निवेदन  ‘लॉयन एक्सप्रेस ’ लगातार आपको खबरों से अपडेट कर रखा है। इस बीच हमनें यह भी प्रयास किया है कि साहित्य के रसिक पाठकों तक भी कुछ जानकारियां पहुंचे। इसी को देखते हुए ‘कथारंग ’ नाम से एक अंक शुरू कर रहे हैं। इस अंक में कविता, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार आदि का प्रकाशन किया जाएगा। आप से अनुरोध है कि इस अंक के लिए अपनी रचनाएं हमें प्रेषित करें। आप अपनी रचनाएं यूनिकोड में भेजें तो बेहतर होगा। साथ ही अपना परिचय और छायाचित्र भी भेजें। आप चाहें तो अपने मौलिक साहित्यिक रचनाओं की प्रस्तुति संबंधी अपने वीडियो भी हमें भेज सकते हैं।

इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए आप इस अंक के समन्वय-संपादक संजय शर्मा से संपर्क कर सकते हैं। मोबाइल नंबर 9414958700

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हिन्दी व राजस्थानी में निरंतर लेखन। कविता व कहानियां लिखती हैं। पत्र-पत्रिकाओं मे समय-समय पर रचनाएं प्रकाशित।

कहानी  : संवेदना के स्वर’

राहुल ने जब हमारा ऑफिस ज्वाइन किया तो वह हम सहकर्मियों में सबसे कम उम्र का और बहुत ही सीधा, सरल स्वभाव का लड़का था। हमें बड़ा ही आश्चर्य होता था, आज के युग में भी ऐसी संतान मिलना सौभाग्य से कम नहीं। कुछ ही समय में राहुल हम सब से घुल-मिल गया था। उसे गुस्से में कोई कुछ कह भी देता तो भी सिकन तक माथे पर नहीं आती थी। कुछ महीने बाद हमारे ऑफिस में एक और एंट्री हुई। वह थी अंकिता। राहुल की हम उम्र थी। राहुल पहली ही मुलाकात में अंकिता से काफी अटैच हो गया। और “सोने पे सुहागा, तब हुआ जब हमारे बॉस ने अंकिता को काम समझाने का जिम्मा राहुल को दिया। अब तो ना चाहते हुए भी दोनों को एक दूसरे के करीब रहने का मौका मिल रहा था। अंकिता भी स्वभाव से बिल्कुल राहुल की तरह,  शांत शर्मीली और नेक दिल थी। एक मैं ही थी, जिससे वो दोनों दिल की बात साझा करते थे। साथ काम में समय बिताते-बिताते दोनों मन ही मन एक दूसरे को पसंद करने लगे मगर अपने स्वभाव के कारण किसी और को क्या एक दूसरे को भी बता ना सके। इसका अंदेशा मुझे पहले ही हो गया था। बातों ही बातों में 5 महीने निकल चुके थे। अपनी पर्सनल बातों के लिए दोनों की आंखें काफी थी, जिससे वह अपने प्यार का इजहार भी करते थे। हमेशा ऑफिस आते ही अंकिता को अपनी कुर्सी पर बैठा देखकर राहुल की जान में जान आ जाती थी। मगर उस दिन अंकिता अपनी सीट पर नहीं थी। राहुल अपनी जगह  बैठ कर काम करने लगा। बार-बार दरवाजे की तरफ देख कर हताश मन से फिर अपने काम में लग जाता। जब देर तक वह नहीं आई, तो राहुल के मन में कई सवाल उठने लगे- क्या हुआ? आज आई क्यों नहीं? बीमार तो नहीं? फोन भी तो  बंद आ रहा है। करूं तो क्या करूं! कैसे पूछूँ दीदी से उसके बारे में? ओर किसी को पता ना चल जाए कि मैं उसे पसंद करता हूं। विचार करता हुआ राहुल आखिर शाम को जाते समय मेरे पास आकर, धीमे  स्वर में बोला, दीदी! आज वह आई क्यों नहीं? क्या आप जानते हो? कौन ? मैंने आश्चर्य से पूछा, अंकिता, फाइल के पन्ने पलटता हुआ, खुद को व्यस्त दिखाते हुए बोला। मैंने उसके हाथों से फाइल लेकर उसे सीधी पकड़ाते हुए बताया नहीं, मैं नहीं जानती और मैं घर को निकल गई। अगले दिन तबीयत सुस्त होने के कारण मैं ऑफिस नहीं आई मगर, राहुल 10 मिनट जल्दी आ गया, और बेचैन होकर अंकिता का इंतजार करने लगा जैसे आते ही उसपे सवालों की बौछार कर देगा। मगर, आज भी उसकी कुर्सी खाली थी। अब राहुल के सब्र का बांध टूट चुका था। 5 महीनों में बातों में बस इतना ही पता था कि इंदौर रहने वाली अंकिता यहां ऑफिस से कुछ ही दूरी पर किराए का कमरा लेकर अकेली ही रहती है। पता करते- करते आखिर कमरे तक पहुंचने  में कामयाब हो गया, पर पता लगा कि अंकिता की मां का स्वर्गवास हो गया है, तो वह अपने घर चली गई। राहुल के बदलते स्वभाव को देखकर मैं दंग थी। चिड़चिड़ा, काम में ध्यान नहीं, आने का, ना जाने का समय, उदास बैठा रहता था। मैंने कारण पूछा तो उसकी आंख भर आई और अंकिता के बारे में बताया उसने। मैंने मदद के लिए यहां-वहां से कैसे भी, उसके लिए अंकिता के इंदौर के घर का पता ढूंढ निकाला। राहुल ने अगले ही दिन ट्रेन पकड़ी और उस पते पर पहुंच गया। दरवाजा खटखटाया! एक बुजुर्ग ने खोला, पता चला कि आर्थिक तंगी के कारण यह घर तो 1 साल पहले ही वह लोग बेच कर यहीं, कहीं ओर रहने लग गए थे। अब कहां है? पूछने पर, पता नहीं। राहुल की लाख कोशिशों के बाद भी पता नहीं चला, बुझिल मन लेकर राहुल वापस लौट आया। धीरे -धीरे समझाने पर राहुल का दर्द कम हो रहा था, मगर अंकिता के प्रति प्रेम नहीं। उन बातों को थोड़ा समय गुजर चुका था। अचानक मोबाइल में मेसेज टयून बजी, फेसबुक पर  फ्रेंड रिक्वेस्ट थी,देखते ही राहुल चिल्लाया! दीदी, सब सहकर्मी अचानक उसे देखते लगे, राहुल मेरे पास आया, मैंने पूछा ,क्या हुआ? यह देखो, फोन दिखाते हुए, अंकिता की फ्रेंड रिक्वेस्ट देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। आखिरकार दोनों को बात करने का जरिया मिल ही गया। राहुल ने  रिक्वेस्ट एक्सेप्ट करते हुए मैसेज भेजा, हाय!
तुरंत रिप्लाई आया, हाय! कैसे हो?
 जिंदा हूं बस,
सॉरी, तुम्हें बताएं बिना जाना पड़ा।
नहीं, थैंक्स मुझमें फिर से जान डालने के लिए।
मैसेज करते हुए दोनों की आंखों से गंगा-जमुना बहने लगी।
अंकिता ने बताया, कि मां के देहांत के बाद छोटे भाई और अपाहिज पिता की जिम्मेदारियां उसके सर पर आ गई और राहुल की तरह उसके पास भी बात करने का कोई जरीया नहीं था। बहुत ढूंढने पर आज, जैसे कि किस्मत से तुम्हें छीना हो, तुम मिल ही गए। राहुल ने पूछा तुम कहां हो? मैं तुम्हारे पास आना  चाहता हूँ, अंकिता ने अपने नंबर और पता भेजा, राहुल इंदौर जाकर अंकिता से मिला, ओर वँही रह कर दोनों ने अपना छोटा सा व्यवसाय शुरू कर लिया।
 “जब प्रेम सच्चा हो तो पूरी कायनात उसे  मिलाने की कोशिश मैं लग जाती है”
 सुना था मगर देख भी लिया।।

 

 

 

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हिन्दी व राजस्थानी में निरंतर लेखन। कविता व कहानियां लिखते हैं। पत्र-पत्रिकाओं मे समय-समय पर रचनाएं प्रकाशित। फिल्मों के समीक्षक हैं।अंग्रेजी व्याख्याता,क्रिएटिव हेड ऑफ आपणी हथाई, कलमकार।

लघु कथा- कोविड सेंटर में श्राद्ध

‘कितना अभागा हूं आज पापा का पहला श्राद्ध है, मैं चाहकर भी न तर्पण कर सकता हूं, न ब्राह्मण भोजन करवा सकता हूं’। कोविड सेंटर में चौथी बार पॉजिटिव आए रमन के मन में ये विचार बारम्बार उसे बैचेन कर रहे थे। दो दिन पहले ही रमन को काफी इंतज़ार के बाद पुत्र प्राप्त हुआ था। उसकी अर्धांगिनी दिव्या अच्छी खबर के कारण अस्पताल में थी और रमन कोविड पॉजिटिव होने के कारण। पुत्र को भी वीडियो कॉल से रमन ने बस एक बारी देखा था। कोविड सेंटर में होना या पुत्र को करीब से न देखने की कसक रमन को इतनी नही थी। आज नही तो कल नेगेटिव रिपोर्ट आने के बाद लखनऊ की ट्रेन पकड़कर पुत्र से वो मिल ही लेगा। भीतर की उधेड़बुन तो पिताश्री का पहला श्राद्ध न पाने की मजबूरी थी। रमन यूं भी कोविड सेंटर में स्वयं को आरोग्य ही महसूस कर रहा था,उस दिन मन के बोझ तले न दवाइयां ली और न भोजन लिया। दिनभर अपनी नियति को कोसता रहा।
घर परिवार में भी कोई दूजा न था,जो कि श्राद्ध कर्म कर सके,रमन ने इंटर कास्ट मैरिज जो की थी। एक बहन है रमन के,वो भी परिवार और समाज के दबाव में उससे हर नाता तोड़ चुकी थी। माँ तो अबोध अवस्था में ही साथ छोड़कर चली गई थी। माँ के आँचल की धुंधली सी यादें उसके अवचेतन मन पर अंकित थी। दिनभर कोविड सेंटर की खिड़की पर बैठे रमन ने वो दिन निकाल दिया। मन का अपराधबोध रात के अंधेरे में और भी गहरा गया। गृहलक्ष्मी के मेडिकल कॉम्प्लिकेशन के कारण उससे भी अपना दर्द साझा नही किया।
सारे मरीजों के आँख लगने के बाद भी रमन अधीरता से कोविड सेंटर के हॉल में टहलता रहा। मोबाइल के स्क्रीन पर पिता के छायाचित्र को एकटक निहारता रहा। आँसू नियमित अंतराल में रुख़सारो पर दाग बनाकर आवाजाही कर रहे थे। किसी को उसके गम की इतला न हो जाएं,इसलिए घड़ी घड़ी चेहरे को वो रुमाल से पोंछ रहा था। रमन कोविड पॉजिटिव था तो शरीर का इम्यून सिस्टम तो कमजोर ही था,हालांकि रमन स्वयं को बिल्कुल तंदुरुस्त महसूस कर रहा था।
आधी रात के बाद रमन पाँव की पिंडलियों में दर्द होने के कारण अपने बिस्तर पर उल्टा लेट गया। मोबाइल की गैलरी में पिता संग बिताए खुशनुमा पलों को देखते देखते उसकी आँख लग गई। दिनभर श्राद्ध कर्म न कर पाने की कसक लिए वो सोया था,चेतना में पिता ही बसे थे। पिताश्री से स्वप्न में संवाद शुरू हो गया।
पिता: अरे रमन! तूं क्यों इतना खुद को दोष दे रहा है? तूने तो जीते जी मेरा श्राद्ध कर दिया था। अब इस औपचारिकता की कम से कम मुझे तो कोई इच्छा नही है।
रमन: पापा आप ऐसा क्यों कह रहे हो? मुझ से कोई गुस्ताखी हो गई?
पिता: ना रे पगले,माँ के बिना तूने खुद को संभाले रखा,बहन के ऊपर स्नेह छाँव बनाएं रखी,तुझ से कोई शिकायत नही है मुन्ना…(रमन को पिता मुन्ना कहकर संबोधित किया करते थे)
रमन: आज पापा आपका पहला श्राद्ध था,दिव्या भी हॉस्पिटल में है और मैं इधर फंस गया हूं। मैं आदर्श पुत्र नही बन सका,हो सके तो पापा मुझे माफ़ कर देना।
पिता: दिल छोटा न कर,तूने तेरी माँ का हर सपना पूरा किया है। तेरी माँ का अरमान था कि तूं बड़ा होकर इंजीनियर बने। जब मैं मैले कलूटे कपड़ो में घर लौटता था तो रोज ताने दिया करती थी तेरी माँ, कहती थी आप जीवन भर ये मिस्त्रीपना ही करना,मेरा लाल बहुते बड़ा इंजीनियर बनेगा,जो तूं बन गया। आज बड़ी सॉफ्टवेयर कम्पनी में तूं बड़े पद है। जीते जी तुमने मेरी हर इच्छा पूरी की,पैरों पर खड़ा होते ही तूने मेरे औजार छीन लिए,पिंकी भी वेल सेटल्ड है। मैं सुकून से मरा हूं बेटा, इसलिए कहा कि जीवित रहते ही तुमने मेरा श्राद्ध कर दिया था। श्राद्ध मानी क्या? श्रद्धा ही न? तूने मेरी बहुत कद्र और फिक्र की,सो जा…
रमन:लेकिन पापा, धर्म सम्मत तो श्राद्ध जरूरी है न? आपने ही तो ये सब बचपन में सिखाया था।
पिता: ठीक बात है तेरी,परिस्थितियों के आगे हम बेबस हो जाते है। पहले तूं खुद का ख़्याल रख,यहाँ से डिस्चार्ज होते ही इस हॉस्पिटल में कुछ दान करके जाना। जिस चीज की यहाँ तुझे कमी लगी,उसका ही दान करना,मेरा पहला श्राद्घ हो गया समझ लेना।
रमन:पापा यहाँ ऑक्सीजन सिलेंडर की भारी कमी है, कई पेशेंट ऑक्सीजन की कमी के चलते गुजर गए।
पिता: जब यहाँ से छुट्टी मिले,10 ऑक्सीजन सिलेंडर दान कर जाना,इससे बेहतर मेरा पहला श्राद्ध नही हो सकता।
रमन: ओके पापा, प्रणाम
इतने में ही रमन का स्वप्न टूट जाता है, पक्षियों का कर्णप्रिय कोलाहल बता रहा था कि भोर हो चुकी है। स्वप्न का संवाद रमन के मन को हल्का कर गया। अगले दिन रमन की रिपोर्ट नेगेटिव आ गई,रमन ने हॉस्पिटल प्रशासन को 10 ऑक्सीजन सिलेंडर दान में दिए और मन ही मन में पिता के नाम का एक पूरा वार्ड इसी हॉस्पिटल को भेंट करूंगा,इस संकल्प के साथ वो कोविड सेंटर में पिता का पहला श्राद्ध कर अपने घर लौट आया।

 

 

 

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अशोक पारीक हिन्दी साहित्य सृजन में विशेष रुचि, खासकर कविता लेखन में। शिक्षण क्षेत्र से जड़ाव, मंच संचालन करते है आकाशवाणी से भी जुड़े रहे हैं।

 

 कविता : वक्त : जो बेवक्त आया 

ज़िंदगी इस कदर अब

हो रही गुजर – बसर

थी सड़क जो आदमी की

आदमी अब खुद है सड़क पर

लोगों का मेला ज्यों

पानी का रेला

शोर बहुत था आगमन का

सन्नाटे का दिखा है मंजर

इस डगर से उस डगर

घरों को रोशन करती थी

वो मुस्कान हर चेहरे पर

मिलती थी

दर्द का फैला है समंदर

सहम गया हँसता शहर

किसी की खुशियों का था मांझी

घर के दुख सुख का था सांझी

अजनबी सा बन गया है

आदमी जो घर से गया है

दिन के उजाले में भी फैला

रात के सन्नाटे सा पहर

बात दिल की खुल जाती थी

आँखों से आँखें मिल जाती थी

बैठने का था इक बहाना

किस्सों का बेटोक आना जाना

अब हवा भी मंद हो गई

जब से जुबां मुँह तक बंद हो गई

किस्से बन गए मिलने का बहाना

साए को साए से भी

लगने लगा अब तो है डर

दौड़ आदमी की कभी

पूरी होती थी नहीं

रात भी दिन-सी थी कभी

दिन की इस रात की सुबह नहीं

साया ये आतंक से बड़ा

न जाने किस मोड़ पर

किस रूप में मिल जाए खड़ा

जीना यूँ फिर भी जीना होगा

साँसें चलेगी बस सिहर-सिहर

दुनिया सिमट गई अपने तक

अब खिड़कियाँ बात करती नहीं

मीलों सफ़र तय होता था

काफिला वो मेलों का मस्ती का

रूककर सुस्ताना किसी का

बस्ती में अब होता नहीं

गुजरते अब भी हैँ लोग राहों पर

रूककर राहत की बात होती नहीं

वक्त न जाने किस वादे से गया मुकर

ज़िंदगी अब इस कदर

हो रही गुजर – बसर……।

 

 

 

 

मोबाइल नम्बर : 9461872525

 हिन्दी साहित्य में डाक्टरेट। नई कविता और खासतौर से कविता में प्रयोग के लिए पहचानी जाने वाली कवयित्री-समालोचक। चार कविता संग्रह के अलावा कहानियां और लघुकथाओं का प्रकाशन तथा सम्पादन।

कविता : पुकारता है जहां वह

इंतजार

देह के इस पार भी है
और उस पार भी
रोशनी की तितलियां
इशारे कर रहीं हैं

आसमान भी बच्चे सा
पुकार रहा हमें
मुस्कुरा रहा है
जर्रा जर्रा हर आंख में

उस राह का खेल

समझ नहीं पा रहे कि
सब कुछ ’वहां’ है तो

किसके इंतजार में
बीत रहीं सदियां ’यहां’

 

 

 

मोबाइल नम्बर : 9672869385

देश की आजादी के लिए बीकानेर में हुए स्वाधीनता आन्दोलन में सबसे पहले सामने लाने वाले पत्रकार। अभी तक 200 से ज्यादा नाटकों मेें अभिनय और निर्देशन कर चुके हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली का सर्वोच्च राजस्थानी पुरस्कार संगीत नाट्य अकादमी का निर्देशन पुरस्कार, शम्भु शेखर सक्सैना, नगर विकास न्यास के टैस्सीटोरी अवार्ड से सम्मानित।

 

व्यंग्य : संकट है, महासंकट

– साहित्य गोष्ठी विषय ‘पाठक का संकट’।
– नाट्य विचार मंथन ‘मंचन में दर्शक का संकट’।
– संगीत-नृत्य आयोजन व परिचर्चा ‘शास्त्रीयता पर संकट’।
– कला समारोह विचार प्रकल्प ‘रंगमंच का संकट’।
– शिक्षक संघ विचार गोष्ठी ‘शिक्षा में गिरते स्तर से संकट’।
– स्वयंसेवी संस्था समूह परिचर्चा ‘पानी-बिजली का संकट’
– मुख्य विपक्षी दल का सम्मेलन, ‘शहर में प्रदूषण का संकट’।
– शिशु रक्षा अभियान संख्या का अभियान ‘भ्रूण हत्या का संकट’।
– बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ की गोष्ठी ‘संवेदना का संकट’।
– पापड़ भुजिया श्रमिक मंच बैठक ‘मजदूरी का संकट’।
– पान एसोसिएशन का सम्मेलन ‘महंगाई में कम दाम से संकट’।
– निर्माण ठेकेदार एसोसिएशन का सम्मेलन ‘भुगतान न होने से संकट’।
– भक्तजन मंडल में संत-जी का प्रवचन ‘भगवान के लिए भोग का संकट’।
– जागरूक महिला मोर्चा की गोष्ठी ‘महिलाओं के सामने सुरक्षा का संकट’।
– पैदल यात्री संघ की बैठक ‘फुटपाथ का संकट’।
– गो सेवा समिति का प्रदर्शन ‘गायों के लिए चारे का संकट’।
– मरीज भक्त मोर्चा की रैली ‘असपतालों में डॉक्टर ना मिलने का संकट’
– एक महीना और इतने आयोजन। नवाब साहब सभी कार्ड देखकर चकरा गए। सिर पकड़ कर बैठ गए। अलग-अलग वर्ग, अलग अलग संगठन, अलग अलग उनके काम। इतना होने के बाद भी एक चीज कॉमन। कॉमन था ‘संकट’ सबके सामने संकट। संकट ही संकट।
इस संकट ने नवाब साहब को संकट में डाल दिया था और वे सिर पकडऩे पर मजबूर हो गए थे। उनको लगने लगा जैसे वो खुद एक संकट हो। उनका होना ही संकट है, तभी तो इतने संकटों से घिरे थे और उनको पता ही नहीं था। उनको शहर ही संकटों का शहर लगने लगा और हर शहरवासी संकट-ग्रस्त।
अजूबा हो गया शहर तो, जहां संकट के अलावा कुछ नहीं। हर किसी को केवल संकट नजर आ रहा है। कहीं कुछ अच्छा दिख ही नहीं रहा। दिखे भी कैसे, महासंकट उस अच्छे को लग रहा है अच्छाई तो संकट के सामने बौनी हो गई है।
संकट के सैलाब में डूबे नवाब साहब ने सभी आमंत्रण पत्रों को फिर से एक एक करके पढऩा शुरू किया। इस बार पढऩे की रफ्तार भी तेज थी, बात ही कुछ ऐसी थी। एक नई बात उनकी पकड़ में आई और आंखें चमक उठी। आंखों की चमक से होठों पर मुस्कुराहट आनी भी स्वाभाविक थी। कहते हैं, आदमी के मन के भाव उसके चेहरे क बजाय आंखों से अधिक प्रकट होते हैं। हिन्दी फिल्मों के अधिकतर प्रेम गीत आंखों के आईना होने की बात को पुष्ट करते हैं प्रेम केवल आंखों में ही तो दिखता है।
अब नवाब साहब के मुस्कुराने का समय था। आंखों की चमक बढ़ती ही जा रह थी। आयोजन स्थल को पढक़र वो कुछ हल्के हुए थे। संकट का हर आयोजन शहर के किसी न किसी आलीशान होटल में था और साथ में था लंच। बात संकट पर साथ में लंच। खाते पीते ही संकट पर चर्चा शायद सार्थक होती है।
संकट पर चर्चा में तेज तर्रार भागीदारी तभी होती है जब भागीदारों के सामने भोजन का संकट न हो। भोजन का संकट न होने पर ही वो जोश खरोश से बोलते हैं। आंदोलन और क्रांति की बातें करते हैं। भूखे पेट दूसरा कोई संकट याद ही नहीं आता, केवल भूख याद आती है। हर जगह पापी पेट का ही सवाल होता है।
नवाब साहब को अब लगने लगा कि वो संकट से उबरे हुए हैं। उनके तो इर्द गिर्द संकट नहीं आ सकता। जब मुफ्त के भोजन के इतने निमंत्रण जग में हो तो फिर काहे का संकट, कौन सा संकट। अब तो हर संकट की बातें गिटी जा सकती है। मौका मिले तो उगली भी जा सकती है। नवाब साहब ने सभी संकटों के मंथन संकट में भागीदारी का निर्णय तुरंत फुरत में कर लिया।
पहले दिन पहुंचे साहित्यक गोष्ठी में, ‘पाठक का संकट’ पर चर्चा करने के लिए। शहर के प्रसिद्ध मॉल के एक होटल के हॉल में था आयोजन। नवाब साहब पहली बार इतनी बड़ी होटल में आए थे इसलिए सकुचाते हुए भीतर प्रवेश किया। उनको देखते ही आयोजक की बांछे खिल गई। दौडक़र पास आया।
– आइये नवाब साहब। मुझे पक्का भरोसा था कि आप आएंगे। आपकी साहित्य में रुचि है। इसीलिए आपको कार्ड भिजवाया। – आपके आग्रह को टालें कैसे शब्द शिरोमणी जी।
इस नाम पर वो खिलखिलाने लगे।
– आपने भी बहुत मान दिया है ये नाम देकर।
– आप हैं ही इस नाम के योग्य। कवि सम्मेलनों में क्या कविता पढ़ते हैं, मैं तो चकित रह जाता हूं।
– ये तो आपकी जरानवाजी है नवाब साहब। चलिए, कुर्सी पर बैठिए।
नवाब साहब वहां लगी कुर्सियों में से एक पर जाकर बैठ गए। आस-पास की सभी कुर्सियां खाली थी। कुल जमा सात लोग बैठे थे। लोग नहीं आए थे इसलिए कार्यक्रम शुरू नहीं हो सका था।
थोड़ी देर में पांच और उसके बाद तीन लोग आए। वो किसी भी ऐंगल से साहित्यकार नहीं लग रहे थे। नवाब साहब ने सिर झटका, वो खुद भी तो साहित्य से कोसों दूर थे। तीन महिलाएं भी आई। उनको तो नवाब साहब जानते थे। एक आयोजक की पत्नी, दूसरी सास और तीसरी उनकी साली थी। आयोजक जी दौडक़र उनके पास पहुंचे।
– अरे बच्चे-बच्चियों को नहीं लाएं?
– खाने के समय तक पहुंच जाएंगे वो समय उनको बता दिया है
– फिर ठीक है।
– नवाब साहब यह वार्तालाप सुनकर मुस्कुराए बिना नहीं रह सके।
जब हॉल में 20 लोग हो गए तो आयोजन जी ने कहीं फोन किया। थोड़ी देर में शहर की मशहूर मिठाई की दुकान के मालिक सेठ मक्खन लाल आ पहुंचे। उन्होंने आव देखा न ताव सीधे बने हुए मंच के बीच की कुर्सी पर जाकर बैठ गए। स्पष्ट हो गया कि इस चर्चा की अध्यक्षता वो करेंगे।
एक संयोजक बन गए। उन्होंने चार आदमियों को अतिथि, विशिष्टि अतिथि बनाकर ऊपर बिठा दिया। अब साहित्य में पाठकों के संकट पर एक ने भाषण देना आरंभ कर दिया। फिर दूसरे बोले। सेठ मक्खन लाल के कुछ पल्ले पड़ नहीं रहा था। अनमने से इधर-उधर देख रहे थे। जब रहा नहीं गया तो बोल ही पड़े।
– थोड़ा कम बोलो यार। मुझे दुकान जाना है।
– जी सेठ जी।
वक्ताओं ने फटाफट बोलना शुरू किया। अब पाठकों का संकट तो गौण हो गया और सेठजी के साहित्य प्रेम पर कसीदे पढ़े जाने लगे। सेठ जी के होंठों पर भी मुस्कुराहट आ गई। सुनने में भी मजा आने लगा। थोड़ा अकडक़र भी बैठ गये। आखिरकार संयोजक ने बोलने के लिए सेठजी का नाम पुकारा। वो उठे और माइक को इस तरह पकड़ा जैसे पैसा हो, हाथ में आने के बाद भागे नहीं।
– भाइयों, मैं न तो साहित्य लिखता हूं और न ही पढ़ता हूं। बस आपकी सेवा करके सुखी होता हूं। आप आयोजन करते हैं तो मुझे भोजन की व्यवस्था करके असीम सुख मिलता है, मैं इसे ही अपना साहित्य कर्म समझता हूं।
आप पाठकों के संकट का रोना रो रहे हैं, यह बड़ी समस्या नहीं। किताबें बेचने के लिए कूपन स्कीम लागू कर दो। हर किताब के साथ एक किलो मिठाई के पैकेट का ऑफर दे दो। मिठाई मैं दे दूंगा। पाठक ही पाठक, किताबें खूब बिकेंगी।
गजब का तरीका बताया। नवाब साहब को आश्चर्य तो तब हुआ जब उनकी इस बात पर वहां मौजूद सभी लोगों ने तालियां बजाई। साहित्य की बात मिठाई की खुशबू में खो गई। लंच की घोषणा हो गई।
लंच में भीड़ देखकर नवाब साहब दंग रह गए। हॉल में जहां केवल 20 लोग थे, पर यहां तो लोगों की संख 200 के पार थी। जिनमें औरतें और बच्चे भी बड़ी संख्या में थे। नवाब साहब को भोजन की जगह देखकर इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि साहित्य के सामने पाठकों का संकट है।
वो मुस्कुरा दिए और बिना खाना खाए चल दिए। इसलिए चलना बेहतर समझा कि कहीं मुंह से सच न निकल जाए। साहित्य और उसके संकटों का पता भी चल गया, निदान भी हो गया। इसी कारण इस विषय पर ज्यादा समय बर्बाद करना ठीक नहीं लगा उनको। जब नवाब साहब निकल रहे थे तो उनके कानों में आायोजकों के शब्द पड़े जो यह अभिव्यक्त कर रहे थे कि आज की विचार गोष्ठी बहुत सफल रही।
घर आकर नवाब साहब बिस्तर पर लेट गए। मन में संतोष था कि न तो शहर संकटग्रस्त है और न वो खुद एक संकट है। ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है।
बिस्तर पर लेटे-लेटे हुए ही उन्होंने पास की टेबिल पर रखे बाकी कार्ड उठाए। संकट का संदेश देने वाले कार्ड। एक एक करके पढ़ते गए और सीने पर रखते गए। सब कार्ड देख लिए पर कुछ तय नहीं कर पा रहे थे। वापस कार्ड उठाए और शाम को होने वाले आयोजनों पर नजर डाली।
एक कार्ड पर उनकी नजर थम गई। पैदल यात्री संघ का यह कार्ड था उसमें ‘फुटपाथ का संकट’ विषयक बैठक का उल्लेख था। नवाब साहब के पास कार  या बाइक तो थी नहीं इसलिए वे अधिकतर फुटपाथ पर ही चला करते थे। चलना मुश्किल था, टकराते और वाहनों से बचते बचते वे अपना रास्ता काटते थे।
यह संकट उनको अपना सा लगा। सोचा, इसमें उनको जाना चाहिए। इस गोष्ठी में कुछ काम की बात हो सकती है। अवसर मिला तो वो अपना भी फुटपाथ पर चलने का दर्द बता सकेंगे। दर्द को स्वर मिलेगा तो शायद दिल पसीजे और राहत का कोई निर्णय हो जाए।
गोष्ठी में बोलने का मन भी नवाब साहब ने लगभग बना लिया। अब बोलने का ज्यादा आभास नहीं था तो एक कागज उठाया और उस पर पॉइंट लिखने शुरू कर दिए। बोलते समय पॉइंट का पन्ना हाथ में रहता तो गड़बड़ नहीं होते। लोग भी प्रभावित होते हैं। पॉइंट बना लिए उन्होंने।
पैदल यात्री संघ की गोष्ठी शहर के उस भवन में थी जहां शादियां होनी थी। अमीरों की। वो बहुत महंगा भवन था। अत्याधुनिक। नवाब साहब के घर से ज्यादा दूर भी नहीं था। चल दिए वो भवन की तरफ।
भवन सजा हुआ था। मुख्य हॉल में एक तरफ मंच बना हुआ था और उस पर महंगी कुर्सियां थी। सामने भी कुर्सियां रखी थी। हॉल के दूसरी तरफ टेबलें सजी थी और उन पर रखा सामान बता रहा था कि गोष्ठी के बाद डिनर है।
नवाब साहब पहुंते तो सबसे पहले संघ के अध्यक्ष सोहनलाल ही टकराए। राम राम हुई।
– सोहन जी, आपने सामयिक विषय पर गोष्ठी रखी है।
– सही कह रहे हो। हमारा संगठन आम नागरिकों के हितों पर ही ध्यान देता है। सवाल खड़े करता है। आयोजन कर समस्याओं से लोगों को निजात दिलाना। जनसेवा में ही लगे रहते हैं हम।
– फुटपाथ की बात उठाकर आपने आम आदमी को राहत देने का काम किया है। ये दुकानदार आधी सडक़ रोक लेते हैं। पुलिस भी उनका कुछ नहीं करती। बेचारा कोई आम आदमी सडक़ पर लाईन से थोड़ा सा बाहर वाहन खड़ा कर देता है तो उसका चालान काट दिया जाता है। बड़े दुकानदार अपना काउंटर भी सडक़ पर लगाते हैं तो पुलिस वाला सेवा शुल्क लेकर सलाम ठोककर चला जाता है।
– आम आदमी कई बार पुलिस को शिकायत करता है। अखबार में खबर छपवाता है मगर कोई असर ही नहीं होता। सडक़ पर इनका कब्जा बढ़ता ही जाता है।
– नवाब साहब, आज इसी पर तो गोष्ठी रखी है। आप बैठिए, बस थोड़ी देर में ही गोष्ठी शुरू हो रही है।
यह कहकर सोहन जी चल दिए। नवाब साहब भी मंच के सामने रखी एक कुर्सी पर बैठ गए। कार्यक्रम शुरू होने में ज्यादा देर नहीं लगी। संचालन सोहनलालजी के पास ही था।
– मित्रों, आज की इस महत्ती गोष्ठी की अध्यक्षता के लिए मैं व्यापार मंडल के अध्यक्ष और व्यवसायी हरिकिशन जी को आमंत्रित करता हूं।
– हरिकिशन जी हाथ जोड़ते मंच पर आए और बीच की कुर्सी पर बैठ गए। नवाब साहब उन्हें देखकर चौंक गए। इनकी ही दुकान तो सडक़ पर कब्जा करके बनी हुई थी और सडक़ के रास्ते को आधा कर दिया था।
– अब मैं हमारे व्यवसायी मुकेश बांठिया जी को मुख्य अतिथि का पद ग्रहण करने के लिए मंच पर आमंत्रित करता हूं।
वे भी मंच पर आ गए। नवाब साहब के लिए यह दूसरा झटका था। इन्होंने भी अपनी आधी दुकान सडक़ पर लगा रखी थी। रोज राहगीरों से तो पैदल चलना ही मुश्किल था। नवाब साहब भीतर तक हिल गए।
– हमारे शहर के सीओ ट्रेफिक मानमल जी को मैं मंच पर आमंत्रित करता हूं। वे हमारी इस विचार गोष्ठी के विशिष्ट अतिथि होंगे।
नवाब साहब उनको भी जानते थे। ये दिन का भोजन मुकेश बांठिया जी के यहां करते थे और डीनर हरिकिशनजी की दुकान पर। साथ में परिवार के लिए खाना बंधवाकर भी ले जाते थे। यह एक और झटका था, जो धीरे से लगा नवाब साहब को।
सबसे पहले मुकेश बांठिया जी बोलने खड़े हुए।
– भाइयों, पैदल यात्री संघ का काम आम आदमियों के लिए है। ये लोग निष्ठा से काम करते हैं। आज भी इन्होंने पैदल चलने वालों के लिए फुटपाथ की बात उठाई है तो बहुत महत्त्वपूर्ण है। अगर फुटपाथ नहीं होगा तो आदमी चलेगा कहां। मैं इनकी इस मांग का समर्थन करता हूं।
हम व्यापारियों को भी आम नागरिकों की इस समस्या का अंदाजा है। मैं सभी व्यापारी भाइयों से अपील करूंगा कि वो अपनी दुकान को थोड़ा पीछे लें ताकि आम आदमी सडक़ पर चल सके।
सबने जोर जोर से तालियां बजाई। कमाल है, जिसने पूरी दुकान सडक़ पर खड़ी कर रखी है वो मंच पर पैदल चलने वालों की वकालात कर रहा था। नवाब  साहब के दिमाग में सब गुड़ गोबर हो गया। वो इसी दुकानदार का तो उदाहरण लाए थेे बताने के लिए।
उधर मुकेश जी दनादन पैदल चलने वाले के पक्ष में और व्यापारियों की दरियादिली के बारे में जोश के साथ बोले जा रहे थे। लोग तालियां बजा रहे थे। जब वो भाषण खत्म करके बैठे तब जाकर नवाब साहब की तन्द्रा टूटी। संयोजक सोहनलाल ने अब जनता के विचार आमंत्रित कर लिए।
सबसे पहले उन्होंने नवाब साहब को ही बोलने का आग्रह किया। उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि वे बोलने जाएं या नहीं। यहां उनकी सुनेगा कौन। उनको सुनाना है जो खुद इस समस्या के जनक है। आग्रह ज्यादा था इसलिए नवाब साहब बोलने के लिए खड़े हो ही गए।
– भाइयों, हम पैदल चलने वालों के लिए तो फुटपाथ है ही नहीं। सरकारी नीति के अनुसार हर मुख्य सडक़ पर फुटपाथ होना चाहिए। उस पर लोग पैदल चल सकते हैं पर मुझे बताइयें, एक भी मुख्य सडक़ पर फुटपाथ माइक्रोस्कोप लेकर देखने पर भी नजर आता हो तो।
मंच सहित सभी श्रोताओं में चुप्पी छा गई। सब एक दूसरे का केवल मुंह देखते रहे गए।
– हमारे ये व्यापारी भाई बैठे हैं। इन्होंने ही अपनी दुकानों के आगे की आधी सडक़ रोके रखी है। जब इनसे शिकायत करते हैं तो इनके आदमी लडऩे को तैयार हो जाते हैं। ट्रैफिक पुलिस के पास जाते हैं, तो वे भी नहीं सुनते। इनकी दुकानों के आगे वाहन भी खड़े रहते हैं, उनका कभी चालान नहीं कटता। आप और हम इस तरह से वाहन खड़ा करदें तो 500 रुपए की रसीद कटनी तय है।
सब चुप। ट्रैफिक सीओ घूर घूरकर नवाब साहब को देखने लगे।
– हम धरना लगा चुके। प्रदर्शन कर चुके। प्रशासन हमें सब ठीक हो जाने का आश्वासन देकर चुप कर देता है। पर बदलता कुछ नहीं। अगले दिन सब यथावत रहता है।
अब लोग तीखी नजरों से नवाब साहब को देखने लगे।
– इसलिए माफ करना भाइयों, इस वक्त की गोष्ठी से भी मुझे कोई हल निकलता दिखता नहीं। केवल भाषण हो जाएंगे और बड़े लोगों के अखबारों में फोटो छप जाएंगे।
अचानक आयोजक सोहनलाल ने एक तरफ इशारा किया। तीन चार लोग बारी बारी से बोलना शुरू हो गए।
– आप गलत बयानी कर रहे हैं।
– हमारे संगठन पर तोहमत लगा रहे हैं।
– संगठन को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं।
– विरोधी संगठन से मिले हुए हैं आप।
फिर क्या था, सब शोर करने लगे। नवाब साहब की बोलती बंद हो गई। आयोजक आए और माइक पकड़ लिया, नवाब साहब को उसके सामने से हटा दिया।
– भाइयों, हम विरोधियों से डरते नहीं। हमारे साथ व्यापारी है, प्रशासन है। हम चाहें तो अभी इनको सबक सिखा सकते हैं। हमारा विश्वास लोकतंत्र में है। मेरा निवेदन है नवाब साहब से, वो ये गोष्ठी छोडक़र चले जाएं। हमारा तरीका अहिंसा का है इसलिए निवेदन कर रहे हैं।
नवाब साहब कुछ निर्णय करते उससे पहले ही 4-5 वांलिटियर आए और उनका हाथ पकडक़र मंच से उतार दिया। लगभग धक्का देते हुए हॉल के मेन गेट तक लाए और बाहर धकेल सा दिया। उनको बाहर निकालकर हॉल का दरवाजा बंद कर दिया। वांलिटियर वापस आकर अपनी कुर्सियों पर बैठ गए। मंच पर बैठे सेठ मनोज बांठिया भी मंद मंद मुस्कुरा रहे थे और सीओ ट्रैफिक की तरफ देख रहे थे।
नवाब साहब भी बाहर आकर अपने को बहुत बेइज्जत महसूस कर रहे थे। बिना कुछ बोले चुपचाप घर की तरफ चल दिए। घर आकर बिस्तर पर लेट गए। बाकी संकट तो हो गए किनारे और खुद ही वो संकट में आ गए।
मन ही मन नवाब साहब ने तय कर लिया कि अब जीवन में कोई न तो संकट शब्द सुनेंगे, न बोलेंगे, न ही पढ़ेंगे। संकट शब्द बेमानी है, उसे तो डिक्शनरी में ही नहीं रहना चाहिए।

 

 

 

सीमा भाटी

मोबाइल नम्बर : 9414020707

उर्दू रचनाकार सीमा भाटी का राजस्थानी, उर्दू, हिंदी तीनों भाषा में समान लेखन कहांनी संग्रह, कविता संग्रह, और एक राजस्थानी उपन्यास भी आ चुका है। उर्दू साहित्य सृजन पुरस्कार नगर निगम बीकानेर, उर्दू साहित्य सृजन पुरस्कार नगर विकास न्यास बीकानेर,राजस्थान पत्रिका का कर्णधार सम्मान उर्दू साहित्य में, राव बीका जी, दैनिक भास्कर का प्रतिभा शिक्षक सम्मान आदि ऐसे अनेक पुरस्कार से सम्मानित।

बीकानेर रियासत काल का जिन्होंने पहला रिसाला निकाला

हुसैनुद्दीन ‘फ़ौक” जामी

पैदाइश – 1920,  वफ़ात – 1997

‘जो उर्दू शाइरी की रिवायत की पूरी अक्कासी करता हो,
कलाम में जो अपने अख़लाक़ी मज़ामीन, हुस्न-ओ- इश्क़ की अज़मत और चाशनी रखता हो,
शाइरी के फ़न की हदों और क़वाइद में रहकर,
ग़ज़ल और नज़्म के ज़रियेकारी से अपना पैग़ाम देता हो,
मन्ज़ूम किया जिसने पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद साहब की सीरत को,
जिसका ग़लबा हिन्दो पाक में रहा। नहीं कोई अब तक सानी,
नाम है उनका हुसैनुद्दीन ‘फ़ौक’ और तख़ल्लुस लगाता ‘जामी’…
हाँ वही फ़ौक साहब जिन्होंने मोहसिन-ए-कौनेन जैसी तवील नज़्म लिखकर बीकानेर के उर्दू अदब में ऐसा बेमिस्ल काम सरअंजाम दिया है जो अपनी तरह का पहला काम था। फ़ौक साहब बीकानेर में पैदा हुए आप जब चार बरस के ही थे कि वालिद ज़हरुद्दीन का साया सर से उठ गया । आपकी परवरिश मामू कादरी बख़्श और बड़े भाई शम्सुद्दीन और कमरुद्दीन की सरपरस्ती में टोंक में हुई । नवाब सआदत अली खां का ज़माना था, जब हाफ़िज़ उमर खां जाम जो की नवाब साहब के उस्ताद थे, आपकी नज़र फ़ौक की ज़ेहनी सलाहितों और ख़ुदादाद खूबियों पर पड़ी तो आपने बालक फ़ौक को अपने पास रख लिया और अरबी ,फ़ारसी, उर्दू और दीनी तालीम देनी शुरू कर दी। घर में अदबी माहौल था और इल्म -ओ- अदब के चिराग़ रोशन थे ,ऐसे माहौल से फ़ौक साहब ख़ुद को कैसे बचा कर रख सकते थे । लिहाज़ा चौदह बरस की उमर में शेर मौज़ू करने लगे जाम साहब अपने शागिर्द फ़ौक पर बहुत फ़ख्र करते थे इसलिए अपने साथ दीगर रियासतों में मुन्किद होने वाले मुशायरों में ले जाया करते थे आपने जब पहली बार मुशाइरा पढ़ा तब आपकी उम्र सिर्फ़ अठारह बरस की थी फिर भी दाद- ओ -तहसीन से नवाज़े गए रियासत के नामी गरामी मदरसे में तालीम हासिल कर आपने पंजाब यूनिवर्सिटी से मुंशी फ़ाज़िल का इम्तिहान भी पास किया। 1944 में रतनगढ़ के सरकारी स्कूल में भी मुलाज़िम रहे और उर्दू की ख़िदमत की । मगर 1946 में छोड़ भी दी और बीकानेर की उर्दू शेरी महफ़िलों में शिरकत शुरू कर दी । रतन गढ़ से आने के बाद अपने मोैहल्ले में एक मदरसा क़ायम किया, इन इदारों ने क़ाबिल सताइश ख़िदमात अंज़ाम दी । फ़ौक जामी साहब ने बीकानेर में अपने उस्ताद के नाम की निस्बत से एक रिसाला “जाम ” भी जारी किया जो बीकानेर रियासत का पहला रिसाला था मगर कुछ वक़्त के बाद रिसाला बंद हो गया ।उसके बाद फ़ौक साहब मुंबई चले गए, फिर जब तक ज़िंदा रहे वहीं रहे । मुंबई के उस दौर में आपने वो काम सरअंज़ाम दिया जिसका नाम मोहसिन -ए -कौनेन है ।  ये फ़ौक जामी साहब की शाहकार तसनीफ़ है अगर फ़ौक साहब की तमाम शाइरी को दरकिनार करके सिर्फ़ “मोहसिन कौनेन “को मद्देनजर रखते हुए इनका अदब में मक़ाम व मर्तबा मुक़रर्र किया जाए तो भी उर्दू अदब में आपका मक़ाम आज भी मनफ़रद और अहम ही होगा क्यूंकि इस तसनीफ़ में जिस तरह से मुख़तलिफ़ मौज़ू पर आपने नज़्मे लिखी है वो क़ाबिले ऐतबार है आपने इस्लाम से पहले दुनिया के हालात को कुछ,इस तरह बयां किया है ‘
“न मशरक़ में दीनदारी
न मग़रिब में थी दीनदारी
हुकूमत हर जगह करती थी, अयारी और मक्कारी
न थी रूहानियत बाक़ी
न थी इंसानियत बाक़ी
कि इस हैवान नातक़ में थी
बस हैवानियत बाक़ी …
आपने,चीन , ईरान, हिंदुस्तान, अरब के हालात और ख़ुदा से बन्दों कि दूरी का ज़िक्र जैसे मौज़ू को नज़्म के ज़रिये बताने की कोशिश की है जो क़ाबिल -एहतराम है । फ़ौक जामी साहब नके क़तआत और रुबाइयात से हमें अख़लाक़ी तालीम मिलती हैं जो इंसान को पुर उम्मीद ,बा हौसला और बुलंद हिम्मत बनाती है फ़ोक साहब ने”
हज़रत आदम का इब्लीस से फ़रेब ख़ाना और आदम व हवा का ज़मीन पर आना” को कुछ इस अंदाज़ में पेश किया है …
“कुछ इस अंदाज़ से आदम को उलझाया ख्यालों में ,
कि आख़िर आ गए शैतान कि नापाक चालों में,
सज़ा अपने किये की आख़िर को पा गए दोनों,
हुए जन्नत से रुख़सत और ज़मीन पर आ गए दोनों”…
एक क़तअ और पेशे नज़र …
” मुक़र्रर था वहां शैतान का आदम को बहकना,
मुक़र्रर था ज़मीन पर आदम और हवा का आ जाना,
मुक़र्रर था बिछड़ना और बिछड़ कर फिर से मिल जाना,
मुक़र्रर था फेल जाए नस्ल आदम की,
मुक़र्रर था बढ़े दिन रात रौनक़ बज़्म आदम की “…
“मोहसिन कोनेन “आपकी क़ाबिल क़ुदरत तस्नीफ़ है जो आपकी बरसों की मेहनत और हुज़ूर से बेइंतेहा मुहब्बत व अक़ीदत का नतीजा है
मोहसिन कोनेन 1990 में शाया हो चुकी थी, ख़ास बात ये रही कि इस तसनीफ़ का इजरा मारूफ़ फ़िल्म अदाकार दिलीप कुमार के हाथों से मुंबई में हुआ था ।
फ़ौक साहब की शाइरी संजीदा और पाक़ीज़ा जज़्बात की आईनादारी है  इस आईने में कभी वतन से मुहब्बत का अक्स नज़र आता है तो कभी जंग के ख़िलाफ़ एलान करता अमन पसंद इंसान नज़र आता है । आप मौक़ा दर मौक़ा बीकानेर आये और मगर अपनी उम्र के आठ या नो बरस से ज़्यादा बीकानेर को नहीं दे पाए फिर भी बीकानेर से आपका लगाव ,मुहब्बत कभी कम नहीं हुई आप 1953 में मुंबई चले गए और ताहयात वहीं रहे, आपने मुख़्तलिफ़ फिल्मों में गाने भी लिखे जिनमें से बाज़ मक़बूल भी हुए हैं आख़िर में 1984 में एक मोहलिक बीमारी से मुब्तला हो गए जो 1986 में उनकी वफ़ात की वजह बनी बीकानेर में पैदाइश और जुड़ाव के साथ शहरे बीकानेर का नाम रोशन करने वाले जामी साहब को पूर्व महापौर साहित्यनुरागी भानी भाई ने उनके नाम पर शीतला गेट इलाक़े में एक सड़क का नामकरण भी किया था लेकिन सद अफ़सोस की जानकारी और जागरूकता के अभाव में अब वहां फ़ौक जामी मार्ग के बोर्ड के अवशेष भी नही है । आख़िर में एक शेर ….
“भुलाने को भुला रखा है ,हमने क़िस्सा ए माज़ी ,
मगर जो याद आता है कलेजा थाम लेते हैं “….