– हरीश बी. शर्मा

भाजपा के स्थापना दिवस पर एक बार फिर से नरेंद्र मोदी ने परिवारवादी राजनीति पर हमला बोला है। साफ कहा है कि परिवारवादी राजनीति लोकतंत्र की दुश्मन है। सीधे तौर पर कहा जाए तो यह कांग्रेस पर आक्रमण लगता है, लेकिन इस बात को समझा जाए तो यह सीधे तौर पर भाजपा के नेताओं के लिए हिदायत है कि वे परिवारवाद से बचकर रहें। बताते हैं कि लालकृष्ण आडवाणी को मार्गदर्शन मंडल में डालने के पीछे भी बड़ा कारण उनका अपनी बेटी को राजनीति में सक्रिय करने के लिए टिकट देने का आग्रह था, इसके बाद तो ऐसे अनेक उदाहरण है, जिसमें सांसद, विधायक व मंत्रियों ने ही नहीं पदाधिकारियों ने भी उत्तराधिकारी तय कर दिये। अगर हम अपने आसपास भी देखें तो विधायक, सांसदों ही नहीं संगठनों का काम भी भाई-भतीजों को मिला हुआ है। कुछ नेताओं ने तो अपने बेटों को भी सक्रिय कर रखा है। इसके पीछे तर्क यह दिया जाता है कि ऐसा करने से काम सहजता से होता है, लेकिन दूसरा पक्ष यह है कि ऐसा करने वाले ‘मोनोपॉली’ चाहते हैं, किसी को आगे नहीं आने देते।

दूसरे पक्ष के पक्ष में अधिक वोट होते हैं, लेकिन आज अगर रेंडम सर्वे करें और केस-स्टडी के लिए सिर्फ बीकानेर को ही सामने लें तो पता चलेगा कि  बीकानेर भाजपा का संगठन ही नहीं बल्कि सांसद तक पर इस तरह के आरोप है कि वहां परिवार को प्रश्रय मिलता है। विधायक के रूप में सिद्धिकुमारी ऐसी अकेली दिग्गज हैं, जो राजनीति में अपने परिवार वालों को बतौर उत्तराधिकारी सक्रिय करने में भरोसा नहीं करती। बाकी तो सब के पास अपने लोग हैं। इन अपने लोगों में रक्त संबंधी को पहली तरजीह है, दूसरे पर करीबी रिश्तेदारियां हैं। इस तरह के लोग ‘खास’ माने जाते हैं। हालात यह है कि जन-मन में भी यह बैठ जाता है कि अगर किसी जाति-विशेष का नेता है तो उस तक पहुंचने के लिए उस जाति के किसी मित्र का उपयोग किया जाए। पिछले दिनों बीकानेर का शिक्षा विभाग इस मामले में काफी चर्चित रहा।

बीकानेर में यह एक सेंपल-सर्वे की बात है। सिर्फ भाजपा में देखा जाए तो ऊपर से नीचे तक ऐसे आत्मीय-रिश्ते निकल आएंगे। कांग्रेस के लिए यह आलोचना का विषय इसलिए नहीं है, क्योंकि यहां परिवारवाद ऊपर से शुरू होता है। भाजपा इससे बचने के लिए ऊपरी तौर पर तो आदर्श स्थापित करने के लिए सक्षम रही है, लेकिन नीचे वाले नेताओं से पार पाना मुश्किल है। इन नेताओं का तर्क यह रहता है कि चुनाव में ऐसे लोग ही विश्वसनीय साबित होते हैं। अनाप-शनाप पैसा। दुरभिसंधिया। लड़ाइयां। इतना सब पार्टी के लिए कौन करता है। खासतौर से तब जब चुनाव में पार्टी का मतलब व्यक्ति हो जाता है। लड़ाइयां व्यक्तिगत हो जाती है। पता ही नहीं चलता कि कौन किसके साथ है। कुछ दिनों बाद लोग दल बदलकर दूसरे दलों में चले जाते हैं। ऐसे में पदाधिकारी चाहे कितना भी समर्पित हो, वह व्यक्ति के लिए क्यों लड़ेगा। चुनावों में पार्टी को हर हाल में जीत चाहिए होती है। ऐसे में नरेंद्र मोदी भले ही उच्चादर्श रखने की बात कहें, लेकिन यथार्थ के धरातल पर यह कैसे संभव है जब चुनाव ही जाति और धर्म के नाम पर लड़े जाने शुरू हो चुके हों। एक हाथ को दूसरे हाथ पर भरोसा नहीं रहा हो। कैसे कोई सांसद या विधायक बनने का सपना देखने वाला रिस्क ले सकता है।