हस्तक्षेप

– हरीश बी. शर्मा
देश में आम चुनावों का तीसरा चरण पूरा हो चुका हे। मतदान के जिस तरह के आंकड़े सामने आ रहे हैं, कोई बदलाव नहीं है। वही साठ प्रतिशत के आसपास हुए मतदान ने राजनीतिक दलों को फिर से समीक्षा करने के लिए तो मजबूर कर ही दिया है, लेकिन चुनाव आयोग के लिए भी यह एक बड़ी चुनौती है। अगर और सूक्ष्म हुआ जाए तो यह चुनौती लोकतंत्र को है कि जब देश की एक चौथाई से अधिक जनता वोट देने ही नहीं आएगी और जो लोग आएंगे, उनमें से अधिकतम वाले को जीता हुआ माना जाएगा तो यह प्रतिशत कितना होगा। लगभग आधा या आधे से थोड़ा कम या ज्यादा।

ऐसे में एक सीधा-सीधा आंकड़ा जो जाएगा वह यही ना कि आधी जनता से मिले वोट के आधार पर जीता हुआ प्रत्याशी लोकसभा में जा रहा है। आधी जनता ने या तो वोट नहीं दिया या उसके प्रत्याशी को जीतने लायक वोट नहीं मिले, ऐसे में हम एक गौरवशाली लोकतंत्र को लेकर कितने आश्वस्त हो सकते हैं। बड़ा सवाल यह है कि आधे से भी कम जनता का वोट लेकर लोकसभा में जाने वाले जनप्रतिनिधि कैसे होगा।
आज के समय में बहुत कुछ पता मतदान केंद्रों से मिली जानकारी के आधार पर लगाया जा सकता है। ऐसे में हर प्रत्याशी को यह पता चल सकता है कि उसे कौन-कौन से ब्लॉक से कितने-कितने वोट मिले। इसी आधार पर अगर वह अपनी निधि का उपयोग अपने वोटर्स के क्षेत्रों में करे तो उसे कैसे रोका जा सकता है।
इस देश का लोकतंत्र दूसरे स्थान पर रहे प्रत्याशी को भी यह अधिकार नहीं देता कि वह क्षेत्र के विकास की योजनाओं में अपनी भागीदारी बना सके। कायदे से कम से कम दूसरे स्थान पर रहे प्रत्याशी को इतना तो अधिकार मिलना ही चाहिए कि उसकी बात को आधिकारिक रूप से सुनी जाए। इस संबंध में न तो कोई प्रावधान है और न किसी को फुरसत।
बहुत सारे प्रत्याशियों को देखा है, जो बहुत कम मतों के अंतर से हारने के बाद भी यह कहते हुए किनारे हो जाते हैं कि जनता ने उन्हें काम करने का अवसर नहीं दिया, जबकि सच इसके विपरीत होता है। लड़ाई में दो में से किसी एक को जीतना होता है और इस तरह की जीत में बहुत सारे फैक्टर काम करते हैं।
सवाल अगर यह है कि आखिर मतदाता मतदान केंद्र तक क्यों नहीं पहुंच रहा है तो इसका जवाब सीधा-सा है कि देश के जनप्रतिनिधि के प्रति मतदाता उदासीन हो रहा है। यह सही है कि इसका असर लोकतंत्र पर पड़ सकता है, लेकिन समय रहते इस असर को बेअसर करने के लिए जरूरी है कि जनप्रतिनिधि इस बात के लिए संकल्पित हों कि वे पांच साल में अधिक से अधिक अपनी जनता के साथ संपर्क में रहे। अपने क्षेत्र में विकास का कार्य करवाए। बहुत सारे सांसदों से आम जन को इस बात की शिकायत है कि उनका सांसद चुनाव के बाद क्षेत्र में दिखाई ही नहीं देता।
इस फीडबैक के आधार पर सोचना होगा कि कहीं यही वजह तो नहीं है कि लोगों की मतदान के प्रति अरुचि हो रही है। अगर ऐसा है तो यहीं से सोचना शुरू करना चाहिए और सांसदों को अपने क्षेत्र में कम से कम 15 दिन रहने के लिए पाबंद किया जाना चाहिए।

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