निवेदन  ‘लॉयन एक्सप्रेस ’ लगातार आपको खबरों से अपडेट कर रखा है। इस बीच हमनें यह भी प्रयास किया है कि साहित्य के रसिक पाठकों तक भी कुछ जानकारियां पहुंचे। इसी को देखते हुए ‘कथारंग ’ नाम से एक अंक शुरू कर रहे हैं। इस अंक में कविता, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार आदि का प्रकाशन किया जाएगा। आप से अनुरोध है कि इस अंक के लिए अपनी रचनाएं हमें प्रेषित करें। आप अपनी रचनाएं यूनिकोड में भेजें तो बेहतर होगा। साथ ही अपना परिचय और छायाचित्र भी भेजें। आप चाहें तो अपने मौलिक साहित्यिक रचनाओं की प्रस्तुति संबंधी अपने वीडियो भी हमें भेज सकते हैं।

इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए आप इस अंक के समन्वय-संपादक संजय शर्मा से संपर्क कर सकते हैं। मोबाइल नंबर 9414958700

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मो. 9414031502

लघुकथा, कहानी और आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय। शोध और आलोचना पर केंद्रित कृति ‘दो फर्लाग आगे’ प्रकाशित। पाठ्य पुस्तकों का लेखन एवं संयोजन, शिक्षा विभाग में कार्यरत। 

तंदूरी तान

       पंजाब की सीमा से सटा कस्बा राधोपुर। राधोपुर यूं तो राजस्थान की सीमा में आता है लेकिन राजस्थान की सभ्यता- संस्कृति- भाषा का यहां कोई वजूद नहीं । पंजाबी रहन-सहन, वैसी बोली-चाली, वैसा ही पहनावा, वैसे ही रीति- रिवाज, पूरा पंजाबी बिंदास जीवन। इसी कस्बे में गरीब दास की परचून की दुकान। दुकान कस्बे से बाहर मैन बाजार से दूर, लेकिन गा्रहकी में कोई कमी नहीं। दिन का गल्ला बीस-पच्चीस हजार से कम नहीं उठता। गरीब का व्यवहार व स्वभाव ही कुछ ऐसा था कि एक बार कोई ग्राहक उसकी दुकान आ जाए तो वह दुकान से बंध जाता था। यही बंधी उसकी दुकान की  असली पूंजी थी जो समय के साथ-साथ बढ़ती जा रही थी।

        इसी बढ़ते़ दौर के बीच कोरोना लॉक डाउन 2020 आ गया। हालांकि इस जिले में कोरोना संक्रमित कोई नहीं पाया गया, फिर भी लॉक डाउन तो यहां भी लागू था।  चूंकि जरूरी सामानों  की दुकानों को सुबह- शाम  तीन-तीन घंटे खोलने की छूट थी, सो गरीब की दुकान भी खुली। उसने इस कम समय में भी खूब बिक्री की। कुछ ग्राहक दुकान आकर सामान  ले गए, कुछ ने होम डिलीवरी करवा ली। गरीब- ग्राहकों के बीच मोबाइल नंबरों का आदान-प्रदान इस घड़ी में खूब काम आया। न तो गरीब की ग्राहकी घटी और  न ही ग्राहकों को जरूरी सामान की कमी खली।

 फिर दस दिन बाद।

 शाम का समय। गरीब दुकान में उदास गुमसुम बैठा है। न ग्राहकों की चहल-पहल। ना कोई मोल भाव। ना गरीब की हंसी ठिठोली। सब कुछ ठहरा सा । अचानक यह कैसे हुआ? वही गरीब, वही दुकान वही ग्राहक। ना उसकी नेकी में खोट ना कोई व्यवहार में। फिर यह कैसा फेर ? जो गल्ला बीस-पच्चीस हजार से  कम नहीं उठता था, वह तीन-चार हजार में सिमट गया। उसने ग्राहकी की इतनी गिरावट  पहली बार देखी इसलिए सोच में ज्यादा ही डूब गया। फिर दिल को यह कहकर तसल्ली दी कि कई कई दिनों बाद कोई दिन खराब आता है, रोज-रोज तो ऐसा होता नहीं। खैर.. देखा जाएगा।

 अगले रोज । तसल्ली के उलट, कल जैसा ही हुआ आज कल से भी कम ग्राहक आए, मोबाइल पर भी कोई डिमांड नहीं आई। उसने नौकर से पूछा-

        ‘‘छोटू गल कि है? गा्रहकां नूं दरसन ही नीं होंदा। गा्रहक जांदे कित्थै है?’’

नौकर बेचारा क्या बोलता? उसने जो देखा, वह, वह बोला -‘‘आज कल लौकी अरोड़ा दी दुकान ते जा रहे हन।’’

         गरीब ने गौर किया कि इन दो दिनों में उसकी दुकान पर उसके नजदीकी लोग ही ज्यादा आए हैं। बाकी ना के बराबर। ऐसा क्यों ? कोई जाति-वाती का  चक्कर तो नहीं। नहीं..नहीं…। यहां तो ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। यहां तो कोई जात पांत मानता भी नहीं। उसके पुश्तैनी गांव में यह भेदभाव जरूर था। दरअसल गरीब का मूल गांव पाकिस्तानी सीमा से लगे मगरे क्षेत्र में था। वहां से उसके पिताजी ठाकुर की जमीन की देखभाल के लिए आए थे। पिताजी ने यहीं चक में घर बना लिया और फिर कभी लौट कर गांव नहीं गए। गांव में उनकी जात को छोटी माना जाता था और उनका अन्य लोगों के साथ रोटी पानी का नाता नहीं था परंतु यहां उनकी जात के बारे में कभी नहीं पूछा गया इसलिए गरीब को जाति भेद की बात कभी समझ नहीं आई।

       मां ने इस बारे में जरूर बताया था, मां ने यह भी बताया कि पिता जी  आए तो यहां काश्त करने थे, लेकिन लग गए दूसरे काम। काश्त तो उसके जिम्मे ही रही। उनके दो ही काम थे, एक तंदूरा बजाना और दूसरा अपने बेटे(गरीब) को खेलाना। उनका नेह उस पर अधिक था । उससे पहले तीन  बेटे और हुए थे जो छह माह के हुए नहीं, कि चल बसे। कई मन्नतो बाद वह जी सका था। इसलिए  नजर उतारने के लिए उन्होंने  ही नाम रखा था गरीबदास।

      इसके बावजूद उनका तंदूरा प्रेम पुत्र प्रेम पर भारी पड़ा। जब वह नौवीं में था तभी वे घर छोड़ कर चले गए। यूं तो पहले भी वे घर पर कम ही टिकते थे क्योंकि वह जिस मंडली से जुड़े थे उनका कोई ठौर तय नहीं था। कहते हैं उनके जैसा तंदूरा दूर-दूर तक बजाने वाला कोई नहीं था।  वे संस्था तंदूरी तान के सक्रिय सदस्य थे, जो लोक बानी व लोक साज के संरक्षण के लिए देश-विदेश में सक्रिय थी।

       इसी बीच उसकी शादी हुई। ठकुराईन की मदद से दुकान खुली, लेकिन पिताजी ने उनकी कोई खोज खबर नहीं ली। अभी पिछले माह  आठ बरस बाद वह घर लौटे। उनके आने से घर भर में सब खुश थे। सब घर में है तो कोरोना का कोई डर नहीं…… ।

         गरीब खाली बैठा बैठा यही कुछ सोच रहा था। वह और कर भी क्या सकता था? उसने फिर विचारा, खाली बैठने से अच्छा है, घर चलते हैं। उसने नौकरों को आवाज लगाई-

        ‘‘तुस्सी शटर गिरा दो। कल देखांगा। सांझ दी छुट्टी।’’

      उसने दुकान बंद की और घर पहुंचा। वहां देखा, घर के बाहर दो गाडियां खड़ी है। एक पुलिस की और दूसरी अस्पताल की। डॉक्टर-नर्स की टीम पिताजी को गाड़ी में बैठा रही है। पिताजी तंदूरा साथ ले जाने की जिद कर रहे हैं । पुलिस मना कर रही है। पुलिस कुछ बुदबुदा रही है। ये सब देख गरीब हतप्रभ । यह क्या हो गया? वह उनसे बोला-

        ‘‘इन्हें मत ले जाइए। ये स्वस्थ हैं। इन्हें कोरोना नहीं है। खांसी जुखाम भी नहीं है।’’

        जवाब में बड़ा अफसर बोला- ‘‘संस्था के लोग, जो केंद्र पर इकट्ठा थे, सब की जांच होगी। इसलिए ले जा रहे हैं। ऊपर से निर्देश है। ये छिपकर बैठे थे।’’

        गरीब जवाब देता उससे पहले दोनों गाड़ियां जा चुकी थी। शाम होते-होते खबर लगी कि किसी सिरफिरे ने दुकान के साईन बोर्ड ‘गरीबे दी हट्टी’ को पोत दिया है और वहां ‘कोरोना दी हट्टी’ लिख दिया है।

 

 

 

 

मो. 9252531996

कहानी और कविता में समान रूप से सृजन। कविता लेखन में ज्यादा रुचि पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथाएं व कविताएं प्रकाशित होती रहती हैं।

*मातृत्व सुख*

पौष माह की ठिठुरती रातभर से जग अगली सुबह आँखें बंद कर सोने की कोशिश कर रही थी कि उस निरीह गाय की तड़पन,झटपटाहट और दर्द भरी सूरत दिखाई देने लगी।

रह रह कर बस यही ख्याल आ रहा था कि कैसी ये घड़ी होती है जहाँ किसको कितना दर्द सहना है सब तय कर रखा है उस सृष्टि कर्त्ता ने साथ हर जीव का धरा पर आने का समय भी।

आप वहाँ पीड़ा में ढ़ाढस बँधाने खड़े हैं पर  उसकी पीड़ा कम नहीं कर सकते।जब उस प्यारी कन्या को उस नाजुक हालात में देखा तब लगा मौत को सिरहाने रख जिंदगी की जंग लड़ने जा रही है वो,

*वो ही क्यों हर वह कन्या जो मातृत्व सुख से नवाजी जायेगी उसकी राह इस पगडंडी से होकर गुजरेगी* ।

तभी कवियों ने नारी को सहनशीलता, धैर्य की प्रतिमा कहा।

पहला अनुभव था इस पीड़ा को दूसरे पर देखने का।तब अपना पुराना दर्द और एहसास जाग उठा खैर…..।

एक ऐसा सुख जिसे पाकर अपनी संपूर्णता को पा लेती है नारी और साथ ही कितने अपनों की झोली में डाल देती है कई गुणा खुशियों के उपहार भी।

एक पति जो अब तलक किसी का पुत्र था अब पिता पद से नवाजा जायेगा।दादा-दादी,नाना-नानी, बुआ के संग मौसी,मामा न जाने कितने रिश्ते बस तैयार ही मिलते हैं।

*वैरी क्वीक सर्विस ऑन अर्थ*।

सागर की लहरें अपने जोश में चट्टानों से जा टकरायें,बादल की गड़गड़ाहट जैसे हृदय कंपा दे,बिजली का जैसा व्रजपात हो,नदियों में जैसे उफान आ जाये,सारी प्रकृति में जैसे हलचल मच जाये ऐसा ही वह दौर गुजरता है तब कहीं जाकर पंच तत्व का प्रतीक जीव रूप धर स्त्री कोख को सार्थकता प्रदान कर ईश्वर लीला को सम्पन्न करता है।

बहुत दार्शनिकता हो चली……।।

रात भर की तपस्या के बाद आखिर वो घड़ी आ गई जिसका सबको इंतज़ार था पर ये क्या नर्सेज लेबर रूम से अंदर बाहर हो रही है पर कुछ बताने को तैयार  नहीं।घर के हर सदस्य की टकटकी लेबर रूम दरवाजे की ओर और कान किलकारी सुनने को मचल रहे थे।

इंतजार आधे एक घंटे से बढ़ तीन घंटे तक लंबा हो गया। सब एक दूसरे की तरफ प्रश्नयुक्त नजरों से देख रहे थे,तभी एक नर्स ने आकर बेटे होने की सूचना दी,साथ ही माँ बेटे दोनों के स्वस्थ होने का आश्वासन दे वह चली गई।

थोड़ी देर में एक दूसरी नर्स ने लालिमा युक्त और क्षीर सागर में नहाये उस श्वेत कमल को पिता की गोद में दिया।

पिता की गोद से  बड़ी नानी की बाँहों में,फिर छोटी नानी, बुआ न जाने कितनों से मौन परिचय पाता रहा।

उस वक्त मेरा सारा ध्यान उस जन्मदात्री पर था कैसी हालत में होगी वो इसी बीच उसे लेबर रूम से ला नये कमरे में शिफ्ट किया गया।

सभी उसकी तरफ हो लिए ।ठीक हो तुम ! ऐसे शब्दों को सुन आँखों से स्त्रोतस्विनी फूट पड़ी।जैसे उसके आँसू ही कह रहे हों कि  मातृत्व शक्ति के आगे  मौत को घुटने टेकने पड़े।

जैसे ही नवजात को माँ के पास लाया गया तो उसका मुख देख वो आँसू की धाराएँ,वो चेहरे की सिलवटे,थकान सारी पीड़ा सब काफूर हो गई।

वो आनंद की हिलोरे  माँ के आँचल से होती हुई सारे वातावरण में शीतलता  की   चादर फैला रही थी।

 

 

मो. नं. 9414916598

कविता लेखन में ज्यादा रुचि जयपुर की  प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, कविता, आलेख प्रकाशित।

चिंगारी

होठों पर मुस्कान हो लेकिन दिल में एक चिंगारी हो

दुनिया जीत ही जाओगे, बस थोड़ी सी दुनियादारी हो

तुमने अपने दिल की करली, मेरा कहा अब मान भी लो

प्यार से तुम इस दिल तो क्या, प्यार से अपनी जान भी दो

किसी के आगे झुकना ना, बस थेड़ी सी खुद्दारी हो

राहों में कांटे बिखरे हो, यो ये राहें आसान सी हों

चलते जाना-चलते जाना, कदमों में थकान न हो

अपनी मंजिल पा लोगे, बस थोड़ी से होशियारी हो

दोस्तों का हक है मुझ पर, दिल पे मेरे एहसान भी हैं

अच्छे को अच्छा समझा, पर बुरे की पहचान भी है

दुश्मनी तुम चाहे रखलो, बस थोड़ी सी यारी हो

माना कि फर्ज़ निभाने को, तुमने सारे हक छोड़ दिये

जिन हवाओं ने रस्ता रोका, उन हवाओं के रूख मोड़ दिये

हाथों की ताकत के संग-संग, बस थोड़ी सी मक्कारी हो

अपने चमन को अपने लहू से, तुमने अब तक सींचा है

अपने कंधों पर हल रख कर, तुमने बरसों खींचा है

इसकी फसल को बांट दो सब में, बस थोड़ी सी तुम्हारी हो

होठों पे मुस्कान हो लेकिन दिल में एक चिंगारी हो

 

मो. नं. 9672869385

देश की आजादी के लिए बीकानेर में हुए स्वाधीनता आंदोलन को सबसे पहले सामने लाने वाले पत्रकार। नाटकों में अभिनय व निर्देशन नाटक, कहानी, कविता और जीवनानुभव पर अब तक ७२ किताबें हिन्दी व राजस्थानी में लिख चुकेे साहित्य अकादेमी नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार, संगीत नाट्य अकादेमी का निर्देशन पुरस्कार, शम्भु शेखर सक्सैना, नगर विकास न्यास का टैस्सीटोरी अवार्ड, जेवियर बीकानेर गौरव, राजीव रत्न, माणक रत्न अवार्ड आदि कइ पुरस्कारों से सम्मानित। वर्तमान में दैनिक भास्कर में कार्यकारी संपादक।

सुर बदल गए, राग दरबारी

उस दिन अखबार में खबर छपी थी, काव्य संग्रह सुर दरबारी का विमोचन आज। इस खबर को देखते ही नवाब की नजरें ठिठक गई। साहित्य अनुराग जाग गया। उस खबर को पढऩे लगा। कवि ललित कुमार की यह पुस्तक थी और उसका विमोचन आज शाम को ही पांच बजे था। ललित तो नवाब का खास मित्र था, सूचना नहीं दी इस बात का मलाल था। बेतक्कलुफ होकर सीधे ललित को फोन लगा लिया।

– हैलो नवाब।

– कैसे हो ललित भाई।

– ठीक हूं। कैसे याद किया।

– एक शिकायत थी।

– मुझसे?

– हां, तुमसे।

– कहो यार। तुम्हें हक हैं।

– आज तुम्हारी पुस्तक का विमोचन है।

– हां है ना।

– बस यही शिकायत है।

– मेरी दूसरी पुस्तक है और उसकी भी शिकायत, यह बात तो ठीक नहीं।

– इसी वजह से शिकायत है।

– साफ-साफ कहो।

– विमोचन के कार्यक्रम का मुझे निमंत्रण ही नहीं दिया, शिकायत तो करूंगा ही।

– ओहो! यह बात है तो सॉरी। दरअसल इसमें मेरी गलती नहीं।

– तुम्हारा आयोजन है तो गलती तुम्हारी ही हुई।

– तुम समझे नहीं।

– समझा दो तुम।

– दरअसल इस बार कार्ड बंटवाए नहीं।

क्यों?

– कुरीयर से सीधे भिजवा दिए थे। कुरीयर वाले की गलती है, मेरी नहीं। कार्यक्रम हो जाए तो उसकी खबर लूंगा। तुम तो यार कार्यक्रम में जरूर आना।

– तुम ना भी कहते तो कार्यक्रम में आता। पर एक बात तो बताओ।

– क्या?

– इस बार इतना खर्चा कैसा? कोई स्पांसर मिल गया क्या?

– अरे नहीं यार, हमारा कोई फिल्मी गीतों या डिस्को का आयोजन थोड़े ही है। साहित्य को कौन स्पांसर करता है।

– फिर इतना खर्च कैसे?

– अरे यार इस बार किताब छपने का पैसा नहीं लगा ना।

– क्या बात करते हो?

– सच कह रहा हूं।

– मैं नहीं मानता।

– क्यों?

– मैं तो दुनिया में ऐसा एक भी प्रकाशक नहीं जानता जो बिना पैसे लिए किताब छाप दे। किताब का पूरा खर्चा लेखक से लेते हैं और किताब बेचकर कमाते हैं वो अलग। प्रकाशक से बड़ा कोई शोषक नहीं। शोषण के खिलाफ की कविता-कहानी या उपन्यास भी प्रकाशक लेखक से पैसा लेकर ही छापते हैं।

– बात तो तुम्हारी सही है।

– फिर बिना पैसे पुस्तक छापने वाला प्रकाशक तुम्हें कहां से मिल गया।

– तुम तो पूरी बात सुने बिना ही बोले जा रहे हो।

– चलो मैं अपनी वाणी को ब्रेेक लगाता हूं। तुम बोलो।

– यह पुस्तक अकादमी के आर्थिक सहयोग से छपी है।

– क्या?

– हां। अब बाकी बात बाद में। आयोजन की तैयारी में लगा हूं।

ललित ने फोन रख दिया। नवाब के काटो तो खून नहीं। अकादमी को तो ललित पिछले सात साल से गालियां निकाल रहा है। साहित्यिक मंचों पर सबसे ज्यादा विरोध अकादमी का किया है। अकादमी में धांधलेबाजी, पक्षपात, भाई-भतीजा वाद के भी खुल्ले आरोप जड़े हैं।

अनेक बार अकादमी के निर्णयों के विरोध में प्रेस बयान जारी किए है। अखबारों में अकादमी के खिलाफ लेख लिखे हैं। ललित ने हर साल अकादमी के पुरस्कारों पर सवाल खड़े किए हैं। उनका विरोध किया है। आरटीआई लगाकर अकादमी को भ्रष्ट साबित करने का प्रयास किया है।

पुस्तक व पांडुलिपि प्रकाशन सहायता का तो मुखर विरोध किया था अब तक। इसे रेवडिय़ां बांटने की उपाधि दी है। नौसीखियों को लेखक बनाकर साहित्य का अहित करने का आरोप मंढ़ा है। सहायता के लिए बनने वाली समिति के सदस्यों पर सवाल खड़े किए हैं। कई बार तो अकादमी के निर्णयों की होली तक जलाई है। राज्य सरकार तक को इसकी शिकायतें की है।

अकादमी के किसी भी आयोजन में ललित भागीदारी नहीं करता था। न वक्ता के रूप में और न श्रोता के रूप में। अपने को अकेला अकादमी विरोधी घोषित किया हुआ था। इस बात पर गर्व करता था। दो बार तो अकादमी के सामने धरना भी लगाया। अकादमी को मंच से गाली निकालने का अवसर वो तलाश ही लेता था। लोग भी उसको अकादमी का स्थायी विरोधी मानते थे। उसे भी अपने विरोध पर गर्व था।

नवाब काफी देर तक तो सदमे से बाहर ही नहीं आया। क्योंकि जब ललित ने अकादमी के खिलाफ घरना लगाया था तो उसमें वो भी शामिल हुआ था। अकादमी के खिलाफ नारे लगाए थे। जब भी किसी साहित्यिक कार्यक्रम में कोई अकादमी की तरफदारी करता तो नवाब उसके गले पड़ जाता। लोग नवाब को भी अकादमी का विरोधी मानने लग गए थे। नवाब तो ललित के बलबूते विरोध में उतरा था।

अब अचानक से ललित ने अकादमी से सहायता ले ली। एक झटका तो लगना ही था। सिर झटककर नवाब ने अखबार फिर से उठा लिया। अतिथियों  के नाम पढऩे लगा। नाम पढक़र तो वो चकरा ही गया। अकादमी अध्यक्ष मुख्य अतिथि थे। अकादमी से पुरस्कृत साहित्यकार की अध्यक्षता थी। स्वागत भाषण अकादमी के सचिव का था। हर नाम के आगे अकादमी अवश्य जुड़ी हुई थी। नवाब के लिए यह 360 वोल्ट का झटका था।

उसने तय कर लिया कि शाम के आयोजन में जाना है। देखना है ललित आज क्या बोलता है। अकादमी से जुड़े लोग क्या करते हैं,क्योकि वो भी तो ललित को बुरा भला कहते रहे हैं।

शाम को नवाब विमोचन समारोह में पहुंचा तो आज वहां काफी भीड़ थी। अकादमी से ऑब्लाइज हुए कई लेखक आए हुए थे। जो पहले ललित के आयोजन से जान बुझकर दूरी ही बनाए रखते थे। कहीं अकादमी वाले नाराज न हो जाए, यह डर था उनको। डर वाजिब था क्योकि अकादमी उनको साथ रहने के प्रतिफल में लाभ भी देती थी।

नवाब की नजर अब मंच की साइड पर लगे पर्दे पर पड़ी। उसकी पहली पंक्ति में ही अकादमी का नाम बड़े अक्षरों में लिखा था। अकादमी के सहयोग से प्रकाशित, यह शब्द नवाब बारबार पढऩे लगा। उसके पीछे छिपा ललित का चेहरा उसे साफ दिख रहा था। पर्दे पर भी कार्ड की तरह अकादमी ही भरी पड़ी थी।

समय से थोड़ी देर लगी आयोजन को आरंभ होने में। अकादमी अध्यक्षजी देरी से आए थे। आते ही ललित लपक कर उनकी तरफ गए। प्रणाम कर आशीर्वाद लिया और उनको मंच तक लाया। नवाब की नजरें ललित पर ही टिकी हुई थी। उसके बदलाव को पढऩे में ही लगा हुआ था वो।

कार्यक्रम आरंभ हुआ। स्वागत सत्कार के बाद लोकार्पण। लोकार्पण के बाद मुख्य अतिथि का भाषण। अकादमी अध्यक्ष मुख्य अतिथि थे इसलिए इनके भाषण के समय पूरी शांति रही। उन्होंने भाषण आरंभ किया और ललित की तारीफों के पुल बांध दिए। वे बोले।

– ललित जी मूल रूप से  छायावाद के कवि हैं। इन्होंने अब तक बिना वजह प्रगतिशील कवि जैसा व्यवहार बना रखा था। इसी कारण उनका और उनके काव्य का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया। इनकी रचनाओं पर गहरे शोध की जरूरत है। महादेवी वर्मा के बाद ललित जी ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाओं में छायावाद है। गूढ़ प्रतीक हैं और जीवन से जुड़े कथानक है। काव्य और शिल्प के स्तर पर उनका यह काव्य संग्रह लाजवाब है। आने वाली पीढ़ी के लिए यह काव्य संग्रह और ललित जी प्रेरणा का काम करेंगे। साहित्य के इतिहास में इनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।

अकादमी अध्यक्ष के भाषण पर खूब तालियां बजी। ललित भी बहुत प्रसन्न दिखाई दिए। अन्य वक्ताओं के भाषण हुए। हर किसी ने ललित की तारीफ की। तारीफ करने वाले अधिकतर वही लेखक थे जो अब तक उनको गालियां निकालते आए थे।

अब लेखक यानी ललित के बोलने की बारी थी। नवाब को आज ललित के भाषण की खास प्रतीक्षा थी। वो देखना चाहता था कि रोज अकादमी के खिलाफ आग उगलने वाला यह कवि आज क्या बोलता है।

ललित ने अपना उद्बोधन आरंभ कर दिया।

– परम आदरणीय अकादमी अध्यक्ष जी, सम्माननीय अकादमी सचिव जी और मेरे प्यारे साथियों, साहित्य समाज को जोडऩे का काम करता है क्योंकि हर रचना का समाज से सरोकार होता है। साहित्य तो समाज का ही दर्पण होता है। समाज जो देता है रचनाकार वो लिखता है।

मैं अकादमी को लेकर भी कुछ कहना चाहूंगा। यदि यह सरकारी अकादमी नहीं होती तो अनेक साहित्यकारों की भ्रूण हत्या हो जाती। समाज के सामने उनकी पुस्तकें ही नहीं आ पाती। पांडुलिपि को जब अकादमी सहायता देती है तो वो पुस्तक का आकार लेती है।

मैं अपनी इस कृति के लिए अकादमी का बहुत आभारी हूं। अकादमी के अध्यक्ष और सचिव का ऋणी हूं। यदि इनका सहयोग और आशीर्वाद न होता तो छायावाद का यह ग्रंथ जनता के सामने ही नहीं आ पाता।

साहित्य के विकास में अकादमी का बड़ा योगदान है। हर साल साहित्यकारों को विचार मंथन के लिए मंच प्रदान करती है। रचनाकार को प्रथम श्रेणी का आने-जाने का किराया, थ्री स्टार होटल, अच्छा खाना, वातानुकूलित हॉल, साथ में मानदेय प्रदान करती है। नि:स्वार्थ भाव से रचनाकार की सेवा करती है। यदि अकादमी न होती तो साहित्य का विकास ही नहीं हो पाता।

तालियों से पूरा हॉल गूज उठा। नवाब का तो बुरा हाल था। साहित्य का नाश करने वाली अकादमी आज तो साहित्य की उद्धारक हो गई थी। ललित का जो जैसे पूरी तरह हृदय परिवर्तन हो गया। इस परिवर्तन से नवाब चकित था।

इसी बीच अकादमी का सचिव उठकर माइक के पास आया। ललित के कान में कुछ कहा तो ललित एक तरफ हट गया। माइक सचिव ने संभाल लिया।

बीच में आने के लिए माफी चाहता हूं। अकादमी अध्यक्ष जी के आदेश से एक घोषणा के लिए मैं आया हूं। अगले महीने गोवा मे आधुनिक कविता पर होने वाले सेमीनार में हमारे प्रदेश की तरफ से ललित जी प्रतिनिधित्व करेंगे, अकादमी ने यह निर्णय लिया है।

ललित के चेहरे पर तो खुशी का जैसे पहाड़ ही टूट पड़ा। लोगों ने भी जमकर तालियां बजाई। ललित ने हाथ जोडक़र अभिवादन केवल अकादमी अध्यक्ष का ही किया। जैसे कह रहा हो कि बड़ा उपकार किया। इस गरीब को तीर्थ यात्रा करा दी। सारे पाप घुल जाएंगे। उसके बाद उसने वापस माइक संभाला।

देखा आपने। अकादमी योग्य व्यक्तियों को योग्य अवसर प्रदान करती है। यह अकादमी अध्यक्ष और सचिव की निष्पक्षता का प्रमाण है। हम सभी साहित्यकारों को मन से अकादमी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए।

अकादमी के गुणगान के अलावा ललित ने अपने भाषण मेंं कुछ नहीं कहा। अध्यक्ष और सचिव के अलावा किसी का नाम ही नहीं लिया। हद तो तब हो गई जब अपना भाषण समाप्त कर के ललित अकादमी अध्यक्ष के पास आया और उनका चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया। नवाब के लिए तो अब सब कुछ सहन से बाहर हो रहा था पर लोक लाज की दृष्टि से चुप रहा।

समारोह खत्म हो गया। लोग ललित को बधाई दे रहे थे। अकादमी अध्यक्ष भी उसे आशीर्वाद देकर निकल लिए। धीरे-धीरे पूरा हॉल खाली हो गया। ललित के दो-चार साथी और नवाब ही रह गए। नवाब ने तो अपनी कुर्सी ही नहीं छोड़ी। लगा जैसे जमीन से पैर चिपक गए है।

ललित की नजर नवाब पर पड़ी तो उसने आवाज लगाई।

– अरे नवाब, वहां अकेले बैठे क्या कर रहे हो?

– दुनिया के रंग देख रहा हूं।

– वो तो यहां से भी नजर आ जाएंगे। चलो आगे आ जाओ। सोफे पर आराम से बैठते हैं।

नवाब उठकर आगे आ गया। ललित के पास सोफे पर बैठ गया। बाहर से चाय वाला चाय लेकर आ गया। दोनों ने चाय पीनी शुरू कर दी। बात ललित ने शुरू की।

– आज चुप कैसे हो नवाब। रोज तो कार्यक्रम खत्म होने के बाद केवल तुम ही बैटिंग करते हो, बाकी तो सुनते हैं।

– आज तुमने बोलने लायक नहीं छोड़ा।

– ऐसा क्या हो गया?

– तुम जो बोले वो सुनकर मेरी बोलती तो बंद हो गई।

– ऐसा क्या बोल दिया मैंने।

– रोज आग उगलते थे तुम, आज तो तुम्हारे मुंह से फूलों की वर्षा हो रही थी। सरस भाषा, मीठे बोल थे।

– मैं अब भी तुम्हारी बात नहीं समझा।

– तुम सब समझ रहे हो पर जानबुझकर अंजान बन रहे हो।

– ऐसी बात नहीं है। तूं तो मेरा परम मित्र है नवाब, तुमसे तो कभी कोई पर्देदारी मैंने रखी ही नहीं।

– तुम्हारे आज के व्यवहार से तो यह बात पुष्ट नहीं होती।

– तुम सीधे अपनी बात कहो ना।

– बात तुम्हें बुरी लगेगी।

– तुम्हारी बात का मैंने कभी बुरा नहीं माना।

– आज बात ही कुछ ऐसी ही है।

      नवाब थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। चाय की चुस्कियां लेने लगा। फिर बोला।

– तुम आज तक अकादमी के विरोध में बोलते आए हो।

– हां।

– अकादमी के खिलाफ तुमने घरना भी लगाया।

– सही बात है।

– तुमने दूसरे लोगों से अकादमी के निर्णयों के विरोध में आरटीआई लगवाई। रिकॉर्ड तैयार किया।

– किया। वो रिकॉर्ड अब भी मेरे पास है। मेरे काम आ रहा है, आगे भी आएगा।

– कैसे?

– वो सब बाद में पहले तुम अपने सवाल पूरे करो।

– हां। अकादमी पर तुमने भाई भतीजावाद, पक्षपात का आरोप लगाया।

– बिल्कुल लगाया।

– अकादमी के आयोजनों में भाग नहीं लिया।

– कभी नहीं लिया।

– फिर आज अचानक से अकादमी पर इतनी मेहरबानी कैसे? अकादमी के सहयोग से पुस्तक। अकादमी का इतना गुणगान। अध्यक्ष को भी महान बता दिया। चोर कहते थे सदैव सचिव को, अब ईमानदारी का अवार्ड दे दिया। इतना बड़ा परिवर्तन तुममें कैसे हो गया?

नवाब के इन सवालों में तल्खी थी जो बाद में गुस्से में बदल गई पर ललित पर उसका कोई असर नहीं हुआ। वो मुस्कराता रहा। जब नवाब रुका तब उसकी हंसी रुकी और वो बोला

– यही राजनीति है नवाब।

– राजनीति।

– जब तक अकादमी ने मुझे पांडुलिपि सहयोग नहीं दिया, तब तक विरोध।

– ओह!

– जब तक मुझे सेमीनार मेंं भेज फायदा नहीं पहुंचाया, तब तक बहिष्कार।

– ये बात है।

– हां। अब अकादमी के सहयोग से पुस्तक छप गई। सेमीनार में भागीदारी का भी निर्णय हो गया। जब सभी काम हो गए और आगे भी होते रहने का आश्वासन मिल गया तब काहे का विरोध। क्यों करे विरोध। अब तक कर लिया विरोध, अब मिशन पूरा हो गया तो विरोध भी खत्म।

      नवाब यह जवाब सुनकर भौचक्का रह गया।

– मतलब लाभ न मिले तब तक विरोध था

– हां। आरटीआई से कागज पास आए तो अकादमी के लोग झुक गए। लाभ दे दिया। लाभ पाने के लिए ही तो विरोध किया था।

– फिर हमारा उपयोग क्यों किया। हमसे अकादमी को गालियां क्यों निकलवाई?

– अब तुम साहित्यकार तो हो नहीं, विरोध कर लिया तो कुछ बिगड़ेगा नहीं तुम्हारा।

– पर समझौता करने या लाभ पाने से पहले मुझे बताना तो चाहिए था।

– आज आयोजन करके बता दिया ना।

– यह तो गलत बात है।

– अरे नवाब चिंता मत करो। एक-दो यात्राएं तुम्हें भी करा देंगे।

– मुझे कोई शौक नहीं।

– मेरे लिए तुम काम आए, यह कभी नहीं भुलूंगा।

      नवाब चुप हो गया। गुस्से में खड़ा हो गया।

– अब मैं घरना लगाऊंगा। पाठक होने के नाते। साहित्य अनुरागी होने के नाते।

– क्यों? किस बात पर?

– साहित्य के लिए भी एक सीआरपीसी बननी चाहिए और उसका उल्लंघन करने वाले को दंड मिलना चाहिए।

– क्या होगा उस सीआरपीसी में।

– मांग रखूंगा कि साहित्यकार अपनी बोली बात से न पलटे। यदि पलटता है तो उसे 420 धारा के बराबर अपराधी मान सजा दी जाए।

– मरते दम तक तुम इस तरह की सीआरपीसी का सपना देखते रहोगे। लोग यूं ही लाभ लेने के बाद बदलते रहेंगे।

ललित के इस जवाब से नवाब को बड़ी चोट लगी। वो चुपचाप वहां से निकल गया। सोचने लगा कि एक दिन वो भी आए जब इन छद्म साहित्यकारों के खिलाफ भी सीआरपीसी बने। नहीं तो साहित्य में भी यह खुल्ला खेल फरुखाबादी चलता रहेगा। सच्चे लोग हाशिए पर पड़े रहेंगे। मल्ले माल खाते रहेंगे। हे प्रभु, तूं कुछ कर।