ट्रैक से नीचे उतर गए और वहीं की बैंच पर बैठ गए। सांस तेज चलनी शुरू हो गई तो चिंतित हो गए। कहीं हार्ट तक तो असर नहीं हो गया, इस बात को सोचने लगे।

थोड़ी देर में सांस नॉर्मल हो गई। तब जी में जी आया। नवाब ने तय कर लिया कि अब भूलकर भी नहीं दौड़ेंगे। सामान्य चाल से चलेंगे। रोज सुबह बस चलना। कुछ देर बैंच पर सुस्ताने के बाद नवाब ने सोचा पहले दिन इतना घूमना ठीक है। धीमे-धीमे घूमने का समय बढ़ाएंगे। यह सोचकर वो पार्क से बाहर निकल लिए।

अब सुबह के छह बज गए थे। सूरज की लालिमा ने आकाश में विस्तार लेना शुरू कर दिया था। घरों और गलियों में भी हलचल बढ़ गई थी। उनको अब लगने लगा कि शहर जाग गया है। गली की सडक़ों पर लोगों की आवाजाही भी बढ़ गई थी।

नवाब अपनी धुन में चल रहा था। एक घर के आगे बैठे व्यक्ति को अखबार पढ़ता देख ठिठक गया। यह घर तो अखबारों में गाहे-बगाहे किसी भी बहाने से छपने वाले स्वयंभू साहित्यकार अपूर्णानंद जी का घर था।

वे तो रोज देरी से उठने के लिए मशहूर थे। पूरे शहर में उनके देर से उठने की चर्चा थी। आज उनके घर के आगे कौन बैठा है, यह जानने की उत्सुकता बढ़ गई। नवाब उस व्यक्ति के पास पहुंचे। आदमी के आने का आभाष तो हो ही जाता है। नवाब के पहुंचते ही अखबार हटाया तो सामने अपूर्णानंद ही नजर आए। नवाब को यह जानकार तसल्ली हुई।

– सुप्रभात अपूर्णानंद जी।

       उन्होंने बहुत ही रूखे स्वर में जवाब दिया।

– नमस्कार।

– आज इतनी जल्दी कैसे उठ गए आप। आप तो सूरज के परवान चढऩे पर ही अपनी आंखें खोलते हैं। कोई खास बात है?

– अरे नहीं।

– कुछ तो है। मैं तो आपके साहित्य का अनुरागी हूं। मुझे तो बता दो।

– नवाब, एक तुम्ही तो हो जो मुझे साहित्यकार मानते हो।

– क्यों, शहर के कई लोग आपको साहित्यकार मानते हैं।

– नहीं रे, कौन मानता है?

– क्या बात करते हैं आप। आप तो सप्ताह में चार दिन अखबार में छपते हैं। दो-तीन बार फोटो के साथ।

– उससे क्या होता है। लोग मानें तब ना। मठाधीश तो स्वीकारें।

– पर आपने यह नहीं बताया कि आज इतनी जल्दी कैसे उठ गए?

अपूर्णानंद ने एक लंबी सांस ली। अखबार को एक तरफ रखा। दोनोंं हाथों से चेहरे को पौंछा और फिर बोलने की मुद्रा में आए।

– फालतू ही जल्दी उठा। नींद खराब की। अब कब्ज की दिनभर शिकायत रहेगी, वो अलग।

– ऐसा क्यों?

– अखबार खरीदने के लिए जल्दी उठा।

– पर अखबार तो आपके घर आता ही है।

– देरी से देता है हॉकर। इसलिए अखबार खरीदने बस स्टैंड पर गया।

– ऐसी क्या खास बात आने वाली थी आज अखबार में।

– अरे कुछ आनी थी, तभी तो नींद खराब थी।

– मुझे भी बताइये।

– सेठ गुलकंद साहित्य पुरस्कार की घोषणा होनी थी।

– हुई

– तो।

– यह पुरस्कार इस बार मुझे मिलने की उम्मीद थी।

– कैसे?

– अरे, सेठ जी के पोते को मैंने एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनाया था। नितांत अनपढ़ फिर भी यह ओहदा दिया। आयोजन उसी के लिए किया ताकि पुरस्कार मुझे मिल जाए।

– ओह। – पर इस बार भी पुरस्कार मेरे प्रतिद्धंद्धीको मिल गया। सब मेहनत व्यर्थ गई।

– अच्छा, ये बात है।

– मेरा तो लिखना ही व्यर्थ हो गया।

– अरे पुरस्कार न मिले तो फिर लिखने का क्या फायदा?

– मैं समझा नहीं।

– नवाब, पुरस्कार मिलने से नाम होता है। लोग सम्मान करते हैं। कई दिन अखबारों में खबर चलती है। फेसबुक, ट्विटर, व्हाटसअप आदि पर बधाई देने वालों की बाढ़ आ जाती है। लिखना सार्थक हो जाता है। बीस लोग जानने लग जाते हैं। स्वयं पर मुग्ध होने का बड़ा अवसर मिल जाता है।

– अब समझा। पर लिखने का पुरस्कार से क्या संबंध। लेखक तो समाज, व्यक्ति के लिए लिखता है। ये आपने एक दिन भाषण में भी कहा था।

– कहा होगा। यह सब कहने कि बाते हैं। कहने में ही अच्छी लगती है। मूल रूप से तो लिखने वालों में अधिकतर पुरस्कार, सम्मान और जान पहचान बढ़ाने के लिए ही लिखते हैं।

नवाब यह सच सुनकर दंग रह गया। उसने तो साहित्यकार के मुंह से सामाजिक सरोकार, संवेदना, संघर्ष, प्रतिरोध आदि ही सुने थे। छोटे से लेकर बड़े साहित्यकार यही शब्द बोलते रहते हैं। आज तो दूसरा ही सच सामने आया।

– नवाब, क्या सोच रहे हो।

– मैं सोच रहा था कि स्वांत: सुखाय या जन हिताय ही साहित्य की रचना की जाती है।

– इस तरह के मुर्ख भी हैं साहित्य के क्षेत्र में। इससे उनको लाभ नहीं होता। नाम तो उसका होता है जो दनादन पुरस्कार ले और धड़ाधड़ सम्मानित हो। अखबारों में साहित्यकार से जुड़ी यही खबरें तो समाज, सरकार को प्रोत्साहित करती है। इसके आधार पर ही सरकार उनको छोटा-मोटा लाभ का पद देती है।

– यह पहलु तो मुझे पता नहीं था।

– अरे, अब तुझे क्या बताऊं मेरे एक साहित्यकार मित्र को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया पर उसे संतोष नहीं हुआ। गली, गांव, गवाड़ में एक हजार से पांच हजार तक के पुरस्कार लिए वो उसके बाद भी आवदेन करता रहा। मिल भी गए उसे पुरस्कार। अब तो उसके नाम के आगे दर्जनों पुरस्कार है।

– इससे उसके साहित्य को क्या फायदा हुआ।

– साहित्य का फायदा गया तेल लेने, पैसा और नाम तो मिल गया। खुद पर मुग्ध होने की भूख तो मिट गई।

– हां, यह बात तो सही है।

– तो बस, लिखने से ज्यादा ध्यान पुरस्कार और सम्मान पर हो।

यह तो तकड़ा गुरु मंत्र है।

इसी मंत्र को कइयों ने सीख लिया। सीख कर साहित्य को उन्होंने पार्टटाइम जॉब की तरह काम में लेना आरंभ कर दिया।

– वो कैसे?

– देख लो मास्टर, डॉक्टर, बाबू, चपरासी है वो जो साहित्यकार का तगमा लेकर घूम रहे हैं और पुरस्कार पा रहे हैं। केवल साहित्य के लिए समर्पित साहित्यकार तो चिराग लेकर ढूंढऩे पर भी नहीं मिलते। मैं तो तथ्यों के आधार पर ही बोल रहा हूं। ऐसे लोगों का रिकार्ड है मेरे पास।

– आपने तो जनसंख्या की गणना की तरह ऐसे साहित्यकारों की गणना कर रखी है।

– नवाब, रिकार्ड रखना पड़ता है। कोई बोले तो तुरंत रिकार्ड सामने रख दो, बोलती बंद हो जाती है।

– बात में दम है।

– मेरी तो हर बात में दम है, बस पुरस्कार नहीं है। सम्मान नहीं है।

– अफसोस की बात है।

– बहुत गहरे अफसोस की बात।

– बिल्कुल ठीक।

आज की खबर पढ़ कर बहुत दु:ख हुआ। मन टूट गया। बड़ी उम्मीद थी कि सेठ गुलकंद साहित्य पुरस्कार मिल जाएगा तो अपनी भी दुकान चल पड़ेगी। वो भी नहीं मिला। अब तो लगता है साहित्य की बात छोडक़र पान की दुकान खोल लेनी चाहिए।

– क्या बात कह रहे हैं आप?

– ठीक कह रहा हूं।

– शब्दों का पुजारी, पान बेचेगा।

– बुराई क्या है। हमारी पीढ़ी के एक बड़े रचनाकार ने भी एक बार इसी तरह का निर्णय किया था।

– निर्णय किया पर पान बेचे तो नहीं।

– बेचे, कुछ दिन।

– अच्छा। फिर बेचना बंद क्यों किया।

– मूड नहीं बना। पुरस्कार और सम्मान भी उसके बाद उन्हें खूब मिले।

– अपूर्णानंदजी, माफ करें। पुरस्कार और सम्मान पान बेचने के कारण नहीं मिला, अच्छा लिखा इसलिए मिला।

– मैं दुकान खोलूंगा, कमाई तो होगी।

       नवाब एक बार तो चुप हो गया। थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोला।

– आपको कम्प्यूटर चलाना आता है।

– हां।

– नेट से गुगल में सर्च करना?

– वो भी आता है।

– फेसबुक चलाते हैं।

– हां, भाई। तीन सालों से चला रहा हूं।

– तब तो बात बन गई।

– कैसे?

– आपको पान की दुकान खोलने की जरूरत ही नहीं है।

– वो कैसे?

– मेरे दिमाग में एक आइडिया है।

– अच्छा, क्या है। मुझे बताओ।

– बताता हूं, थोड़ा सब्र करो।

– पुरस्कार से जुड़ी बात पर कोई लेखक सब्र कर ही नहीं सकता। कम से कम वो लेखक तो नहीं जो पुरस्कार की जुगाड़ में लगा हो।

       नवाब हंस दिया।

– यह हंसने की बात नहीं, सच है।

– इतना तो अब मैं भी जान गया हूं।

–  फिर आइडिया बताओ।

– अपूर्णानंदजी, आप कम्प्यूटर की दुकान खोल लो।

– वो क्यों?

– कमाई हो जाएगी और दूसरा फायदा भी होगा।

– वो कैसे?

– आजकल अधिकतर पुरस्कारों के आवेदन ऑनलाइन मांगे जाते हैं। कम्प्यूटर से कमाई का काम करते रहना, कमाई हो जाएगी। खाली समय में आवदेन को खोजते रहना। हर जगह आवेदन करना, कहीं न कहीं तो आयोजक फंस ही जाएंगे। एक पंथ दो काज।

अपूर्णानंद चुप हो गया। सोचने लगा। आइडिया तो जोरदार लगा उसे। वो एक लेखक को जानता था जो दिन रात कम्प्यूटर पर ही बैठा रहता था। पुरस्कार के लिए हर जगह आवेदन करता था और साल में आठ से दस पुरस्कार तो लेता ही था। छोटी उम्र में पुरस्कारों के बूते वरिष्ठ साहित्यकार के रूप में स्थापित भी हो गया था। उसका चेहरा आंखों के सामने घूम गया और चेहरे पर चमक आ गई।

– वाह नवाब, कमाल का आइडिया दिया है। मैं कम्प्यूटर की दुकान ही खोलंूगा।

नवाब राय मानने पर खुश हुआ। एक साहित्यकार को दुकानदार होने से आज बचा लिया, साहित्य और समाज के लिए कुछ तो किया। अपने इस काम से उसे बहुत संतोष मिला। संतोष का भाव लेकर नवाब अपने सुबह के भ्रमण को पूरा कर घर की तरफ लौट आया।

एक सप्ताह बीत गया। नवाब उस बात को भूल गया। उसकी अपनी दुनिया थी। उसने तो समय बिताने के लिए उस दिन अपूर्णानंद से हथाई कर ली थी। साहित्य से उसे अनुराग था मगर इस तरह के साहित्यकारों से नहीं। वो खुद लिखता नहीं था मगर साहित्य के आयोजनों में रुची के साथ जाता जरूर था।

उस दिन सुबह नवाब घूमने के लिए घर से निकला। पार्क पहुंच कर घूमना आरंभ कर दिया। टै्रक के चक्कर लगाए और सुस्ताने के लिए बैंच पर आकर बैठ गए। थोड़ी देर में ही एक व्यक्ति पास आया। शालीनता से नमस्कार किया और अनुमति लेकर बैंच पर पास में बैठ गया। मौका देखकर बात शुरू की।

– नमस्कार। आप नवाब साहब है ना।

– हां। आपको कैसे पता चला।

– अनेक साहित्यिक आयोजनों में आपको देखा है। मैं भी उनमें आता-जाता रहता हूं।

– अच्छा। बताइये।

– एक दूसरी बात पूछ रहा था।  जरूर।

– आपके वार्ड मेंबर है ना लतीफ भाई। वो हमारे मित्र हैं।

– अच्छी बात है।

– हमने चुनाव में उनको ही वोट दिया।

– वाह। आप तो फिर हमारे ही साथी हुए।

– जी। इसीलिए आपसे बात कर रहा हूं।

– आप बात को लंबा करने के बजाय सीधे बताइये।

– आपकी एक सामाजिक वेलफेयर सोसायटी है, जिसके आप अध्यक्ष हैं।

– मैं ही अध्यक्ष हूं।

– आप परसो मेरे सम्मान का कार्यक्रम करवाइये ना।

– किस खुशी में।

– मुझे साहित्य मनीषी का सम्मान मिला है, इसलिए।

– ओह! आपको यह बड़ा सम्मान किसने दे दिया।

– अलोम-विलोम समिति ने दिया है। मैंने वार्ड मेंबर जी से कहा तो उन्होंने सम्मान के लिए आपसे मिलने का कहा। आप तो अपने कार्यालय में आयोजन तय कर प्रेस नोट जारी कर दीजिए। सम्मान का सम्मान, नाश्ता, दूसरा खर्चा आदि सब मेरा। आपकी संस्था का अखबारों में नाम भी हो जाएगा।

– ऐसा क्या?

– हां। तो आप आज अपनी संस्था का लेटर हैड दे दें। मैं आयोजन की प्रेस विज्ञप्ति जारी करवा दूंगा। मेरा चेला है एक शायर, अच्छी प्रेस विज्ञप्ति लिखता है। उससे लिखवा अखबारों के दफ्तर भिजवा दूंगा।

– ठीक है। आप दिन में मुझसे लेटर हैड ले लेना।

उसने मेरे मोबाइल नंबर ले लिए। पता पूछ लिया और चल दिए। साहित्य मनीषी कितने विनम्र है, यह देख कर दंग रह गया। धन्य है सम्मान देने वाले और सम्मान लेने वाले।

नवाब उठकर चल दिया घर की तरफ। गली में पहुंचा तो देखकर दंग रह गया कि अपूर्णानंद आज भी सुबह-सुबह घर के बाहर खड़े थे और जिस रास्ते से मैं आ रहा था, उसी राह को निहार रहे थे। देखते ही बोले।

– रुको नवाब, तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था। चाय का कहा हुआ है। बैठो।  नवाब बैठ गया।

– मैंने कम्प्यूटर की दुकान बंद कर दी।

– क्यों?

– तीन-तीन पुरकार मिल गए। फूलचंद, भूलचंद और सीता मैया पुरस्कारों के लिए मेरा चयन हो गया।

– अरे वाह, कमाल हो गया।

– जब पुरस्कार मिल गए तो दुकान क्या चलाना। अब तो मंजे हुए साहित्यकार बन ही गए। साहित्य की सेवा करेंगे। पुरस्कार की ट्रिक सीख ली। साहित्य की सेवा करेंगे। इसी फील्ड में रहेंगे।

नवाब चकित था। सोच रहा था कि साहित्य पुरस्कारों के लिए कभी कोई कानून बनेगा क्या? नहीं बना तो ऐसे लोग ही पुरस्कार पाते रहेंगे। पर नवाब को संतोष था कि उसने एक साहित्यकार को दुकानदार होने से बचा लिया। व्यापार का तो कुछ भला होगा ही।

 

 

 

सीमा भाटी की पुस्तक से कहानी ‘महीन धागे से बुना रिश्ता’

कहानीकार : सीमा भाटी

 मोबाइल 9414020707

        परिचय : उर्दू और हिन्दी में सृजन। कहानियां नज्म गजलें लिखती हैं। राजस्थानी कहानियों का उर्दू में अनुवाद समीक्षा। स्कूल के अलावा भी बच्चों को उर्दू पढ़ाती हैं। मंच संचालन, गायन और पर्वतारोहण में भी रुचि। कर्णधार सम्मान श्रेष्ठ शिक्षक सम्मान सहित कई संस्थाओं से सम्मानित। उर्दू साहित्य में शोधरत

                                                                              महीन धागे से बुना रिश्ता

बालकनी में खड़ी चारुलता तेज़ आवाज़ के साथ निकल रही रेलगाड़ी को देख रही थी। रेल के पहियों का पटरियों पर आगे बढऩा उसे हमेशा ही लुभाता रहा है। जैसे ही वक्त मिलता रेलगाड़ी के आने के वक्त बालकॉनी में आकर खड़ी हो जाती और पटरियों पर दौड़ती रेलगाड़ी को देखती रहती। रेल जा चुकी थी और हमेशा की तरह रेल जाने के बाद अचानक से होने वाला सन्नाटा उसके आसपास भी हो गया था। इस सन्नाटे को कॉलबेल ने तोड़ा।

चारु ने आवाज़ लगाई, ‘शीला देखो तो कौन है?’

शीला तब तक दरवाज़ा खोलने पहुंच चुकी थी। वो वहीं से बोली, ‘ऑिफस से रामनिवास जी आए हैं। कह रहे हैं मैडम की डाक है…’ ये कहते हुए शीला ने चारु के हाथ में लिफाफा थमाया। चारु ने खोला तो देखा कि उसे विजयगढ़ बुलाया गया था। जहां वो पैदा हुई थी। अचानक से कुछ समझ नहीं आया कि सरकार को ऐसी क्या ज़रूरत आ पड़ी है कि अचानक रिपोर्टिंग करने के लिए कहा। उसे याद आया कि विजयगढ़ के हालात बे$काबू हैं, वहां कोई एक बच्ची के साथ बलात्कार की घटना के बाद साम्प्रदायिक तनाव भडक़ उठा है। चारु को एक-एक कर सारी बातें याद आने लगीं। बीते सात साल में कितना कुछ बदल गया। विजयगढ़ उसका अपना घर। अब वहां कुछ भी तो नहीं रहा है। मां-बाप भाई के पास सैटल हो गए हैं और वो अपनी जि़ंदगी में।

यादों के भंवर में उलझी चारु ने नरेश को फोन करके तमाम बातें बताई तो नरेश ने तंज़या अंदाज में कहा, ‘और बनो कलक्टर… किसने कहा था तुम्हें कलक्टर बनने के लिए?’ ‘आपने तो नहीं कहा ना डॉक्टर साब? रोज़ाना डॉक्टरों जैसे सवाल करते रहते हैं, किसने कहा? क्या खाया? आज शाम को ही जाना होगा….आप वक़्त पर आ जाइयेगा?’

नरेश हंसा और चारु ने फोन रख दिया। शीला से अटैची लाने का कहते हुए चारु ने टीवी ऑन किया तो विजयगढ़ के हालात बताए जा रहे थे। चारु एक बार ठिठक गई। विजयगढ़ का सफर पूरी एक रात का था। कल सुबह तक पहुंचेगी, ये सोचते हुए चारु ने वार्डरोब से कपड़े निकालने शुरू किए तो एक साड़ी भी हाथ में आ गई।

इरफान द्वारा दिया गया जन्मदिन का तोहफा आमरसी साड़ी, उसके हाथ में थी। इरफान और ये रंग दोनों जैसे एक होकर उसके सामने एक मंज़र बनाने लगे और चारु को लगा कि अगर वो जल्द ही इस मंज़र से बाहर नहीं निकली तो काफी देर तक निकल नहीं पाएगी। उसने साड़ी को भी अटैची के दूसरे सामान के साथ रख दिया। सामान पैक करने के बाद वो डायनिंग-टेबल पर जा बैठी और टीवी को ऑन किया। टीवी पर विजयगढ़ की खबरें ही छाई हुई थीं। सारा मीडिया विजयगढ़ पहुंच चुका था और चारु बहुत करीब से अपने विजयगढ़ को देख रही थी। विजयगढ़ उसका अपना शहर था और उसे टीवी में चल रहे मंजऱ को पहचानने में मुश्किल नहीं हो रही थी, मगर इन दिनों वहां के हालात ठीक नहीं थे। विजयगढ़ एक छोटा-सा कस्बा था, जहां कॉलेज भी नहीं था। चारु को पढऩे के लिए शहर जाना पड़ा था। उन्हीं दिनों को याद करते हुए चारु कहीं गुम थी, तभी नरेश की गाड़ी का हॉर्न बजा। गाड़ी के हॉर्न के साथ ही चारु हकीकत से रूबरू हुई, उसने शीला को आवाज़ लगाई, ‘शीला! चाय बना ला, साहब आ गए हैं।’

नरेश ने आते ही पूछा, ‘कब निकलना है?’

चारु ने लिफाफा सामने रख दिया। नरेश ने देखा और कहा, ‘गई पांच दिन की….!’

चारु ने उदास स्वर में कहा, ‘अब सब कुछ यहां आपको ही देखना होगा। बच्चों का स्कूल, टिफिन, हॉस्पीटल और हां, खुद को भी…’‘एक बात बताओ यार, आपको कलक्टर बनने लिए कहा किसने था?’

नरेश के सवाल पर देर तक चारु उसका चेहरा देखती रही और तपाक से बोली, ‘तुमने तो नहीं कहा था ना?’

‘दुनिया का कोई पति नहीं होगा जो ये चाहे कि उसकी बीवी कलक्टर बने!’ नरेश ने ऐसे कहा जैसे वो दुनियाभर के पतियों का खैरख़्वाह हो।

‘ओके, गलती हो गई, मगर अब क्या करें? आप को कल से घर की जि़म्मेदारी संभालनी है…विकास को सुबह उठना बहुत बुरा लगता है…उसे छह बजे उठाना शुरू करोगे तो साढ़े छह बजे तक उठ पाएगा, नीहारिका मुझ पर गई है…।’

चारु की बात काटते हुए नरेश ने कहा, ‘आप िफक्र न करें मैडमजी, आप उन नफरत फैलाने वालों को मुहब्बत की ज़बान सिखाइये और नहीं मानें तो लॉ-एंड-आर्डर के रूल लगाइये, बच्चों की िफक्र छोडिय़े। …और हां, अगर वहां किसी को हमारी यानी डॉक्टर की ज़रूरत हो तो बुला लीजियेगा।’

‘पागल हो गए हो तुम नरेश? पूरे 12 घंटे का सफर है। दूसरा स्टेट है, वहां तुम्हें बुलाऊंगी?

चारु की खीज नरेश को अच्छी लगती और फिर दोनों हंसने लगते। आज भी ऐसा ही हुआ। दोनों की ये एक छोटी-सी दुनिया थी। दोनों अपने बच्चों के साथ खुश थे।

चारु शादी से पहले ही सिविल सर्विसेज के लिए चुन ली गई थी। अपना प्रदेश छोडऩा ज़रूरी था। इस बीच शादी की बात चल निकली। पिताजी को नरेश पहले से ही बहुत पसंद था। दोनों परिवारों के बीच पुरानी रिश्तेदारी भी निकल आई। चारु को पहली नियुक्ति मिली तब तक नरेश से उसकी शादी हो चुकी थी। वक्त पंख लगाकर उड़ता रहा। दस साल गुज़रने को थे दोनों की शादी को।

दुनिया के लिए कलक्टर चारु घर में गृहिणी होती और नरेश ने भी मरीज़ों को घर में देखने पर रोक लगा रखी थी। हॉस्पीटल में पूरी ड्यूटी देता और वार्ड में भी राउंड लेता, लेकिन घर में मरीज़ों को आने की इजाज़त ही नहीं थी। एक खुशनुमा जि़ंदगी जी रहे थे दोनों। गाड़ी हिचकोले खाते हुए आगे बढ़ रही थी। ड्राइवर मोती से पूछा तो उसने बताया कि राजस्थान में दािखल कर चुके हैं। चारु मुस्करा दी। मोती के कहने का लहज़ा सीधा-सपाट रहा होगा, मगर चारु को लगा कि वो राजस्थान की सडक़ों की शिकायत कर रहा है। यादों के धागे फिर से खुलने लगे। चारु विजयगढ़ पहुंचने से पहले ही वहां की गलियों में खोने लगी। नहर किनारे बसे उस कस्बे की बहुत सारी यादें थीं। चारु उन्हें याद करने से डर भी रही थी और उसे ये सब याद करना अच्छा भी लग रहा था। शाम होते-होते विजयगढ़ पहुंचे तो वहां के हालात कफ्र्यू जैसे थे। सूनी सडक़ पर एंबेसडर तेज़ी से आगे बढ़ रही थी। सडक़ पर किसी गड्ढ़े से होकर निकलती तो हिचकोला लगता। चारु ने लिफाफा खोलकर देखा, अफसरों को पहले पंचायत-समिति में रिपोर्ट करने के लिए कहा गया था, वहीं से उन्हें निर्देश मिलने थे। चारु पंचायत समिति जानती थी, उसने मोती को इशारे से समझाना शुरू किया तो मोती ने पूछ लिया, ‘आप तो यहां सब जानती हैं मैडमजी…’

चारु मुस्करा दी, ये मेरी जन्मभूमि है मोती…मगर अब यहां हमारा कोई नहीं…’

मोती ने उसकी बात को नहीं समझते हुए भी हामी भरी तो चारु को जैसे अपनी $गलती का अहसास हुआ और उसने बात बदलते हुए कहा, ‘मम्मी-पापा तो भाई के पास विदेश में रहते हैं ना…और सुनो-सुनो, गाड़ी रोको, यही है पंचायत समिति।’

चारु की बात पर मोती ने तेज़ी से ब्रेक लगाए।

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पंचायत समिति को छावनी में तब्दील कर दिया गया था। सरकारी गाडिय़ां और पुलिस ज़ाब्ता। गाड़ी खड़ी होते ही पुलिसवाले दौड़ते हुए पहुंचे तो मोती ने तार्रूफ पेश किया। पुलिस की एक गाड़ी आगे हो गई। कार पंचायत समिति में दाखि़ल हुई। चारु को देखते ही अ$फसर ऐसे खड़े हुए जैसे उसी का इंतज़ार कर रहे हों, मगर चारु कुछ समझ नहीं पाई। सरसरी तौर से बात होती रही। विजयगढ़ के हालात के मुतआल्लिक चारु ने पूछा तो सभी का यही कहना था कि कल सीएम आ रहे हैं, चीफ  सेक्रेट्री रात को ही पहुंच जाएंगे। यहां के कलक्टर और एसपी पर तो मुआमले को दबाने के आरोप हैं। लोग इस घटना से जितने नाराज़ हैं, उससे ज़्यादा यहां के कलक्टर-एसपी के काम करने के तरीक़े से खफा हैं। इसलिए अब नए तरीके से काम करना होगा। चारु को कुछ समझ में नहीं आया। उसने याद करने की कोशिश की तो उसे याद नहीं आया कि कभी ऐसे हालात विजयगढ़ के रहे। अफसरों से मिलने के बाद वो अपने कमरे में चली गई। अख़बारों में अफसरों को ही जि़म्मेदार माना गया था। ये सब देखकर एक बार तो उसे भी हैरत हुई, उसने खुद से ही सवाल किया, ‘ऐसे माहौल में उसे क्यों बुलाया गया है?’ सफर की थकान और विजयगढ़ के हालात कुछ भी नया सोचने की इजाज़त नहीं दे रहे थे। उसने नरेश को फोन किया और देर तक बातें करने के बाद नींद के आगोश में चली गई।

चारु सुबह उठी तो आसपास की बहुत सारी चीज़ें अपनी-सी महसूस हुई। माहौल में बिखर रही खुशबू उसे जानी-पहचानी लगी। ये सुबह उसे बरसों बाद मिली थी। उसके अपने विजयगढ़ की सुबह। उसने सर्किट हाउस की खिडक़ी को खोलकर देखा तो हरियाली से भरा विजयगढ़ का मंजऱ दिखाई दिया। उसे अपने दोस्त याद आने लगे। एक व$क्त में यहां आने वाले अफसरों की गाडिय़ों को देख-देख कर खुश होने वाली चारु खुद एक अफसर बनकर यहां आई थी। उसे याद आया कि दस बजे तो मीटिंग का टाइम है। वो फौरन तैयार होकर बाहर निकली तो मालूम चला कि सीएम के आने में देर है, सीएम की बैठक में जिले के कुछ खास अफसरों के साथ चारुलता का नाम भी शामिल था, उसे बताया गया कि वो सीधे मीटिंग हॉल में पहुंचे।

दस बजे चीफ  सेक्रेटरी के साथ मीटिंग का टाइम था। मीटिंग शुरू होने वाली थी। चारु पहुंची तो देखा कि बहुत कम अफसर यहां मौजूद हैं। मकामी अफसर ने चारु का तार्रूफ सभी से करवाया और एक अफसर की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘मैडम, इन्हें तो आप जानती ही होंगी, इरफान खान…’

चारु ने चेहरे पर कोई तास्सुर लाये बगैर इरफान के सामने हाथ बढ़ाया और बोली, ‘कैसे हो इरफान साहब…?’

इरफान कुछ कहता उससे पहले ही अफसर ने कहा, ‘आप दोनों यहीं के हैं तो लगा कि एक-दूसरे को जानते ही होंगे।’

इरफान ने मुस्कराते हुए कहा, ‘सही सोचा…’

इरफान का आज भी वही लहज़ा था, बात को भारी करके बोलना और सामने वाले को कुछ नहीं समझना इरफान की आदत का हिस्सा था, जिस पर चारु हमेशा उसे टोकती और वो था कि अपना ये देसीपन छोडऩे को कभी राज़ी ही नहीं था। आज भी वैसा ही लगा।

आज भी चारु कुछ कहने वाली थी कि मीटिंग हॉल में हलचल हुई और चीफ सेक्रेटरी पहुंचे। चीफ सेक्रेटरी ने अ$फसरों की मीटिंग लेते हुए बताया कि हालात बेक़ाबू हो रहे हैं और तमाम गलतियां हमारे अफसरों की बताई जा रही हैं। अब जितना जल्द हो सके, कुछ न कुछ करना होगा। चीफ सेक्रेटरी ने इरफान और चारु से मुख़ातिब होते हुए कहा, ‘आप दोनों पैदाइशी राजस्थान के हैं और इसी कस्बे के हैं, हम चाहते हैं कि आप यहां के माहौल को सुधारने के लिए काम करें…’

इर$फान और चारु ने इस बात से इत्तफाक किया।

चीफ सेक्रेटरी ने दोनों को इस मुआमले की सारी फाइलें देने के निर्देश दिए और बोले, ‘आप दोनों अपने-अपने जि़ले के कलक्टर-एसपी हैं, आपको दो दिन से ज़्यादा यहां रखा भी नहीं जा सकता। आपको स्पेशल-परमिशन से यहां बुलाया गया है। इन दो दिनों में ही आपको कुछ करना होगा।’

चारु ने इरफान को देखा और इरफान ने बेपरवाही से इशारा कर दिया जिसका मतलब था, ‘कर लेंगे!’

चीफ सेक्रेटरी ने दूसरे अफसरों को ड्यूटी दी और रणनीति बताई। कुछ ही देर में सीएम का आना हुआ। सीएम के चेहरे के तनाव से ही सबकुछ समझ में आ रहा था। सीएम चीफ सेक्रेटरी पर बेहद नाराज़ थे। और फिर इरफान की तरफ मुखातीब होते हुए इस बात पर भी नाराजग़ी ज़ाहिर की कि ऐसे मुआमले को साम्प्रदायिक रंग कैसे दिया गया? अगर वक्त पर रहते कार्यवाही हो जाती तो ऐसा कुछ भी नहीं होता।’

सीएम ने दोनों को एक नजऱ देखा और बोले, ‘क्या आप के हवाले आपका कस्बा किया जा सकता है?’

चारु में न जाने कहां से हिम्मत आ गई और बोल पड़ी, ‘हम बहुत अच्छा काम करेंगे सर…’

सीएम के मुंह से निकला ‘गुड!’ और नज़रें इरन पर गड़ाते हुए कहा, ‘एसपी साब, यहां आपके पास पुलिस वाले अधिकार नहीं हैं… आपको मालूम है ना…?’

‘सर, आपको हम पर यक़ीन है, यही बड़ी बात है। हम दोनों सादी वर्दी में घूमेंगे और यहां के अफसरों से राब्ता रखेंगे।। बस, एक दरख़्वास्त है…’

सीएम ने इरफान को देखा तो चारु का दिल धडक़ उठा, ‘जाने क्या कहेगा?’

‘सर, दो दिन के लिए सियासी लोगों को अलग कर दीजिये।’इरफान की इस बात पर चीफ सेक्रेटरी के चेहरे पर पसीना आ गया। उन्हें लगा कि इरफान को ऐसा नहीं कहना चाहिए था? मगर सीएम मुस्कराते हुए बोले, ‘आप जानते हैं, ये मुमकिन नहीं है। ये मुमकिन होता तो फिर आपको यहां नहीं बुलाया जाता…आप अपना काम कीजिये, उन्हें अपना काम करने दीजिये।’

‘ओके सर! हम सबसे पहले हॉस्पीटल जाना चाहेंगे…’

****

मीटिंग ख़त्म होते ही दोनों हॉल से बाहर आए और सीधे हॉस्पीटल की तरफ निकल गए। इरफान और चारु के लिए विजयगढ़ अनजान नहीं था। कुछ ही देर में दोनों हॉस्पीटल में थे।

दोनों को देखते ही वहां का माहौल गर्मा गया। कुछ लोग दोनों को पहचानते थे। चारु आगे बढ़ी और सीधे बैड के पास जाकर खड़ी हो गई। उसने बच्ची को देखा जो सो रही थी। चेहरे पर दर्द की बेशुमार लकीरें। चारु का मन भर आया। उफ! इसके साथ इतनी घिनौनी हरकत! कहां है इंसानियत?

साथ आए एक अफसर ने इशारे से बताया कि ये है इसकी मां। लडक़ी की मां बदहवास थी। रोते-रोते आंखों की सूजन अपनी इंतिहा को पहुंच चुकी थी। चारु देखते ही पहचान गई, उसने इरफान के कंधे पर हाथ रखकर धीरे से कंधा दबाते हुए कहा, ‘इरफान… ये तो ज़ीनत खाला है…’

ये कहते हुए वो सीधी ज़ीनत खाला के पास गई और उनके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘देखो तो खाला, कौन आई है… आपकी बड़ी बेटी…चारुल!’

ज़ीनत ने देखा और देखते ही पहचान गई। चारुल के गले लगकर फूट-फूटकर रो पड़ी। ‘देख बेटा, तू यहां से गई तब हिना पांच साल की थी। क्या हाल किया है इसका देख?’

‘सब देख रही हूं ख़ाला और आपको बता दूं, किसी को नहीं बख़्शा जाएगा।’ कहते हुए चारु ने डॉक्टर को बुलवाया। डॉक्टर के आने से पहले ही कुछ लोगों ने आकर वहां हंगामा करना शुरू कर दिया। इरफान ने घूमकर उन्हें देखा तो माहौल ही जैसे बदल गया। लोग इरफान को पहचान चुके थे, उसके इशारे से रुक तो गए मगर चेहरों पर गुस्सा था।

एक ने आगे बढ़ते हुए कहा, ‘तो सरकार ने भाई के सामने भाई को खड़ा कर दिया है… वही अंग्रेजों वाली बात, फूट डालो और राज करो। पहले तो मुसलमान की बेटी से ज़्यादती और फिर आक्रोश को दबाने के लिए मुसलमान को ड्यूटी।’

‘खालिद चाचा, ऐसा नहीं है..’ इरफान ने समझाना चाहा।

‘खालिद चाचा ये सुनकर हंसने लगे। इरफान को देखते हुए बोले, ‘दुनिया देखी है बेटा। क्या सरकार के पास अ$फसरान की कमी थी जो पंजाब से तुम्हें बुलाया?’

‘ओके! मानता हूं आपकी बात को, मगर आपको ये भी बता दूं कि सरकार ने चारुलता को भी यहां भेजा है।…सरकार ने मुसलमान या हिंदू के सामने नहीं बल्कि एक शहर के अमनोअमान के लिए हमें यहां भेजा है।’

ये सुनते हुए चारुलता भी आगे आ गई। ख़ालिद चाचा को देखते ही उसने सलाम किया। ख़ालिद चाचा का हाथ उसके माथे पर चला गया, ‘चारुल बेटी तू तो हमें भूल ही गई। कलक्टर साहिबा बन गई, सुना है…’

अपनी गलती स्वीकार करते हुए चारुल ने ख़ालिद चाचा और दूसरे लोगों को साथ लिया और एक ओर चले गए। विजयगढ़ के अफसर भी हैरान थे मगर उन्हें भी मालूम था कि चारु और इरफान की पैदाइश यहीं की है, इसलिए उनकी बात का असर तो पड़ेगा ही। विजयगढ़ में ये ख़बर आग की तरह फैल चुकी थी कि चारु और इरफान आए हैं। पुराने लोग चारु और इरफान को बहुत अच्छे से जानते थे। दोनों खानदान के बीच अच्छे रिश्ते, दोनों की दोस्ती और भी बहुत सारी बातें। विजयगढ़ को अपने इन दोनों होनहारों पर फख्र था। जैसे ही हनुमान चौक में  मालूम चला कि अफसर आ रहे हैं वहां हलचल बढ़ गई।

चारु और इरफान को देखते ही लोगों के चेहरे खुशी से खिल उठे। कुछ लोगों के चेहरे पर तनाव था। सुरेंद्र के घर में तोड़-फोड़ करने वालों के िखलाफ लोगों को गुस्सा था। इरफान ने आगे बढक़र गांव के बुजुर्गों के पांव छुए तो लोगों का मन भर आया, पीछे चारु भी थी।

‘बेटा, ‘हम कहां कह रहे हैं कि सुरेंद्र को सज़ा नहीं मिले। उसने ग़लती की है तो सज़ा मिलनी चाहिए…’ एक बुजुर्ग ने कहा तो एक शख़्स आगे बढ़ते हुए बोला, ‘गलती कौन तय करेगा, दोनों का टांका था, बात बढ़ गई तो…सारे मुआमले की तहकीकात हो, लेकिन सुरेंद्र के परिवार वालों पर या घर पर कोई आफत आई तो छोड़ेंगे नहीं…’

नौजवान की बात सुनकर अचानक ही चारु और इरफान की नजरें मिलीं और झटके से दोनों ने एक-दूसरे से आंखें फेर ली।

एक मकामी अफसर ने दोनों को मौके की रिपोर्ट पेश करते हुए कुछ जानकारियां दीं।

चारु ने बुज़ुर्गों से हाथ जोडक़र कहा, ‘आप शांति बनाए रखिये। अगर आपको सुरेंद्र की जानकारी है तो बता दीजिये। हम आपसे वादा करते हैं कि आपको कोई परेशानी नहीं होगी।’

इरफान ने भीड़ की ओर बढ़ते हुए कहा, ‘इसी जगह मैं भी रहा हूं, खूब खेला हूं। एक ही बात कह सकता हूं, तुम्हारे भाई को ये ड्यूटी दी गई है कि विजयगढ़ में अमन रहे।’

भीड़ पर जैसे जादू छा गया। कुछ देर पहले जो लोग गुस्से में थे वो इर$फान से हाथ मिला रहे थे। चारु सुरेंद्र के घर के अंदर चली गई और वापस आई तो उसके चेहरे पर सुकून था।

वापस सर्किट हाउस आते वक्त चारु और इरफान के बीच ख़ामोशी थी। दोनों ने पहले चीफ  सेके्रटरी को रिपोर्टिंग की। चीफ  सेक्रेटरी पहले से ही पल-पल की ख़बर ले रहे थे। दोनों के काम से काफी खुश नजऱ आए। चीफ सेक्रेटरी ने बताया कि असामाजिक तत्त्वों को पाबंद कर दिया गया है।

चारु और इरफान हौसले से भरे हुए थे। इरफान ने बताया कि इस शहर की आबोहवा से वे वाकिफ़़  हैं और दो दिन में यहां के हालात में सुधार दिखने लगेंगे। और दोनों अपने-अपने रूम की ओर चले गए।

****

शाम का धुंधलका होने लगा था। विजयगढ़ की ये शाम चारु के लिए नई नहीं थी। आज पहली बार उसे ड्यूटी पर जाने के बाद भी थकान महसूस नहीं हो रही थी। उसका मन कर रहा था कि एक बार फिर हिना और सुरेंद्र के परिवार के बीच में जाये। उसे अपना-सा माहौल मिल रहा था। उसने खुद से सवाल किया कि अपना-सा माहौल उसे विजयगढ़ की वजह से मिल रहा था कि विजयगढ़ में इरफान के होने की वजह से। वो खुद को जवाब नहीं दे पाई। माज़ी के पन्नों को पलटते हुए वो तकरीबन दस साल पीछे चली गई, जब इरफान और वो दोस्त हुआ करते थे। चारु ने खुद को रोका और खुद से पूछा, सिर्फ दोस्त? नहीं, दोस्त से भी बहुत ज्यादा। हमदर्द और एक-दूसरे के साथ जि़ंदगी बिताने का ख़्वाब देखने वाले। एक-दूसरे की कामयाबी चाहने वाले। एक-दूसरे के सुख-दुख बांटने वाले।

एक दिन जब उसने घर में बताया कि वो इरफान से शादी करना चाहती है तो जैसे सारे घर में हंगामा हो गया। दोनों घरों में काफी अच्छा मेल-जोल था मगर रिश्ता करने की बात होते ही खामियां गिनाई जाने लगीं। सबसे पहले धर्म और उसके बाद इरफान की ज़ुल्फें और रहन-सहन के तरीके़, खानपान। पिताजी ने साफ़  कह दिया था कि अगर ऐसा हुआ तो मेरा मरा हुआ मुंह  देखना। कांप उठी थी चारु। उस दिन जब दोनों नेहरू पार्क में मिले तो खुश नहीं थे। चारु ने घर वालों की बात इरफान को बता दी थी, और इरफान जैसे आसमान से ज़मीन पर आ गिरा हो। उसने इतना ही कहा, ‘भगा कर तो नहीं ले जाऊंगा तुम्हें…’

उदास हंसी के साथ कहा चारु ने, ‘मैं कौनसा ऐसा करूंगी।’

देर तक दोनों आसमान ताकते रहे, पेड़ों के झुरमुट तलाशते रहे और जब उठे तो एक वादे के साथ कि भले ही दोनों एक न हों मगर एक-दूसरे के ख़्वाब को पूरा करेंगे। इस वादे के साथ दोनों ने तय किया कि प्यार की बुनियाद को ही ख़त्म कर देंगे। बहुत बड़ा फैसला था। जैसे कलेजे को चीरकर कुछ निकाल फेंकना हो, लेकिन इससे बड़ा फैसला था एक-दूसरे के ख़्वाब को पूरा करना।

दरवाज़े पर दस्तक हुई तो चारु चौंकी। खुद को संभालते हुए बोली, ‘कमिन इरफान…’

इरफान अंदर आया तो देखा कि चारु ने उसी की पसंद की आमरसी साड़ी पहन रखी है।

चारु ने खुद को सम्भालते हुए इरफान को बैठने का इशारा किया और फोन पर चाय का ऑर्डर दिया।

‘इतने साल बाद आई हूं, लग ही नहीं रहा कि कुछ बदला है यहां…’ चारु ने कहा।

‘शुक्र मनाओ कि यहां लोग आपको और मुझे जान गए, वरना यहां की सरकार क्या सोचती।’ इरफान ने चुहल करते हुए पूछा तो चारु ने कहा, ‘सरकार ने सोचकर ही भेजा है।’ इस बार नहले पर दहला मारा इरफान ने, ‘क्या सरकार भी जानती है हम दोनों के बारे में?’

दोनों के दरमियान कुछ देर सन्नाटा छा गया। इस बीच चाय लेकर वेटर आया और चाय डालने लगा। वेटर ने पूछा, ‘चीनी…?’

इरफान कुछ कहता, उससे पहले ही चारु बोल उठी, ‘साहब के दो चम्मच और मेरे एक…’

वेटर ने चाय में चीनी डालकर दोनों को पकड़ा दी।

चाय पीते हुए इरफान ने कहा, ‘तुम भी तो विजयगढ़ की तरह ही हो, थोड़ा भी नहीं बदली…’

चारु ने कहा, ‘कह सकते हो मगर तुम जानते हो मुझे सब याद रहता है।… वैसे तुम इस हैयर स्टाइल में भी खऱाब नहीं लगते। ….मालूम है पिताजी के ऐतराज़ की एक बड़ी वजह यही थी कि तुम्हारी जुल्फें बहुत बड़ी हैं।’

मुस्कराते हुए इरफान ने कहा, ‘तुम जानती हो कि अगर उन्हें ये वजह नहीं मिलती तो दूसरी वजह तलाश लेते।’

ठंडी सांस ली चारु ने और पूछा, ‘हिना के मामले में क्या सोचा?’

इरफान ने कहा, ‘बात बदल रही हो?….खैर, तुम्हें क्या लगता है, दोनों की शादी करवा दें?’

चारु जैसे उफन पड़ी, ‘बिल्कुल नहीं, मैं तो इस पक्ष में नहीं। यार वो वहशी है…. मैंने देखा है हिना को।’

इरफान ने चाय का कप रख दिया और खड़े होते हुए बोला, ‘आओ, विजयगढ़ की सैर करते हैं… हमारे पास ज़्यादा वक्त भी तो नहीं है।’

चारु खड़ी हो गई। गेस्ट हाउस से निकलकर दोनों पैदल ही विजयगढ़ की सडक़ पर चल रहे थे। विजयगढ़ की सडक़ें उनकी जानी-पहचानी थीं और माहौल भी। विजयगढ़ के पेड़ और इमारतों के बीच से निकलते हुए दोनों पुराने दिनों में खोते चले गये।

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अगले दिन समाचार-पत्रों की खबरों में इरफान और चारु ही छाये हुए थे। ख़बरों को पढक़र पुराने दोस्त भी सर्किट हाउस पहुंच गए, लेकिन दोनों को दस बजे चीफ-सेक्रेटरी के साथ मीटिंग भी करनी थी। किसी तरह से दोस्तों से विदा लेकर चीफ सेक्रेटरी के पास पहुंचे तो वे मुस्करा रहे थे। उन्होंने कहा, ‘आज तो छाये हुए हो दोनों।… भाई अब तो हमें भी मालूम चल गई है तुम दोनों की दास्तान…’

‘जी सर, लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। हम दोनों की अपनी-अपनी दुनिया है, जहां हम खुश हैं।’ चारु ने कहा तो चीफ सेक्रेटरी ने शाबासी देते हुए कहा, ‘मैं ये नहीं जानता कि तुमने उस समय ठीक किया या नहीं, लेकिन ये ज़रूर जानता हूं कि जो हुआ उसके परिणाम अच्छे हैं। विजयगढ़ के लोग आज भी तुम दोनों को इस फैसले की वजह से याद करते हैं।

इरफान ने कहा, ‘लेकिन हमने ऐसा कुछ नहीं किया सर….’

‘यही तो, कुछ नहीं किया तब ही तो याद करते हैं। वरना करने वालों के कारनामे तो हम सभी के सामने हैं।…ख़ैर, दोनों ओर से लोगों को यहां बुला लिया गया है। यहां के कम्युनिटी लाइजन गु्रप की बैठक भी बुला ली गई है। तुम दोनों एक बार हॉस्पीटल और बजरंग चौक हो आओ, ताकि बैठक में कोई फैसला कर दिया जाए।…और सुनो, फैसला तुम दोनों की रिपोर्ट पर ही होगा।’ चीफ  सेक्रेटरी ने कहा।

दोनों सर्किट हाउस से बाहर निकले तो इरफान ने उसकी तरफ हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘मुबारक हो चारु…. ऑपरेशन सक्सैस।’

चारु ने इरफान से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘तुम्हें क्या मालूम?’

‘अरे बहुत जानता हूं इन बड़े अफसरों को। इनके चेहरे पर सुकून तब ही आता है, जब ये दो सौ परसेंट पुख़्ता होते हैं।’ इरफान ने कहा तो चारु के चेहरे पर िफदा होने के भाव नज़र आए।

विजयगढ़ के हालात सुधार पर थे और शाम को कम्युनिटी लाइजन गु्रप की बैठक भी हो गई। सुरेंद्र की गिरफ़्तारी का प्रयास और हिना को पूरा इलाज मिलने तक उसके परिवार को सरकारी इमदाद तय की गई। सुरेंद्र के परिवार वालों को भी सुरक्षा मुहैया करवाई गई। बैठक में इरफान और चारु की ही चर्चा थी, जिनके आने से विजयगढ़ का माहौल बदल गया। दोनों इस बात से खुश थे कि जल्द ही अपने-अपने घर जाएंगे। शाम होते ही विजयगढ़ के दोस्तों ने घेर लिया और देर रात तक िकस्से चलते रहे। अपने दोस्त के रूप में एक कलक्टर और एक एसपी को पाकर दोस्तों की खुशी का ठिकाना नहीं था। पिछले पांच दिन से परेशान विजयगढ़ के माहौल में भी खुशी की लहर थी।

अगले दिन सुबह जब इरफान के रूम पर दस्तक हुई। इरफान के सामने चारु थी। पूरा रूम बिखरा हुआ देखकर चारु ने अपना फोन निकाला और बनावटी गुस्सा करते हुए  बिखरे हुए सामान की फोटो खींचने लगी।

‘अरे…अरे ये क्या कर रही हो?’ इरफान ने झेंपते हुए पूछा।

‘कर क्या रही हूं, भेजती हूं रूबीना को सारे फोटो। बताती हूं कैसे रहते हो तुम…’ चारु ने कहा तो मुस्कराहट उभर आई इरफान के चेहरे पर। नाश्ते का ऑर्डर किया और फिर देर तक बातें चलती रहीं। यादों का समंदर भर आया था, लेकिन दोनों अपने-अपने किनारों से बंधे रहे। अचानक से चारु अपनी जगह से उठते हुए बोली, ‘अब चलना होगा, अगर अभी रवाना होंगे तो रात दस बजे तक पहुंच पाएंगे….।’

इरफान के चेहरे पर दरख़्वास्त थी, मानो कह रहा हो कुछ देर और रुक जाओ। चाहती तो चारु भी थी, लेकिन उसे ये नहीं चाहना था। उसने इरफान की महवियत को तोड़ते हुए कहा, ‘अब रिलीव होना जरूरी है…इरफान’

‘तुमने तो मुझे सालों पहले ही रिलीव कर दिया था चारु’ ये कहते हुए इरफान ने हाथ बढ़ा दिया। चारु ने गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘मिलते हैं फिर…’

‘हां, यार इस बार नरेश को साथ लेकर आना।’ इरफान ने कहा तो चारु मुस्करा दी। इरफान ने बहुत चाहा कि चारु को उसकी कार तक छोड़ आए, लेकिन जाने क्यों उसने वहीं ठहरना मुनासिब समझा। पोर्च से कार के निकलने की आवाज़ के साथ ही उसने कमरे को संवारना शुरू कर दिया। सारा सामान दुरुस्त करके उसने अपने मोबाइल से एक फोटो खींचा और सेंड टू चारुलता कर दिया। वाट्सअप की डीपी पर चारुलता आमरसी साड़ी में मुस्करा रही थी।

 

ऋतु शर्मा की पुस्तक से कविता ‘ सफर’ और ‘रेत’

कवियित्री : ऋतु शर्मा

मोबाइल: 9950264350

परिचय : रचनात्मक और सामाजिक गतिविधियों मे सक्रिय। राजस्थानी और हिन्दी की कहानीकार -कवियित्री। मंच संचालन। लोक संस्कृति कि प्रति चेतना जगाने के लिए गठित गणगौर समिति की अध्यक्ष। युवा उद्यमी। सरलादेवी स्मृति व कर्णधार सम्मान से सम्मानित ।

 

सफर

छांव

बताती है

जीवन में धूप है

सफर है

तुम छांव हो

मेरे हिस्से की

और मैं जहाज का पंछी

जब-जब तपी

जब-जब थकी

आई हूं

और तुमने यही कहा

जीवन में धूप है

सफर है।

सफर

छांव

बताती है

जीवन में धूप है

सफर है

तुम छांव हो

मेरे हिस्से की

और मैं जहाज का पंछी

जब-जब तपी

जब-जब थकी

आई हूं

और तुमने यही कहा

जीवन में धूप है

सफर है।

 रेत

एक दिन मिला बीज

रेत को दिया अपने होने का अहसास

बरसा पानी

अंकुरित हुए

खिले पराग

उगने लगा पौधा

पौधे में तलाशते अपनापा

रचती रही रेत गीत

गुनगुनाती रही

पानी बहता रहा कल-कल

बीज बनते रहे पेड़

रेत वहीं थी

अपने होने, अपने नहीं होने की तलाश में।

एक दिन मिला बीज

रेत को दिया अपने होने का अहसास

बरसा पानी

अंकुरित हुए

खिले पराग

उगने लगा पौधा

पौधे में तलाशते अपनापा

रचती रही रेत गीत

गुनगुनाती रही

पानी बहता रहा कल-कल

बीज बनते रहे पेड़

रेत वहीं थी

अपने होने, अपने नहीं होने की तलाश में।

 

 

 

पुस्तक समीक्षा

जानी-मानी साहित्यकार और समीक्षक प्रितपाल कौर द्वारा इरशाद अजीज की पुस्तक सांसों के ‘सक्किे’ की समीक्षा

परिचय : प्रितपाल कौर

दिल्ली की रहने वाली प्रितपाल कौर  का रचनात्मकता ही ध्येय है, दूरदर्शन और एनडीटीवी के लिये पत्रकार के रूप मे काम किया हैं। आपके उपन्यास अपनी गहरी और बोल्ड व्यंजनाओं के लिए पहचाने जाते हैं। कहानियाँ, कविताएँ और सम-सामयिक विषयों  पर लगातार लिख रही हैं।

परिचय : इरशाद  अज़ीज़

हिन्दी और उर्दू मे समान रूप से गद्य और पद्य लेखन में सक्रिय। देश प्रदेश मे होने वाले मुशायरों मे बीकानेर की खुशबू के रूप में पहचाने जाते हैं। रेल्वे के मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, राव बीकाजी  संस्थान के राजकुमार भीमराज अवार्ड व नगर विकास न्यास के अन्य भाषा पुरस्कार सहित जवाहर कला केन्द्र अरौर उत्तर क्षेत्रीय सांस्कृतिक केन्द्र पटियाला की ओर से पुरस्कृत।

 

 

                                                               कुछ तुम भी कहो

कविता की पुस्तक जिस तरह की होनी चाहिए बिलकुल वैसी ही एक खूबसूरत कलेवर वाली किताब है ‘साँसों के सिक्के’. अमूर्त कला के एक रंगीन चित्र से सजी इस किताब को जब आप उठाते हैं तो मन में एक तरंग सी उठती है. कविता का पहला काम यही तो होता है. मगर जब आप पढ़ना शुरू करते हैं तो अचानक सामने आती है… ‘अभी नहीं तो…’ “मरना तो पड़ेगा/अपने होने के सच को/ साबित करने के लिए”  यहीं कवी के अंतस में झाँकने की एक खिड़की आधी बंद और आधी खुली हुयी नज़र आती है. मौत की आहट को सुनते हुए ज़िंदगी के जीवट से जूझता कवी अपनी स्त्री से पूछता है कि उसे किस बात का दर्द है? यानि जानता तो है मगर पूछ रहा है. उसके अपने शब्दों में सुनना चाहता है और सुन कर कहना चाहता है.”मेरे एक इशारे पर/ क्यूँ कर देती हो/ अपने आप को मेरे हवाले.” उसे कुर्बानी नहीं चाहिए. वो कहता है…“जानता हूँ तुम्हारा दर्द / हर बार कुर्बान कर देती हो/ अपनी प्यास मेरी प्यास पर” “जब तुम हंसती हो/ भर जाती है तुम्हारी आँखें” या फिर “जैसा तुम सोचती हो/ वैसी नहीं है ये दुनिया”  इरशाद अज़ीज़ एक आईना कवी हैं. यानी के वे जो देखते हैं उसे आईने की तरह ही शफ्फाक हो कर अपने लफ़्ज़ों में कह डालते हैं. कोई लम्बी चौड़ी लफ्फाजी नहीं,  बिम्बों का बेतरतीब, बेवजह खडा किया गया इमारती ढांचा नहीं, कोई दुराव छिपाव नहीं. साफ़-सीधी बात, दो टूक शब्दों में. यही उनकी सबसे बड़ी खासियत है और यही उनकी कविता की ताज़गी. स्त्री विमर्श की बात पुरुष के मुख से सुन कर स्त्रियों के मन भीग-भीग जाएँ ऐसी है इरशाद  अज़ीज़ की कवितायेँ. और ऐसा नहीं कि पुरुष-विमर्श गायब ही हो इरशाद की कविता से,  मगर चुप रहता है, अक्सर… “डबडबा जाती है/ कई बार/ उसकी आँखें/ सुनकर धरती का सच/ आकाश बेचारा/ चुपचाप ही रहता है/ हर बार” मगर इस चुप्पे पुरुष शायर की कलम ये भी कह ही डालती है आखिर कि … “मेरे पास भाषा है/ रचता रहूँगा कवितायेँ/ बचा लूँगा /अपने समय से कुछ/ कीमती समय.” समय को खूब पकड़ा है इरशाद अज़ीज़ ने. समाज और वक़्त की नब्ज़ टटोलते उनके इस कविता संग्रह में कवितायें जहाँ एक तरफ प्रेम के डूब जाने की बात करती हैं वहीं प्रेम में डूब जाने की भी.  उदासी भी झलक जाती है कहीं-कहीं और कहीं उल्लास छलक-छलक पड़ता है. कुल मिला कर एक खूबसूरत माहौल बना कर सोचने को मजबूर करती कवितायेँ है जो प्रेरित करती हैं नए कवियों को कविता की राह पर चलने की…“तुम अपनी ज़ुबान से /कुछ भी नहीं कहती/ आखिर क्यूँ?”

 

निवेदन

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