कथारंग : हिन्दी साहित्य परिशिष्ट अंक 9
निवेदन ‘लॉयन एक्सप्रेस ’ लगातार आपको खबरों से अपडेट कर रखा है। इस बीच हमनें यह भी प्रयास किया है कि साहित्य के रसिक पाठकों तक भी कुछ जानकारियां पहुंचे। इसी को देखते हुए ‘कथारंग ’ नाम से एक अंक शुरू कर रहे हैं। इस अंक में कविता, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार आदि का प्रकाशन किया जाएगा। आप से अनुरोध है कि इस अंक के लिए अपनी रचनाएं हमें प्रेषित करें। आप अपनी रचनाएं यूनिकोड में भेजें तो बेहतर होगा। साथ ही अपना परिचय और छायाचित्र भी भेजें। आप चाहें तो अपने मौलिक साहित्यिक रचनाओं की प्रस्तुति संबंधी अपने वीडियो भी हमें भेज सकते हैं।
इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए आप इस अंक के समन्वय-संपादक संजय शर्मा से संपर्क कर सकते हैं। मोबाइल नंबर 9414958700
‘लॉयन एक्सप्रेस’ के अन्य खबरों से जुड़े रहने के लिए आप हमारा वाट्सअप ग्रुप ज्वाइन कर सकते हैं, टेलीग्राम चैनल सब्सक्राइब कर सकते हैं या फेसबुक पेज को लाइक कर सकते हैं।
हमारा मेल आइडी है – : [email protected]
Telegram : https://t.me/lionexpressbkn
Facebook Link : https://www.facebook.com/LionExpress/
Twitter Link : https://twitter.com/lionexpressnews?s=09
Whatsapp Link : https://chat.whatsapp.com/JaKMxUp9MDPHuR3imDZ2j1
Youtube Link : https://www.youtube.com/channel/UCWbBQs2IhE9lmUhezHe58PQ
डॉ. एच.पी.प्रजापति मोबाइल 7689916797
शोध ग्रंथ – नरेश मेहता के उपन्यासों का शैली वैज्ञानिक अध्ययन ,लक्ष्मीनारायण रंगा की नाट्य साधना: अन्वेषण एवम अनुशीलन, नरेश मेहता के उपन्यासों का भाषिक वैशिष्ट्य, नरेश मेहता के उपन्यासों में प्रयुक्त कथानक शैलियां (दोनों आलोचनात्मक लेख,प्रकाशित), भगवान के भगवान( लघु कहानी),पाठशाला(कविता) इसके अलावा कई पत्र – पत्रिकाओं में लेख एवम आलेख प्रकाशित
पाठशाला’
आज बरसों बाद खड़ा हूं,
‘ ज्ञानार्थ प्रवेश ‘ लिखे द्वार पर।
हाथ में वैसा ही थैला थामे,
जो कभी बचपन में कंधे पर लटका होता था।
हां, ये थोड़ा बड़ा जरूर है,
शायद बोझ बढ़ गया है,
महानगर के महा ज्ञान का।
प्रवासी प्रसिद्धि का तमगा लगाएं,
कोविद 19 संदिग्ध का,
सरकारी छापा,निज बाजू पर छपाए,
अपने ही गांव की पगडंडी से
मुंह छिपाए,
अपनों के बीच अकेला
बोझिल खड़ा हूं।
सामने वही श्याम पट्ट,
जिसने कभी ‘ क’ से कबूतर और ‘ ज्ञा’ से ज्ञानी
सिखाया था।
आज उसी की खुरदरी छाती पर लिखा था
‘ स्थानीय वासी जो प्रवासी हो गए ‘
के लिए क्वा रन टीन केंद्र।
बाएं बरामदे की दीवार पर,
भामाशाहों की नामावली के आखरी नाम,
जो कि मेरा है।
ठीक उसी के नीचे बैठ,खा रहा हूं हर रोज,
इसी पाठशाला के बच्चों का भोज।
आज आखरी चौदहवे दिन
नन्ही थाली ने मुझ से पूछा,
बोलो प्रवासी!
असली भामाशाह कोन?
कुसुम शर्मा मोबाइल 9575628038
हिन्दी लेखन में विशेष रुचि देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, लेख प्रकाशित । इंदोर में अध्यापिका पद से सेवानिवृत ।
परवाज
बहुत फर्क होता है
समझने में और समझाने में
कहने में और सहने में
सामने वाला वही देगा
जो उसके पास है
तो जो बुरा है हमने आजमा लिया
उससे फिर अच्छे की
क्यों आस है
हम क्यों बने अंदर से कमजोर
क्यों हो किसी के कहने पर आहत
क्यों रखें खुद को दुखी करने की चाहत
बुरे से अच्छी बातों की उम्मीद क्यों करें
हर बात पर दूसरों से क्यों डरे
क्यों न खड़े हो जाएँ अपने पैरों पर
क्यों निर्भर रहें गैरो पर
अपनी उड़ान अभी हम भर सकते हैं
कटे नहीं हैं पूरे पंख हमारे।
हौसला है मन में तो
कुछ कर सकते हैं
तो फिर क्यों न हटा दें
कमजोरियाँ अपनी
रहना ही हो गर पंख फड़फड़ाकर
तो फिर बात है जुदा
हो जो हिम्मत उड़ने की तो फिर सोचना क्या
उड़ ही चले पंखों को फैलाकर
मोबाइल 9672869385
देश की आजादी के लिए बीकानेर में हुये स्वाधीनता आन्दोलन में सबसे पहले सामने लाने वाले पत्रकार। अभी तक २०० से ज्यादा नाटकों मे अभिनय और निर्देशन कर चुके हैं। नाटक, कहाणी, कविता और जीवनानुभव पर ७२ किताबां हिन्दी और राजस्थानी में लिखी हैं। साहित्य अकादमी,नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार, संगीत नाट्य अकादमी का निर्देशन पुरस्कार, शम्भु शेखर सक्सैना, नगर विकास न्यास रो टैस्सीटोरी अवार्ड से सम्मानित है।
गई बुलेट प्रूफ में
राजस्थानी की एक कहावत है, ‘म्हनै घडग़ी जिकी बाड़ मांय बडग़ी’। सीधे शब्दों में इस कहावत की व्याख्या करें तो कुछ लोग यह मानते हैं कि उनके जैसा गुणी कोई दूसरा है नहीं। क्योंकि उसे जन्म देकर जन्मदायी वापस चली गई और इसी कारण कोई दूसरा उस जैसा जन्म ले ही नहीं सका। बहुत गूढ़ अर्थ की कहावत है।
आजकल हर कोई अपने को दुनिया का सिंगल पीस मानता है और इस बात का दावा करता है कि उसका कोई जोड़ा बना ही नहीं। अब जोड़ा बनने का भी सवाल नहीं। इसीलिए ‘मैं’ हूं वो मैं ही हूं, दूसरा कोई नहीं।
उस जमाने में घर के पक्की दीवारें नहीं होती थी। ग्रेनाइट या मार्बल का जमाना भी नहीं था। घर के बाहर बाड़ लगाकर ही सीमा का निर्धारण किया जाता था। इसीलिए कहावत में बाड़ शब्द का उपयोग किया गया है।
धीरे धीरे व्यक्ति, समाज, सत्ता और व्यवस्था ने विकास किया। अतिक्रमण नाम का संक्रामक रोग भी आ गया। बाड़ में आग लगाकर या उसे उखाडक़र कब्जे या अतिक्रमण का बोलबाला हो गया। अतिक्रमण करने वालों ने जमीन और नियमों को भी बेदखल कर दिया। नये नियम बने, उसके भी नये तोड़ अतिक्रमण के हिमायतियों ने निकाल लिए। खैर, अतिक्रमण काम तो बदस्तूर जारी है। रोकने के हल्ले के बाद भी नहीं रुका है। बढ़ा ही है।
अतिक्रमण केवल राजनीति व सामाजिक क्षेत्र में ही नहीं हुआ है। यह रोग साहित्यिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में भी तीव्र गति से फैला है। अन्य क्षेत्रों से कहीं अधिक तेज गति है यहां। इन क्षेत्रों की जनसंख्या कम है इसलिए यहां फैलता जल्दी है। और कमोबेश हर कोई इससे ग्रसित हो जाता है।
इस क्षेत्र के लोगों का जमावड़ा हर शहर में किसी चाय की थड़ी या कॉफी हाउस में लगता है। इन दोनों जगहों पर घंटों बैठने पर भी मालिक उठने के लिए नहीं कहता क्योंकि उसे अपनी दुकान हर समय भरी-भरी दिखाने की चाह रहती है। भीड़ से आजकल पापुलिटी का आंकलन होता है।
नेता हो या कोई और, उसका कद उसके पास की भीड़ से ही नापा जाता है। काम तो कोई मायने भी नहीं रखता। सोशल मीडिया के जमाने में ट्विट्र पर वो व्यक्ति बड़ा है जिसके फॉलोवर्स ज्यादा है। ज्यादा संख्या वालों की खबरें भी अखबार छापता है। ठीक इसी तरह फेसबुक की वही पोस्ट बड़ी मानी जाती है। जिसे सर्वाधिक लाइक मिलते हैं। भले ही वो किसी के देहांत की दु:खद सूचना ही क्यूं न हो।
डींग हांकने वालों का पनाहगाह थड़ी के होटल और कॉफी हाउस ही होते हैं, क्योंकि यहां उनको श्रोता भी बहुत आराम से मिल जाते हैं। लोगों को समय काटना होता है इसीलिए बातों के तर्क खोजने में भी अपना सिर नहीं खपाते। तीस मारखाओं का अड्डा बना रहता है सुबह से लेकर आधी रात तक। यहां ऐसे लोगों की रौनक रहती है। भीड़ की बहुलता से वो थड़ी और कॉफी हाउस भी शहर में चर्चा पा जाते हैं। खबर नवीसों को भी कई बार यहां की खबरंे उतारने का अवसर मिल जाता है। अब कुछ भी खबर नहीं हो तो रोचक खबर इनसे अच्छी और कौन सी हो सकती है, यह सोचकर खबर मांड देते हैं।
हमारे शहर के नवाब साहब इन दोनों जगहों का लुत्फ उठाने रोज आते थे यहां। नवाब साहब किसी रियासत के वर्तमान या पूर्व नवाब नहीं थे। वे तो दिल के नवाब थे। उनकी हर दिल अजीजी के कारण ही लेागों ने उनका नाम ‘नवाब साहब’ रख दिया। चल पड़ा यह नाम। हां, उनकी आदतें और व्यवहार इस नाम से मेल खाते थे। इसी कारण नाम बहुत सटीक लगा। जल्दी ही पॉपुलर भी हो गया।
फक्कड़ तबीयत के नवाब साहब उस दिन दोपहर में कॉफी हाउस पहुंच गए। आज दफ्तर से छुट्टी ली हुई थी। इसलिए समय खाली था। सरकार हर कर्मचारी को तय छुट्टियां देती है तो उनका सदुपयोग तो हो। यही सोचकर नवाब साहब ने छुट्टी ली थी।
कॉफी हाउस के भीतर तीस मारखाओं की भीड़ जमा थी। बातों के पुल बनाए और ढहाए जा रहे थे। बीच बीच में हँसी का फव्वारा भी फूट पड़ता। रौनक परवान पर थी।
नवाब साब को कॉफी हाउस के बाहर ही कुर्सी पर बैठे मालिक मोहन बाबू मिल गए। दोनों की नजरें मिली तो सहज सा रटा रटाया सवाल हुआ।
– अरे नवाब साहब, कैसे हैं?
– ठीक हूं।
– आज भरी दुपहरी में कैसे आए?
– दफ्तर से छुट्टी ले रखी थी इसलिए चला आया।
– आप सरकारी कर्मचारियों के तो मौज है, आधा साल छुट्टियों में ही बीतता है। अखबार छापता है। ठीक इसी तरह फेसबुक की वही पोस्ट बड़ी मानी जाती है। जिसे सर्वाधिक लाइक मिलते हैं। भले ही वो किसी के देहांत की दु:खद सूचना ही क्यूं न हो।
डींग हांकने वालों का पनाहगाह थड़ी के होटल और कॉफी हाउस ही होते हैं, क्योंकि यहां उनको श्रोता भी बहुत आराम से मिल जाते हैं। लोगों को समय काटना होता है इसीलिए बातों के तर्क खोजने में भी अपना सिर नहीं खपाते। तीस मारखाओं का अड्डा बना रहता है सुबह से लेकर आधी रात तक। यहां ऐसे लोगों की रौनक रहती है। भीड़ की बहुलता से वो थड़ी और कॉफी हाउस भी शहर में चर्चा पा जाते हैं। खबर नवीसों को भी कई बार यहां की खबरंे उतारने का अवसर मिल जाता है। अब कुछ भी खबर नहीं हो तो रोचक खबर इनसे अच्छी और कौन सी हो सकती है, यह सोचकर खबर मांड देते हैं।
हमारे शहर के नवाब साहब इन दोनों जगहों का लुत्फ उठाने रोज आते थे यहां। नवाब साहब किसी रियासत के वर्तमान या पूर्व नवाब नहीं थे। वे तो दिल के नवाब थे। उनकी हर दिल अजीजी के कारण ही लेागों ने उनका नाम ‘नवाब साहब’ रख दिया। चल पड़ा यह नाम। हां, उनकी आदतें और व्यवहार इस नाम से मेल खाते थे। इसी कारण नाम बहुत सटीक लगा। जल्दी ही पॉपुलर भी हो गया।
फक्कड़ तबीयत के नवाब साहब उस दिन दोपहर में कॉफी हाउस पहुंच गए। आज दफ्तर से छुट्टी ली हुई थी। इसलिए समय खाली था। सरकार हर कर्मचारी को तय छुट्टियां देती है तो उनका सदुपयोग तो हो। यही सोचकर नवाब साहब ने छुट्टी ली थी।
कॉफी हाउस के भीतर तीस मारखाओं की भीड़ जमा थी। बातों के पुल बनाए और ढहाए जा रहे थे। बीच बीच में हँसी का फव्वारा भी फूट पड़ता। रौनक परवान पर थी।
नवाब साब को कॉफी हाउस के बाहर ही कुर्सी पर बैठे मालिक मोहन बाबू मिल गए। दोनों की नजरें मिली तो सहज सा रटा रटाया सवाल हुआ।
– अरे नवाब साहब, कैसे हैं?
– ठीक हूं।
– आज भरी दुपहरी में कैसे आए?
– दफ्तर से छुट्टी ले रखी थी इसलिए चला आया।
– आप सरकारी कर्मचारियों के तो मौज है, आधा साल छुट्टियों में ही बीतता है। – हटाया, अरे सीएम ने उनको डांटा। माइक छीनकर मुझे पकड़ा दिया। उसके बाद से कलेक्टर रिस्क ही नहीं लेते, संचालन मुझे ही थमाते हैं।
– वाह यार, तुमको इसी कारण सारे लोग जानते हैं।
– अपनी अदा ही कुछ खास है, जनता इसकी दीवानी भी है। वो हाथ से अपनी कॉलर पकड़ खुद के खास होने का अहसास कराने लगा। बात थम न जाए इसलिए उसी ने विषय बदला।
– मैं केवल संचालक ही अच्छा नहीं, आयोजन कराने में भी मास्टरी रखता हूं।
– अच्छा, कौन कौन से आयोजन कराए।
– अब कोई एक हो तो बताऊं। लता मंगेशकर, किशोर कुमार, ख्याली, सुनील पॉल सहित जितने बड़े कलाकार यहां आते हैं उनके आयोजन का जिम्मा इसी खाकसार ने उठाया हुआ है।
– कमाल है, आयोजन भी सफलता से कर लेते हो तुम।
आयोजन सफल होता है योजना से जिसे बनाना मेरे बांये हाथ का खेल है।
– वाह, संयोजक भी और आयोजन भी।
– ईजी है यार ये सब, मुझे तो अब आदत सी पड़ गई।
नवाब साहब उसकी इस लफ्फाजी से विचलित हो गए। एक छोटे से घर के प्रबंधन को संभालने में असफल सिद्ध हो चुका राकेश अपने को बड़ा आयोजक और संचालक बता रहा है। उनके चेहरे पर मुस्कान छा गई। नवाब साहब को आश्चर्य इस बात का भी था कि लोग इसके घर प्रबंधन के बारे में पूरा जानते थे फिर भी इस बयानबाजी को सत्यनारायणजी की कथा की तरह चुपचाप सुन रहे थे। उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने इशारे से गोपाल को बुलाया, जो उनके पड़ोसी का बेटा था।
– नवाब साहब, आज तो आपको कॉफी हाउस के लिए वक्त मिल गया। कहिये कैसे याद किया?
– इस राकेश को तुम जानते हो ना।
– हां, अच्छी तरह से जानता हूं। बचपन का साथी है।
– फिर भी इसकी बातें सुन रहे हो? यह अपने आपको बड़ा आयोजक और संचालक बता रहा है, तुम हां में हां मिला रहे हो। तुमको तो पता है कि घर का प्रबंधन इसके पास है और उसमें रोज झगड़े होते हैं। घर नहीं संभलता, फिर मंच कैसे संभालता है।
अरे नवाब साब, आप बहुत भोले हैं। हमें इन सबसे क्या मतलब। सुबह से तीन बार चाय पिला चुका। अब चाय पिला रहा है तो सुनना ही पड़ेगा। आप भी पूरे भोले हो।
वो हँसा और चल दिया।
नवाब साहब की समझ में पूरी बात आ गई। कहते भी हैं, जिसका नमक खाए उसका कर्ज भी अदा करना ही पड़ता है। नवाब साहब अब इस राकेश के बारे में सोचने लगे। पत्नी से उसकी रोज की खटपट चलती थी। बेटे-बेटी भी उसका कहा नहीं मानते। एक दिन नवाब साहब ने बेटी का जवाब सुना था। वो साफ कह गई।
– पापा, जब आप दादा-दादी की बात नहीं मानते हो तो फिर अपनी बात मनवाने का दबाव कैसे डालते हैं?
अपनी लडक़ी के सवाल का राकेश जवाब ही नहीं दे पाया था। वो तो बोलकर चल दी, राकेश बस उसे देखता भर रह गया। उसकी बात सच्ची थी, यह वो जानता था। बस, तबसे उसने बेटी से बात करना छोड़ दिया। महीनों बात नहीं की। नवाब साब यह सब जानते थे।
उधर राकेश का प्रवचन निर्बाध चल रहा था। उसने सबके लिए एक बार फिर चाय मंगा ली थी। इसी कारण सभा का माइक उसके ही हाथ में रहा। वो कथावाचक और बाकी सब श्रोता। नवाब साब उसका नया प्रवचन कान लगाकर सुनने लगे।
इस समय मानवीय रिश्तों पर वो दार्शनिक अंदाज में बोल रहा था।
– मां-बाप हमें दुनिया दिखाते हैं वो न होते तो हम भी न होते। इसी कारण मित्रों जीवन में किसी का भी कहा टाल देना, मां-बाप का कहना मत टालना। एक बार तो भगवान भी आकर कुछ कह दे तो उसे भी मत स्वीकारना, जन्म देने वाले मां-बाप उनसे बड़े होते हैं। इस कारण उनकी मानना।
– भाई, बात तो तुमने बिल्कुल ठीक कही है। मां-बाप के चरणों में ही तो भगवान बसते हैं।
– सही है, मैंने तो अपने जीवन का मूल मंत्र यहीं बनाया हुआ है। इस कारण तो उनके आशीर्वाद से हर क्षेत्र में सफल हूं।
नवाब साब का सिर यह सुनकर चकरा गया। वो बेहोश होते होते बचे। इतना सफेद झूठ। पहले तो झूठ बोलने पर पत्थर गिरते थे आकाश से, पर अभी तो एक कंकर भी आकर नहीं गिरा। राकेश और उसके घर की पूरी जन्म कुंडली उनको पता थी, इसी कारण तो वो चकरा गए थे।
नवाब साहब क्या पूरा मोहल्ला जानता था कि वो अपने पिता की कभी नहीं – हटाया, अरे सीएम ने उनको डांटा। माइक छीनकर मुझे पकड़ा दिया। उसके बाद से कलेक्टर रिस्क ही नहीं लेते, संचालन मुझे ही थमाते हैं।
– वाह यार, तुमको इसी कारण सारे लोग जानते हैं।
– अपनी अदा ही कुछ खास है, जनता इसकी दीवानी भी है। वो हाथ से अपनी कॉलर पकड़ खुद के खास होने का अहसास कराने लगा। बात थम न जाए इसलिए उसी ने विषय बदला।
– मैं केवल संचालक ही अच्छा नहीं, आयोजन कराने में भी मास्टरी रखता हूं।
– अच्छा, कौन कौन से आयोजन कराए।
– अब कोई एक हो तो बताऊं। लता मंगेशकर, किशोर कुमार, ख्याली, सुनील पॉल सहित जितने बड़े कलाकार यहां आते हैं उनके आयोजन का जिम्मा इसी खाकसार ने उठाया हुआ है।
– कमाल है, आयोजन भी सफलता से कर लेते हो तुम।
आयोजन सफल होता है योजना से जिसे बनाना मेरे बांये हाथ का खेल है।
– वाह, संयोजक भी और आयोजन भी।
– ईजी है यार ये सब, मुझे तो अब आदत सी पड़ गई।
नवाब साहब उसकी इस लफ्फाजी से विचलित हो गए। एक छोटे से घर के प्रबंधन को संभालने में असफल सिद्ध हो चुका राकेश अपने को बड़ा आयोजक और संचालक बता रहा है। उनके चेहरे पर मुस्कान छा गई। नवाब साहब को आश्चर्य इस बात का भी था कि लोग इसके घर प्रबंधन के बारे में पूरा जानते थे फिर भी इस बयानबाजी को सत्यनारायणजी की कथा की तरह चुपचाप सुन रहे थे। उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने इशारे से गोपाल को बुलाया, जो उनके पड़ोसी का बेटा था।
– नवाब साहब, आज तो आपको कॉफी हाउस के लिए वक्त मिल गया। कहिये कैसे याद किया?
– इस राकेश को तुम जानते हो ना।
– हां, अच्छी तरह से जानता हूं। बचपन का साथी है।
– फिर भी इसकी बातें सुन रहे हो? यह अपने आपको बड़ा आयोजक और संचालक बता रहा है, तुम हां में हां मिला रहे हो। तुमको तो पता है कि घर का प्रबंधन इसके पास है और उसमें रोज झगड़े होते हैं। घर नहीं संभलता, फिर मंच कैसे संभालता है।
अरे नवाब साब, आप बहुत भोले हैं। हमें इन सबसे क्या मतलब। सुबह से तीन बार चाय पिला चुका। अब चाय पिला रहा है तो सुनना ही पड़ेगा। आप भी पूरे भोले हो।
वो हँसा और चल दिया।
नवाब साहब की समझ में पूरी बात आ गई। कहते भी हैं, जिसका नमक खाए उसका कर्ज भी अदा करना ही पड़ता है। नवाब साहब अब इस राकेश के बारे में सोचने लगे। पत्नी से उसकी रोज की खटपट चलती थी। बेटे-बेटी भी उसका कहा नहीं मानते। एक दिन नवाब साहब ने बेटी का जवाब सुना था। वो साफ कह गई।
– पापा, जब आप दादा-दादी की बात नहीं मानते हो तो फिर अपनी बात मनवाने का दबाव कैसे डालते हैं?
अपनी लडक़ी के सवाल का राकेश जवाब ही नहीं दे पाया था। वो तो बोलकर चल दी, राकेश बस उसे देखता भर रह गया। उसकी बात सच्ची थी, यह वो जानता था। बस, तबसे उसने बेटी से बात करना छोड़ दिया। महीनों बात नहीं की। नवाब साब यह सब जानते थे।
उधर राकेश का प्रवचन निर्बाध चल रहा था। उसने सबके लिए एक बार फिर चाय मंगा ली थी। इसी कारण सभा का माइक उसके ही हाथ में रहा। वो कथावाचक और बाकी सब श्रोता। नवाब साब उसका नया प्रवचन कान लगाकर सुनने लगे।
इस समय मानवीय रिश्तों पर वो दार्शनिक अंदाज में बोल रहा था।
– मां-बाप हमें दुनिया दिखाते हैं वो न होते तो हम भी न होते। इसी कारण मित्रों जीवन में किसी का भी कहा टाल देना, मां-बाप का कहना मत टालना। एक बार तो भगवान भी आकर कुछ कह दे तो उसे भी मत स्वीकारना, जन्म देने वाले मां-बाप उनसे बड़े होते हैं। इस कारण उनकी मानना।
– भाई, बात तो तुमने बिल्कुल ठीक कही है। मां-बाप के चरणों में ही तो भगवान बसते हैं।
– सही है, मैंने तो अपने जीवन का मूल मंत्र यहीं बनाया हुआ है। इस कारण तो उनके आशीर्वाद से हर क्षेत्र में सफल हूं।
नवाब साब का सिर यह सुनकर चकरा गया। वो बेहोश होते होते बचे। इतना सफेद झूठ। पहले तो झूठ बोलने पर पत्थर गिरते थे आकाश से, पर अभी तो एक कंकर भी आकर नहीं गिरा। राकेश और उसके घर की पूरी जन्म कुंडली उनको पता थी, इसी कारण तो वो चकरा गए थे।
नवाब साहब क्या पूरा मोहल्ला जानता था कि वो अपने पिता की कभी नहीं
सीमा भाटी मोबाइल 9414020707
हिन्दी-उर्दू में कहानियां, नज्म और गजल लिखती है, साथ-साथ उर्दू पढ़ाती हैं। मंच संचालन, गायन और पर्वतारोहण में भी रुचि है। कर्णधार सम्मान, श्रेष्ठ शिक्षक सम्मान के साथ कईं संस्थाओं से सम्मानित।
बीकानेर में उर्दू ज़बान फरोग़ में देने वालों की फेहरिस्त बहुत लंबी है मगर जिन मीर- ए- कारवां ने अपने कलाम से उर्दू अदब के सफ़र को मुसलसल बढा़ने में अपनी ज़िंदगी सर्फ़ की और उर्दू ज़बान की ख़िदमत कर अदबी सरमाया में इजा़फा़ किया। उन शाइरों का मुख़्तसर तआरुफ़ और उनकी अदबी खि़दमात का सफ़र पेश नज़र है….
हाजी मोहम्मद अब्दुल्ला ‘ बेदिल’
जा़त और मज़हब की फ़सीलो से ऊपर उठकर इंसानियत के हिमायती
अपने बच्चों के लिए वालदैन की जु़बां से निकली हर दुआ हर, ख्वाहिश खु़दा पूरी करता है ऐसी ही एक दुआ बेदिल साहब के वालिद शेख़ मौला बख़्श ने अपनी औलाद के लिए मांगी थी, उनकी दिली ख्वाहिश थी कि उनका एक बेटा तालीम से ज़रूर जुड़े। आप जुड़े ही नही बल्कि बीकानेर के आप पहले मुसलमान थे जिन्होंने 1908 में मैट्रिक पास की। 1जनवरी 1888 ई० को बीकानेर में पैदा हुए बेदिल फिर नही रूके, और आज़ाद साहब के बाद मैदान ए अदब में नज़र आने लगे। बेदिल साहब के बारे में सबसे खा़स बात ये है कि आप बीकानेर के ही मक़ामी थे यानि बेदिल साहब पीढ़ी दर पीढ़ी प्रारंभ से ही बीकानेर के थे और यहाँ के जन्मे रियासत के पहले शाइर भी। 1919 में बेख़ुद देहलवी साहब के शागिर्द बने। और शार्गिद भी सबसे ख़ास। एक लेखक और शाइर के रूप में आपकी पहचान राष्ट्रीय फलक पर नज़र आई। आपके आलेख और ग़ज़लें प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में शाया होने लगी। और 1936 में आपका दीवान बाग- ए- फिरदौस शाय हुआ, जिसे बहुत मक़बूलियत हासिल हुई। बेदिल साहब ने एक मुदर्रिस (शिक्षक )से जज तक का सफ़र करने के साथ साथ अदब की ख़िदमत भी की उसका नतीजा ये निकला कि उर्दू को आवाम तक पहुंचाने में कामयाब हुए। मगर लडकियों को तालीम के लिए साज़गार माहौल नही था इस बात से बेदिल बेहद फ़िक्रमन्द रहते थे आखि़र जब 1936 में बाबू नूर मोहम्मद साहब ने अपनी बेटी सकीना को स्कूल में दाख़िला करवाया तो आपको बड़ा हौसला मिला। लडकियों की तालीम के साथ आपको खास लगाव था 1959 में जामिया मिल्लया इस्लामिया में एक मुशायरे सदारत का का गौरव भी आपको हासिल हुआ। उस मुशायरे में मारूफ़ शाइरों के साथ ही डॉ. ज़ाकिर हुसैन भी मौजूद थे जो देश के राष्ट्रपति हुए। 1989 में जयपुर के एक तालिब- ए- इल्म डॉ. मोहम्मद हसैन ने एम. ए. उर्दू के लिए बेदिल बीकानेरी पर तहकी़की़ मकाला (निबंध) भी लिखा जो राजस्थान यूनिवर्सिटी जयपुर में मंजूर हुआ जो आगे चलकर बीकानेरी राजस्थान के तलबा के लिए पढाने का मौज़ू बना बेदिल आपकी ग़ज़ल, नआत, मनक़बत, को पढ़ने से वाजेह हो जाता है कि आपने ज़बान व बयान का ख़ास ख़याल रखा है। यही वजह थी कि आपकी ग़ज़लें शग़ुफ़्तगी, लताफ़त,और नाजु़क ख़्याली की अच्छी मिसाल थी और ज़बान का तो कहना ही क्या था उसमें पुख़्तगी, अंदाज़े बयान में रवानी और दिलकशी रची बसी हुई थी आप जज, मुदर्रिस, होने से पहले एक अज़ीम इंसान और बेमिस्ल शाइर थे। जो जा़त और मज़हब की फ़सीलो से ऊपर उठकर इंसानियत के हिमायती और हिंदू मुस्लिम इत्तेहाद के पैरोकार थे , जिनकी अदबी और शेरी खि़दमात ने बीकानेर के अदबी माहौल को मुत्तासिर किया। आखि़र में बेदिल साहब के एक शेर के साथ इख़्तताम करती हूँ…
साग़र को चाहता है ना जी अब शराब को
देखा है चश्म मस्त को मस्त शबाब को…
पैदाइश- 1 जनवरी 1888
वफा़त – 4 अक्टूबर 1970