निवेदन  ‘लॉयन एक्सप्रेस’ लगातार आपको खबरों से अपडेट कर रखा है। इस बीच हमनें यह भी प्रयास किया है कि साहित्य के रसिक पाठकों तक भी कुछ जानकारियां पहुंचे। इसी को देखते हुए ‘कथारंग ’ नाम से एक अंक शुरू कर रहे हैं। इस अंक में कविता, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार आदि का प्रकाशन किया जाएगा। आप से अनुरोध है कि इस अंक के लिए अपनी रचनाएं हमें प्रेषित करें। आप अपनी रचनाएं यूनिकोड में भेजें तो बेहतर होगा। साथ ही अपना परिचय और छायाचित्र भी भेजें। आप चाहें तो अपने मौलिक साहित्यिक रचनाओं की प्रस्तुति संबंधी अपने वीडियो भी हमें भेज सकते हैं।

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मधु आचार्य ‘आशावादी’  मोबाइल नंबर- 9672869385

नाटक, कहानी, कविता और जीवनानुभव पर 72 पुस्तकेंं हिन्दी और राजस्थानी में लिखी हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार संगीत नाट्य अकादमी का निर्देशन पुरस्कार, शम्भु शेखर सक्सैना, नगर विकास न्यास के टैस्सीटोरी अवार्ड से सम्मानित।

व्यंग्य  : अभिनन्दन ग्रंथ गाथा

इस समय अभिनन्दन ग्रन्थों और अभिनन्दन समारोहों का बड़ा बोलबाला है। हर महीने एक आयोजन होता है। भव्य आयोजन। पन्द्रह सौ से अधिक लोग, स्वादिष्ट भोजन। बड़े-बड़े अतिथि, यथा नेता। किसी सुन्दर और महंगे आयोजन स्थल का चयन होता है इस तरह के आयोजन के लिए।
नवाब साहब के पास उस दिन एक चमचमाता महंगा-सा कार्ड आया। देखने से ही लगता था कि कार्ड की कीमत कम से कम बीस रुपये होगी। कार्ड देखकर ही खुश हो गए।
उस कार्ड को बहुत करीने से खोला ताकि कहीं से फटे नहीं। क्योंकि कार्ड हाथ में लेते ही उन्होंने तय कर लिया था कि इसे सम्भाल कर रखेंगे। कार्ड बहुत आते हैं पर इतना खूबसूरत कभी नहीं आया था। महंगा कार्ड हाथ में लेकर नवाब साहब भी अपने को गौरवशाली समझ रहे थे। कार्ड पर उनके नाम की पर्ची चिपकी थी। वो भी छपी हुई। अपने आपको उस समय उन्होंने वीआईपी माना तो गलत नहीं किया।
कार्ड बाहर निकाला तो चार कलर में था। अभिनन्दन ग्रन्थ लोकार्पण समारोह का था। शहर के बड़े परचून व्यापारी लाला लल्लूराम के सम्मान में यह ग्रन्थ लिखा गया था। बड़े धनवान थे। मिलावट, नकली सामान आदि बेचने के कई आरोप लगे पर कभी कुछ नहीं बिगड़ा था। पुलिस वाले, नेता तो उनके बड़े ऑफिस में प्राय: आते-जाते रहते थे। कार्यवाही की हिम्मत करे भी तो कौन? बताते हैं कि उनके दूसरे भी कई व्यापार थे। धीमे स्वर में लोग दूसरे काम बताते थे तो जाहिर है सभी दो नम्बर के ही काम होंगे। कार्ड पर उनको समाजसेवी, दानवीर, कला पुरोधा सहित न जाने क्या-क्या बताया हुआ था। अचंभित करने वाले विशेषण थे। कई तो इतने क्लिष्ट थे कि नवाब साहब उनका अर्थ ही नहीं समझ पाए। कमाल है, जिसकी पांच पीढिय़ों ने मुनाफे के अलावा कुछ नहीं कमाया कैसे उसे समाजसेवी बताया जा रहा था।
जो सट्टे-जुए, ब्याज से शोषण करने के लिए बदनाम था उसे दानवीर की संज्ञा दी गई थी। कला पुरोधा जैसा खिताब क्यों दिया यह तो पूरी तरह से उनकी समझ में नहीं आया। बात पूरी तरह से अटपटी थी पर कार्ड पर तो यही लिखा हुआ था।
अचानक उनकी नजरों ने अभिनंदन ग्रन्थ के लेखक का नाम तलाशना आरम्भ कर दिया पर वो तो कार्ड में कहीं दिखा ही नहीं। आगे-पीछे सबदेख लिया पर कहीं नजर नहीं आया। जब अभिनन्दन ग्रन्थ छपा है तो उसका कोई-न-कोई लेखक तो होगा ही। कमाल है, कार्ड से लेखक ही गायब। सब सेठ की ही महिमा थी। यह बात नवाब साहब को जंची नहीं पर कर भी क्या सकते थे, सिवाय जलने-भुनने के। सच्चे लोगों के पास इस काम के अलावा कुछ शेष भी नहीं रहता।
नवाब साहब को उस लेखक पर गुस्सा आ रहा था जिसने उसे लिखा था। उसने नाम नहीं देने का विरोध क्यों किया। यदि नाम नहीं है तो फिर ग्रन्थ लिखा ही क्यों। इतने कमजोर लेखक को तो लिखने का भी कोई अधिकार नहीं। इस गुस्से में नवाब साहब ने तय कर लिया कि वो आयोजन में जायेंगे। ऐसे सेठ की तारीफ कैसे कर लेते हैं लोग, यह भी देखेंगे। इसके अलावा उस लेखक को भी देखेंगे जिसने इसे लिखा और नाम न होने पर विरोध भी नहीं किया। कार्ड पर नाम न होने पर जिसे कोई गुस्सा भी नहीं आया, ऐसा कैसा लेखक है? आयोजन भव्य था इसलिए नवाब साहब भी अच्छे कपड़े पहनकर तैयार हुए। निर्धारित समय से दस मिनिट पहले ही आयोजन स्थल पर पहुंच गए। आगे की सीट पर जाकर जम गए। मंच पर लगे बेनर आदि में बस सेठ ही सेठ दिख रहे थे। बड़े-बड़े कट आउट भी लगे थे।
राज्य के मंत्री समारोह में आने वाले थे। बताते हैं उनके चुनाव का खर्च सेठ ही उठाते आए हैं और एवज में कुछ वसूलते रहे हैं। मंत्री आये तो कार्यक्रम तुरन्त आरम्भ करने के लिए दौड़-धूप होने लगी। प्रोफेशनल संचालक थे। कहने को साहित्यकार पर फिल्मी गीतों, सरकारी आयोजनों तक के संचालन करते रहते थे। उनको तो नाम और दाम से ही सरोकार था। गुण को पूरी तरह बेचते थे।
संचालक ने शान में कसीदे पढ़ मंत्री जी को मंच पर बुलाया। फिर सेठ के आगे कार्ड से भी अधिक विशेषण लगाकर मंच पर आने के लिए कहा। समाज के कथित उजले चेहरे भी मंच पर थे। सब नामचीन। भले ही नाम बुरे और बदनाम कामों से कमाया हो। नाम था क्योंकि पास में पैसा था।
बड़ी-बड़ी मालाओं से स्वागत हुआ। स्वागातध्यक्ष एक कवि को बनाया था। उसने स्वागत में गीत सुनाया। खूब तालियां बजी। सेठ भी बड़े खुश। चारों दिशाओं में देखते और हाथ जोड़ अपने आपको शालीन बताने की कोशिश करते। चेहरे पर मासूमियत थी। जैसे वाकई बहुत बड़े समाज सेवक हो। नवाब साहब को सब देखकर बड़ा गुस्सा आ रहा था। गुस्सा उस समय ज्यादा हो गया जब कार्यक्रम आरम्भ होने के बाद भी लेखक को मंच पर नहीं बुलाया गया। ना एक बार भी उसका नाम बोला गया।
मंचस्थ सभी लोगों ने सेठ की शान में बड़ी-बड़ी बातें कही। किसी ने दानवीर कर्ण बताया तो किसी ने मदर टेरेसा से उनकी तुलना कर दी। पता नहीं कैसी-कैसी उपमाओं से सुशोभित किया गया। ऐसा लगा जैसे पृथ्वी पर वही एक अच्छे इन्सान हैं। बाकी तो स्वार्थ में जी रहे हैं। उनका जीवन ही दूसरों के लिए बना है।
अब आया मूल काम। सबसे अन्त में अभिनन्दन ग्रन्थ का विमोचन। भाषण पहले हो गए। ठीक ही किया। अभिनन्दन ग्रन्थ का विमोचन हो जाने के बाद लोगों की भाषणों में रुची नहीं रहती। संचालक जी ने बोलना शुरू किया।
— हालांकि सेठजी के व्यक्तित्व को इतने छोटे अभिनन्दन ग्रन्थ में समेटना बड़ा मुश्किल है। ऐसे पांच ग्रन्थ होते तो भी इनके व्यक्तित्व के लिए कम पड़ते। हमारे सामने यह भी चुनौती थी कि थोड़े शब्दों में उनके बड़े और इतने कामों को कोई लिख दे। लेखक का चयन करना बड़ा कठिन काम था।
पर कहते हैें ना कि भला करने वाले का साथ भगवान भी देता है। सेठजी का पूरा जन्म भलाई में बीता है इसलिए ऐसा ही एक भला पर गुणी लेखक मिल गया। साहित्य अकादमी के बड़े पुरस्कार से सम्मानित, अनेक अकादमियों के सदस्य रहे, सम्पादक, कवि, आलोचक लालटेन कुमार का चयन किया गया।
आयोजन स्थल तालियों से गूंज उठा।
— इतना बड़ा काम इनके अलावा कोई कर ही नहीं सकता था। यह तो आप लोगों को भी मानना पड़ेगा।
सबने तालियां बजाकर सहमति दी। नवाब साहब लेखक का नाम सुनकर चकित। यह तो कथित रूप से प्रगतिशील थे। अब तक तो क्रान्ति, मजदूर,संघर्ष आदि की बातें करते थे। उन पर ही साहित्य लिखा था। हमेशा गोष्ठियों में इससे जुड़ी भाषा ही बोलते रहते थे। लोग कई बार तो उनको कामरेड तक कहते थे। आग उगलते शब्द होते थे उनके। पूंजीवाद, शोषण के खिलाफ तो पूरी ताकत लगाकर बोलते थे। सेठों के बारे में भी विचार कुछ अच्छे नहीं थे। एक-दो सेठों के नाम के पुरस्कार भी न लेकर शहीद प्रगतिशील कहलाए थे। उनकी मित्र मण्डली में भी सभी कॉमरेड ही थे। साहित्य में प्रगतिशीलता का झण्डा उठाये फिरते थे।
लालटेन को यहां देखकर उनका तो पूरा शरीर ही हिल गया। नवाब साहब को लगा इनके साथ के लोग भी ऐसे ही होंगे। उन्होंने जो प्रतिमा मन में बना रखी थी, वह ध्वस्त हो गई।
संचालक के शब्द कानों में पड़े।
— अब मैं लालटेन जी से निवेदन करूंगा कि वो मंच पर आयें और अपने लिखे अभिनन्दन ग्रन्थ का विमोचन करावें। यह ऐतिहासिक पल है, आप भी खड़े होकर सेठजी के सम्मान में तालियां बजायें।
नवाबसाहब को छोडक़र सब खड़े हो गए। तालियां बजाने लगे। कुर्सी पर बैठे नवाब साहब पर लालटेन की नजर पड़ी पर नजरें फेर ली। विमोचन की रस्म पूरी हुई। सेठजी ने अतिथियों को एक-एक प्रति भेंट की। सबसे अन्त में प्रति लेने का नम्बर लालटेन का आया। धन्यवाद का भाषण हुआ। कार्यक्रम समाप्त हो गया। नवाब साहब तो जैसे कुर्सी से चिपक ही गए थे, उठा ही नहीं जा रहा था। लोगों को क्या पता कि विचार परिवर्तन के झटके ने उन्हें अशक्त कर दिया था। लोग खाने के लिए जाने लगे। सेठजी को बधाई देना कोई नहीं भूल रहा था। नवाब साहब अब भी अपनी कुर्सी पर जमे थे। उन्हें सब कुछ अटपटा लग रहा था। अचानक लेखक लालटेन नीचे उतरते नजर आये। उन्होंने जोर से ‘लालटेन’ आवाज लगाई। लेखक चौंके, नवाब साहब की तरफ देखा और उस तरफ आने लगे। वो जानते थे नवाब साहब जागरूक पाठक है, यदि पास नहीं गये तो कुछ भी बोल सकते हंै। पास आ गये।
— आओ नवाब साहब, क्या हाल है?
— सब ठीक है।
— आप भी आए हो आयोजन में?
— न आता तो पछतावा होता। दूसरे लेखकों को नहीं बुलाया। खासकर अपनी मित्र मण्डली को।
— आये हैं ना सब। वो देखो सब पीछे खड़े हैं। खाना खाने की जल्दी है ताकि गाँव जा सके।
— ओह, इनको तो आना ही था। नहीं तो इनका भी पता नहीं चलता।
उनकी तल्खी से लालटेन सकपका गया।
— लेखक महोदय, हमें भी थोड़ा समय दो। बात करनी है।
— कल आ जाओ।
— कल किसने देखा है। अभी दो थोड़ा-सा वक्त। — बोलो।
— पहले किनारे चलो। वहां बैठकर बातें करेंगे। ज्यादा वक्त नहीं लूंगा, निश्चिन्त रहो। तुम बहुत कीमती लेखक हो इसका अन्दाजा आज मुझे हो गया।
लालटेन चुप रहा।
दोनों एक कोने में कुर्सी पर बैठ गए।
— हां तो लेखक महोदय, आप तो प्रगतिशील हो। प्रगतिशील मण्डली के लम्बरदार। लोग कॉमरेड कहते हैं, साहित्य का। तुमने यह सेठ का ग्रन्थ कैसे लिखा। सेठ जैसा नहीं है वैसा लिखा, यह तो कहने की जरूरत ही नहीं है।
— देखो नवाब, मैं साहित्य के क्षेत्र में अब भी प्रगतिशील हूं।
— आदमी के दो रूप कैसे हो सकते हैं। आपका साहित्य तो उसका विरोधी रहा है।
— रूप की कब जरूरत पड़े, यह तो समय तय करता है।
— सीधा सवाल कर लूं?
— करो।
— इतना नीचे कैसे गिर गये?
एक बार तो लालटेन चुप हो गया। फिर बोला।
— तुमको शायद मालूम नहीं, मुझे इस ग्रन्थ को लिखने के पचास हजार रुपये मिले हैं। इतना धन मुझे साहित्य की पच्चीस पुस्तकें लिखने, तीन पत्रिकाओं का सम्पादन करने के बाद भी नहीं मिला। जीने के लिए रोटी जरूरी है, मेरा यही उत्तर है।
— मतलब पूंजीवाद की आंधी में प्रगतिशीलता उड़ गई।
— यह तुम कह सकते हो, तुम्हारा नजरिया है।
— यह सच है तो कह दिया। चलता हूं।
वो उठ गया। दो कदम चलकर पलटा।
— हां सुनो, ऐसे अभिनंदन ग्रन्थ और लिख रहा हूं, चौंकना मत। इसके बाद भी प्रगतिशील ही हूं।
नवाब साहब ठगा सा देखते रह गए। प्रगतिशीलता के मायने सोचने लगे।

 

 

 

बीकानेर उर्दू अदब के रूकन
मुहम्मद यूसुफ़ “अज़ीज़ “

पैदाइश – 3 जनवरी 1923,  वफ़ात – 8 जुलाई 1989

 

सीमा भाटी,  मोबाइल नंबर- 9414020707

उर्दू रचनाकार सीमा भाटी का राजस्थानी, उर्दू ,हिंदी तीनों भाषा में समान लेखन। आपका कहांनी संग्रह, कविता संग्रह, और एक राजस्थानी उपन्यास भी आ चुका है। इन्हें राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर का प्रतिष्ठित अल्लामा इक़बाल अवार्ड 2017 उर्दू साहित्य में मिला।

उर्दू शाइरी पर नज़र डाली जाए तो 1947 के बाद बीकानेर के उर्दू अदब की दुनिया में बहुत सी अज़ीम शख़्सियात ने उर्दू शाइरी को संवारने और सजाने के साथ साथ उसे परवान पर चढ़ाने का काम भी बड़ी शिद्द्त से किया। उसी उर्दू अदब बीकानेर के अहले क़लम और शोरा ए किराम की फ़ेहरिस्त में जनाब मुहम्मद युसुफ़ तख़ल्लुस अज़ीज़ साहब का नाम बड़े ख़ुलूस और ऐहतराम से लिया जाता रहा है। यूसुफ़ अज़ीज़ साहब एक ऐसी शख़्सियत थे, जिनको बचपन से ही अहले अदब और अहले इल्म से वाबस्तगी रही , साथ ही शेरो सुख़न से भी बेहद लगाव रहा। अदबी महफ़िलों में बड़े बड़े उर्दू क़द्रदां शोरा की सरपरस्ती भी आपको मिलती रही थी। यूसुफ़ साहब की पैदाइश 3 जनवरी 1923 को मुहल्ला चुनगरान में हुई थी वालिद का नाम मुहम्मद रमज़ान मुंशी जी था। आपने 1941 में सादुल हाई स्कूल से मेट्रिक पास किया और यहीं मुदर्रिस हो गए। उर्दू फ़ारसी की तालीम बादशाह हुसैन राना साहब से हासिल की और उन्हीं के शागिर्द हो गए। आप राना साहब से शाइरी पर मशवरा ए सुख़न भी लेते थे। राना साहब के इंतक़ाल के बाद आप बेदिल साहब और जनाब मुहम्मद आरिफ़ साहब से अपने कलाम पर इस्लाह लेने लगे। आपने हर सिन्फ़ में तबअ आज़माई की मगर ग़ज़ल से आपको ख़ास रग़बत थी। सादा सलीस ज़बान में अशआर कहना आपका शग़ल था। फ़न के माहिर अज़ीज़ साहब पेशे से मुदर्रिस थे और उम्र भर तदरीस का काम किया। एक बात यहाँ वाज़ेह करना चाहूंगी कि मुल्क के बंटवारे के बाद बीकानेर में उर्दू दरस व तदरीस का सिलसिला बंद कर दिया था मगर अज़ीज़ साहब कि ज़ाती कोशिशों से बीकानेर के स्कूलों और कॉलेजों में उर्दू तालीम दोबारा शुरू करवाने का सर्फ़ भी युसुफ़ साहब को ही हासिल था। यूसुफ़ साहब ने राजस्थान उर्दू अकादमी के मेंबर रहते हुए भी उर्दू ज़बान की बक़ा व फ़रोग़ के लिए अपनी ख़िदमत अंजाम देते रहे। आप अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू हिंद के हलक़ाए बीकानेर के नायब सदर भी रहे थे जिस वक़्त सदर जनाब मस्तान साहब थे मगर मस्तान साहब के इंतक़ाल के बाद सदर के ओहदे की ज़िम्मेदारी भी आपने ने ही संभाली।
ज़बान में सादगी सलासत, और रवानगी के साथ यूसुफ़ साहब की शाइरी में एक नौ की ताज़गी पाई जाती थी। उनकी शाइरी में सुलझे हुए ख़यालात के साथ डिक्शन के ऐतबार से भी इंतेख़ाब ए अल्फ़ाज़ बहुत बेहतरीन होते थे, और ग़ैर ज़रूरी व भद्दे लफ़्ज़ों की कहीं गुंजाईश नही होती थी इसलिए आपकी ग़ज़लों से हमेशा संज़ीदगी, सदाक़त, नज़ाक़त, और नफ़ासत ख़ास तौर पर महसूस होती थी।
यूसुफ़ साहब एक ख़ुल्क़ मिज़ाज इंसान थे जो हमेशा ये चाहते थे कि इंसान का इंसान से मोहब्बत का रिश्ता रहे, जिसमें तासुब के लिए कोई जगह ना हो। यूसुफ़ साहब मुल्क की तरक़ी के लिए हर मुमकिन कोशिश के हामिल थे। फ़िरका परस्त लोगों से आपको ख़ास परहेज़ था।
एक ऐसा ही शेर आपकी नज़र …

“शेवा मेरा हर एक से उल्फ़त करना
हिन्दू से मुसलमां से मोहब्बत करना
जायज़ है बताओ तो ये किस मज़हब में
इंसान का इंसान से नफ़रत करना ”
हुज़ूर गरीब नवाज़ की स्वानह का फ़ारसी से अंग्रेजी में तर्जमा करना आपके अहम कारनामों में शामिल था। ये काम आपने दीवान हज़रत साहब की फरमाइश पर शुरू किया था मगर उनके हयात तक ये काम पूरा नही हो सका।
राजस्थान के तक़रीबन हर इलाक़े के जैसे अजमेर, जयपुर, कोटा, जोधपुर, भीलवाड़ा, उदयपुर, में मुनअक़िद होने वाले मुशाइरों में आप शिरक़त करते थे। अज़ीज़ साहब एक अलग ही तबीयत के इंसान थे। लहज़ा तहम्मुल से लबरेज़, जिन्हें बीकानेर के उर्दू अदब का रुकन भी माना जाता था। उनकी ज़िंदादिली शख़्सियत में तहज़ीब और संज़ीदगी की ज़िंदा तस्वीर भी नज़र आती थी, और जब आप मुशाइरा पढ़ने जाते तो लखनवी अंदाज़ की शेरवानी के साथ अपनी बुलंद आवाज़ से ख़ूब दाद हासिल कर मुशाइरे को परवान पर ला देते थे। आपकी शाइरी में मुल्क के मसले ,मसाइल पर फ़िक़्र मंद होना साफ़ ज़ाहिर होता था। ये फ़िक़्र मंदी असल में अपने वतन से बेपनाह मोहब्बत का अहसास था।
मोहब्बत के चंद अशआर आपकी नज़र…

“हर रोज़ नया तूफां उठता है मोहब्बत में
तूफ़ां में है कितना दम हम ख़ूब समझते है
ऐ दोस्त दिखाने के हमदर्द तो लाखों हैं
किसको है हमारा ग़म हम ख़ूब समझते हैं” ….

क्यूंकि अज़ीज़ साहब हमेशा से मुल्क की तरक़्क़ी चाहते थे और चाहते थे कि ये तरक़्क़ी की शफ़क़तें हर उस घर तक पहुंचे जिन्हें इसकी ज़रूरत हो। आपकी शरीक़े हयात मोहतरमा सकीना बेगम भी लेक्चरर थी जिन्हें बीकानेर के मुस्लिम खानदानों में मेट्रिक पास करने वाली पहली खातून होने का सर्फ़ मौसूल था। आपके बड़े साहबज़ादे डॉ मुहम्मद साबिर साहब का शुमार भी बीकानेर के क़ाबिल डाक्टरों में होता है, अज़ीज़ साहब की सभी बेटियाँ भी बेहतरीन तालीमयाफ्ता है।
अज़ीज़ साहब की शाइरी में जुदा जुदा रंग होने के साथ साथ गंगा जमुनी तहज़ीब की जीती जागती अकासी होती थी, जो अज़ीज़ साहब की शख्सियत को सबसे अलग पहचान कराती है। उनके हर शेर में इनफिरादियत और ख़्यालात की बुलंदी नज़र आती, वो पेचीदा शेर को भी इतनी खूबसूरती और सादगी से कह जाते मानो ऐसा लगता जैसे बातचीत हो रही है। इसलिए मुहम्मद युसूफ अज़ीज़ साहब बीकानेर के उर्दू अदब में एक ऊँचा और मख़सूस मक़ाम पाने के हक़दार थे, हैं, और हमेशा रहेंगें ।
आख़िर में यूसुफ साहब के चंद अशआर आपकी नज़र …

“अफ़साना हयात को उनवां की थी तलाश
क्या जाने क्यों जुबां पे तिरा नाम आ गया “…

“हम इश्क़ के बंदे हैं ,हम हुस्न के दीवाने
मक़सूद ‘अज़ीज़ ‘अपना क़ाबा है ना बुत अपना “…

 

 

डॉ. प्रमोद कुमार चमोली  मोबाइल नंबर- 9414031050

नाटक, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, स्मरण व शैक्षिक नवाचारों पर आलेख लेखन व रंगकर्म जवाहर कला केन्द्र की लघु नाट्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान। अब तक दो कृतियां प्रकाशित हैं। नगर विकास न्यास का मैथिलीशरण गुप्त सम्मान

कुछ पढते.. कुछ लिखते…  (लॉकडाउन के दौरान लिखी गई डायरी के अंश)

मेरी डायरी  : भाग 14

ओम्, तत्, सत

डॉ. प्रमोद कुमार चमोली

दिनांकः 16.04.2020

     रात को  अमेजन पर पंचायत वेब सीरीज देखते हुए बहुत देर हो गई थी। इसलिए आज सुबह देर से ही उठे थे। इतनी देर तक सोने का यानी सुबह 9 बजे तक सोना ऐसा बहुत लंबे अर्सें के बाद हुआ है। वैस आजकल होता तो यह है कि रात को जल्दी इस लिए सोना होता है कि सुबह जिम या मार्निग वॉक जाना है फिर ऑफिस के लिए तैयार होना है। ऑफिस से लौटने के बाद कभी-कभार मित्रों के साथ हथाई करनी कुछ खाते-पीते हुए। होता दरअस्ल ये है कि ये खाने-पीने के शौक के कारण कई दूसरे शौक दब जाते हैं। इन दिनों लॉकडाउन चल रहा है लॉकडाउन में जीवन में थमा हुआ हैं। कहीं बाहर आना जाना नहीं है। दोस्तों से मिलना-झुलना केवल दूरभाष माध्यम से जारी है। बहरहाल लेट उठने के बाद आपके पास ज्यादा स्कोप बचता नहीं हैं। मुझे आज ग्लानि सी हो रही है कि इतनी देर तक क्यों सोया रहा? बहरहाल नहा-धोकर तैयार हो गया था। आजकल तैयार होना भी अजीब सा ही है। नहाना-धोना करके अपने व्हाट्सऐप  देख लो ऑफिस की तरफ से कोई काम हो तो उस बारे में वर्क फॉर्म होम से आवश्यक कार्यवाही करना। आज ऐसा कुछ था नहीं पंचायत वेब सीरिज के दो एपिसोड देखने बाकि थे। गीता का अध्याय 17 पढ़ना था। बस आज के लिए इतना ही कुछ तय किया था।

     आज के अखबार में खबर है कि 20 अप्रेल से किराना दुकानें, शहर के बाहर की फैक्ट्रियां शुरू होने की बात कही गई है। अभी शॉपिंग मॉल और स्कूल बंद रहेंगे। हाईवे पर ढाबे खुलेंगे और रेस्टोरेंट या होटल नहीं खुलेंगे। दरअस्ल बंद को खोलना तो पड़ेगा ही। जिन्दगी थमी हुई है। उसे पुनः पटरी पर लाना ही होगा। बीकानेर में आज कई दिनों के बाद में बीकानेर में एक और कोरोना पॉजिटिव मिला है। इस संबंध में बात यह है कि यह भी पहली संक्रमित के सम्पर्क में आयी महिला ही थी। बहरहाल एक नया क्षेत्र और कोरोना का खुल गया है। आशा है बाकि सब ठीक ही होगा। इधर राजस्थान में 21 से मोडिफाई लॉकडाउन रहेगा। गामीण और औद्योगिक क्षेत्रों में उत्पादन शुरू होगा। अमेरिकी राष्ट्रपति ने डब्लयु एच ओ पर आरोप लगाया कि उसने चीन में उभरने के बाद भी कोरोना को छिपाया, उसकी फंडिग रोक रहें हैं। कोरोना के बारे में तरह-तरह के विवाद चल रहें हैं। इस विवाद के बाद अभी तक तरह की शंकाएँ और कॉन्सिपिरेंन्सी चल रही है। देश में कई स्थानों पर मेडिकल टीम पर पथराव की घटना हुई हैं। इसमें लगभग 16 लोग घायल हुए हैं।

     शिक्षा के क्षेत्र में कुछ जोशिलों ने जूम एप के जरिए कक्षाएं लगानी प्रारम्भ कर दी हैं। ज्ञात हुआ है कि जूम सुरक्षित नहीं है। इससे पहले कुछ उत्साही अफसरों ने अपनी कार्यकुशलता के लिए ओवरएक्ट करते हुए जूम ऐप से वीसी तक करली है। अब ये सरकारी डाटा चोरी हुआ उसके बारे मे चुप्पी है।

     आज शब्द रंग भास्कर में डॉ. राजानन्द भटनागर की ख्यात सरल विशारद ने लिखी है। आज भास्कर में प्रसिद्ध इतिहासकार युवाल नोआ हरारी का आलेख छपा है। हरारी हिब्रु विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर है। कुछ लोगों हरारी को दुनिया के सबसे बुद्धिमान जीवित व्यक्ति मानते हैं। युवाल नोआ हरारी ने 14 अप्रेल को इंडिया टुडे एन्कलेव में राहुल कंवल से वीडियो कॉन्फ्रेंसिग द्वारा की गई बातचीत कोविड-19 के इस काल में चर्चा का विषय बनी हुई है। युवाल के बारे में गूगल सर्च करने पर ज्ञात हुआ कि ये एक नॉन फिक्शन रायटर भी है। बहुत सी पुस्तकों के लेखक हरारी की  ये पुस्तकें सैपियन्स ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ ह्यूमनकाइंड (2014), होमो डेस ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टुमॉरो (2016), और 21 लेसन फॉर 21 सेन्चुरी (2018) बेस्ट सेलर रही है। भास्कर में छपे आलेख में कोरोना वायरस के बाद की दुनिया के बारे में बताते हुए कहते हैं कि हमें एक चुनाव करना है सर्विलांस राज या नागरिक सशक्तिकरण में से एक का चुनाव करना पड़ेगा साथ ही हमें दूसरा चुनाव राष्ट्रवादी अलगाव और वैश्विक एकजुटता में से एक को चुनना है। पहले चुनाव के बारे में युवाल जिस ओर इशारा कर रहे हैं वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। अभी तो संक्रमण की निगरानी के लिए ये व्यवस्थाएं उचित ही लगती है। ऐसा लगता है कि हम एक नए डिजिटल युग में प्रवेश कर रहें हैं। जहां हम सब पर कोई न कोई निगाह रख रहा है। हम मोबाइल के जरिये जो भी कर रहें हैं उस पर गुगल, फेसबुक और व्हाट्स एप्प अपनी निगाह बनाए हुए हैं। मैंने कई बार नोट किया है कि जिस किसी चीज की हम खोज करते हैं। उसके व्यापारिक विज्ञापन हमें दिखाई देने लगते हैं। दरअस्ल गुगल और फेसबुक जैसी कम्पनियों द्वारा मुफ्त में उपलब्ध करवाई जा रही सुविधाओं की कीमत हमारे डाटा से उगाही जाती है। लेकिन संक्रमण को लेकर बन रही निगरानी व्यस्थाएं हमारी फिंगर टिप के साथ ये भी बता सकती हैं कि क्या-क्या देखा जा रहा है। क्या क्या पढ़ा जा रहा है और यह भी निगरानी कर सकेंगी की क्या देखते समय या पढ़ते समय आपके शरीर में क्या हरकतें हो रही हैं।

     दूसरे चुनाव के बारे में युवाल बताते है कि इस संकट काल में वैश्विक एक जुटता ही हमें इस संकट से बचा सकती है। उन्होंने बहुत अच्छा उदाहरण देते हुए कहा कि ‘‘चीन का वायरस अमेरिका के वायरस को यह नहीं बता सकता कि लोगों के शरीर में कैसे घुसा जाए लेकिन चीन अमेरिका को कुछ उपयोगी बातें बता सकता है। इटली का डॉक्टर सुबह कोई खोज करता है तो शाम को इरान में कई जाने बच सकती हैं।’’ कोरोना से इस लड़ाई में अपने देश में ही उत्पादन करने और चीजों को जमा करने की कोशिश की बजाय वैश्विक प्रयास ज्यादा कारगर हो सकते हैं। यानी राष्ट्रवादी अलगाव के स्थान पर वैश्विक एक जुटता ही इस संघर्ष के लिए सर्वथा उपयुक्त जान पड़ता है।

     दोपहर का भोजन लेने के बाद मैंने गीता का 17वें अध्याय का अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया था। इस अध्ययन के इस अध्याय को कुछ यूं समझा था -गीता के सत्रहवें अध्याय का नाम श्रद्धात्रय विभाग योग है। डॉ. राधाकृष्णन ने इस अध्याय का शीर्षक ‘धार्मिक तत्वों पर लागू किए गए तीन गुण’ दिया है। इस अध्याय में कुल 28 श्लोक हैं। अध्याय का आरम्भ अर्जुन भगवान से श्रद्धा के संबंध में अपनी जिज्ञासाओं के शमन के लिए आग्रह करते हुए कहते हैं कि- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रों के विधान की परवाह न करते हुए पूर्ण श्रद्धा से युक्त होकर पूजा करते हैं, उनकी श्रद्धा सतोगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी या अन्य किसी प्रकार की होती है? भगवान अर्जुन को श्रद्धा के प्रकार समझाते हुए कहते हैं कि- शरीर धारण करने वाले सभी मनुष्यों की श्रद्धा प्रकृति गुणों के अनुसार सात्विक, राजसी और तामसी तीन प्रकार की ही होती है, अब इसके विषय में मुझसे सुन। प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव के अनुसार होती है। मनुष्य श्रद्धामय होता है, जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह ठीक वैसा ही होता है। सात्त्विक गुणों से युक्त मनुष्य अन्य देवी-देवताओं को पूजते हैं, राजसी गुणों से युक्त मनुष्य यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं और अन्य तामसी गुणों से युक्त मनुष्य भूत-प्रेत आदि को पूजते हैं।ये लोग प्रदर्शन प्रिय और अहंकारपूर्ण और काम-वासना और राग की शक्ति से प्रेरित होकर उग्र तपों को करते हैं।

     इसी प्रकार के यज्ञ  के भी तीन प्रकार बताए गए हैं। बिना किसी फल की इच्छा से, शास्त्रों के निर्देशानुसार मन को स्थिर करके कर्तव्य समझकर किया जाने वाला यज्ञ सात्त्विक यज्ञ होता है। केवल फल की इच्छा के लिये अहंकार से युक्त होकर किया जाने वाला यज्ञ राजसी यज्ञ है। जो यज्ञ शास्त्रों के निर्देशों के बिना, अन्न का वितरण किये बिना, वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के बिना, पुरोहितों को दक्षिणा दिये बिना और श्रद्धा के बिना किये जाते हैं, उन यज्ञ को तामसी यज्ञ माना जाता हैं। यहाँ पढ़कर ऐसा लगा कि यज्ञ करते हुए अन्न का वितरण और दक्षिणा देना दूसरों की सहायता के प्रतीक हैं।

     आगे वे तप के भी तीन प्रकार बताते हैं। शरीर सम्बन्धी तप, वाणी सम्बन्धी तप तथा मन सम्बन्धी तप । इन तीन प्रकार के तपों को बिना फल की इच्छा के संतुलित मन से तीनो प्रकार के तप पूर्ण श्रद्धा के साथ किए जाए तो वह सात्विक तप है। इसी प्रकार सत्कार, सम्मान या प्रतिष्ठा पाने के लिए या प्रदर्शन करने के लिए तप किया जाए तो राजसी तप है। जो तप मूर्खतापूर्ण दुराग्रह के साथ अपने आप को कष्ट देकर या दूसरों को हानि पहुँचाने के लिए किया जाए तामसिक तप कहलाता है।

     आगे भगवान अर्जुन को दान के तीन प्रकार बताते हुए कहते हैं कि जो दान कर्तव्य समझकर बिना किसी उपकार की भावना से उचित स्थान में उचित समय पर और योग्य व्यक्ति को ही दिया जाता है उसे सात्त्विक सतोगुणी दान कहा जाता है। बदले में कुछ पाने की भावना से जो दान दिया जाता है उसे रजोगुणी दान कहा जाता है। इसी प्रकार जो दान अनुचित स्थान में, अनुचित समय पर, अज्ञानता के साथ, अपमान करके अयोग्य व्यक्तियों को दिया जाता है, उसे तामसी (तमोगुणी) दान कहते है।

     आगे के श्लोकों में ओम्, तत्, सत् की व्याख्या करते हुए भगवान कहते हैं कि सृष्टि के आरम्भ से ब्रह्म को उच्चारण के रूप में तीन प्रकार ओम् (परम-ब्रह्म), तत् (वह), सत् (शाश्वत) का माना जाता है। इस प्रकार मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्यों द्वारा बिना किसी फल की इच्छा से अनेकों प्रकार से यज्ञ, दान और तप रूपी क्रिया तत् शब्द के उच्चारण द्वारा की जाती हैं। इसी प्रकार परमात्मा प्राप्ति के लिये जो कर्म किये जाते हैं उनमें भी सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है। यहाँ ओम, परम सर्वोच्चता, तत् सार्वभौमता, और सत् ब्रह्म की वास्तविकता का सूचक है और अंत में भगवान श्रद्धा के साथ किए गए कार्यों का महत्व बताते हुए कहते हैं कि-

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।

कर्म चौव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते।।

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत।

असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।

     जिस प्रकार यज्ञ से, तप से और दान से जो स्थिति प्राप्त होती है, उसे भी ‘सत् ही कहा जाता है और उस परमात्मा की प्रसन्नता लिए जो भी कर्म किया जाता है वह भी निश्चित रूप से सत् ही कहा जाता है।  बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी सम्पन्न किया जाता है, वह सभी असत् कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है।

     श्रद्धा किसी विश्वास को स्वीकार कर लेने का नाम नहीं है। यह तो किसी निश्चित आदर्श के प्रति मन की शक्तियों के एकाग्रीकरण द्वारा आत्मा को प्राप्त करने का प्रयत्न है। श्रद्धा वास्तव में एक आत्मिक दबाब है जो केवल ज्ञान की दृष्टि से ही नहीं अपितु नैतिकता बोध की समूची व्यवस्था की दृष्टि से उत्कृष्ट की ओर बढ़ने का मार्ग है। सत्य की अनुभूति के रूप में आत्मा उस लक्ष्य की ओर संकेत करती है जिस पर पूरा प्रकाश बाद में पड़ता है। यानी श्रद्धा एक मन का भाव है। इसके बगैर किया गया यज्ञ, दान और तप असत है। दरअस्ल पूर्व के अध्यायों में बताया गया है कि सब जगह मैं व्याप्त हूँ। प्रत्येक प्राणी में उसकी व्याप्ति है। लेकिन उसकी व्याप्ति को जानने के लिए सत् अर्थात सत्य को जानना जरूरी है। सत्य की खोज ही परमतत्व की खोज है। सत्य को जानना ही जीवन का परमलक्ष्य होना चाहिए यही जन्मबंधनो से मुक्ति का उपाय भी है।

     शाम को 7 से 9 बजे तक छत पर घूमने और मित्रों से फोन पर बतियाने का सिलसिला रहता है। आज उदयपुर के कुछ मित्रों से लगातार बातचीत कर हालचाल जाने थे। रात्रि के भोजन के उपरांत पुनः पंचायत वेबसीरिज देखने लग गया था। आज के लिए इतना ही।

-इति’-

 

ऋतु शर्मा  :  मोबाइल नंबर- 9950264350

हिन्दी व राजस्थानी में समान रूप से कविता-कहानी लिखती हैं। हिंदी व राजस्थानी में चार किताबों का प्रकाशन। सरला देवी स्मृति व कर्णधार सम्मान से सम्मानित

साक्षात्कार :  मोनिका गौड़ से

12 अगस्त को जन्मी मोनिका गोड़ हिन्दी राजस्थानी पुस्तकों की थोड़ी समीक्षात्मक, आलोचनात्मक दीठ से शब्दो और भावों को समझने की कोशिश और उन पर पत्रवाचन द्वारा शब्दों से निरंतर साक्षात्कार और जुड़ाव। बीकानेर में रंग क्षेत्र से अभिनेत्रि के रूप में भी जुड़ाव। महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय की हिन्दी विभाग की छात्रा द्वारा काव्य संकलन ‘अपने आप से परिचित’ पर लघुशोध कार्य किया। जयपुर दूनदर्शन व अन्य चैनल पर साथ ही बीकानेर आकाशवाणी से गत 20 वर्षों से जुड़ी हुई है। आपको नानुराम संस्कृति स्मृति साहित्य सम्मान 2012, गौरी शंकर कमलेश राजस्थानी भाषा पुरस्कार कोटा 2012 व पीथळ पुरस्कार 2013 के अलावा अनेक पुरस्कार प्राप्त मोनिका गौड़ से लॉॅयन एक्सप्रेस के ‘कथारंग साहित्य परिशिष्ट’ के लिए कहानीकार-कवयित्री ऋतु शर्मा की बातचीत।

1.किसी भी लेखक के लेखन जीवन की शुरूआत प्राय संघर्ष के साथ होती है,विशेष रूप से जब किसी महिला लेखक की बात हो। आपने अपने लेखन की शुरुआत कब की और क्या अनुभव रहा।

उत्तर- मेरा ये मानना है कि लेखन की शुरूआत प्राय: व्यक्ति स्वांत:सुखाय करता है। उसका संघर्ष बाहरी नहीं होता, भीतर का होता है। साथ ही मेरा ये मानना है कि अगर ये संघर्ष न हो तो उसके लेखन में धार भी नहीं आएगी। दूसरा ये कहना चाहती हूँ कि जब आप लेखक के तौर में पहचाने जाने लगते हैं,तब आपका संघर्ष अलग तरीके का होता है, वो ये कि लेखक चाहता है कि उसकी मौलिकता बची रहे,लेखन में धार रहे,यह एक चुनौती के रूप में चलता रहता है मैं तो ये मानती हूँ कि ऐसा संघर्ष होना भी चाहिए। अगर आप संवेदनशील लेखक हैं,साहित्यकार हैं,विचारक हैं तो अपने आस-पास के परिवेश को लेकर आपके मन में विचारों का द्वंद्व लगा रहता है, वो संघर्ष रहना भी चाहिए। एक बात और कहना चाहूंगी कि लेखन से जुड़ी एक बात है कि जब आप एक लेखक के रूप में पहचान बना लेते हैं तब आपको अपने लेखन के साथ उसकी मौलिकता को बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ता है वो इसलिए कि जिन लेखकों को आपने पढ़ा,आप पसंद करते हैं उनकी छाया से किस प्रकार दूर रहें। जहां तक महिला लेखन के सफर कि शुरुआत में पारिवारिक और सामाजिक संघर्ष कि बात है तो मैं इस मामले में सौभाग्यशाली रही कि मुझे सदैव सहयोग मिला। बीकानेर के सभी बड़े लेखक,श्री हरीश भादानी जी,अजीज साहब, मरहूम सदीक़ साहब, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र,ए.वी. कमल साहब इन सभी का मुझे भरपूर आशीर्वाद मिला। प्रारम्भिक रूप से मुझे कभी कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा मेरा संघर्ष मेरे विचारों से रहा हमेशा। मैंने अपने लेखन कि शुरुआत कक्षा नवी-दसवीं से से ही करदी थी। स्त्रियोंं कि स्थिति को लेकर मेरे मन में हमेशा उथल-पुथल मची रहती थी। वहीं से मेरी लेखन कि पौध पनपने लगी। मुझे याद है जब कक्षा ग्याारवी में मैंने अपनी पहली कविता लिखी और उस डायरी को छुपाकर रखा क्योंकि विज्ञान की विद्यार्थी थी तो डरती थी कि कहीं मेरा ये साहित्य-प्रेम पकड़ा न जाए और ऐसा ही हुआ कि एक रात हम पढ़ रहे थे कि अचानक पापा आए और उनके हाथ वो डायरी लगी। फिर पापा ने कहा ‘ये क्या है?’ मेरा जवाब बहुत ही सीधा सा था ‘पापा कविता लिखी है’ मैं तो डर रही थी लेकिन पापा के एक्सप्रेशन से मैं चौंक गयी उन्होंने मुझे पढक़र सुनाने को कहा और पूछा कि ‘कवि सम्मेलन में पढ़ेगी ?’ मुझे लगा मज़ाक तो नहीं कर रहे, लेकिन वह सच था। 26 जनवरी को मैंने पहली बार किसी कवि सम्मेलन में अपनी कविता पढ़ी। मुझे ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा।

2.आप अपनी प्रेरणा किसे मानती हैं ?

उत्तर- मेरी प्रेरणा मेरा सामाजिक परिवेश और मेरे पिता के विचार रहे। लडक़ी होने के नाते मेरा इतना आगे बढऩा मेरे अड़ोस-पडौस को खटकता था, जो हमारे आपसी मतभेद का कारण भी बना और मेरे आगे बढऩे कि प्रेरणा भी बना। अमृता प्रीतम से मैं बहुत प्रभावित हूँ।

3. किन लेखकों को आपने पढ़ा है?

उत्तर- मुझे शुरू से ही पढऩे का बहुत शौक था इतना शौक था कि मेरी दादी मुझसे लड़ा करती थी कि ‘इसको झाड़ू लगाने का बोलो और अगर कोई पन्ना मिल जाए तो ये झाडू छोड़ पढऩे लग जाती है। ’ मैंने मुंशी प्रेमचंद को पढ़ा है,बंकिम चन्द्र को पढ़ा है,रवीन्द्रनाथ ठाकुर को पढ़ा और अमृता प्रीतम तो मेरी सबसे प्रिय है साथ ही मंटो को पढ़ा,इन सबके साथ साथ मैंने अनूदित रशियन साहित्य भी खूब पढ़ा है। कन्टेम्परेरी बात करूँ तो रमणिका गुप्ता,पद्मजा शर्मा को पढ़ा। राजस्थानी की बात करूँ तो सारे दिग्गज साहित्याकारों को मैं लगभग पढ़ चुकी हूँ। साथ ही मैं अन्तराष्ट्रीय लेखकों को भी खूब पढ़ा है, जिसमें शेली,कीट्स,चेखव इसके अलावा मैंने शिवानी, तसलीमा नसरीन, प्रभा खेतान और नागार्जुन को भी पढ़ा है, मेरा पढऩा अभी तक जारी है। अभी लेटैस्ट मैंने संतोष चौधरी के उपन्यास को पढ़ा।

4. आप स्वयं लिखने के लिए समय कब निकालती हैं और क्यों लिखती हैं?

उत्तर – लिखने का समय कब निकलती हूँ ये मेरे लिए बड़ा मुश्किल प्रश्न है। पहले तो अपने सिरहाने ही कॉपी पेन लेकर सोया करती थी और कुछ विचार आते तो कुछ विचार आते तो तुरंत लिख लेती थी। अब ऐसा नहीं है कभी भी जब बहुत तीव्र विचार आते हैं तो मैं लिख लेती हूँ लिखने का कोई मेरा पर्टीक्युलर टाइम नहीं है। जब मुझे रुचता है जब मेरा मन करता है तब मैं लिखती हूँ। क्यूँ लिखती हूँ तो ये कहना चाहूंगी की मेरे लिए लिखना विरेचन है, पूजा के समान है, पेशा नहीं है। मेरे मन को हल्का करने की स्थिति मेरा लेखन है।आम लोगो से अलग मेरा नजरिया क्या है जो मैंने अपने गुरुजनों से सीखा पिता से सीखा बस उसकी अभिव्यक्ति ही मेरा लेखन है और इसीलिए मैं लिखती हूँ।

5. आपकी प्रिय विधा कौनसी है और क्यों ?

उत्तर- मेरी प्रिय विधा कविता है। मैं अतुकांत कविताएँ करती हूँ। छंद मैं लिख नहीं पाती हूँ और अतुकांत कवितताओं में मैं बहुत सहज हूँ। एक कारण और है की कविता के लिए मैं जिम्मेदार हूँ,कहानी में उसके पात्र,उसकी घटनाएँ,उसकी डीटेलिंग कहीं न कहीं आपको डिस्टर्ब जरूर करता है, मेरा ऐसा मानना है।

6.आपकी रचना प्रक्रिया क्या है।

उत्तर- मेरी रचना प्रक्रिया बहुत साधारण है मुझे जब कोई चीज लगती है या कोई विचार आता है तो मैं उसे नोट ंकर लेती हूँ और फिर जब समय मिलता है तो उसे विस्तारित कर लेती हूँ मेरा प्राय: जो लेखन है वो सफर में हुआ है।जब आप अकेले ट्रैवल करते हो आप अपने साथ होते हो तो वो समय मेरे लिए बेस्ट होता है।अभी भी मैं जब कुछ मन-मस्तिष्क में विचार चलते हैं तो मैं स्कूटी लेकर निकल जाती हूँ और वो विचार पकते रहते हैं।

7.आप हिन्दी और राजस्थानी भाषा की ज्ञाता हैं। राजस्थानी लेखन के बारे में आप क्या विचार रखती हैं?

उत्तर- राजस्थानी लेखन बहुत समृद्ध है और ये हमारा दुर्भाग्य है की हम आज तक उसको उतना मान-सम्मान नहीं दे पा रहे हैं। राजस्थानी भाषा का जो साहित्य है वो हिन्दी साहित्य के आदिकाल में पढ़ाया जाता है और अगर उसको निकाल दिया जाये तो हिन्दी भाषा का आदिकाल नहीं रहेगा। राजस्थानी साहित्य किसी भी हाल में कम नहीं है अगर वो कम है तो वो हमारे मन में मस्तिष्क में विचारों में हमारी भावनाओं में। बचपन से ही हमे रटा दिया गया था की राजस्थानी गँवारो की भाषा है, पिछड़ी भाषा है इसका कोई भविष्य नहीं है इससे आप रोटी नहीं कमा सकते मुझे तो ऐसा लगता है की साजिशन अन्य भाषाओं को हम पर थोप दिया गया और हम अपनी मायड़ भाषा से विमुख होते गए।

8. राजस्थानी भाषा अपनी मान्यता के लिए जो संघर्ष कर रही है, इस बारे में आपका क्या कहना है ?

उत्तर- दस करोड़ से ज्यादा राजस्थानी बोलने वालों का ये बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि हम राजनीति के चक्कर में अपनी माँ का अपमान कर रहे हैं। मेरा मानना है की जो पीढ़ी अपनी जड़ों को अपनी विरासत को भूल जाती है तो कहीं की नहीं रहती। जब राजस्थानी पढऩे वाले ही नहीं रहेंगे तो आप राजस्थानी का इतिहास आप कैसे लोगों को बताएँगे जब भाषा ही लुप्त हो जाएंगी जैसे अन्य भाषाएँ हो रही है राजस्थान ही नहीं रहेगा क्योंकि हमारा लेखन,हमारा गौरव तो राजस्थानी के अंदर हैं जिसे मान्यता ही नहीं मिल रही है संघर्ष अभी जारी है। सभी को एक जाजम पर बैठ कर कुछ सख्त कदम उठाने होंगे तभी शायद मान्यता मिल पाए। 2020 में नयी शिक्षा नीति में ये कहा गया है की प्रारम्भिक शिक्षा मात्र भाषा में यानि राजस्थानी में होनी चाहिए। जब कक्षा 1 से 5 तक अनिवार्य रूप से राजस्थानी को पढ़ेंगे तो अवश्यमंभावी रूप से उच्चतर कक्षाओं में भी राजस्थानी पढऩे वाले बच्चे होंगे। उन्हे विचार मिलेगा जब एक पूरी नौजवान पीढ़ी एक भाषा में पुष्पित,पल्लवित और पोषित होगी तो वो रोजगार के अवसर भी उसमें मांगेगी। ये काम पहले ही हो जाता तो अब तक राजस्थानी को इतना संघर्ष नहीं करना पड़ता। यूजीसी ने मान्यता देदी है और अन्तर्राष्ट्रीय स्टार पर भी बहुत सम्मान मिलता है।जब ये भाषा रोजगार के साथ जुड़ जाएगी तो निश्चित रूप से उसकी मांग बढ़ जाएगी।

9. लेखन कोरी कल्पना मात्र है या यथार्थ का समिश्रण भी है ?

उत्तर- लेखन कोरी कल्पना हो नहीं सकता उसमें यथार्थ का समिश्रण होना जरूरी है।यथार्थ से जुडक़र ही कल्पना जब लेखन में होती है तभी वह पाठक के हृदय को छूता है।

10. एक महिला जब लिखती है तो उसको पढऩे वाले उसे उसकी जिंदगी से जोडऩे लगते है,ऐसा क्यों होता है और कहाँ तक सच है ?

उत्तर- बिल्कुल होता है। हमारी मानसिकता है कि स्त्री अगर लिखेगी तो वह अपने मन के भीतर का लिखेगी। दूसरा, हमारा जो परिवेश है हमको बड़ा आनंद आता है। दूसरों पर उंगली उठाने में वो जो गॉसिप होती है, उसको हम स्त्री के लेखन में ढूँढऩे लगते हैं।अगर स्त्री बोल्ड लिख रही है,खुला लिख रही है तो समाज उसे चरित्रहीन तक समझ लेता है।अगर इसने स्ट्राँंग लिख दिया तो भी ये सवाल खड़ा कर देते हैं की इसको ऐसा लिखना कैसे आ गया जरूर किसी ने लिख के दिया होगा। तो बात ये ही है की हमारा जो परिवेश रहा है पुरुष प्रधानता का उसके साथ हम स्त्रियां भी ट्राइनेड कर दी गयी हैं की हम उतने खुले दिमाग से सोच भी नहीं सकती। ये बहुत स्वाभाविक है और मैं इस बात को पूरी तरह से सच मानती हूँ की स्त्री के लिखे को उसके निजी जीवन से जोड़ा जाता है।

11. स्त्री विमर्श के बारे में आपका क्या कहना है ?

उत्तर- बहुत ईमानदारी से अगर कहूँ तो मैं विमर्श को मानती नहीं।जो भी लेखन करता है वो अपनी संवेदनाओं और अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करता है। हम अगर उसको एसे विमर्शों में बांटते हैं तो भले ही करें लेखन सिर्फ लेखन होता है।

12. आपके साहित्यिक जीवन से जुड़े कुछ ऐसे पल जो आपके लिए अविस्मरणीय हैं, हमसे साझा कीजिये ।

उत्तर- बहुत से ऐसे पल हैं जो मेरे लिए अविस्मरणीय रहें है,उनमें से एक साझा करना चाहूंगी मुझे याद है एक बार बीकानेर में हुए कवि सम्मेलन में हरीश भादाणी साहब कविता पढ़ रहे थे मैं सामने ही बैठी थी और उन्होने वो कविता मुझे समर्पित की और वो पल मेरे लिए गौरव की अनुभूति के थे।
दूसरा जब मेरी पहली राजस्थानी किताब आई वो पल भी मैं कभी नहीं भूल सकती,एक सुखद अनुभूति और बताना चाहूंगी की जब मैं जे.एल.एफ में गयी और मैंने कविता पढ़ी और उसके बाद लोगो ने मेरे साथ सेल्फ़ी ली और ऑटोग्राफ उस वक्त जो मुझे अनुभूति हुई वो मेरे लिए अविस्मरणीय हैं।

13. एक साहित्यकार को समाज में तो सम्मान मिलता है लेकिन जब उसके लेखन को पढऩे की बात आती है तब पाठको की संख्या कम हो जाती है। क्या कहना है आपका इस बारे में ?

उत्तर- सम्मान मिलता है क्योंकि आप एक लेखक हैं। समाज में अपनी एक अलग पहचान रखते हैं,मेरा यहाँ पर थोड़ा-सा विचार अलग है किआपको सम्मान तब तक ही मिलता है जब तक आपको कोई पढ़ता नहीं है। अगर आपको कोई सुधि पाठक पढ़ लेता है और फिर उसको कूंत लेता है तो फिर उतना सम्मान नहीं रहता, लेकिन हाँ, जैसे की ग्लैमर वर्ड है, लेखक-साहित्यकार उस रूप में सम्मान जरूर मिलता है। समाज में पढऩे का संस्कार कम होता जा रहा है इसके बहुत से कारण हैं उनमें से पहला तो ये ही है की पढऩे को समय देने की बजाय सोच ये हो गई है की क्यूँ इसमें समय गंवाएं इससे अच्छा है की हम पैसा कमा ले या कोई और एंटर्टेंमेंट करलें। इस बारे में अगर मैं अपने नव-लेखक साथियों से भी बात करूँ तो उनमें से भी बहुत से ऐसे होंगे जिनहोने उतना नहीं पढ़ा होगा। कारण है कि आज कल सब कंटैंट रैडी मिल रहा है तो हम क्यूँ पढऩे की मेहनत करें।

14 .साहित्यिक पुरस्कार के चयन के बारे में आपका क्या कहना है ?

उत्तर- प्रश्न बहुत रुचिकर है लेकिन इसपर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूंगी।

15. वर्तमान महिला लेखिकाओं के लिए क्या संदेश देना चाहेंगी आप ?

उत्तर- मैं अपनी साथियों को ये ही कहना चाहूंगी कि आप जो लिख रहीं हैं वो शाबाशी के लायक है, लेकिन मेरा ये मानना है की हम जितना लिख रहें है उसके साथ-साथ हुमें पढऩा भी चाहिए। हम जितना पढ़ते हैं उतना ही अपने आप को गुणते हैं,निखारते हैं,गढ़ते हैं और फिर हमारा जो सृजन होता है उसमें ठहराव भी आता है और गंभीरता भी आती है। अगर हम सिर्फ लिखने के लिए लिखते हैं तो फिर हमारा लेखन हल्के में लिया जाता है उसमें अध्ययन कि गंभीरता नहीं होती, मेरा कहना यही है कि लिखे पर पढ़े ज़रूर।

16. समय और काल का लेखन पर क्या प्रभाव पड़ता है?आज के लेखन के परिपेक्ष में बताएं।

उत्तर- बिलकुल पड़ता है। मैं खुद अपने आप में बहुत परिवर्तन महसूस करती हूं जब मैं सोलह साल कि थी तब लिखती थी और अब जब लिखती हूं। नज़रिये का फर्क होता है, दृष्टिकोण का फर्क होता है। लेखन पर भी इसका प्रभाव पड़ता है हमारी भाषा समृद्ध होती जाती है वेचारिक परिपक्वता आती है हमारी अभिव्यक्ति सलीकेदार हो जाती है स्पष्ट होती है और साथ ही गंभीरता आती है। समय और काल लेखक को मांझते हैं और उसे निखारने का काम करते हैं। परिवर्तन स्वाभाविक है सृष्टि का नियम है आना भी चाहिए। उदाहरण के तौर पर अगर कहूं तो आजादी के समय उससे संबन्धित लिखा गया, राजा महाराजाओं के समय उनके अनुसार लिखा गया और जब हम आजादी के बाद के समय को देखते है तो लेखन में परिवर्तन देखते हैं। वर्तमान में जब हम देखते हैं तो वैश्विक स्तर का लेखन हो रहा है। एक समय था जब ‘महादेवी वर्मा लिखती थी-अबला जीवन हाय तुम्हारी ये ही कहानी,आँचल में दूध आँखों में पानी’ लेकिन आज जब हम देखते हैं तो महिला सशक्तिकरण कि जब बात होगी तो अभिव्यक्ति का रूप बादल गया है आज प्रभा खेतान और तसलीमा नसरीन जब लिखती हैं तो महिलाओं कि स्थिति और सम्बन्धों को बहुत खुला लिखती हैं ये ही लेखन में समय और काल का परिवर्तन है। जो जरूरी भी है अगर ये नहीं होगा तो लिखा हुआ खारिज भी हो सकता है। वक्त के साथ लेखन बदलता है।

17. क्या आप मानती हैं कि महिला लेखन और पुरुष लेखन में फर्क होता है ?

उत्तर- ये बहुत बड़ा विषय है और अगर इसको सीधा ही लूँ तो मेरे लिए भी ये कहा जाता था कि मैं बहुत मर्दाना-सा लिखती हूँ।महिला लेखन को हम दोयम दर्जे का मानते आए हैं क्योंकि महिलाओं का दायरा बहुत छोटा है तो उसके लेखन में वही झलकता है, वहीं पुरुष जो कि घर से बाहर एक अलग दुनिया में भी होता है तो उसके लेखन में वैश्विकता झलकती है।ये बेसिक फर्क आता है लेकिन अब जिस तरह से महिलाओं का दायरा बड़ा है तो पुरुष और महिला लेखन में अब फर्क महसूस करना थोड़ा मुश्किल है।जब व्यक्ति के भीतर का लेखक मजबूत हो जाता है तो फिर ये जेंडर काम नहीं करता लेखक सिर्फ लेखक होता है।

18. आज की पीढ़ी किताबों से दूर होती जा रही है और सोशल मीडिया की ओर रुझान बढ़ रहा है।साहित्य इस समस्या के निदान में क्या रोल अदा कर सकता है।

उत्तर- ये जरा-सा मुश्किल सवाल है।बात सही है कि आज कि पीढ़ी किताबों से दूर होती जा रही है क्यूंकी आज कल उनको सब एक क्लिक से मिलता है।इसीलिए अध्ययन नहीं कर रहे लेकिन पढऩे वाले पढ़ भी रहे हैं बस पढऩे वालों का प्रतिशत ही कम हो गया है,पहले भी पढऩे वाले ही पढ़ते थे। सोशल मीडिया से तो क्या बच्चे और क्या हम कोई अछूता नहीं है।साहित्य कि भूमिका इतनी हो सकती है कि अच्छा लिखा जाये तो अच्छा पढ़ा भी जाएगा।मैं इसे समस्या नहीं मानती तकनीक बदली है समय बदला है तो बदलाव तो आएगा ही।हम ये कर सकते हैं कि हम बच्चों को प्रोतसाहित करें कि पढ़ें पढऩा जरूरी है।