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मधु आचार्य ‘आशावादी’  मोबाइल नंबर- 9672869385

नाटक, कहानी, कविता और जीवनानुभव पर 72 पुस्तकेंं हिन्दी और राजस्थानी में लिखी हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार संगीत नाट्य अकादमी का निर्देशन पुरस्कार, शम्भु शेखर सक्सैना, नगर विकास न्यास के टैस्सीटोरी अवार्ड से सम्मानित।

व्यंग्य  :  सम्मान की दुकान

आत्म प्रशंसा हर किसी को सुहाती है। खासकर कला क्षेत्र में सक्रिय रहने वालों को तो कुछ ज्यादा ही इसका चस्का रहता है। साहित्य के क्षेत्र में बहुत कम सम्मान है, इसलिए यहां सम्मान मिलना क्षेत्र के लोगों के लिए बड़ी बात होती है। कुल मिलाकर यह कहा जाये कि साहित्य, कला एवं संस्कृति में मान-सम्मान की भूख सदा लगी रहती है। यह भूख सम्मान मिला हुआ हो तो भी शांत नहीं होती।
इसका कारण भी ठोस है इन क्षेत्रों में सक्रिय लेागों को पैसा तो मिलता नहीं। पैसा न तो राज देता है और न समाज। बस वाहवाही या तालियां मिल जाए तो ही ठीक, ये लोग उसी से संतुष्ट हो जाते हैं। इनसे उनके आगे भी सक्रिय रहने की खुराक मिल जाती है।
समाज में इनका ज्यादा मान नहीं है, हालांकि समाज इनको अच्छा मानता है पर ठोस काम नहीं। एक वाकया इस क्षेत्र की पूरी कहानी बता देता है।
शहर के सक्रिय और फायर मैन रंगकर्मी एक दिन बीच सडक़ में एक मास्टरजी से टकरा गए। स्थायी स्वभाव था बड़ों को नमस्कार करना। रुककर चरण स्पर्श करना। उस रंगकर्मी ने भी ऐसा ही किया। एक तो वो मास्टर और दूसरे सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय , सम्मान का हक तो रखते ही हैं। उन्होंने भी चरण स्पर्श के प्रत्युत्तर में आशीर्वाद दिया और सवाल भी दाग दिया।
– क्या कर रहे हैं आजकल?
वो खुश हुआ। इस बात की खुशी थी कि मास्टर जी ने अपने बुद्धिजीवी होने की बात को पुष्ट करते हुए उसके काम से जुड़ा सवाल किया। रंगकर्मी का सीना फूल गया। उसने भी उत्साह से जवाब दिया।
– इन दिनों चर्चित नाटक ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लार्ड’ की रिहर्सल कर रहा हूं। जल्दी ही उसका प्रदर्शन करेंगे।
– वो तो ठीक है पर मैं पूछ रहा हूं कर क्या रहे हो?
– इसके अलावा आकाशवाणी के ध्वनि नाटकों में भी काम कर रहा हूं। एक तो अभी रिकार्ड करा के आया हूं।
– समझ गया मैं। तुम मेरी बात नहीं समझे, मैं तो पूछ रहा हूं तुम करते क्या हो आजकल?  अब जाकर उस रंगकर्मी को सवाल समझ में आया। वो बुद्धिजीवी, समाज सेवी नाट्य कर्म को कोई काम ही नहीं मानते। काम तो उसको मानते हैं जिससे आय होती है। पैसा मिलता हो।
उसने मास्टरजी के सवाल का कोई जवाब नहीं दिया और अपनी साइकिल लेकर चलता बना। उसे बहुत तरस आ रहा था। कोई आदमी ‘काम’ की परिभाषा यह समझाता तो इतनी चिंता नहीं होती, पर एक पढ़ा लिखा मास्टर और समाज की अगुवाई करने वाला भी ‘काम’ की यही परिभाषा माने तो गुस्सा आना स्वाभाविक था।
जिस समाज में साहित्य और कला के काम को काम ही नहीं माना जाता उसमें सम्मान की चाह रखे तो गलत भी नहीं। यदि समाज खुद इस क्षेत्र के लोगों को सम्मान देने लग जाए तो उनको दूसरे किसी सम्मान की भूख ही न रहे।
साहित्यकारों और कलाकारों की इस भूख को कई दुकानदारों ने भी पकड़ लिया और अपनी-अपनी दुकानें खोल ली। साहित्य की टर्म में इनको दुकानदार कहना सही नहीं, कला फरोश कहना चाहिए। आम आदमी के लिए हम इनको साहित्य-कला के दुकानदार कहकर संबोधित कर सकते हैं।
कलाकार और साहित्यकार के कोमल मन का दोहन करने का धंधा इन दुकानदारों ने खोल लिया है और वो खूब चल निकला है। धंधे में लाभ ही लाभ है। एक की देखा-देखी दूसरे ने और फिर कइयों ने यह दुकान खोल ली है।
सम्मान की यह दुकानें पहले बड़े शहरों में आरंभ हुई और अब तो छोटी-छोटी जगहों पर भी इसके काउंटर खुल गए हैं। मजे की बात यह है कि इन दुकानों को जो लोग चलाते हैं उनका साहित्य और कला से दूर दूर तक का वास्ता नहीं है। न वो किताबें पढ़ते हैं और लिखने का तो सवाल ही नहीं। इसके बावजूद साहित्य के बड़े बड़े अवार्ड पर अवार्ड दिए जा रहे हैं। अपनी कमाई के दूसरे धंधे इन्होंने बंद कर दिए हैं क्योंकि यह धंधा खूब चल निकला है।
हमारे शहर में एक स्वयंभू साहित्यकार थे। एक किताब लिखी कुल जमा उन्होंने। एक दिन अखबार में उनके फोटो सहित खबर छपी थी। शहर के साहित्यकारों की नजर उस खबर पर पड़ी। जाहिर है अपनी जमात की खबर हर वर्ग पहले देखता है।
उस खबर में बताया गया था कि उन स्वयंभू साहित्यकार को एक बड़े शहर ने ‘साहित्य श्रीश्री’ की उपाधि के लिए चुना है। कमाल की घटना थी यह। लोगों ने उनको हाथोंहाथ फोन लगाकर बधाई देनी शुरू कर दी।
नवाब साहब भी उनको जानते थे। फोन मिलाया। एक घंटी बजते ही उन्होंने उठा लिया, शायद पता था मुझे सम्मान की बधाई का फोन है। पहले तो फोन आते ही नहीं थे इसलिए अब आने का तो यही एक कारण है।
– बधाई हो साहित्यकार जी।
– आपका बहुत बहुत आभार।
– ‘साहित्य श्रीश्री’ बनना तो बहुत बड़ी बात है।
– यह तो आपके आशीर्वाद से संभव हुआ है।
– अरे भाई इसमें मेरा क्या योगदान। आपके काम को मान लिया है।
– आप साहित्य प्रेमी है इसलिए ऐसा कह रहे हैं।
– नि:संकोच कहिये। इजाजत की क्या जरूरत है।
– मैं साहित्यकार नहीं हूं ना इसीलिए इजाजत मांगी।
– नवाब साहब, आप तो मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं।
– नहीं-नहीं, ऐसा कुछ नहीं है।
– फिर आप सवाल कीजिए ना।
– ये उत्तर प्रदेश वालों ने आपकी प्रतिभा को कैसे पहचान लिया?
– अरे भाई साहब, उन्होंने मेरी किताब पढ़ी और चयन कर लिया। अब मेरी यह किताब कई जगहों पर पहुंची है। सच्चे अर्थों में साहित्य सेवी हैं। बिना पक्षपात मुझे न जानते हुए भी कृति के आधार पर मेरा सम्मान के लिए चयन कर लिया। मुझे तो उनका पत्र आने पर ही सूचना मिली। मैं अचंभित था कि इस युग में भी लोग साहित्य का सम्मान करते हैं।
यह कहते कहते वो भावुक हो गए। नवाब साहब ने बीच में बोलकर उनके भावुक भाषण को रोका, नहीं तो शायद वो सम्मान का बखान करते-करते रो पड़ते।
– वाह, कमाल है हमारी माटी के लाल की प्रतिभा को उन्होंने खूब पहचाना। यह तो हम सबका सम्मान है आपके साथ साथ हम सबको गौरवान्वित होने का सुअवसर मिला है।
– मुझे तो बस इस बात का संतोष है कि मैं अपने काम से अपनी मिट्टी का कुछ तो कर्ज अदा कर पाया।
-सही कहा आपने। तो मेरी बधाई स्वीकार करें। आप इस क्षेत्र में आगे भी इसी तरह की सफलताएं प्राप्त करें, यही मंगलकामना है।
– हृदय से आपका आभार।  वो आगे कुछ बोलते उससे पहले ही नवाब साहब ने अपनी तरफ से फोन काट दिया। फोन करने में जल्दबाजी का भी कारण था। उनको डर था कि कही साहित्यकार महोदय भावुक होकर अपनी किताब और साहित्य सरोकार पर प्रवचन न आरंभ कर दे।
कुछ दिनों बाद अखबार में सम्मान लेते हुए उनकी फोटो और समाचार भी छपा। कई लोगों ने बधाई दी, यह भी समाचार में लिखा हुआ था।
उसी दिन अखबार में एक और खबर छपी थी, जिसे पढक़र भी नवाब साहब चौंक गए। नगर के एक दूसरे साहित्यकार जी को ‘साहित्य पंडित’ उपाधि दिए जाने की खबर थी। यह उपाधि उनको एक दूसरे बड़े शहर की संस्था दे रही थी। उनहोंने भी अब तक केवल एक ही किताब लिखी थी।
कमाल हो गया यह तो। इस शहर का साहित्य अचानक राष्ट्रीय फलक पर चर्चित हो रहा है और साहत्यिकार उपाधियों से विभूषित हो रहे हैं। शहर को शायद शुक्र की दशा लग गई। तभी तो मान सम्मान मिल रहे हैं। नवाब साहब को लगा जैसे उनका शहर तो अब देश की साहित्यिक राजधानी बनने लग गया है। देश में अगर साहित्य सृजन हो रहा है तो केवल इसी शहर में। खबर में नवाब साहब का दिल बाग बाग हो गया।
नवाब साहब ने अपने स्वभाव के अनुसार उन साहित्यकार जी को भी फोन लगाकर बधाई दी। उन्होंने भी आशीर्वाद, माटी का मान आदि की वैसी ही बातें भावुक होकर कही। नवाब साहब को लगा जैसे पुरानी टेप चल पड़ी। ज्यादा सवाल नहीं किए और फोन जल्दी ही काट दिया।
कुछ दिनों बाद फिर अखबार में उन साहित्यकार जी की खबर छपी। उपाधि लेते हुए का फोटो और कई लोगों की बधाई भी। इन साहित्यकार जी का मित्र एक स्थानीय दैनिक समाचार पत्र में काम करता था तो उनका इंटरव्यू भी छप गया। उसमें भी वहीं बातें जो नवाब साहब को फोन पर कही थी।
उसके दो दिन बाद तीसरे साहित्यकार जी की खबर थी। उनको भी उपाधि की बधाई दी। बाद में उनका भी उपाधि लेते हुए फोटो सहित समाचार। फिर चौथे-पांचवें से सातवें तक साहित्यकार जी के सम्मान की खबरें दिखी। अब तो नवाब साहब ने बधाई देना भी बंद कर दिया।
जिन-जिन को अलग-अलग उपाधियां मिली थी, उन सबकी केवल एक-एक किताबें ही छपी थी। एक-दो की तो दो किताबें छपी थी। इन किताबों पर ही उनको बड़ा मान दिया गया। इस बात ने नवाब साहब के मन में शंका पैदा कर दी। कई सवाल खड़े कर दिए। सवाल कुलबुलाने लगे तो आदमी को जवाब पाए बिना चैन नहीं पड़ता।
वो सोचने लगे कि ऐसा क्या है कि इन एक-दो किताब लिखने वालों को तो बड़े बड़े सम्मान मिल रहे हैं वही दूसरी तरफ दो-तीन दर्जन अच्छी किताबें लिखने वालों को कुछ नहीं मिल रहा। उनकी किताबों कोर्स में चल रहा है। ज्ञान भी है पर उनको उपाधियां नहीं मिल रही।
नवाब साहब ने उपाधियां मिलने वालों की किताबें भी पढ़ी वे भी कुछ खास नहीं। उनके दिमाग में कई शंकाएं उठ खड़ी हुई। उनको लगा कि इसकी कोई न कोई वजह जरूर है। या यूं कहंू तो कोई न कोई गड़बड़ झाला है। यदि उपाधियां मिलने का क्रम साफ होता तो पहले तो उनको मिलती जिनका बड़ा काम है।
उनको अचरज तो तब हुआ जब एक-एक को दो-दो या इससे भी अधिक समान या उपाधियां मिल गई। किताब वही एक। एक किताब, कई सम्मान, कई उपाधियां। ये सब हालात सवाल खड़े करने वाले स्वयंमेव थे।
– सीधे पाठक नवाब साहब को यह सवाल परेशान करने लगा। अब वो इस फील्ड के तो थे नहीं इसलिए यह भी परेशानी थी कि इस गड़बड़ झाले की तह तक कैसे पहुंचे। तह तक पहुंचना है, यह उन्होंने जरूर ठान लिया। चाहे कुछ भी हो जाए, इस खेल का पता लगाकर रहेंगे। आदमी ठान ले तो फिर कुछ भी असंभव नहीं।
अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए नवाब साहब एक दिन सुबह-सुबह उन बड़े साहित्यकार के घर पहुंच गए जिन्होंने दो दर्जन से अधिक किताबें लिखी थी। देश में कई जगह को वो व्याख्यान देने भी जाते थे। उनकी कहानियां, कविताए,ं निबंध आदि देश के कई विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम का हिस्सा बने हुए थे।
हिम्मत करके उस दिन सुबह सुबह वो उनके घर पहुंच ही गए। उनको देखकर साहित्यकार भी दंग रह गए।
– अरे नवाब साहब, आज इधर का रास्ता। कहीं अपना रास्ता तो नहीं भूल गए।
बिलकुल नहीं भूला हूं। आपसे ही मिलने आया हूं।
– मुझसे मिलने? भई मैं व्यापारी तो हूं नहीं, फिर मुझसे क्या काम?
– मेरा एक सवाल है।  – देखो नवाब साहब, मैं शब्दों का व्यापारी हूं। आपके व्यापार के बारे में मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं। लगता है मैं आपकी कोई मदद नहीं कर पाऊंगा।
– मैं साहित्य का ही एक सवाल लेकर आया हूं।
यह सुनकर वो साहित्यकार जोर- जोर से हँसे। फिर बोले-
– साहित्य का सवाल। आपने लिखना शुरू कर दिया क्या?
– बिलकुल नहीं। यह काम मेरे बस का भी नहीं। हां, मेरे पिताजी ने जरूर लिखा था।
– अच्छा। क्या लिखा था।
– एक बार एक कविता लिखी थी।
– उसके बाद।
– उसके बाद कुछ नहीं लिखा।
– क्यों?
– यह सवाल कईयों ने किया था उनसे।
– क्या जवाब दिया उन्होंने।
– उन्होंने हर सवाल करने वाले को यही जवाब दिया कि समझ पकड़ते ही लिखना छोड़ दिया।
इस बात पर दोनों ही खुलकर हँसे। कई देर तक हँसते रहे।
– यह तो मजाक की बात हुई। अब बताइये आप क्या सवाल लेकर आए हैं?
– मैं कई दिनों से परेशान हूं।
– परेशानी किस बात की।
– आपने कई किताबें लिखी। पूरे देश में साहित्य पर भाषण देने जाते हैं। बच्चे कोर्स में आपका लिखा पढ़ते हैं, पर आपको साहित्य श्रीश्री या साहित्य पंडित जैसी कोई उपाधि नहीं मिली। ठीक इसके विपरित जिन्होंने एक किताब लिखी है जैसे तैसे, उनको यह सब उपाधियां धड़ाधड़ मिल रही है। ऐसा क्यूं? ये क्या गड़बड़ झाला है मेरी समझ में नहीं आ रहा। इस सवाल का जवाब लेने आपके पास आया हूं।
वो चुप हो गए। थोड़ी देर तो बोलना ही सही नहीं समझा। सोचने के बाद कहा।
– यह तो समय आपको बताएगा। उपाधियां या सम्मान का सच आप तो मनोहर जी से जान लो।
-मनोहर जी कौन, वहीं जो भजन लिखते हैं।
– हां, वहीं। वो इनका सच आपको बता देंगे।
– ठीक हे, आज ही जाकर उनसे मिलता हूं।
नवाब साहब वहां से सीधे मनोहर जी के यहां पहुंच गए। वे बरामदे में बैठे मोबाइल पर फेसबुक चला रहे थे।
– आओ नवाब साहब, मेरा सौभाग्य कि आज सुबह सुबह आपके दर्शन हो गए। आप तो बहुत कम नजर आते हो।
– आपकी याद आई तो चला आया।
– अच्छा किया। पर भाई आज हमें कैसे याद किया?
– साहित्यकार जी से एक सवाल पूछने गया था। उन्होंने जवाब नहीं दिया, आपको रेफर कर दिया। कहा, वो इसका जवाब दे देंगे।
– कमाल है। उन्होंने मुझे कुछ काम के योग्य तो समझा, यह मेरे लिए बड़ी बात है।
– सच में उन्होंने ही मुझे आपके पास भेजा है।
– वो बड़े साहित्यकार है, मैं तो उनका भक्त हूं।
– आपकी भी तो तीन किताबें निकली है।
– वो सब तो भजनों की है। फिल्मी गीतों पर भजन लिखे है बस।
– फिर भी किताबें तो है ना।
– आप उनको किताबें बताकर मेरा मान बढ़ा रहे हैं। वे तो गुटके हैं, भक्तों को बांटने के लिए। खैर इसे छोडिय़े, ऐसा कौन सा सवाल है जिसके जवाब के लिए उन्होंने आपको मेरे पास भेजा है।
नवाब साहब अब गंभीर हो होए। थोड़ा ठहरकर बोले।
– अपने साहित्यकार जी को कोई उपाधि या सम्मान नहीं मिला, पर शहर के एक-दो किताब लिखने वालों को बड़ी बड़ी उपाधियां मिल गई। ये क्या गड़बड़ झाला है? मुझे तो इसका सच बताओ। मनोहर जी जोर जोर से हँसने लगे।
– बस, इतना सामान्य सा सवाल। यह बताना तो बहुत आसान है।
– मेरे लिए यह समस्या श्रीलंका की समस्या से कम नहीं है।
– इसका जवाब तो अभी दे देते हैं।
– तो दीजिए।
– आप ही बताइये, कौन से सम्मान का सच बताऊं। – साहित्य श्रीश्री का।
मनोहर जी ने फेस बुक पर इस संख्या का पेज खोला और उसके इन बॉक्स में एक मैसेज लिखा। मैसेज में इस सम्मान को पाने के लिए आवेदन की प्रक्रिया बताने को कहा। साथ में अपने फोन नंबर भी लिख दिए।
– अभी आता है जवाब नवाब साहब।
– फेस बुक पर आएगा।
– नहीं। फोन पर। ये लोग अपना व्यापार लिखित में नहीं करते।
बात करके करते हैं।
– व्यापार।
– हां व्यापार। ये सब दुकानें ही तो हैं। इनको माल बेचना है और हमें खरीदना है। इसलिए सूचना मिलते ही फोन करेंगे।
इतने में ही उनके फोन की घंटी बज गई। उन्होंने फोन उठाया और स्पीकर ऑन कर दिया ताकि नवाब साहब बातचीत सुन सके।
– हैलो।
– हां जी।
– आप साहित्य श्रीश्री उपाधि लेना चाहते हैं ना?
– हां। इसके लिए क्या करना होगा?
– आपने कोई किताब लिखी हुई है क्या?
– तीन लिखी हुई है।
– मिल जाएगा। 10 हजार रुपए लगेंगे।
नवाब साहब यह बातचीत और उसकी यह बात सुनकर चौंक पड़े। मनोहर जी ने चुपचाप सुनने को कहा।
– ज्यादा है यह बजट। थोड़ा कम करें।
– इतने से कम में तो बात नहीं बनेगी। आपको सम्मान पत्र देना है। और प्रतीक चिह्न भी। आने जाने का खर्चा आपका। ठहराने और खाने की व्यवस्था हम करेंगे।
थोड़ा तो कम कीजिए। छोटा दुकानदार हूं। अगली बार ज्यादा दे दूंगा। इस बार तो कम कीजिए।
– चलिये सात हजार में सौदा तय करते हैं।
– ठीक है। आप हमारे एकाउंट में रुपये जमा कराने के बाद फॉर्म भेज दीजिए। आपको मिल जाएगी उपाधि।
– आज ही रकम जमा कराता हूं।
– हां, आपको साहित्य पंडित और अन्य उपाधियां, सम्मान चाहिए तो भी आप मुझसे संपर्क कर लेना। उसकी भी हम व्यवस्था कर देंगे। सबकी एजेंसी है हमारे पास। कम भी करा देंगे पैसे।
– ठीक है।
फोन कट गया।
नवाब साहब और मनोहर जी भी एक दूसरे का मुंह ताकने लगे।
– क्यों, मिल गया जवाब?
नवाब साहब ने सिर हिलाया, बोले कुछ नहीं।
– साहित्य मेें सम्मान की इन दुकानों का धंधा अभी जोरों पर है।
नवाब साहब को सम्मान, उपाधि और इनकी दुकानों का सच पता चल गया। वो बिना जवाब दिए उठे और चल दिए घर की तरफ। सच वास्तव में बहुत कड़वा होता है।

 

मेहनतकश शाइर
रफ़ीक़ अहमद रफ़ीक़

पैदाइश – 28 फरवरी 1933,  वफ़ात – 3 अगस्त 2000

सीमा भाटी,  मोबाइल नंबर- 9414020707

उर्दू रचनाकार सीमा भाटी का राजस्थानी, उर्दू ,हिंदी तीनों भाषा में समान लेखन। आपका कहांनी संग्रह, कविता संग्रह, और एक राजस्थानी उपन्यास भी आ चुका है। इन्हें राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर का प्रतिष्ठित अल्लामा इक़बाल अवार्ड 2017 उर्दू साहित्य में मिला।

–जनाब रफ़ीक़ अहमद रफ़ीक़ की शख़्सियत पर नज़र डालें तो देखेंगे की रफ़ीक़ साहब का शुमार बीकानेर के शेरों अदब के उन मख़सूस शोरा-ए-अदब में होता है जिन्होंने ये साबित किया है कि शाइर बनने के लिए उसका काम और पेशा कभी दीवार नही बनता क्यूंकि शाइरी की एक अलग ही दुनिया होती है, जिसे कोई भी शख़्स लिख पढ़ सकता है। उसके लिए किसी मदरसे या स्कूली तालीम कि ज़रूरत नही पड़ती, ज़रूरत होती है तो सिर्फ़ ये कि वो ज़बान से वाक़िफ़ होने के साथ शाइरी की बुनियादी बातों से भी आगाह हो। ताकि वो अपनी शाइरी में उन तमाम अनासिर जैसे जज़्बात, अहसासात, ज़बान व बयां में सादगी, लहजे में संजीदगी लफ़्ज़ों में पुख़्तगी के साथ साथ फ़िक़्र की गहराई का शऊर भर सके।
“शाइरी वो फ़न है जो इंसान को सही मआनी में इंसान बनाने की सलाहियत रखती है। शाइरी शाइर के जज़्बात व अहसासात की आईनादारी होती है वो उस इंसान के भी दिल ओ दिमाग़ में शाइर होने का बीज बो देती है चाहे वो इंसान मज़दूर हो या किसी दीगर पेशे से ताअल्लुक़ रखता हो जिसमें अदब का थोड़ा बहुत भी इल्म है उसमें अपने तजर्रबात के ज़रिये अपनी बात का मुशाहिदा करने का शऊर होता है। क्यूंकि अदब ज़िन्दगी की तर्जमानी तो करता ही है साथ में अच्छे बुरे की पहचान करने की सलाहियत भी देता है।
‌जी हाँ रफ़ीक़ अहमद रफ़ीक़ साहब के साथ भी कुछ ऐसा ही था। अहमद साहब पेशे से ख़ुद मज़दूर इंसान थे। एक ऐसा मज़दूर जिसकी बेबाक़ी, सदाक़त साफ़ गोई, निडरता, और उसकी बुलंद आवाज़ मतरनुम शाइरी का हर कोई मुरीद था।

‌रफ़ीक़ साहब के कुछ अशआर आपकी नज़र …

‌”क़ुर्बानियों के वास्ते तैयार हैं रफ़ीक़
‌ हम चाहते हैं क़ौम को बेदार रखना”

‌”दिल की हर आरज़ू मिट्टी में मिला देती है
‌ तंगदस्ती हमें जीने की सजा देती है ”

रफ़ीक़ अहमद की पैदाइश एक गरीब किसान मज़दूर जनाब नज़ीर अहमद के घर 28 फ़रवरी 1933 मुहल्ला भिश्तियान बीकानेर में हुई थी। नाम रफ़ीक़ अहमद ,और तख़ल्लुस रफ़ीक़ रखा। यहाँ शे’रों अदब का माहौल था। उसका असर रफ़ीक़ अहमद साहब के दिल और दिमाग़ पर होना लाज़मी था। पेशा मेहनत मज़दूरी और तिजारत का होने के साथ आप बीकानेर नगर पालिका के पार्षद भी रहे थे उस की वजह से आम आवाम से हमेशा आपकी वाबस्तगी रही। सियासत में भी आपका अच्छा दख़ल था। आपने मुख़्तलिफ़ जमाअतों में भी एक असरदार रुकन की हैसियत से अपनी ख़िदमत अंजाम दी, साथ ही आप दीगर समाजी अदबी, तालीमी, इदारों से भी जुड़े हुए थे, जैसे अब्बासिया चेरीटेबल ट्रस्ट, के ट्रस्टी, कमेटी हुसैन, ईद मिलादुन्नबी, कमेटी बज़्म मुसलमा के सरपरस्त, मस्तान अकेडमी के सरपरस्त के तौर पर आपकी बेहतरीन ख़िदमत अंजाम रही। रफ़ीक़ साहब ज़मीन से जुड़ी हुई एक ऐसी ज़फ़ाकश शख़्सियत थी जिसका दुख, तकलीफ, गरीबी से बहुत क़रीब से रिश्ता रहा, मगर दूसरे जानिब से हम देखे तो उन तमाम मुश्किल हालात के बावजूद भी वक़्त वक़्त पर मुहल्लों में होने वाली नअत महफ़िलों में आप बचपन से ही शिरक़त करने लग गए थे। जिस से उनका शे’री ज़ौक़ व जला और परवान पर चढ़ा और फिर इन सब के साथ जनाब मस्तान साहब और जलालुद्दीन साहब की सुहबत का असर भी उनकी शख़्सियत को निखारने में शफ़ीक़ और इस्तफ़ादे के ऐतबार से बेहद मुफ़ीद साबित हुआ।
जिसका नतीज़ा ये निकला कि आप सन 1965 से बाक़ायदा मुशायरे पढ़ने शुरू कर दिये थे, जबकि 1960 से तो आपने शाइरी का आगाज़ किया था। जनाब क़ाज़ी अमीनुदीन हुसैन असर उस्मानी और जनाब दीन मुहम्मद मस्तान साहब मरहूम से आपको सर्फ़ तलमुज़ हासिल था। हालांकि आपका पेशा मज़दूरी का था इसलिए रफ़ीक़ साहब दिनभर मिल में काम करने के बाद रात को अदबी महफ़िलों में हिस्सा लेते थे और अपनी बुलंद आवाज़ से सभी को मुत्तासिर कर देते थे। आपने नअत, मनक़बत, ग़ज़लें, नज़्में क़तआत और सलाम लिखे हैं। आपके अंदाज़ और निहायत सादा और सलीस ज़बान पर हज़रत मस्तान साहब का असर माना जाता था।
बीकानेर में शेरों अदबी माहौल को फ़रोग़ देने में आपका अहम किरदार था। चूँकि आप मज़दूर पेशा थे।  आपको घर चलाने के लिए सख्त मेहनत करनी पड़ती थी। सियासी मुआमलात में भी आपको वक़्त वक़्फ़ करना पड़ता था। ऐसे हालात में शाइरी को जितना वक़्त तवज्जो देना चाहते थे नही दे सके फिर भी आपका शेरी मज़्मुआ “हर्फ़ ए हुनर” सरमाया आपके कम वक़्त का हामिल है। आप एक अरसे दराज़ तक बीमारी की गिरफ्त में भी रहे उसके बावजूद भी शे’र गोई का सिलसिला जारी रहा। शे’री गोई की नज़र से देखे तो 1986 के बाद का वक़्त आपका बेहतरीन वक़्त रहा।

कुछ शे’र आपकी नज़र …

“वाक़िफ़ नही जो मुझसे ज़माना लतो क्या हुआ
तुम से तो मेरा हाल नही छुपा हुआ ”

“दोनों में राब्ता भी है तो किस दर्ज़ा है रफ़ीक़
देखा जो आँख ने वही दिल में उभर गया ”

शाइर का कलाम ही उसका असल तआरुफ़ होता है। उसमें लउसके अहसासात, जज़्बात, और तजर्बात होते हैं जो शाइरी में ढल लकर सबके सामने आ जाते हैं, उसकी ज़िन्दगी का यही सरमाया लहमेशा ज़िंदा रहता है। अहमद साहब आमजन के लिए भी बेहद ख़ुल्क़ इंसान थे। आपकी शाइरी सादी और सच्ची होने के साथ उसमें उस वक़्त के समाजी जुल्म लऔर निज़ाम के ख़िलाफ़ जो आवाज़ थी वो बेचैन करने वाली थी, क्यूंकि वो आवाज़ सिर्फ़ हालात की अकासी नही थी बल्कि वो आवाज़ मज़लूम को उन तमाम हालात से लड़ने की आज भी ताक़त और हौसला देती है।
आपकी शे’री ख़िदमात के ऐतराफ़ में बहुत से इदारों और अकेडमी ने आपका वक़्त वक़्त पर एज़ाज़ किया है जिसमें अहम को दर्ज़ करना अपना फ़र्ज़ समझती हूँ।

1.राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर ने “खुसूसी अवार्ड” बराए सन 1999-2000 से नवाज़ा।
2. यौमे आज़ादी 1998 को जिला कलेक्टर ,बीकानेर की जानिब से आपकी अदबी ख़िदमात के ऐतराफ़ में एज़ाज़।
3.डिस्ट्रिक्ट लिट्रेसी कमेटी बीकानेर की जानिब से एज़ाज़।
4.मस्तान अकेडमी बीकानेर की जानिब से एज़ाज़।
5.अंजुमन तरक़ी अब्बासिया ,बीकानेर की जानिब से एज़ाज़। से नवाज़ा गया है।
रफ़ीक़ साहब अपनी ज़िन्दगी में नेक नियति ,ईमानदारी हक़ गोई ,इंसाफ़ व उसूल पसंदी और खुद्दारी के क़ायल थे। आपने हर उस इंसान को क़दर व इज़्ज़त बख़्शी जिसमें ये खूबियां पाई जाती थी। रफीक़ साहब की अदबी और सियासी रिवायत को उनके साहबजादे आज भी क़ायम किये हुए हैं। शाइर ज़ाकिर अदीब साहब जहाँ अदब में वालिद साहब का नाम रोशन कर रहें हैं वहीं जनाब सरताज साहब पार्षद रह चुके हैं और रफीक़ साहब के घर की बहू शकीला बानों साहिबा भी उपसभापति रह चुकी है ।
आख़िर में रफ़ीक़ अहमद रफ़ीक़ साहब के एक शेर के साथ परचे का इख़तताम करती हूँ ….

” तमाम उम्र इसी इक तलाश में गुज़री
रफ़ीक़ है कोई दुनिया में दोस्ती के लिए ”

“रोशनी क्यों न हो महलों में अमीरों के रफ़ीक़,
ख़ूने मज़लूम से होता है चिराग़ा अब तक “…

 

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डॉ. प्रमोद कुमार चमोली  मोबाइल नंबर- 9414031050

नाटक, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, स्मरण व शैक्षिक नवाचारों पर आलेख लेखन व रंगकर्म जवाहर कला केन्द्र की लघु नाट्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान। अब तक दो कृतियां प्रकाशित हैं। नगर विकास न्यास का मैथिलीशरण गुप्त सम्मान

कुछ पढते.. कुछ लिखते…  (लॉकडाउन के दौरान लिखी गई डायरी के अंश)

       भाग 13   मेरी डायरी

सृजन और विनाश  : डॉ. प्रमोद कुमार चमोली

          दिनांकः15.04.2020

     सुबह उठ कर बाहर बैठा तो गेंदे का एक पौधा जो कल तक बिल्कुल खाली था। आज उसमें एक दो फूल खिले हुए नजर आ रहें हैं। इस पौधे की भी कहानी है। दिवाली में लाई माला सूख गई तब उसे यहीं पेड़ पर टांग दिया। फिर एक दिन दोनो छोटी भतीजियों ने फूलों को तोड़कर कुछ बीज बिखेर दिए। उनमें से कुछ पौधे तो हमारा मुन्ना खा गया। जो एक-आध बचा है। उसमें ये फूल खिले हैं। जीवन में हर पल, हर क्षण नवीनता का संचार हो रहा है। भूमि के गर्भ में पड़े बीज फूटते हैं। पौधा बनता है, विकसित होता है,  नयी कलियाँ बनती हैं, वे, खिलकर फूल बनती है। इन फूलों को देखकर ऐसा लगता है कि कोई छोटा बच्चा मुस्करा रहा है। वह आस-पास को देख संसार को समझना चाह रहा है, उत्साह से लबरेज उसका चेहरा अस्तित्व की खोज कर रहा है। नवीनता का सुन्दर रूप है फूल का खिलना, ठीक वैसा ही जब कोई नया बच्चा घर में जन्म लेता है।

     प्रकृति में हमेशा कुछ अभिनव रचा जा रहा होता है। वैसा ही हमारे दिलो-दिमाग में भी कुछ ऐसा ही चल रहा होता।  दरअस्ल सृजन से शरीर तरंगित होता है। नया सृजन मन एवं आत्मा को सन्तोष से भरता है। उमस भरी गर्मी में ताजी हवा के झोंके से जिस प्रकार की ताजगी का संचार होता है ठीक उसी तरह की ताजगी सृजन से मिलती है। समझना ये जरूरी होता है कि सृजन क्या है? सृजन को केवल रचनात्मक लेखन तक सीमित करना बहुत बड़ी गलती होगी। दरअस्ल जीवन में प्रत्येक आदमी कुछ न कुछ सृजन करता ही रहता है। किसान का फसल उगाना, मजदूर का पसीना बहाकर एक महल बना देना, हजारों लोगों की मेेहनत से एक सिनेमा का बनना, मिस्त्री का आपकी गाड़ी को ठीक कर देना और भी सब जो यहां बन रहा है, वह सृजन नहीं तो और क्या है। इन सब कामों के लिए दिमाग में नये विचार आना जरूरी हैं तब ही नूतन सृजन होता है। दिमाग में आये नये विचारों से मन में नयी भावनाओं जन्मती है और यही भावनाएं हमारे कर्म में भी नवीनता का लाती है। नये विचार और नयी भावना का संचार तब ही होता है जब  मन-मस्तिष्क से कचरे को साफ किया जाए। अनावश्यक दम्भ, तेरी-मेरी जैसी घाई-घूतियां, हमारे पूर्वाग्रह, निरर्थक शक, अनजाने भय ये सब ही हमारे मन-मस्तिष्क का कचरा है। जब ये साफ हो जाता है तो नवीनता के लिए स्थान मिलता हैं। यहां खाली हुए स्थान को भरने के लिए अध्ययनशीलता एक बड़ा उपक्रम हो सकता हैं। यह अध्ययन ही तो जिससे नए-नए विषयों की जानकारी प्राप्त होती है और मस्तिष्क नूतनता का सृजन आसानी से कर सकता है। जब ऐसा हो जाता है।तब ही मन आसमान की बुलंदियों को छूने की कल्पना करता है। व्यक्ति, निरन्तर उन्नति व प्रगति के पथ पर चढता है। मन के अन्तःपुर में बुलन्दियों आवाज़ सुनाई देने लगती है। तब समझों कुछ नया सृजन होने को है।

     सुबह खिलते फूल को देखकर इतनी सब बातें दिमाग में आयी। इसके बाद चाय के साथ अखबार हाथ में था। अखबार में लॉकडाउन को 3 मई तक बढ़ाने की प्रधानमंत्री की कल की घोषणा प्रमुखता से छपी थी। राजस्थान में मॉडिफाई लॉकडाउन खुलने की बात थी।

     बहरहाल आज गीता का सोलहवां अध्याय पढ़ने लगा। पूरा अध्याय पढ़ने के उपरांत आवश्यक नोट्स भी ले लिए थे। फिलहाल लंच के बाद सुस्ती का समय था। देखा फेसबुक में अनावश्यक कुछ लोग मित्रता सूची का भार बढ़ा रहें हैं। दो बजे इससे संबंधित मैसेज डाल दिया। फिर सफाई अभियान के तहत कईयों की आभासी मित्रता से मुक्ति प्राप्त कर ली थी। कुछ देर आराम करने के बाद गीता पर लिए गए नोट्स को तरतीब से लिखा जो इस प्रकार से हैं-

     गीता के सोलहवें अध्याय का नाम ‘देव असुर संपदा विभाग योग’ है। डॉ. राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक में इसे और स्पष्ट करते हुए शीर्षक दिया है ‘दैवीय आसुरीय मन का स्वाभाव।’ इस अध्याय में कुल 24 श्लोक हैं। जैसा कि इसके शीर्षक से स्पष्ट है कि इसमें देवीय आसुरीय मन की बातें कही गईं हैं। इस संसार में दो ही प्रकार के लोग हैं, एक दैवीय और आसुरी सम्पदा के लोग। इन्हीं सम्पदाओं अर्थात मन के स्वाभाव के अनुसार ही जीवन चलता है। इस अध्याय के प्रारम्भ में भगवान दैवीय मन वालों के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि-

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।

     हे भरतवंशी अर्जुन! निर्भयता, आत्मशुद्धि, ज्ञान-योग, दान, आत्म-संयम, नियत-कर्म करने का भाव,स्वाध्याय, तपस्या और सरलता अहिंसा, सत्यता, क्रोधविहीनता, त्याग, शान्ति, छिद्रान्वेषण, दया, लोभविहीनता, अनासक्ति, कोमलता, गलत कार्य हो जाने पर लज्जा का भाव और असफलता पर विचलित न होने का भाव (दृड़-संकल्प)।  तेजोमय, क्षमाभाव, धैर्य, पवित्रता, द्वेषहीनता, अभिमानी न होना जैसे भावों को अपने अंदर धारण करने वाला व्यक्ति दैवीय गुणों वाले के लक्षण है।

     आगे भगवान आसुरी स्वाभाव वालें लोगों के बारे में बताते हुए कहते हैं कि पाखण्ड, घमण्ड, अभिमान, क्रोध, निष्ठुरता और अज्ञानता यह सभी आसुरी स्वभाव (गुण) को लेकर उत्पन्न हुए मनुष्य के लक्षण हैं। दैवीय गुण मुक्ति का कारण बनते हैं और आसुरी गुण बन्धन का कारण माने जाते है, हे पाण्डुपुत्र अर्जुन! तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवीय गुणों से युक्त होकर उत्पन्न हुआ है।

     इसके आगे भगवान आसुरीय स्वाभाव के बारे में बताते हुए कहते हैं कि

द्वौ भूतसर्गाै लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।

दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु।।

     हे अर्जुन! इस संसार में उत्पन्न सभी मनुष्यों के स्वभाव दो प्रकार के ही होते है, एक दैवीय स्वभाव और दूसरा आसुरी स्वभाव, उनमें से दैवीय गुणों को तो विस्तार पूर्वक कह चुका हूँ, अब तू आसुरी गुणों को भी मुझसे सुन। आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य यह नही जानते हैं कि क्या करना चाहिये और क्या नही करना चाहिये, वह न तो बाहर से और न अन्दर से ही पवित्र होते है, वह न तो कभी उचित आचरण करते है और न ही उनमें सत्य ही पाया जाता है। आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत् झूठा है इसका न तो कोई आधार है और न ही कोई ईश्वर है, यह संसार बिना किसी कारण के केवल स्त्री-पुरुष के संसर्ग से उत्पन्न हुआ है, कामेच्छा के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नही है। इस प्रकार की दृष्टि को स्वीकार करने वाले मनुष्य जिनका आत्म-ज्ञान नष्ट हो गया है, बुद्धिहीन होते है, ऐसे आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य केवल विनाश के लिये ही अनुपयोगी कर्म करते हैं जिससे संसार का अहित होता है। आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कभी न तृप्त होने वाली काम-वासनाओं के अधीन, झूठी मान-प्रतिष्ठा के अहंकार से युक्त, मोहग्रस्त होकर ज़ड़ वस्तुओं को प्राप्त करने के लिये अपवित्र संकल्प धारण किये रहते हैं। आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य जीवन के अन्तिम समय तक असंख्य चिन्ताओं के आधीन रहते है, उनके जीवन का परम-लक्ष्य केवल इन्द्रियतृप्ति के लिये ही निश्चित रहता है। आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य आशा-रूपी सैकड़ों रस्सीयों से बँधे हुए कामनाओं और क्रोध के आधीन होकर इन्द्रिय-विषयभोगों के लिए अवैध रूप से धन को जमा करने की इच्छा करते रहते हैं। आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य सोचते रहते हैं कि आज मैंने इतना धन प्राप्त कर लिया है, अब इससे और अधिक धन प्राप्त कर लूँगा, मेरे पास आज इतना धन है, भविष्य में बढ़कर और अधिक हो जायेगा। आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य सोचते रहते हैं कि वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन अन्य शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा, मैं ही भगवान हूँ, मैं ही समस्त ऐश्वर्य को भोगने वाला हूँ, मैं ही सिद्ध हूँ, मैं ही सबसे शक्तिशाली हूँ, और मैं ही सबसे सुखी हूँ। आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य सोचते रहते हैं कि मैं सबसे धनी हूँ, मेरा सम्बन्ध बड़े कुलीन परिवार से है, मेरे समान अन्य कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और इस प्रकार मै जीवन का मजा लूँगा, इस प्रकार आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं। अनेक प्रकार की चिन्ताओं से भ्रमित होकर मोह रूपी जाल से बँधे हुए इन्द्रिय-विषयभोगों में आसक्त आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य महान् अपवित्र नरक में गिर जाते हैं। आसुरी स्वभाव वाले स्वयं को ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी मनुष्य धन और झूठी मान-प्रतिष्ठा के मद में लीन होकर केवल नाम-मात्र के लिये बिना किसी शास्त्र-विधि के घमण्ड के साथ यज्ञ करते हैं। आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य मिथ्या अहंकार, बल, घमण्ड, कामनाओं और क्रोध के आधीन होकर अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ परमात्मा की निन्दा करने वाले ईर्ष्यालु होते हैं। आसुरी स्वभाव वाले ईर्ष्यालु, क्रूरकर्मी और मनुष्यों में अधम होते हैं, ऐसे अधम मनुष्यों को मैं संसार रूपी सागर में निरन्तर आसुरी योनियों में ही गिराता रहता हूँ। आसुरी योनि को प्राप्त हुए मूर्ख मनुष्य अनेकों जन्मों तक आसुरी योनि को ही प्राप्त होते रहते हैं, ऐसे आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य मुझे प्राप्त न होकर अत्यन्त अधम गति (निम्न योनि) को ही प्राप्त होते हैं।

     आगे के श्लोको में भगवान समाजसम्मत व्यवहार  जिन्हें हम शास्त्रानुकूल आचरण भी कह सकते हैं करने का आह्वान करते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन! जीवात्मा का विनाश करने वाले ‘काम, क्रोध और लोभ’ यह तीन प्रकार के द्वार मनुष्य को नरक में ले जाने वाले हैं, इसलिये इन तीनों को त्याग देना चाहिए। जो मनुष्य इन तीनों अज्ञान रूपी नरक के द्वारों से मुक्त हो जाता है, वह मनुष्य अपनी आत्मा के लिये कल्याणकारी कर्म का आचरण करता हुआ परम-गति (परमात्मा) को प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य कामनाओं के वश में होकर शास्त्रों की विधियों को त्याग कर अपने ही मन से उत्पन्न की गयीं विधियों से कर्म करता रहता है, वह मनुष्य न तो सिद्धि को प्राप्त कर पाता है, न सुख को प्राप्त कर पाता है और न परम-गति को ही प्राप्त हो पाता है।

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।। 24।।

हे अर्जुन! मनुष्य को क्या कर्म करना चाहिये और क्या कर्म नही करना चाहिये इसके लिये शास्त्र ही एक मात्र प्रमाण होता है, इसलिये तुझे इस संसार में शास्त्र की विधि को जानकर ही कर्म करना चाहिये।

     भारतीय वागंमय में देव और असुर हमेशा दिखाए गए है। देव जीवन का चमकदार आभा युक्त भाग है तो असुर जीवन का अंधकार मय भाग है। देखा जाए तो दैवीय और आसुरीय वृत्ति दोनो हमारे अंदर ही है। यानी हमारे अन्तस में प्रकाशीय और अंधकारमय दोनो प्रदेश कायम है। दोनो का हमारे अंदर कितना-कितना अंश है। यह सब हमारे कर्मों पर निर्भर करता है। इसके लिए विधि अपनी इच्छा अथवा प्रेरणा ही होती है। इसे दूसरे रूप में देखे तो समस्त सत्ता नैतिकता के समक्ष झुकी है। वही धर्म है और वही धर्ममय आचरण। पर इस नैतिकता का भान कैसे हो यह प्रश्न उठ खड़ा होता है तब गीता सबसे बड़ा गुरू बन कर सामने खड़ी होती है। यहां पर पढ़कर एुेसा लगता है कि गीता वस्तुतः जीवन के उन सभी पक्षों पर दृष्टि डालती है। जो नैतिकता और अनैतिकता के मध्य खड़ी होती है। उन पक्षों को सामने रखती है जो हमसे नैतिक होने का आह्वान करती है। दरअस्ल जीवन में यह नैतिकता का पक्ष नहीं हो तो उत्श्रंखलता व्याप्त हो सकती है। हमारे अंदर तो दोनो वृत्तियाँ है। दोनो पक्ष है। गीता हमें जीवन के सबल पक्ष नैतिकता की ओर बढ़ने का संदेश देती है।

     बहरहाल आज डॉ. कौशल से बात शाम को छत में घुमते हुए ही कर ली थी। कई बातों के साथ उसकी कई कहानियां सुनी। जीवन के खोखलेपन पर लंबी चर्चा हुई। मैंने उसे अपने सुबह मे नवसृजन के चिंतन से अवगत करवाया। उसने इतना ही कहा कि सृजन और विनाश दोनो साथ-साथ चलते हैं। यानी विकास और विनास। बहरहाल तुम जैसे लोग एक विनाश के भय से उपजे खाली समय में सृजन की बात करते हो तो इसे मैं पॉजिटिव थिंकिग कहता हूं। यह आज के इस समय की जरूरत है।

     फोन पर बात समाप्त हो चुकी थी। डायरी पर जो अंकित करना था वह भी कर दिया था। नींद का नामोनिशान नहीं था। इसलिए सोचा अमेजन प्राइम पर कोई फिल्म देखी जाए। तब ही छोटा बेटा तुषार नीचे आया और अमेजन पर ‘पंचायत’ नाम की सीरिज देखने के लिए कह गया। आज के लिए बस इतना ही।

-इति-

 

 

 

ऋतु शर्मा  :  मोबाइल नंबर- 9950264350

हिन्दी व राजस्थानी में समान रूप से कविता-कहानी लिखती हैं। हिंदी व राजस्थानी में चार किताबों का प्रकाशन। सरला देवी स्मृति व कर्णधार सम्मान से सम्मानित

साक्षात्कार :  आलोचक लेखक डॉ. बबीता काजल से

कट-कॉपी पेस्ट की संस्कृति में तकनीक का वर्चस्व, सृजनात्मकता कम हुई: बबीता काजल

राजस्थान के हनुमानगढ़ में श्री प्यारा सिंह काजल के घर जन्मी डॉ. बबिता काजल मूलतः कवयित्री है। कविताओं के साथ- साथ आप लघु कथाएं भी लिखतीं है। हिंदी भाषा पर आपकी गहरी पकड़ है। बचपन से ही साहित्य से विशेष लगाव रखने वालीं बबिता जी की आलोचनात्मक तीन पुस्तकें प्रकाशित है जिनमे दो पुस्तके मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों पर और एक हरदर्शन सहगल के साहित्य पर है। आपके लेख पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते है। वर्तमान में आप चौ. बल्लूराम गोदारा राजकीय कन्या महाविद्यालय- श्री गंगानगर (राजस्थान) में हिंदी विभाग सह आचार्य के पद पर कार्यरत हैं। प्रस्तुत है लॉयन एक्सप्रेस के साहित्य परिशिष्ट ‘कथारंग के लिए आलोचक लेखक डॉ. बबीता काजल से कवयित्री-कहानीकार ऋतु शर्मा की बातचीत

प्रश्न 1. : साहित्य से आपका जुड़ाव कैसे हुआ ?
उत्तर : स्कूल के समय से ही हिंदी के प्रति विशेष लगाव रहा इसके पीछे की विशेष वजह थी हिंदी पढ़ाने वाली पुष्पमणि मैडम। वे बहुत रोचक तरीके से पढ़ाती थीं। लड़कियों की आदर्श थीं। सभी लड़कियां प्रश्नों के रटे-रटाये उत्तर लिखती, लेकिन उन्हें हमेशा मेरा उत्तर मौलिक लगता। कम शब्दों में गहरी मुस्कान के साथ उनका मात्र ‘शाबाश’ कह देना ही मुझे उर्जा से भर देता। यही अच्छा शिक्षक करता है। उन्होंने सदा- सदा के लिए साहित्य से,और हिंदी से मेरा नाता जोड़ दिया।

प्रश्न 2.  आप अपनी प्रेरणा किसे मानती हैं ?

उत्तर : मेरी प्रेरणा मेरी माँ रही हैं। पिछले वर्ष उनका देहांत हो गया। पंजाब के एक छोटे से गांव में उनका जन्म व पालन-पोषण हुआ। माता-पिता का साया बहुत जल्दी उठ गया। मौसी-चाचा ने पाला। तत्कालीन परिस्थतियों के कारण स्कूली शिक्षा की ना सुविधा रही ना आवश्यकता समझी गई। फिर भी मां के अंदर रचनात्मकता इतनी कि गली-मोहल्ले के लोग पत्र लिखवाने उनके पास आते यह बोल कर कि तुम वाक्य बहुत अच्छे गढ़ती हो। 16 वर्ष की अवस्था में विवाह के पश्चात मां पिता जी के साथ उनकी नौकरी के चलते राजस्थान आ गई। पंजाबी में साक्षर मेरी मां ने मुझे बचपन में पढ़ाया और पंजाबी लिखना-पढऩा सिखाया। यही नहीं अपनी लगन व कर्मठता के कारण हिंदी पढऩा लिखना सीखा। रोज़ नियम से हिंदी अखबार पढऩा उनकी आदत थी। उनकी आधुनिक व मौलिक सोच मुझे सदैव आश्चर्य चकित कर देती। मैं इस अर्थ में सौभाग्यशाली रही कि यद्यपि मेरे माता-पिता किसी कॉन्वेंट से नहीं पढ  थे, वैश्विक विचारों से भी अनभिज्ञ थे लेकिन सोच में इतने आधुनिक कि मुझे घर में कभी भी लडक़ी होने के कारण प्रतिबंध अथवा अविश्वास का वातावरण नहीं मिला। मां की कर्मण्यता,मौलिक सोच और प्रगतिशील चिंतन मेरे लिए जीवन मार्ग पर प्रत्येक कदम पर प्रेरणा बना रहा। इसके अतिरिक्त जीवन में बहुत सी घटनाएं,स्थितियां,लोग,साथी होते हैं जो प्रेरणा का काम करते हैं।.

प्रश्न 3. किन लेखकों को आपने पढ़ा है?आप स्वयं लिखने के लिए समय कब निकालती हैं और क्यों लिखती हैं ?

उत्तर : बहुत से लेखकों को पढ़ा हैं। पूरे अध्ययन में हिंदी साहित्य विषय के रूप में रहा तो कहानियां, उपन्यास शुरुआत में ही पढ़ डालती और कई-कई बार पढ़ डालती। काव्य और निबंध का नम्बर बाद में आता। ‘तो धरती अब भी घूम रही है,’ ‘जल टूटता हुआ,’ ‘शारादिया,’ ख्रगुनाहों का देवता,’ ‘चंद्रकांता संतति’ बहुत लंबी श्रृंखला हैं। नींव एक ईंट से नहीं बनती। पत्रिकाओं में ‘कादम्बिनी’, नवनीत, बहुत नियमित पढ़ी। शेष जो जहां मिला पढ़ जाती। मैत्रैयी पुष्पा और बीकानेर के ही हरदर्शन सहगल जी का समग्र साहित्य पढ़ा। जहां तक मेरे लिखने का प्रश्न है मैंने कभी नियमित लेखन नहीं किया। आस-पास बिखरी विसंगतियां और विरोधाभास मुझे लिखने के लिए प्रेरित करते हैं। लेखन मुझे कभी भी सुनियोजित और प्रयोजित प्रक्रिया नहीं लगी। कभी अचानक कुछ मनिट में कविता पूर्ण हो जाती है और कई बार कई कई बैठकों के बाद भी बात नहीं बनती। भीतर गहरा विचलन और गहरी तृप्ति दोनों के कारण कलम चलने को विवश हो जाती है, मेरा ऐसा मानना है। समय निकाल पाना तो आज-कल सभी के लिए दुष्कर कार्य है।कुछ ना करते हुए भी अतिव्यस्तता के दिखावे से मैं भी ग्रस्त हूँ, क्योंकि नौकरी में नौ करी और एक ना करी तो सब बराबर हो जाता है। नौकरी के साथ इंसाफ भी जरूरी है। लेकिन कुछ भी करते हुए,व्यस्त रहते हुए भी विचारों का प्रवाह कहां रुकता है? वह जारी रहता है। कभी सही समय पर हाथ मे कलम ले लेने पर वह पन्नों पर उतर जाता है और कई बार मन सागर में उठती असंख्य हिलोरों की तरह समुद्र में समा जाता है।

प्रश्न 4. आपकी प्रिय विधा कौनसी है और क्यों ?

उत्तर : प्रिय विधा निश्चित रूप से कहानी या उपन्यास रही है। पर संस्मरण और आत्मकथा भी मुझे बहुत आकर्षित करते हैं। यथार्थ-चित्रण प्रेरणा देता है कि समान स्थिति में एक रचनाकार कैसे जूझता है और रास्ता बनाता है ।
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प्रश्न 5.आपकी रचना प्रक्रिया क्या है।

उत्तर- रचना लिखना कोई यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है ना हो सकती है, जिसमें सही अनुपात में बजरी, सीमेंट रेत पानी मिला देने से मसाला तैयार हो जाएगा,इसमें अनुपात गड़बड़ाता है। संवेदना का अनुपात ज्यादा होगा तभी कोई रचनाकार बनता है। जो संवेदना को संतुलित करना जानता है वह वैज्ञानिक, शोधकर्ता, इंजीनियर, डॉक्टर या कुछ और हो सकता है मगर जब संवेदना का अनुपात इतना बढ़ जाता है कि वह अभिव्यक्ति बन जाये तो वह रचना-जगत में प्रवेश करता है,तब वह लेखक बनता है। इंजीनियर या डॉक्टर में भी यह अनुपात गड़बड़ा जाने पर वह लिखता है। लिखना या रचना करना बिजऩेस या व्यवसाय नहीं है। वह आंतरिक जगत का मामला है। कहाँ किस घटना,भाव,व्यक्ति, स्थिति,चित्र, बिम्ब, व्यवहार-दुर्व्यवहार ने अंदर तक तीखी पिन चुभो दी कि वह अभिव्यक्ति बन गई इसलिए बहुत से लोग स्वान्त: सुखाय लिखते हैं। जब से सोशल मीडिया आया है तब से इसलिए लेखन बढा है क्योंकि वहां लोग अपने आंतरिक जगत को खोल देने में संकोच नहीं करते वहां सब आभासी है।अभिव्यक्त करना ही रचना प्रक्रिया है। शैली, भाषा, तौर तरीका सबका भिन्न – भिन्न हो सकता है।

प्रश्न 6.आप आज की जेनेरेशन के बीच में रहती हैं तो ये बताइए कि साहित्य के प्रति आज जेनेरेशन क्या भाव रखती है,उनका पढऩे के प्रति क्या रुझान है ?

उत्तर : मैं एक सरकारी महाविद्यालय में शिक्षक हूं जहाँ केवल बच्चियां पढ़ती हैं और हमें आश्चर्य होता है जब हम युवतियों के जीवन को नजदीक से देखते हैं। 50 से 60 प्रतिशत लड़कियां घर का सारा काम करके,गाय भैंस का काम निबटा कर और कई तो रोजग़ार करते हुए पढ़ रही हैं । अब समय मे बहुत परिवर्तन आ चुका है शिक्षा भी रोजग़ार केंद्रित हुई है। उपयोगिवादिता के युग में आज जो उपयोगी नहीं है उसे कोई अपनाना नहीं चाहता। साहित्य को अपनाने के लिए भी आज की युवा पीढ़ी तभी तैयार है जब वह उनके लिए रोजगार का माध्यम बन सके या भविष्य के लिए कोई संभावना उत्पन्न कर सके। दोष आज की पीढ़ी का नहीं है समय की तात्कालिकता का है लेकिन यह कहना गलत होगा कि आज का बच्चा साहित्य नहीं पढ़ रहा है या उसे रुचि नहीं है सोशल मीडिया पर साहित्य को लेकर चलने वाले अनेक तरह के आंदोलन और अनेक तरह की गतिविधियों से यह साबित होता है कि आज का युवा वर्ग साहित्य को लेकर भी गंभीर है। ऐसे में सही मार्गदर्शन और प्रेरणा उन्हें विद्यार्थी जीवन में ही रचनाकार बना देती है।इसके लिए सभी को ईमानदारी से प्रयास करने की आवश्यकता है।

प्रश्न 7.लेखन कोरी कल्पना मात्र है या यथार्थ का समिश्रण भी है ?

उत्तर : कोरी कल्पना मनुष्य का मनोरंजन कर सकती है लेकिन प्रेरणा प्राप्त करने के लिए और सांस्कृतिक समझ पैदा करने के लिए यथार्थ की शरण में जाना पड़ता है तो यह कह सकते हैं श्रेष्ठ साहित्य वही है जिसमें दोनों का मिश्रण हो, हाँ यथार्थ की मात्रा ज्यादा होने से वह ज्यादा विश्वसनीय हो सकता है।

प्रश्न 8. एक महिला जब लिखती है तो उसको पढऩे वाले उसे उसकी जिंदगी से जोडऩे लगते है,ऐसा क्यों होता है और कहाँ तक सच है ?

उत्तर : महिला ही क्यों यह तो पुरुष के साथ भी होता है।यह स्वाभाविक भी है जब हम कहते हैं कि लेखक अपनी अनुभूति को व्यक्त करता है तो अनुभव ही तो अनुभूति में परिवर्तित होते हैं। इसलिए रचना के पात्र और कथा भी लेखक अपने जीवन से, अपने आसपास के जीवन से उठाता और बुनता है महिला भी अपवाद नहीं है हां महिलाओं को लेकर सामाजिक मान्यताएं कुछ इस तरह की है कि जब भी कोई महिला मुखर होती है तो उस पर अनेक तरह के प्रश्न चिन्ह लगते हैं। इसका कारण हमारी सामाजिक सोच ही है।उसमें भी बदलाव हो रहा है पर बहुत धीमी गति से।जब समाज के दायरे ध्वस्त होंगे तो रचनात्मकता में उसकी छाया नजर आएगी।साहित्य समाज से प्रभावित होता है पर वह उसका मार्गदर्शक भी है।

प्रश्न 9. स्त्री-विमर्श के बारे में आपका क्या कहना है ?

उत्तर : जैसे समाज के किसी भी व्यक्ति वर्ग या समूह के बारे में लिखा जाता है उसी तरह स्त्री के बारे में भी लिखा जाता है। सब तरह के लेखन को स्वीकार किया गया है तो स्त्री विमर्श को क्यों नहीं। स्त्री समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा है, इसलिए उसकी और उस पर की गई अभिव्यक्ति भी साहित्य का मत्वपूर्ण हिस्सा है। वह इसलिए त्याज्य या गौण कैसे हो सकता है क्योंकि उसको ‘स्त्री विमर्श’ कहा जाता है,स्त्री होने के कारण कभी भी नहीं और पुरुष होने के कारण इसलिए नहीं कि उसके जीवन मे मां,बेटी,बहन,पत्नी के रूप में स्त्री मौजूद है, इसलिए स्त्री होने के कारण भोगी गई समस्त पीड़ाएँ व अनुभूतियां अन्य विमर्शों जितनी ही जायज़,विश्वसनीय और प्रमुख हैं।

प्रश्न 10.आपके साहित्यिक जीवन से जुड़े कुछ ऐसे पल जो आपके लिए अविस्मरणीय है, हमसे साझा कीजिये ।

उत्तर : सर्वप्रथम तो यह कि मैं साहित्यकार नहीं हूं, मुझे यह शब्द बहुत बड़ा लगता है वजऩदार,दायित्व से भरा हुआ जो अखंड समर्पण की मांग करता है, साहित्यकार होने से व्यक्ति की समय व समाज के प्रति जवाबदेहिता बढ़ती है। तो बड़े सुविधाजनक तरीके से इस जिम्मेवारी से बचते हुए मैं स्वयं को साहित्य-सेवी ही कहलाना चाहूंगी। एक अनुभव अवश्य बांटना चाहूंगी – किशोरावस्था में रीडर्स डाइजेस्ट के हिंदी वजऱ्न में एक आलेख पढ़ा था जिसके पन्नों को फाड़ कर मैंने इसलिए छुपा दिया था कि कहीं कोई इसको पढ़ ना ले और कहीं किसी को पता ना चले कि किताबो ं- पत्रिकाओं में इस तरह की बातें लिखी होती हैं। वह आलेख एक सच घटना थी जिसमे लेखिका ने अपने सौतेले पिता द्वारा किये गए दुराचार का उल्लेख किया था। वह एक ऐसा आलेख था जिसने मेरी समझ व चिंतन को व्यापक व परिपक्व बनाया। उसका प्रभाव बहुत लंबे समय तक रहा। इसके बाद जीवन मे कुछ ऐसी घटनाएं हुई जिनके कारण स्त्री के प्रति संवेदनशीलता बढ़ी। स्त्री होने के नाते भी स्त्री जीवन की समस्याएँ व पीड़ा अधिक अपनी लगना स्वाभाविक है। पर लिंग, वर्ग, वर्ण, समूह, समाज के हित मे

लिखित किसी भी साहित्य का मूल मानवता ही है वह अक्षुण्ण रहना ही चाहिए, चाहे उसे किसी भी नाम से पुकारा जाए।

प्रश्न 11.आपने मैत्रयी पुष्पा के उपन्यासों पर कार्य किया है, क्या वजह रही इसकी ?

उत्तर : वैसे तो स्त्री होना ही अपने आप में काफी है वजह के लिए , लेकिन उनके साहित्य पर पढ़ी समीक्षाओं ने मुझ में जिज्ञासा जगाई कि मुझे इनके साहित्य पर काम करके पता लगाना चाहिए कि स्त्री लेखन को विद्रोही लेखन क्यों कहा जाता है। मैत्रैयी पुष्पा का साहित्य अपनी नई अप्रोच के कारण चर्चा का विषय तो था ही। कथा-साहित्य में रुचि भी बडी वजह कह सकते हैं। पर मैत्रैयी जी का साहित्य पढकऱ कई भरम टूटे जिसमें सबसे बड़ा भ्रम था कि स्त्री लेखन या स्त्री- विमर्श पुरुष विरोधी है। यह सबसे बड़ा आक्षेप है जो स्त्री चिंतन का मनोबल तोड़ता है जबकि वस्तुस्थिति यह है कि स्त्री चिंतन सामाजिक सद्भाव के साथ स्त्री अस्मिता की बात करता है,समग्रता से इसके अर्थ को ग्रहण करने पर वह स्वयं को ही स्वयं का विरोधी मानते हुए बार बार भीतर की ताकत को संचरित करने पर जोर देता है।

प्रश्न 12. एक साहित्यकार को समाज में तो सम्मान मिलता है लेकिन जब उसके लेखन को पढऩे की बात आती है तब पाठको की संख्या कम हो जाती है। क्या कहना है आपका इस बारे में ?

उत्तर : ऐसा नहीं है लेखन स्तरीय व प्रभावी होगा तो पाठक जुड़ते चले जायेंगे। लेखन की मात्रा व गुणात्मकता दोनों के अपने मायने हैं।कॉन्वेंट कल्चर में हिंदी बोलने पर स्कूल में फाइन भरना पड़ता है ऐसे में उसी पीढ़ी से हम उम्मीद करते हैं कि वो साहित्य पढ़े और सम्मान दे ,दोनों विरोधी आचरण होंगे। समस्या को सतही तौर पर देखने से पहले जड़ तक पहुंचना होगा ।

प्रश्न 13. साहित्यिक पुरस्कार के चयन के बारे में आपका क्या कहना है ?

उत्तर : पुरस्कार तो प्रोत्साहन का कार्य करता है और साहित्यकार को प्रतिष्ठित भी करता है लेकिन इस से जुड़े विवाद और जुगाड़ संस्कृति खतरनाक है। इस से साहित्य व साहित्यकार को बचना होगा। पुरस्कार के लालच में साहित्यकार अपना मूल धर्म ना छोड़े ।

प्रश्न 14. हिन्दी के वर्तमान लेखन में आप सबसे अधिक किस से प्रभावित हैं और क्यों ?.

उत्तर : महुआ माझी का ‘बोरिशाइला’ ने बहुत प्रभावित किया। कथाकार के रूप में उदयप्रकाश, कृष्णा अग्निहोत्री, मृदुला गर्ग और मैत्रैयी पुष्पा जैसे बहुत से लेखक अपनी उपस्थिति पुरज़ोर तरीके से दर्ज करवा चुके हैं। ‘पिंजरे की मैना‘, ‘अन्या से अनन्या’, ‘कस्तूरी कुंडल बसै’, ‘गुडिय़ा भीतर गुडिय़ा’, ‘डगर डगर पर मगर’, एक कहानी यह भी पढ़े है, जब जो रचना पढ़ो तब उसी का खुमार रहता है, आत्मसंघर्ष भी और शायद व्यक्तित्व में भी कुछ न कुछ अवश्य ढल जाता होगा।

प्रश्न 15. समय और काल का लेखन पर क्या प्रभाव पड़ता है? आज के लेखन के परिपेक्ष में बताएं।

उत्तर : सीधा प्रभाव पड़ता है वर्तमान इसका प्रमाण है तत्परता के युग में छोटी से छोटी बात कहने के लिए मंच है लेकिन गम्भीर लेखन का समय व रुचि नहीं। यही कारण है कि तमाम सुविधाओं व अवसरों के बाद भी कालजयी कृति दिखाई नहीं देती। पत्र पत्रिकाएं भी है, प्रकाशन भी है लेकिन ज्यादातर रचनाएं आयाराम-गयाराम ही क्यों साबित हो रही हैं सोचना होगा। मंचीय कविता ने गंभीर कविता को पछाड़ दिया है जो सामाजिक व साहित्यिक उत्थान के लिए बहुत जरूरी है। बहुत कुछ लिखा जा रहा है,धड़ाधड़ शोध हो रहे हैं लेकिन उनमें से कितना काम गंभीर और गुणात्मक है? प्रश्न यह है। कट-कॉपी-पेस्ट की संस्कृति में तकनीक का वर्चस्व है सृजनात्मकता व मौलिकता उतनी नहीं।

प्रश्न 16. क्या आप मानती हैं कि महिला लेखन और पुरुष लेखन में फर्क होता है ?

उत्तर : प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुभव जगत से बंधा होता है। श्रेणियां साहित्य को विभाजित नहीं करती उसके अध्ययन को विभाजित करती हैं। मिकी व माउस बच्चों के लिए बना लेकिन बडे भी उसका आंनद लेने से स्वयं को रोक नहीं पाते। वहां वह सीमा टूट जाती है। यही साहित्य की असली ताकत है। साहित्य की ताकत है कि वह जोड़ता है, मुक्त करता है, सोच का विस्तार करता है,व्यक्ति से समष्टि की ओर ले जाता है,पुरुष लिखे या स्त्री वह हित सहित होता है, होना चाहिए। कई बार अखबार, पत्रिका, पुस्तक आदि में हम रचना पढ़ते हैं, जब वो बहुत अच्छी लगती है तो देखते हैं लेखक को है? फिर उसी लेखक की और रचनाओं को बजी तलाशने लगते हैं।

प्रश्न 17. आज की पीढ़ी किताबों से दूर होती जा रही है और सोशल मीडिया की ओर रुझान बढ़ रहा है। साहित्य इस समस्या के निदान में क्या रोल अदा कर सकता है।

उत्तर: किताबों को पढऩे की परंपरा ने नया रूप ले लिया है,अब ई-बुक्स पढ़ी जा रही हैं, सैंकड़ों पत्रिकाएं ऑनलाइन चल रही हैं, पहले पाठक के पास पुस्तक का माध्यम था अब माध्यम में विस्तार हो गया है। नए विकल्प, नए संसाधन, नए तौर तरीके हैं लेकिन साहित्य वहां है। साहित्य के लिए सोशल मीडिया मंच का विस्तार है इसलिए घबराने की उतनी आवश्यकता नहीं है। साहित्य सेवी व साहित्यकारों व साहित्य प्रेमियों का दायित्व है कि इस मंच पर स्तरीय साहित्य को प्रोत्साहन मिले साहित्य की पौध सोशल मीडिया के माध्यम से फैल रही है इसमें संदेह नहीं।

प्रश्न 18.आलोचना के स्तर को लेकर आप कितनी सहमत हैं क्या आपको लगता है की आलोचना से सृजन में सुधार होता है ?

उत्तर-क्यों नहीं । हम हर कदम पर हर गलती से सीखते हैं,असफलता से भी सीखते हैं, तो आलोचना से भी सीखते हैं। आलोचना कृति को निष्पक्ष और नवीन कोण से देखती है। हम आईना देखते हैं व सुधारते हैं कि कहाँ बाल बिगड़े हैं, कॉलर दबा हुआ है, या माथे की बिंदी टेढ़ी है। यही काम आलोचना करती है बशर्ते वह सूक्ष्म हो,गम्भीर हो,तटस्थ हो। साहित्य के बाकी क्षेत्रों में जितने संकट हैं उतने ही आलोचना के लिए भी हैं। पर इतिहास गवाह है कि स्वस्थ आलोचना ने कृतियों व कृतिकार को स्थापित भी किया है।

प्रश्न 19. वर्तमान महिला लेखिकाओं के लिए क्या संदेश देना चाहेंगी आप ?

उत्तर-महिला लेखन अपनी पहचान बना चुका है। महिलाओं को जरूर लिखना चाहिए। महिला लेखन को आलोचना पर गौर करना होगा, निंदा की परवाह बिल्कुल नहीं करनी । महिला की दृष्टि व दृष्टिकोण लेखन में उतर कर समाज की आधी आबादी का मार्ग प्रशस्त कर रहा है, पर उसे भी साहित्य के मूल धर्म को विस्मृत करने के खतरे से बचना होगा। साहित्य का काम है जोडऩा। वह निराश हताश मनुष्य को जीवन से,अकर्मण्य को कर्म से,अज्ञान को ज्ञान से और संवेदन हीन को संवेदना से जोड़ता है। इसलिए साहित्य की श्रेणियां भी जोडऩे के लिए ही हैं विभाजित करने के लिए नहीं।

 

 

वत्सला पाण्डेय  :

हिन्दी साहित्य में डॉक्ट्रेट, कवयित्री और समालोचक। कविता संग्रह, कहानी और लघु कथाओं का प्रकाशन तथा सम्पादन। बच्चों की शिक्षा के लिए सतत प्रयत्नशील व रचनाधर्मी।

कविता  : वह पीला मकान देखा था1

सुना है और देखा भी था

एक पीला मकान

 

सड़क किनारे अकेला खड़ा

तीन श्मशान से घिरा

फिर भी मुस्कराता हुआ

जीवंतता के साथ

 

गर्वित था वह

और वह भी

जो रखता था मालिकाना हक

 

वे दोनों पहचान थे

और साथी एक दूजे के

 

उसकी हँसी, खुशी, दुःख और अवसाद

छते पीती रहीं उसकी आँखों से

उसके कहकहे बिछे जाते रहे फ़र्श पर

 

वहाँ की रौनक फैली रहती थीं

घर था कि खिलखिलाता हमेशा

 

उसके बच्चों की तुतलाहट

नन्हे पैरों की ठुमक पसरी थी

आँगन के चप्पे चप्पे में

 

दीवारों ने सहेज लिए थे

नन्हें हाथों के परस

 

अतिथियों का उल्लास समेटे

बातों की तान पर हर्षित होते हुए

 

वह पीला मकान

घर होता गया

 

 

कविता  :  वह पीला मकान देखा था – 2

क्या यह वही है मुर्दनी से भरा

विशाल अट्टालिकाओं से घिरा

 

एक असहाय वृद्ध सा

लाचार और मायूस खड़ा

लावारिस, काई खाया हुआ

सहमा सा कालिमा भरे चेहरे पर

अपने बदरंग पीलास के अवशेष लिए

 

आज स्वयं ही श्मशान होता हुआ

क्या ढ़ो रहा प्रेतों के साये

अपने भीतर के तहखाने में

या कीमती सामानों के कबाड़

 

या अब सहेज रहा

अपने गहन सन्नाटों में

कबूतरों की घू घू

 

और अब गूंज रही हैं जहाँ

उनके बच्चों की चिचियाहटे

बिलाव की दबी पदचापे

और लपलपाती जीभ रक्त भरी

 

क्या सहेजे खड़ा है आज

वह पीला मकान

घर होने के बाद भी…

 

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