– हरीश बी. शर्मा

भारत में जिस तरह से पाकिस्तान का विरोध देशभक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण है, उसी तरह पाकिस्तान में राग-कश्मीर है। इन दिनों पाकिस्तान में फिर से कश्मीर-राग छेड़ दिया गया है। कहीं न कहीं पाकिस्तान में यह बात बैठा दी गई है कि भारत बड़ा भाई है, इस बात में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन कश्मीर पाकिस्तान का हक है। यह हक लेकर रहेंगे। ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म कश्मीर में हुए नर-संहार को तो दिखाती है, लेकिन इसकी पृष्ठभूमि पर काम नहीं करती। आखिर कश्मीर में ऐसे हालात क्यों हुए। यह विषय और इस पर स्पष्ट स्वीकारोक्ति जब तक नहीं होगी, यह राग गूंजता रहेगा। दोनों देशों के बीच सिर्फ कश्मीर ही मतभेद का कारण नहीं बल्कि तीसरे की पंचायती करवाने के लिए यह कश्मीर ही वजह बना हुआ है। अगर ऐसा नहीं होता तो भारत और पाकिस्तान के बीच कोई ऐसा मुद्दा है ही नहीं, जिस पर लड़ा जा सके।

यह मुद्दा देश की आजादी से भी पहले का है। यह मुद्दा तब का है, जब यह हिंदुस्तान देसी रियासतों का समुच्चय हुआ करता था। भारत एक राष्ट्र जरूर था, देश नहीं बना था। सारी रियासतें राजनीतिक रूप से आजाद थी, व्यापारिक संबंध अंग्रेजों से थे। अंग्रेजों को यहां राजनीति नहीं करनी थी, लेकिन लॉ-एंड-ऑर्डर सदा ही धनपतियों के हाथ रहा है। उस समय भी था। देसी रियासतें पूरी तरह से बिछी हुई थीं। लेकिन फिर स्थितियां बदली और देश को आजाद कर देने का फैसला हुआ, लेकिन यहां एक निर्णय गलत हो गया और वह यह कि रियासतों को यह अधिकार था कि वे स्वतंत्र रहें या विलीनीकरण में शामिल हों। यह इसलिए हुआ क्योंकि कमोबेश पाकिस्तान बनना तय हो गया था। ऐसे में यह भी जुड़ गया कि रियासतें अपने फैसले कर सकती है। इसका अर्थ यह निकाला गया कि रियासतें चाहें तो वे हिंदुस्तान में रहें या पाकिस्तान में। बस, यहीं से विवाद शुरू हुआ। कश्मीर से जुड़ी हर बात विवदित होने लगी। जिस पर बनी फिल्म भी आज विवाद में है।

दरअसल, बंटवारे के दौरान हुक्मरानों की जरा-सी गफलत का खामियाजा कश्मीर को भुगतना पड़ा। कश्मीर आजाद रहना चाहता था, लेकिन ऐसा संभव नहीं था। उसे हिंदुस्तान या पाकिस्तान का बनकर रहना जरूरी था और ऐसे में दोनों ही तरफ से जोर-आजमाइश हुई। कमोबेश ऐसे ही हालात बीकानेर में भी पेश आए। बहुत अधिक आशंका इस बात की थी कि बीकानेर भी आज पाकिस्तान का हिस्सा होता, लेकिन यहां के स्वतंत्रता सेनानी-पत्रकार दाऊदयाल आचार्य की रिपोर्टिंग से हिंदुस्तान के हुक्मरान सक्रिय हो गए।

कश्मीर के मामले में उलटा हुआ। बीकानेर तो चूंकी सूखा और बंजर था। इसलिए इस तरफ ज्यादा ध्यान गया नहीं, कश्मीर को कौन छोड़ता। हिंदुस्तान के हुक्मरानों को ऐसा लगा कि जितना भू-भाग पाकिस्तान के रूप में दिया गया है और जो पैसा दिया गया है। उसके बाद पाकिस्तान आवाज नहीं उठाएगा, ऐसे में बचा हुआ भू-भाग हिंदुस्तान कहलाएगा। इस भरोसे ने स्थितियों को और बिगाड़ दिया और स्थितियां बिगड़ती चली गई। आज भी पाकिस्तान में ‘कश्मीर लेकर रहेंगे’ के नारे गूंजते हैं तो हिंदुस्तान कहता है, ‘दूध मांगोगे खीर देंगे, कश्मीर मांगोगे चीर देंगे’। मतलब, बात यहां तक पहुंच चुकी है। गोया, ‘एक ही नगमा है, एक ही राग है, दोनों तरफ एक ही आग है…’

कश्मीर समस्या हुक्मरानों की खड़ी की गई है। यह उनकी नेतृत्त्व क्षमता और दूरदर्शिता पर प्रश्नचिह्न है। जिसे स्वीकार किये बिना कश्मीर समस्या का हल नहीं है। एक ऐसा समय जब हम चीन के अरुणाचल प्रदेश में बढ़ रहे प्रभाव को रोक नहीं पा रहे हैं। नेपाल भी चलते ही आंखें दिखा देता है। ऐसे में बहुत जरूरी है कि कश्मीर के विषय पर बिना किसी की मध्यस्थता के भारत-पाकिस्तान के बीच  बात हो। इस बात को भूले बगैर कि कश्मीर क्या चाहता है। कश्मीर में अगर जनमत संग्रह भी होता है तो इसका आधार 1947 से पहले की स्थितियां होनी चाहिए न कि खराब किया हुआ कश्मीर। किसी भी जमीन पर अधिकार उस पर रहने वालों का होता है, राजनीति का नहीं। राजनीति तो व्यवस्था देती है और व्यवस्था भी उन लोगों के द्वारा ही की जा सकती है, जो उस जमीन को समझते हैं। बहरहाल, एक बार फिर से पाकिस्तान में छेड़े गए ‘राग-कश्मीर’ को राजनीतिक हथियार नहीं बनाया जा सके। यह प्रार्थना है।