निवेदन

‘लॉयन एक्सप्रेस ’ लगातार आपको खबरों से अपडेट कर रखा है। इस बीच हमनें यह भी प्रयास किया है कि साहित्य के रसिक पाठकों तक भी कुछ जानकारियां पहुंचे। इसी को देखते हुए ‘कथारंग ’ नाम से एक अंक शुरू कर रहे हैं। इस अंक में कविता, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार आदि का प्रकाशन किया जाएगा। आप से अनुरोध है कि इस अंक के लिए अपनी रचनाएं हमें प्रेषित करें। आप अपनी रचनाएं यूनिकोड में भेजें तो बेहतर होगा। साथ ही अपना परिचय और छायाचित्र भी भेजें। आप चाहें तो अपने मौलिक साहित्यिक रचनाओं की प्रस्तुति संबंधी अपने वीडियो भी हमें भेज सकते हैं।

इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए आप इस अंक के समन्वय-संपादक संजय शर्मा से संपर्क कर सकते हैं। मोबाइल नंबर 9414958700

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– ऋद्धिका आचार्य  

युवा कवयित्री, कहानीकार है। समय समय पर पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित । इतिहास विषय विशेषज्ञ, राष्ट्रीय पात्रता प्राप्त है।

कहानी : मयूरी

ये झरना,ये महल और यहां नीचे जल में अपनी परछाई देख मुस्कुराते फूल। इन उड़ते पंछियों को तो देखो,मानो जता रहे हो कि हवा कितनी स्वच्छ और निर्मल है।वाह मयूरी! ये क्या बना दिया तुमने। असंख्य भावों से भरे तुम्तहारे नेत्रों सा यह दृश्य हर दृष्टि पर एक अलग रंग दिखाता है। इतना सबकुछ रचकर तो आप इतरा सकती हैं चित्रकार साहिबा।”-सुलोचन की बात पूरी हुई नहीं कि साहिबा भौंरे चढाकर सच में नाज़ दिखा बैठी और अगले क्षण खिलखिलाकर हंस दी।चित्र को देखते हुए मयूरी बोली-“यह झरना प्रेम है का जो सब के लिए है,ये मेरे सपनो का महल;ये फूल सदा खिले रहेंगे ख़ुशियों के जो हैं,और ये मेरे मन को कैनवास पर उंडेलने वाले मेरी कल्पनाओं के पंछी।” सुलोचन हल्की मुस्कान के साथ मयूरी को देखता रहा।

       अगले दिन,सुबह के आठ बजे थे। मयूरी को इंटरव्यू के लिए जाना था। जैसे ही घर से निकली सामने अपने घर की बालकॉनी में खड़े सुलोचन ने मयूरी को हाय किया। मयूरी ने दोनो हाथ कमर पर रखे और तनकर बोली-,”बहुत बड़े स्टार हो गए हो? ऊपर से ही हाथ हिला रहे हो!”सुलोचन लगभग दौड़ता हुआ नीचे आया।मयूरी स्कूटी स्टैण्ड से उतारकर जाने लगी। “कमाल करती हो मेडम! मैं आया और आप चलती बनी। “सुलोचन ने कहा तो स्कूटी स्टार्ट करती हुई मयूरी बोली-,”सुलोचन आज मेरा इंटरव्यू है,एक ओटाॅमोबाइल कम्पनी है।यही बताना था। मुझे आधे घण्टे में वहाँ पहुंचना है।बाए। “अन्तिम शब्द “बाय” उसकी स्कूटी की आवाज़ में ही दब गया। सुलोचन मुंह लटकाए खड़ा रहा।तभी अंदर से गूजती हुई आवाज़ दरवाज़े तक पहुंची-,”बेटा! मयूरी के बिना घर घर नहीं क्या?  “आया आंटी। ” कहकर सुलोचन अंदर चला गया।

    उधर मयूरी कम्पनी के ऑफिस पहुंची। अगला इंटरव्यू उसी का था। चंद मिनटों में उसे अंदर बुलाया गया। बड़े हॉल के ठीक बीच में एक महीला बैठी थी। “मिस मयूरी?” महिला ने पूछा तो मयूरी बोली “जी मैं ही हूं।”वह महिला हंसकर बोली-, “मयूरी जी!हमने आपके सारे डाॅकोमैन्ट्स चेक किए हैं।हमें आपकी क़ाबिलियत पर कोई शक़ नहीं हैं।बस हमें आप दिन के 12 घंटे पूर्ण समर्पण के साथ दीजिए।”मयूरी ने हां में सिर हिला दिया।”ठीक है फिर परसों जुलाई का पहला दिन है आप ज्वॉइन कर सकतीं हैं।”महिला ने कहा तो मयूरी हल्की मुस्कान खे साथ बोली-,”थैंक्यू मेम।”

      एक तारीख़ से मयूरी का काम शुरू हुआ।काम कम्प्यूटर पर एन्ट्री का था। सुबह 9 बजे ऑफिस और रात को नौ बजे घर।बड़ी लगन से मयूरी की जॉब शुरू हुई। जितना समय था उससे ज़्यादा काम। मयूरी खूब मेहनत करती।

             हफ्ते बीते,महीने बीते,दो साल बीत गए। मयूरी का कमरा यानी कि “रंग-महल” ट्राॅफीज़ की दुकान बन गया। “ये लो 73वीं ट्राॅफी। जय हो मयूरी जी की। “सुलोचन ने ताली बजाते हुए कहा तो मयूरी मुस्कुरा दी। मयूरी की आंखो में झांकते हुए सुलोचन बोला “अरे! आज वो नाज़ कहाँ गया? ” नज़रें चुराते हुए मयूरी ने उत्तर दिया-, “क्या?तुम भी ना कैसी अजीब बातें करते हो।”  “नहीं मयूरी,तुम बदल गई।”  सुलोचन की बात सुनकर मयूरी कहीं खो गई।

    अगली सुबह मयूरी ऑफिस के लिए तैयार हुई। चाबी घुमाती हुई घर से बाहर निकली। “मयुरी…..” सुलोचन ने बालकॉनी में से आवाज़ दी। मयूरी ने ऊपर देखा।”कैसी हो? ” सुलोचन ने कहा। मयूरी मुस्कुराई और स्कूटी स्टार्ट कर जाने लगी।उसे कल की बात याद आई… “नहीं मयूरी,तुम बदल गई। ” रास्तेभर ये पांच शब्द उसके कानों में गूंजते रहे।” नहीं मयूरी, तुम बदल गई।”  वो इतनी यांत्रिक कैसे हो गई!

     पूरा दिन ऑफिस में मन ना लगा। शाम के क़रीब 7 बजे होंगे।मयूरी कुछ सोचते हुए  पेपरवेट को घुमाती रही। उदासीनता में डूबी मयूरी के हाथ से पेपरवेट फिसला और पास पड़े इंकपाॅट से टकराया। लाल और नीले रंग की दो स्याही वाला इंकपाॅट गिर पड़ा। चिंतन के साथ मयूरी की उंगलियां घूमने लगी और कब स्याही के दो धब्बे राधा और कृष्ण का चित्र बन गए उसे पता भी ना चला। शायद वो इन्हीं के सहारे इस जड़ता को पार कर जाना चाहती थी। “वॉव मयूरी!इट्स टू गुड।” जागृति चौंककर बोली जो पिछले दस मिनट से फाइल हाथ में लिए उसके पास खड़ी थी।मयूरी ने जागृति की तरफ देखा और हल्की मुस्कुराई।फिर वही पाँच शब्द उसके कानों में गूंज उठे -“नहीं मयूरी,तुम बदल गई।”

         मयूरी झुंझलाकर उठी। ऑफिस से बाहर निकली और पास बने पार्क में टहलने लगी।ख़ुद से बतियाना चाहती थी। कुछ सोचती इससे पहले सन् की आवाज़ उसके कानों में गूंजने लगती। बड़ी मशक्कत के बाद मन कुछ हल्का लगा। वह एक बेंच पर बैठी और गहरी सांस ली…तभी उसकी नज़र अपने स्याही लगे हाथों पर पड़ी। चेहरे पर मुस्कान यों खिली मानो संवरने के बाद आईना देखा हो।

     मयूरी घर आई। अपने कमरे का दरवाज़ा खोला और लाईट जलाई। आज उसका ध्यान अपने कमरे के रंगों पर गया। उसने ख़ुद ही तो अपने हाथों से कलर किया था इसे। “रंग-महल” के ये रंग इतने दिन कहां थे? ये रंग आज उसकी ज़िंदगी की ऊब और उदासीनता की तपिश में, ख्वाहिशों की बारिश से लगे।

   मयूरी ने बाहर जाकर माँ को कसके गले लगाया। वो हंसे जा रही थी। “अरे वाह!आज माँ की याद कैसे आई? रोज़ तो बस आई,खाना खाया न खाया और शहज़ादी सो पड़ी। “माँ ने कहा तो मयूरी पुचकारती हुई बोली-,”अले तुम तो मेली माँ हो,कैछे भूलूं तुम्हें। बस थोड़ी बिज़ी थी इतने दिन।” तभी बाहर से गुज़रती टैक्सी में गाना बजा “…मैं मुस्काई,जीवन मेरा खिलकर हंस पड़ा…”मयूरी नाचने लगी।माँ पास लगी कुर्सी पर बैठ गई और ठोडी पर हथेली रखे मयूरी को देगती रही।

 

  

डॉ. अर्पिता गुप्ता 

मोबाइल नम्बर :- 8946940980

बीकानेर की समाज सेविका डॉ. अर्पिता गुप्ता जिनको अपने संस्थान द्वारा निःस्वार्थ सेवा कार्यो के लिए राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया है| साथ ही अपनी रचनाओं द्वारा समय समय पर अनेक सामाजिक विषयो पर लोगो का ध्यान केंद्रित करती रही है जिनको जीवंत उनकी बेटी महक गुप्ता अपनी चित्रकला से करती रही हैं, ये पेन्टिग भी इस कहानी से जुड़ी है |

लघुकथा  :    अंत… 

सुमेधा बरामदे में कुर्सी पर अखबार व चाय लेकर आराम से  बैठी और पुकारा- राजीव चाय तैयार है,  बाहर आ जाओ|

अखबार खोलते ही महामारी से कितने संक्रमित हुए पढ़ते हुए वह सोचने लगी कि आज से 6 महीने पहले तक सब कितना अच्छा  था, राजीव दुकान जाते थे व मैं एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाया करती थी| बच्चों को भी हम शहर के सब से अच्छे स्कूल में पढ़ा रहे थे, सभी सुविधा, ऐशो आराम दे पा रहे थे,  पर महामारी आने के बाद आय के साथ – साथ सब  खत्म हो गया| ऊपर से बच्चों की रोज-रोज नई  इच्छाएं कैसे पूरा करेंगे राजीव?

सोचते हुए उसने दो-तीन बार आवाज लगाई पर राजीव से कोई जवाब नहीं मिला तो गुस्से में कुर्सी से उठ मन में बड़बड़ाते हुए कमरे की तरफ मुड़ी, की माना महामारी में कोई काम नहीं हमारे पास पर इसका मतलब यह नहीं कि सोते रहो घर के कामों में हाथ बटा दो थोड़ा और कमरे का दरवाजा गुस्से से खोला,पर कमरे का दृश्य देख उसकी चीख निकल गई और वह जोर से चिल्लाई रिया, राहुल तुम्हारे पापा…

मम्मी की आवाज सुन दोनों भाई बहन कमरे की तरफ भागे, अपने पापा को पंखे से लटका देख कर दो मिनट को हतप्रभ रह गए…

 पर अचानक रिया के भाव बदले और वह गुस्से में बोली मम्मी, पापा इतने कमजोर व  कायर होंगे सोचा ना था, अब मेरी स्कूल फीस, हॉबी क्लास की फीस  कौन देगा और 10 दिन बाद मेरा सोलहवा जन्मदिन है जो मैं पापा से बोल रही थी सबसे स्पेशल बनाना सब खत्म हो गया| उधर राहुल बोला तेरी छोड़ मेरी तो बाइक,  लैपटॉप,  मोबाइल  कितनी चीजों कि किश्ते चल रही अब कैसे दूंगा ?

खैर मम्मी हम पुलिस,  आस-पड़ोस व रिश्तेदारों को फोन कर सूचना देते है और हां कोई पूछे की ऐसा क्यों किया पापा ने तो आप बोल देना लेनदारों  के दबाव में आ परेशान होकर,  उनको पुलिस पकड़ लेगी तो कम से कम कर्ज़ा नहीं चुकाना पड़ेगा| यह कहते हुए  दोनों भाई बहन कमरे से बाहर निकल गए|

सुमेधा को तो जैसे सांप सुंघ गया हो, कमरे के एक कोने मे खड़ी वो समझ नहीं पा रही थी की पति  के मर जाने पर दुखी हो या अपने बच्चों की भावनाएं मर जाने पर?

 कैसे बताये की तुम्हारे पापा कमज़ोर नहीं थे पर तुम्हारी खाव्हिशो ने उन्हें कमज़ोर कर दिया था,  यह सोच कर की मैं अपने बच्चों की इच्छाएं पूरी करने के काबिल नहीं |

माता पिता अपना पूरा जीवन बच्चों की खुशियाँ एकत्र करने मे  बिता देते हैं पर उनके जाने पर बच्चों की आंखों में एक आंसू ना देख वह समझ चुकी थी आज उसके घर में मानव शरीर का नहीं  मानवीय भावनाओं का अंत हुआ   है……….

 

ममता पुरी

मोबाइल नम्बर :- 9252531996

दैनिक जनमार्ग, जनसत्ता,सीमा किरण में कविताएं,लघुकथा छपती रहती है। पिछले वर्ष कथारंग, बीकानेर पत्रिका में ‘पंख’ शीर्षक से एक लघुकथा छपी थी।

कविता :  उसने कहा…

उसने कहा पत्थर से दिल लगाया है बड़ा पछताओगे,

मैंने कहा तराशने का हुनर  हमें उन्हें देख कर ही आया है ।

उसने  कहा बारिश ने चांद को भी धो दिया तुम्हारा क्या,

मैंने कहा दिल पे बरसाती डाल दी हमने यादें महफूज हैं उनकी।

उसने कहा तेरी महोब्बत और उसकी अमीरी का फासला क्या मिट पायेगा,

मैंने कहा  महोब्बत में पुश्तेनी अमिरी है हमारी,

ऐसी टकसालों की रहिसी को हम इश्के ए जाम में मिलाया करते हैं।

उसने कहा भरी महफिल में वो आईं सबसे मुस्काईं,

नकाब में तुमसे मुखातिब हुईं और चल दीं,

मैंने कहा नकाबी तीर फिर भी चलते रहे,उसकी हर अदा पर घायल परींदे के पर कटते रहे।

उसने कहा महोब्बत वो शमा है जिसमें परवाना जल जाता है अक्सर,

मैंने कहा जलते हुए भी उसकी गर्म सांसों को और तप्त कर जाता है अकबर।

उसने कहा क्या मिला महोब्बत करके शहर भर में बदनाम सरताज हो गये,

मैंने कहा महबूब को पाने को हर गली कूचा घूमा,

दिलताज बैठा था वहीं जहां नहीं मैं पहुंचा,

जमाने ने जिस नाम से भी पुकारा कबूल किया  हमने हमदम,

तेरा कबूल है सुनने को जिस्म में अब तक जान है बाकी।

इक फ़कीर को सरताज बना दिया दुनिया ने,

तेरे इश्क में और क्या पाना रह गया बाकी।

 

 

 कविता   : *तराजू*

रोज सुबह होती है,

रोज रिश्तों के तराजू में

तौला जाता हूं,

हर बार मेरी

वफ़ा का पलड़ा

हल्का ही आंका जाता है,

फिर

रात घिर आती है

नींद नहीं आंखों में

तैरने लगती है

फर्ज का कर्ज

चुकाने  की तरकीबें,

इस बार सुबह ने नये ढ़ंग से जगाया

रोटी का चौथा भी

तकड़ी की ताक पर धर दिया,

मैं देखता रहा

मेरे कलेजे पर पत्थर

 रख दिया,

मेरे जिगर के हिस्सों के

प्रश्नों को मैंने

नाता,धर्म के

लेबल से ढक दिया,

बाट ने तराजू पर चढ़

चौथाई को साथ ले,

हुआ अब सम भाग

का फरमान सुना दिया,

अब तराजू, रिश्तों, रिवायतों ने मेरी पीठ थपथपाई,

मैं अगली सुबह के इंतजार में

रात को आंखों में

पिरोने लगा।

 

मधु आचार्य ‘आशावादी’   

 मोबाइल नम्बर :- 9672869385

देश की आजादी के लिए बीकानेर में हुए स्वाधीनता आन्दोलन में सबसे पहले सामने लाने वाले पत्रकार। अभी तक 200 से ज्यादा नाटकों मेें अभिनय और निर्देशन कर चुके हैं। नाटक, कहानी, कविता और जीवनानुभव पर 72 पुस्तके हिन्दी और राजस्थानी में लिखी हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार संगीत नाट्य अकादमी का निर्देशन पुरस्कार, शम्भु शेखर सक्सैना, नगर विकास न्यास के टैस्सीटोरी अवार्ड से सम्मानित।

 

व्यंग्य : उनका यकायक वरिष्ठ कवि हो जाना.

नवाब एक सच्चा साहित्य प्रेमी था। उसकी कोशिश रहती थी कि वो शहर के हर साहित्यिक आयोजन में जाए। उसे युवा से लेकर सभी वरिष्ठ कवियों की जानकारी थी। किसने कितनी काव्य पुस्तकें लिखी, ये भी जानता था। कौन किस रस की कविता करता है, उसे मालूम था। कौन मंच का और कौन गोष्ठी का कवि है, इसकी उसे पुख्ता जानकारी थी। शहर के काव्य जगत् की पूरी जानकारी उसे थी। उसने अनेक अच्छे कवियों को सुना था तो बेहद बुरे कवि को भी झेला था। पका हुआ श्रोता था नवाब। इतना सुनने और इतने आयोजनों में जाने के बाद भी उसे कभी कविता लिखने का भूत नहीं चढ़ा, ये सुखद बात थी। उसके मन में कभी भी कविता लिखने का विचार नहीं आया।
इन दिनों वो शहर के काव्य माहौल को लेकर कुछ ज्यादा ही चिंतित था। उसकी रातों की नींद उड़ी हुई थी तो दिन का चैन लुटा हुआ था। ये सब यूं ही नहीं था, उसकी भी खास वजह थी।
इन दिनों शहर में काव्य आयोजनों की बाढ़ आई हुई थी। हर सप्ताह दो यानी महीने में आठ काव्यगोष्ठियां हो रही थी। प्रतिमाह की चार गोष्ठियां अलग से थी। जिनके दो अलग अलग आयोजक थे। एक आकस्मिक काव्यगोष्ठी हो जाती थी। इस तरह एक महीने में तेरह काव्य आयोजन होते थे। दुर्भाग्य ये था कि नवाब हर आयोजन में श्रोता के रूप में हाजिर रहता था। सबको सुनता। गुनता। फिर जी भरकर अफसोस जताता। ये ही वो वजह थी जिसके कारण इन दिनों काव्य दशा को लेकर उसकी नींद उड़ी हुई थी।
अगले दिन सुबह हर सप्ताह होने वाली काव्यगोष्ठी में नवाब पहुंचा। आयोजन शुरू होने ही वाला था। नवाब को देखते ही सबकी बांछें खिल गई। एक तो श्रोता आया, बाकी तो आने वाले सब कवि ही होते थे। इसलिए नवाब की यहां बड़ी इज्जत होती थी।
नवाब ने आते ही सवाल किया।
– क्या बात है, आज देरी कैसे? मैने तो सोचा मैं लेट हो गया।
एक ने लपक कर जवाब दिया।
– आपकी प्रतीक्षा थी नवाब साब! मैंने नई रचना लिखी है जो आज सुनाऊंगा। इसलिए चाहता था कि आप आयें।
– लो भाई, मैं सेवा मे हाजिर हूं।
– बस शुरू करते हैं।
उस समय वहां कुल जमा 12 लोग थे। उनमें से 11 कवि-शायर थे। श्रोता एक नवाब थे। एक ने संचालन शुरू किया।
– हमारी आज की इस काव्यगोष्ठी में आये हुए सभी कवियों और श्रोताओं का मैं स्वागत करता हूं।
सब ने तालियां बजाईं।
– इस गोष्ठी की अध्यक्षता के लिए मैं वरिष्ठ कवि रामचंद्र जी से निवेदन करता हूं।
तभी एक शायर खड़ा हो गया।
– ये गलत बात है।
– क्यों?
– पिछली बार भी ये ही अध्यक्ष थे। तब तय हुआ कि अगली बार मोहन लाल जी को अध्यक्ष बनायेंगे। आज उन्हीं का नम्बर है।
– मैं अपने संबोधन में संशोधन करता हूं और अध्यक्षता के लिए मोहन लाल जी को आमंत्रित करता हूं। वे वीर रस के बहुत बड़े हस्ताक्षर हैं।
मोहन लाल जी उठे और हाथ जोड़ते हुए उस पत्थर की शीला की तरफ बढ़े, जिसे कवियों ने मंच माना हुआ था। कुर्ते और पेंट को मोहन जी धारण किये हुए थे। साफ लगता था कि कपड़े कई हफ्तों से नहीं धुले हैं। स्नान से भी शायद वीर रस के इन कवि महोदय को परहेज ही था। शान से उन्होंने पट्टी का आसन ग्रहण किया।
संचालक ने गोष्ठी शुरू की।
– आज की इस अंतरराष्ट्रीय काव्यगोष्ठी की शुरुआत के लिए में अज़ीज शायर मस्त अली मस्त को आमंत्रित करता हूं। आप अंतरराष्ट्रीय शब्द सुनकर चौंक गये होंगे। लेकिन चौंकिए मत, मस्त जी कई अंतरराष्ट्रीय काव्य आयोजन कर चुके हैं और उसमें पढ़ चुके हैं। लिहाजा हमारा आयोजन भी अंतरराष्ट्रीय है।
नवाब इस तर्क को सुनकर सकते में आ गया। वे अंतरराष्ट्रीय कवि नजाकत से कथित मंच के सामने आये। सबको सलाम किया।
– जनाब सदरे मोहतरमा। एक ताजा तरीन रचना आपकी नज़र करता हूं। आप तो उसके भाव देखें। कहने का सलीका देखें। क्या खूब नया प्रयोग है।
नवाब ने अच्छे श्रोता का फर्ज निभाया।

– इरशाद।
– अर्ज किया है……..
तेरा प्यार मैसेंजर के मैसेज जैसा
बार बार खोलता हूं, पढ़ता भी हूं
कभी हंसता हूं तो कभी रोता हूं
जब नेट खत्म हो जाता तो रोता
रो कर बिलखता भी मैं बहुत हूं
सब ने वाह-वाह कहकर आसमान सिर पर उठा लिया। पता नहीं उनको इसमें ‘वाह’ जैसा क्या लगा। नवाब के तो कुछ समझ ही नहीं आया। उसकी रचना में भी इसी तरह की तुकबंदी थी। जिसमें से शिल्प तो पूरा ही गायब था। केवल शब्दों को भरा गया था, भाव तो उनमें थे ही नहीं। नवाब का एक ही रचना में सिर दर्द करने लगा।
अब बारी आई दूसरे कवि की।
– अब मैं आधुनिक कविता के मजबूत हस्ताक्षर भाई ओमेंद्र जी से आग्रह करूंगा कि वो पधारें। अपनी ताजा कविता से सबको आनंदित करें।
बढ़ी दाढ़ी, गले में थैला लटका हुआ, आंखों पर मोटे ग्लास का चश्मा। साफ लगता था कि उनको नजदीक की चीज़ भी आराम से नहीं दिखती। गिरते – पड़ते वो कथित मंच तक पहुंचे। जाहिर है, दिखता नहीं था इसलिए आसानी से रास्ता तो तय नहीं कर सकते थे। चलने में सहारा जरूरी था।
उनकी हालत देख नवाब को तरस आ गया। उसने पास बैठे कवि से सवाल कर लिया।
– जब इनको दिखता नहीं तो ये यहां पहुंचते कैसे हैं?
– इनका एक मित्र इनको छोडक़र जाता है।
– फिर वापस कैसे जाते हैं?
– हम में से कोई छोडक़र आता है।
– इतनी तकलीफ उठाते हैं तो फिर आते क्यों हैं?
– ये राज़ की बात है।
– राज, वो क्या?
– आयोजन समाप्ति पर पता चलेगा।
– ठीक है, इंतजार करते हैं। घर वाले भेजते ही क्यों हैं इनको?
– वो सोचते हैं, 3 घंटे तो घर में शांति रहेगी।
नवाब के मुंह पर ताला लग गया।
उधर उन्होंने बोलना शुरू कर दिया।
– आधुनिक कविता लिखना बहुत कठिन कार्य है। इसे मैं आ-कविता भी कहता हूं। ये बड़ी साधना का काम है। इसके प्रतीक को हरेक समझ नहीं सकता। जो बुद्धि रखते हैं, जिनका साहित्य से सरोकार है वे ही इसे समझ सकते हैं।
ये सुनकर नवाब को झुंझलाहट हुई। मतलब ना समझे वो बुद्धिहीन। ये कोई बनना नहीं चाहता। ना समझे तो तारीफ करना मजबूरी है ताकि बुद्धिजीवी का खिताब तो बना रहे।
अब उस आधुनिक कवि ने कविता पाठ आरंभ किया।
भाव घाव की तरह
लगातार रिस रहे थे
उसमें दिख रही थी
दर्द की तस्वीर भी
धुंधली-धुंधली सी थी
हरेक को वो दिखती नहीं
जो रखे संवेदना साथ
वो ही उसे देख पाता
दूसरों के लिए था घाव
ना समझो तो वो दर्द
मुझे उसमें दिखता था
प्रेयसी का सुंदर चेहरा
दर्द तेरा था ना था मेरा
सभी ने एक सुर में ‘वाह, वाह’ किया। सब बुद्धिजीवी बनने की दौड़ में थे। नवाब चुप रहा। सबने उसे ऐसे देखा जैसे समझदारों की जमात में कोई मूर्ख आ गया हो।
नवाब को इस बात की कोई परवाह नहीं थी। उसे वो कविता ही नहीं लगी। उसमें कुछ समझने को था ही नहीं तो झूठ में वाह क्यों करे? समझे भले ही लोग बुद्धिहीन। नवाब उठ कर जा भी नहीं सकता था। एक तो लोग कम थे, दूसरे न दिखने वाले उस कवि के आने का राज़ जानना था। कौतूहल ने उसको वहीं बैठाए रखा। चाहकर भी नवाब नहीं उठा।
एक-एक करके सभी कवियों ने उसी धरातल पर अपनी रचनाएं सुना दी।  अध्यक्ष ने भी काव्यपाठ कर दिया पर गोष्ठी को समाप्त करने की घोषणा ही नहीं हो रही थी। नवाब के ये बात समझ से परे थी। सभी बार-बार ग्राउंड के मुख्य दरवाजे की तरफ देख रहे थे। जैसे सबको उधर से किसी के आने की प्रतीक्षा थी।
अचानक संचालक ने फिर से बोलना शुरू किया।
– आज की रचनाओं का स्तर बहुत ही ऊंचा था। पिछले कई महीनों में पहली बार इस तरह की उम्दा रचनाएं सुनने को मिली। इसलिए श्रोताओं की मांग पर हम एक दौर और चलाते हैं। सभी कवियों से एक-एक रचना और सुनते हैं।
नवाब के मुंह से ‘हे राम’ निकल गया। उसके बात समझ नहीं आई। उसने पास बैठे कवि से सवाल कर ही लिया।
– एक बात बताओ!
– पूछो।
– यहां कवि कितने हैं?
– आपको छोड़ सभी।
– तब श्रोता तो केवल मैं ही हुआ ना!
– सही है।
– मैंने तो कोई मांग नहीं की।
– ये भी सही है।
– फिर संचालक जी ने श्रोताओं की मांग पर एक-एक कविता की बात कैसे कही!
– अरे भाई, तुम आयोजक नहीं हो ना। किसी की प्रतीक्षा हो तो इंतजारी के समय को काटने के लिए ऐसा कहा जाता है।
– बात मेरी समझ से बाहर है।
– थोड़ी देर में समझ जाओगे।
– अच्छा।
– हां। एक बात और कहूं?
– कहो।
– सारे कवि शायद सुना भी नहीं पाएंगे और गोष्ठी खत्म हो जायेगी।
– ऐसा कैसे?
– इंतजार खत्म, गोष्ठी खत्म। कवियों की भी फिर रचनाएं सुनाने में दिलचस्पी नहीं रहेगी।
– बात को खोलकर बताओ।
– खुद ही समझ जाओगे। थोड़ा इंतजार तो करो!
नवाब के पास अब इंतजार के अलावा कोई चारा ही नहीं था।
उधर कथित मंच से एक कवि ने कविता पढऩी शुरू की। उसे सुनने में दूसरे किसी कवि की रुचि नहीं थी। यहां तक कि सुनाने वाला भी अनमने मन से सुना रहा था। जैसे घास काट रहा हो।
सबकी नजरें मुख्य द्वार पर थी। अचानक वहां से एक व्यक्ति आता हुआ दिखाई दिया। सबके चेहरे खिल गये। अचानक संचालक उठा और कविता पढऩे वाले को हाथ का इशारा कर बोलने से मना कर दिया। वो भी चुप हो गया। कोई एतराज नहीं किया। अपनी जगह आकर बैठ गया।
संचालक बोला।
– अब हम काव्यगोष्ठी समाप्त करते हैं।
सभी कवियों में इस घोषणा से उत्साह का संचार हो गया। नवाब कुछ समझ ही नहीं पा रहा था।
अचानक मुख्य द्वार से आया व्यक्ति अब निकट पहुंच गया। नवाब को पता चल गया कि इसके आने की वजह से गोष्ठी समय से पहले समाप्त हुई है। नवाब को लगा इंतजार भी खत्म हो गया। वो उस व्यक्ति को कौतूहल से देखने लगा।
अजीब-सा लगा वो व्यक्ति। पायजामा पहना हुआ था। ऊपर टीशर्ट थी, जिसके सारे बटन खुले थे ताकि गले में पहनी हुई सोने की बड़ी चेन लोगों को साफ दिखती रहे। अजीब तरह की स्टाइल में मूंछें। बाल और मूंछें देखकर ही पता चल गया कि उन पर डाई की हुई है। इसी कारण काली दिख रही थी मूंछें और बाल। मुंह में एक चांदी की सलाई, जो दांतों के मध्य कुछ अटक जाए तो निकालने के काम आ सके। पायजामे के नीचे स्पोर्ट्स शू। अजीब-सा तालमेल था कपड़ों का। नवाब को किसी नमूने से कम नहीं लगा। उसके हाथ में कपड़े के दो थैले थे, जिनमें सामान भरा था। अब कवियों की नजर उस व्यक्ति पर कम, थैलों की तरफ अधिक थी।
नवाब तो उस समय चकित रह गया जब बड़े या छोटी उम्र के कवियों ने समान रूप से उसके पांव छुए। उसने भी भरपूर आशीर्वाद दिया। नवाब को लगा ये इन कवियों का उस्ताद होगा। अब नवाब को वहां चल रही गतिविधि देखकर मजा आने लगा था। मामला रोचक लगा।
सब कवियों ने उसे घेर लिया, नजर थैलों से क्षण भर के लिए भी नहीं   हटाई। वो मुस्कुराता रहा। उसे अब अध्यक्ष वाले आसन पर बिठा दिया गया। बाकी नीचे बैठ गये। एक कवि को शायद ज्यादा जल्दी थी।
– आज आपने आने में बहुत देर कर दी।
वो भडक़ गया।
– मुझे कोई काम नहीं था। आप लोगों के कारण ही देरी हुई है। मुझे दोष मत दीजिए।
– वो तो पता है, खास कारण ही होगा। नहीं तो आपको देखकर तो घड़ी मिलाई जा सकती है।
वो मुस्कुराया।
– आपने देरी का कारण नहीं पूछा?
– आप ही बता दीजिए।
– वो तो बताना ही है। पहले बताओ, वो तुम्हारे गाने-बजाने का कार्यक्रम पूरा हो गया क्या?
– उस्ताद जी, गाने-बजाने का नहीं। कविता-गजल का।
– एक ही बात है।
– हुकुम उस्ताद जी।
– वो कारण तो बताओ।
– हां। आज मेरा मन हुआ कि आपको मनका महाराज के गर्म समोसे और जलेबी खिलाई जाए।
– वाह!
– उनकी दुकान दूर है। वो लेने गया तो देर हो गई।
– देर होना वाजिब है। समोसे गर्म होंगे?
– गर्मागर्म।
– फिर देर क्यों…….
– अभी बांटता हूं। मुझे तो खाने नहीं हैं। मुझे तो शुगर, बीपी, हार्ट की शिकायत है। आप लोग जानते ही हो। इसीलिए आपको खिलाकर मैं अपना शौक पूरा करता हूं।
– ये ही तो आपकी दरियादिली है।
वो मुस्कुराने लगा, जिसमें गर्व शामिल था।
– पर आज दो मिनट रुकना पड़ेगा।
– क्यों।
– मैंने भी चार पंक्तियां लिखी हैं।
– क्या कह रहे हो उस्ताद जी!
– भाई, खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग नहीं बदलता क्या?
– बिल्कुल बदलता है।
– काले के पास गोरा आदमी बैठता है तो रंग न बदले पर गुण तो आते ही हैं ना?
– वाह वाह! क्या खूब कहा है। गजब की बात। ये मिसरा हो गया जनाब। आप इज़ाज़त दो तो इसे मैं अपनी गजल में शामिल कर लूं।
वो गर्व से इतराए।
– कर लो शामिल। मैं तो रोज़ ही इस तरह की बातें बोलता ही रहता हूं।
– बड़ी मेहरबानी हुजूर।
तभी एक दूसरे कवि ने कहा।
– वो लिखी हुई पंक्तियां सुनाकर तो हमें कृतार्थ करें। हम उनसे लाभान्वित होना चाहते हैं।
– अभी लो।
मैं अकेला ही चला था
सबने वाह वाह किया।
– मैं अकेला ही चला था
जनाब, मयखाने की तरफ
लोग मिलते गये
चलते गये
और
– आगे क्या?
– और
साथ में मेला हो गया
कवियों और शायरों ने जमकर दाद दी। नवाब का तो सिर ही भन्ना गया। ये हाल है कविता, $गज़ल का। उसे लगा कि ये सुनने से पहले काश! ज़मीन फट जाती और वो उसमें समा जाता। पर एक ही था श्रोता, चुप रहा।
बाकी सब तो उस उस्ताद जी की तारीफ करने में ही लगे थे। भीतर गुस्सा पर बाहरी तौर पर अपनी सुरक्षा के लिए नवाब चुप ही रहा।
दूसरी तरफ थैलों से समोसे और जलेबी बाहर आ गये थे। उनका समाजवाद के नियम के अनुसार समान वितरण हो गया। बिना देरी किये सब उन पर टूट पड़े। सबसे तेज गति से वो आधुनिक कवि खा रहे थे, जिनको कम दिखाई देता था। नवाब उनके आने का अर्थ या यूं कहें कि राज़ जान गया।
भक्षण का कार्यक्रम जब पूरा हो गया तो उस्ताद जी ने कहा।
– अब आपको एक निमंत्रण है।
– क्या?
– शाम को रोमांस बगीचे आना है।
– क्यों?
– वहां काव्यपाठ है।
– अच्छा।
– बड़ी बात दूसरी है।
– वो भी बता दीजिए।
– उसमें मेरा भी काव्यपाठ है।
सबने जमकर तालियां बजाई।
– काव्यपाठ के बाद भोजन भी है। आयोजन उनका, काव्यपाठ मेरा और भोजन भी मेरा। इसलिए आप सब आयें।
सबके चेहरों पर खुशी थी। सबने आने की बड़ी हां भरी। भरनी ही थी। नवाब ये सब $गौर से देख रहा था और साहित्य के नये रूप पर सोच भी रहा था।
अचानक उस्ताद जी नवाब के पास आये।
– तुम्हें यहां देखकर अच्छा लगा।
– आभार।
– तुम मुझे नहीं जानते!
– अभी जान लिया ना।
– अरे, ऐसे नहीं।
– तो?
– तुम नियाज साब के लडक़। हो ना।
– हां।
– वो मेरे अभिन्न मित्र थे। उनका वास्ता है तुम्हें।
– किसलिए?
– तुम भी जरूर आना शाम के कार्यक्रम में।
नवाब ने टालते हुए जवाब दिया।
– जी, जरूर।
– ऐसे नहीं।
– तो?
– अपने मरहूम अब्बा जान की कसम खाओ कि आओगे।
नवाब को कसम खिलवाकर ही वो माने। नवाब की शाम के आयोजन में जाना अब मजबूरी हो गया। हाथ जोड़े, शाम की सजा स्वीकारी और वहां से निकल लिया।
शाम को नवाब तय समय पर रोमांस बगीचे पहुंच गया। एक तरफ सुबह जिनको सुना वो कवि और शायर खड़े थे। कुछ और लोग भी खड़े थे। भीड़ ठीक थी। कई नये चेहरे भी थे जिनको नवाब ने कभी साहित्यिक आयोजनों में देखा नहीं था। नये काव्य रसिक थे। नवाब ने समय काटने और अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए सुबह वाले कवि से सवाल कर लिया।
– ये नये काव्य रसिक हैं क्या?
– नहीं।
– फिर कौन हैं?
– उस्ताद जी के मेहमान और रिश्तेदार।
– अच्छा। ये कैसे?
– काव्य आयोजन के बाद के जरूरी आयोजन में शामिल होने बुलाया है। जब किसी का अन्न खाए तो थोड़ी तकलीफ भी सहनी ही चाहिए। हमारे संस्कार यही हैं। इसलिए ही पहले आ गये।
– वो तुम्हारे उस्ताद जी नहीं आये?
– तैयार होने गए हैं।
– तैयार होने?
– कहां?
– नाई की दुकान।
– वहां क्यों?
– अरे, डाई कराएंगे। आज के लिए खास सफेद पेंट-शर्ट भी बनवाए हैं। नई जूतियां लाये हैं।
नवाब मुस्कुरा दिया।
तभी सामने से उस्ताद जी आते दिखाई दे गए। वही ड्रेस थी। सिर में एक भी सफेद बाल नजर नहीं आ रहा था। मूंछें तक काली थी। सब लोग उनकी तरफ  बढ़ पड़े। कोई पांव छू रहा था तो कोई उनके कपड़ों की तारीफ कर रहा था। सब उनको खुश करने का हर संभव प्रयास कर रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे सभी अपने साथ मक्खन का टीन लेकर आये हों। सब मक्खन लगाने में लगे हुए थे। नवाब मक्खन लगाने की इस पराकाष्ठा को देखकर अचंभित था। साहित्य में तो घात-प्रतिघात चलता है। यहां मामला उससे उलट था। उसे समझ आ गया कि ये सब हर सप्ताह मिलने वाले समोसों और जलेबी का असर है।
तभी उस्ताद जी की नजर नवाब पर पड़ी। वो मुस्कुराते हुए उसके पास आये।
– आप आये। मेरे आग्रह की रक्षा की, मुझे इस बात की खुशी है।
– आपने पारिवारिक रिश्ते का हवाला दिया। कसम भी दे दी तो आना ही था।
वे हंसने लगे।
– भीतर चलकर बैठो।
– कार्यक्रम कब शुरू होगा।
– थेड़ी ही देर में। हॉल की सजावट भी तो देखो। ये हॉल आज पहली बार इतना सजा है।
– आपका काव्यपाठ है ना!
– ये बात सही कही।
– आज पहली बार काव्यपाठ होगा, आप क्या महसूस कर रहे हैं उस्ताद जी। ये तो बताओ।
– सच बताऊं?
– कवि मन को झूठ नहीं बोलना चाहिए।
वो थोड़ा शरमाए। उसके बाद बोले।
– जब आदमी की बढ़ी उम्र में लाख जतन के बाद शादी होती है ना……
– हां।
– उस दूल्हे की तरह महसूस कर रहा हूं। खुशी भीतर समा ही नहीं रही। कविता की पंक्तियों की तरह फूट-फूट कर बाहर आने की कोशिश कर रही है।
नवाब इस उपमा को सुन चुप हो गया। शायद ही किसी साहित्यकार ने कभी इन उपमाओं का उपयोग अपने अनुभव को बताने में किया हो।
नवाब उस कवि मित्र के साथ हॉल में आ गया। वहां का नजारा देखकर तो उसे चक्कर आने लगे। उसे लगा वो गश खाकर गिर पड़ेगा। कवि मित्र ने सहारा देकर कुर्सी पर बिठाया। खुद भी पास बैठ गया।
– नवाब, कैसा महसूस कर रहे हो।
– बहुत असहज।
– क्यों?
– सामने का फ्लैग देखा।
– देखा ना।
– फिर भी सहज हो।
– ऐसा क्या है उसमें?
– देखो। सब कवियों से दस गुना बड़ी और बीचों-बीच उस्ताद जी की फोटो लगी है।
– हां, लगी है ना।
– बाकी कवियों की छोटी छोटी फोटो है।
– ये भी दिख रहा है।
– उस्ताद जी ने आज सुबह पहली बार चार पंक्तियां सुनाई।
– ये उन्होंने कहा भी था।
– आज पहली बार काव्यपाठ कर रहे हैं।
– ये बात भी सुबह बताई थी।
– फिर आयोजकों ने उनके नाम के आगे वरिष्ठ कवि कैसे लिख रखा है। ये लिखना तो गलत है।
– इसकी भी अपनी वजह है।
– वो क्या?
– इस आयोजन का पूरा खर्च उस्ताद जी ने उठा लिया। सिर्फ इस शर्त पर कि फ्लैग मैं बनवाकर लाऊंगा और उसे ही लगाना होगा। आयोजकों ने शर्त स्वीकार कर ली।
नवाब चुप हो गया। थोड़ा सोचकर बोला।
– मैं चलता हूं।
– क्यों?
– इस तरह जहां यकायक कोई वरिष्ठ कवि बन जाए वहां क्या बैठना! साहित्य की सीआरपीसी नहीं बनी है। यदि होती तो यूं कवि की उपाधि हासिल करने वाले पर फर्जी डिग्री का मुकदमा चलता।
कवि सोचने लग गया और नवाब निकल लिया।

 

सीमा भाटी

मोबाइल नम्बर :- 941402707

उर्दू रचनाकार सीमा भाटी का राजस्थानी-उर्दू  हिंदी तीनों भाषा में समान लेखन। आपका कहांनी संग्रह, कविता संग्रह, और एक राजस्थानी उपन्यास भी आ चुका है।  इन्हें राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर का प्रतिष्ठित अल्लामा इक़बाल अवार्ड 2017, उर्दू साहित्य सृजन पुरस्कार नगर निगम बीकानेर,उर्दू साहित्य सृजन पुरस्कार नगर विकास न्यास बीकानेर, राजस्थान पत्रिका का कर्णधार सम्मान उर्दू साहित्य में, राव बीका जी, दैनिक भास्कर का प्रतिभा शिक्षक सम्मान आदि ऐसे अनेकों पुरस्कार से सम्मानित ।

मौलवी बादशाह हुसैन ‘राना’ लखनवी..

पैदाइश- 1890  वफ़ात-   1943

बीकानेर में उर्दू अदब की तारीख़ सौ बरस से भी ज़्यादा पुरानी है| 1857 के बाद उर्दू ने बीकानेर में अपने पाँव जमाने शुरू कर दिये थे, और 1912 तक इस ज़बान को बीकानेर की रियासत में सरकारी ज़बान का दर्ज़ा भी हासिल था |बीकानेर में उर्दू अदब की बात हो और बादशाह हुसैन राना का ज़िक्र न हो ऐसा मुमकिन ही नहीं है| 1919 में  बीकानेर का अलम -ए -उर्दू (पताका) मौलवी बादशाह हुसैन ‘राना ‘ लखनवी के हाथ में आया |राना साहब के नाम को ही उनकी पहचान कहा जाए  तो गलत नहीं होगा |वही राना साहब जिन्होनेें रामायण को उर्दू नज़्म में तहरीर कर एक ऐसा बाकमाल काम अंजाम दिया था जिसकी दूसरी मिसाल आज तक नहीं मिली| राना साहब की ये नज़्म बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में अव्वल रही ,और आपको गोल्ड मैडल भी पेश किया  गया |यहाँ ग़ौर करने वाली बात ये भी है कि जब महाराज साहब को इस बात की ख़बर मिली की उनकी रियासत में किसी को गोल्ड मैडल मिला है तो वो  बहुत ख़ुश हुए और हुक़ूमत की तरफ़ से एक जलसे का भी एहतमाम किया। आप डूंगर कॉलेज में हैड मौलवी के पद पर रहे तथा 1943 तक उर्दू फ़ारसी तालीम को फर्ज़ अंजाम दिया। यही वजह थी कि आपको बीकानेर रियासत में सरकारी दस्तावेज़ात और अहदे  मुग़लया के ख़रीतों (सरकारी ख़ बर का लिफाफा)का उर्दू में तर्जमा करने के लिए बुलाया जाता था। राना साहब के वक़्त को हम उर्दू का स्वर्णकाल भी कहें तो शायद गलत  नहीं होगा आप उर्दू ज़बान को बीकानेर  की आवाम तक पहुँचाने में कामयाब हुए| बीकानेर की सरज़मीन पर आपके सब से ज़्यादा शागिर्द रहे जो बाद में ख़यातनाम शाइर,लेखक के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित हुए | राना साहब की कोशिशों से ही 1935 में तंज़ीम ‘बज़्म -ए -अदब’ क़ायम हो सकीं थी| और इस मौके पर एक यादगार मुशइरा भी मुनअकिद (आयोजित)किया गया। इस मुशाइरे की सदारत मियां अहसानुलहक़ ने की थी जो उस वक़्त बीकानेर रियासत की सेवा में थे| इन्हीं अहसानुलहक़ के बेटे जिया उल हक़ कालांतर में पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने थे |राना साहब के वक़्त में ही बीकानेर की लाइब्रेरी उर्दू की किताबों से समृद्ध हुई |डूंगर कॉलेज ,सादुल स्कूल राजकीय पुस्तकालय इसके गवाह है | राना साहब ने गोस्वामी तुलसी दास जी पर भी एक नज़्म तहरीर की थी |1943 में राना साहब के इंतेक़ाल के वक़्त उर्दू ज़बान के मक़बूल होने के साथ ही इस  ज़बान को चाहने वालों की तादाद भी बहुत हो चुकी थी |मोहम्मद युसुफ़ अज़ीज़ ,मोहम्मद उस्मान आरिफ़ अबुलहसन अब्बासी ,मोहम्मद इब्राहिम गाज़ी राना के ही शागिर्द थे।  आपका क़लाम ‘बरक-ए -तजल्ला’ नाम से 1986 में आपके बच्चों ने शाया करवाया |राना अपने फ़न में माहिर थे आपने  हम्द ,नात ,और ग़ज़ल सब असनाफ़ -ए -सुख़न  में तबाअ आज़माई की थी  | मगर  ग़ज़ल से आपका ख़ास लगाव रहा | 1920-1940 के देहली ,लाहौर ,और लखनऊ में होने वाले मुशाइरों में राना दीगर शाइरों के साथ बीकानेर की नुमाइंदगी करते रहे |आपके शेरों पर अल्लामा इक़बाल की दाद भी ख़ास लफ़्जों में होती थी |राना एक अज़ीम शाइर के अलावा बहुत अच्छे हक़ीम भी थे महाराज साहब के ख़ास हक़ीम होने के बावजूद हर इतवार को बिना किसी फ़ीस के मरीज़ों की पूरी शिद्दत और जज़्बे के साथ ख़िदमत करते थे| ऐसे थे हमारे राना साहब…आखिर में रासिख साहब के एक शेर के साथ अपनी बात मुक़म्मल करती हूँ ..

“ये माना बात कुछ है और ही आज़ाद -ओ -बेदिल की

हमारे शहर की जी भर के ख़िदमत की है राना ने “…

 

रामकुमार भाम्भू 

मोबाइल नंबर :- 9828440030

अध्यापक राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय पालीवाला  तहसील सूरतगढ़ श्रीगंगानगर

आसपास की लगती कहानियां : रड़कता सुपनां

पुस्तक – रड़कता सुपनां
विधा – राजस्थानी कहानी संग्रह
रचनाकार – मधु आचार्य ‘आशावादी’
समीक्षक – रामकुमार भाम्भू

आधी आबादी कही जाने वाली महिलाओं की स्थिति अब भी कोई ज्यादा अच्छी नहीं है। अब भी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से उनकी प्रगति देखना कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगता। समाज के संतुलन के लिए जरूरी है कि इसका प्रत्येक प्राणी अपने सामर्थ्य के अनुसार अपना योगदान दें। इसके लिए जरूरी है कि महिलाएं भी अपना यथेष्ठ स्थान प्राप्त करें।
महिलाएं जब समाज की संकीर्णता को तोड़ कर आगे बढ़ती है तो तो समाज के ठेकेदारों को खटकने लगती है। ऐसे ही विषयों को आधार बनाते हुए वरिष्ठ साहित्यकार श्री मधु आचार्य ‘आशावादी’ जी का राजस्थानी कहानियों का संग्रह “रड़कता सुपनां” सामने आया है। इस संग्रह में आठ कहानियां है। कहानी के पात्रों के संवादों के माध्यम से रचनाकार ने समाज की स्त्रियों के प्रति सोच को उजागर किया है। जैसे “सलावर सूट आळी छोरी” कहानी में विमला कहती है कि ” आ आपणै समाज री बोदी सोच है। छोरी नै फगत घर मांय रैवण आळो जीव मानै।” या फिर “रड़कता सुपनां” कहानी में कमला की मां कहती है कि “पढ’र इणनै नौकरी तो करणी नीं है। हाथ पीळा करां है अर इण रै घरां भेजां।” समाज की कड़वी सच्चाई को भी लेखक ने अपने संवादों के माध्यम से सामने रखा है। जैसे “रोटी री राड़” कहानी का एक संवाद कहता है “जिण कन्नै रोटी नीं हुवै उण नै रीस नीं आवै।” इसी कहानी का एक और संवाद “मिनख चाम लारै भटकै गळी-गळी।”
कथानक के स्तर पर बात करें तो सभी कहानियां समाज में इधर-उधर बिखरी हमें गाहे-बगाहे दिखाई दे जाती है। रचनाकार ने इन्हें अपनी आवाज दी। इसके लिए मधु जी बधाई के पात्र हैं। लगभग सभी कहानियां संवाद शैली में लिखी गई है जो कुछ जगह अखरता भी है। कुछ जगह दोहराव भी दिखाई देता है जिससे लगता है कि यह कहानी पहले पढ़ चुके हैं। जैसे दो कहानियों में जब पात्र की शादी के बारे में मां बाप विचार विमर्श कर रहे होते हैं तो दोनों पात्र एक ही तरीके से छुपकर बातें सुन रही है। कुछ कहानियों में समस्या को सही तरीके से उठाया है परन्तु उसका समाधान जो रचनाकार ने प्रस्तुत किया है वह व्यवहारिक नहीं दिखाई देता। हालांकि यह मेरा निजी मत है, अन्य को यह सही भी लग सकता है। इस संग्रह में दो कहानियां सशक्त है। एक तो आवरण कहानी “रड़कता सुपनां” दुजी “मरजीनामों”। कहानियों की भाषा सरल एवं सहज है। पाठक पढ़ते समय अपने आप को पात्रों से अपने आप को जुड़ा हुआ महसूस करता है।
आदरणीय श्री मधु आचार्य ‘आशावादी’ जी को बहुत बहुत शुभकामनाएं इस कहानी संग्रह के लिए।