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मनीषा आर्य सोनी

हिन्दी व राजस्थानी मे समान रूप से सृजन, रेडियो और रंगमंच से भी सम्बन्ध

मोबाइल 9460173250

जवाब दो सुधा !

कहानी सुनाने की जि़द करते करते मोना सो गई थी ,मैं बहुत देर तक उसे सोता हुआ देखता रहा। क्या इतनी खाली थी मेरी झोली कि उसे एक कहानी का छोटा सा तोहफा भी नही दे सका । कहानियां तो सुधा कहीं किसी अलमारी मे नहीं रखकर गई थी,बाकी उन तमाम चीज़ों की तरह जो उसके जाने के बाद मुझे ढूंढने से भी नहीं मिल रही थी। इसी हल्की सी खीज के साथ अपनी बांह पर धरा हुआ मोना का चेहरा तकिये पर रखकर करवट लेकर सोने की कोशिश करने लगा।नींद ने मुझे और मैंने नींद को कटघरे में खड़ा कर रखा था ।रोज रोज अपने पर लगाए गये आरोपों का बोझ औंस भर बढ़ता हुआ महसूस कर रहा था ।क्या इतना बुरा था मैं कि सुधा यूं क्षण भर मे मुझे छोड़कर चली गई ,क्या मुझे सहन करना उसके लिए इतना मुश्किल हो चला था ?उसकी सहनशीलता खत्म हो गई थी ? या मेरी गलतियां सचमुच बढ़ती जारहीथी।
मेरी सरलता हाशिए पर आ चुकी थी कोर्ट रूम से समाज घर परिवार सब जगह मुझ पर इल्जाम था उसे नहीं समझने का ,हिंसक व्यवहार का और चरित्रहीनता का।ओह,,,लेकिन मैं कितनी बार मेरे वकील के लाख समझाने पर भी इस बात से मुकर नहीं सका कि हां मैं जब बिफर जाता था तो सुधा को चपत लगा दिया करता था। ये गुनाह आत्मा से स्वीकारा  था मैंने ,जज के सामने भी,और घर तड़क कर दो हिस्सों में बंट गया क्षण भर में ,सारे एहसास रकम मे तब्दील हो गये बच्चे खर्चों के आंकड़ों मे बंट गये ।जो सुधा घर की रद्दी बेचकर आए हुए पैसे भी मंदिर वाली गुल्लक में डाल दिया करती थी वो मुकर्रर गुजारे भत्ते की रकम पर राजी नहीं हो रही थी रोहित तेरह साल का था और बेटा था तो सामाजिक गणित के आधार पर उसे मांग लिया अपने हक में।मै भौंचक्का सा समझ नहीं पा रहा था कि सुधा में इतनी निष्ठुरता आखिर आई कहां से ,जो बैंक जाने के नाम पर इतना कोफ्त से भर जाती थी आज उसकी गणित मुझसे दसगुना ज्यादा कुशाग्र हो गई थी ।
सुबह होने को आई है पर मेरे लिए वक्त मानो थम सा गया है।फिर भी नए दिन को तो बदस्तूर शुरू करना ही होता है।मेरे लिए चाय बनाने तक का काम एक बड़ा मिशन जैसा होता है,फिर मोना को जगाना उसे ब्रश करवाने से लेकर स्कूल तक भेजकर खुद औफिस के लिए तैयार होने तक का समय जीवन की सबसे बड़ी चुनौती भरा समय होता है। लगभग दो महीने होने को आए हैं अभी तक रसोई से भी वाकिफ नहीं हो पाया हूं ।चाय और चीनी के डब्बे में अब भी वही कन्फ्युजन है ऐसा लगता ये घर और उसमें रखे सारे समान मुझसे खेलते हैं मानो रात की रात अपनी जगह बदल कर मुझे हर बार नई मुसीबत मे डाल देते हैं।मै हर दफा नए सिरे से सामानों की जगह याद रखने की कवायद मे जुट जाता हूं। हां एक पुरुष हूं और वो भी खालिस भारतीय पुरूष जिसके लिए घर का मायना सुविधायुक्त होटल होता है सनातन काल से चली आ रही एक व्यवस्था का बिगड़ा सा हिस्सा भर हूं बिना किसी तर्क कुतर्क के स्वीकारता भी हूं ,तो क्या सुधा को मेरे इस दोष के चलते तलाक लेने का हक बन जाता है ?उसने अपने साथ हुई ज्यादती मे एक ये बात भी कही थी कि मेरा जीवन उस चारदीवारी और पति की तामीरदारी में घुट के रह गया था।मुझे आभास तक नहीं हुआ था कि सुधा जो बेहद खूबसूरत तरीके से मकान को घर होने के अहसास करवा रही है और जो मेरे और बच्चो के लिए हर पल तत्पर है उसके लिए वो एक घुटन भरा काम है उसकी भी अपनी कोई निजता हो सकती है ये मेरे जहन मे ही नहीं था कभी ,पर क्या मेरी अपनी कोई अलग दुनिया थी जहां सिर्फ मैं था ?मै भी तो घर की नींव को मजबूत बनाने मे दिन रात जुटा रहता था , दुनिया से हर पल दो दो हाथ करके इस घर परिवार को अपने जटायु प्रयासों से सुरक्षित रखने की कवायद में घायल होता रहा हूं ।मुझे मेरी निजता कभी हाशिए पर नहीं लगी।जैसा था भला बुरा सब सबके सामने स्पष्ट सा था। आज अलमारी से कुछ एन जी ओ संस्थाओ और कुछ समाज सेवी संगठनों के औफिशियल पत्र मेरे सामने थे ।पिछले कुछ सालों मे परस्नलैटी डवलपमैंट शिविरों और “अपने लिए जियो” जैसे कितने ही मोटीवेशनल गुरूओं से सुधा जुड़ी थी ,और बेहद प्रभावित थी ।एक फंतासी दुनिया का द्वार खुल गया हो जैसे उसके सामने वो खोई रहती थी उन सबमें ,घर से ज्यादा समय समाज सेवा अखबारों मे छपी खबरों की कटिंग सहेजने में गुजारने लगी थी।शहर के कुछ लंपट और छुटभैया नेता किस्म के लोगों की नज़र मे सुधा आ चुकि थी,जो अपनी पहचान बनाने को बेहद लालायित थी और इसी का लालच दिखाकर शहर के छोटे छोटे मंचों पर सुधा को तरजीह दी जाने लगी थी जिसे वह बहुत बडी़ खुशफहमी मे अपनी योग्यता समझने की भूल कर बैठी थी। मै साधारण सा एक पुरूष जिस पर अपने और अपने परिवार की अस्मिता को बचाए रखने और प्रतिष्ठित करने की कुदरतन जिम्मेदारी थी ,मैं दिन रात जी तोड़ मेहनत और औवरटाईम करने लगा।तनिक तनिक रुपये बचाकर एक घर बनाने की जुगत मे लगा चक्की मे पिसता हुआ रोटी कपडा़ और मकान की जुगत मे ही लगा रहा ये नजर अंदाज़ करते हुए कि सुधा मेरे किये प्रयासों को अपने ऊपर लगाए बंधन की तरह देखने लगी है। मै अपनी धुन मे सब कुछ बनाने का प्रयास कर रहा था वहीं मेरा आधाअंग मेरी अर्धांगिनी मेरा अटूट विश्वास खुद को मेरे हाथो बजने वाला एक खिलौना समझे बैठी थी और मुझे इसका भान तक नही हुआ।
बात एक दिन मे नहीं बिगडी़ थी। सुधा मे आए बदलाव को महसूस कर पाने का सच मुच मेरे पास समय नहीं था।मुझे मोटे तौर पर घर के कामकाज की थकान उसके चिड़चिडे़ रवैये का एक कारण लगता था।पर उसके भीतर अपनी अलग पहचान को लेकर इस कदर छटपटाहट शुरु हो चुकी है इस शोर को मैं सुन ही नहीं पाया।पर क्या अपनी पहचान सब तहस नहस करके ही मिल सकती थी। जलते घर को बुझाने कौन आता है सब दूर खडे़ तमाशा देखते हैं।मेरे मां बाबा ने भी मेरे साथ हुए इस हादसे के बाद छोटे भाई के साथ रहने का विकल्प चुना ।कारण साफ था वहा उनपर कोई जिम्मेदारी नही थी ।एक अदद बहु किशोर उम्र के बच्चे और उनकी अपनी उम्र की अनिश्चितता को एक मजबूत धरातल मिला हुआ था ।मेरी बिखरे परिवार को वो क्यु संभालते जहां दस साल की अबोध बेटी और अकेला मैं दोनो ही किसी सहारे के लिये मोहताज थे।मोना तो फिर चलो सयानी हो जाएगी पर मैं??मुझे सच मे नही आता जीना।और अब इस नये तरीके के जीवन ने तो झिंझोड़कर रख दिया।मुझे सहारे की सख्त दरकार थी। सुधा को महिला होने का सारे सृष्टिगत ,सामाजिक पारिवारिक लाभ मिल रहे थे।वो अपने माता पिता और भाई के साथ परिवार का फिर से अभिन्न हिस्सा बनकर एक संभले हुए व्वस्थित और सुरक्षित दायरे में थी।एक पीडि़त महिला को मिलने वाली सहानुभूति का कवच भी उसको अनेक सवालो से बचा ही रहा था। वीक एंड पर मोना और सुधा का घर से बाहर कही मिलना कोर्ट की तरफ से तय हुआ था ।बहुत हैरानी होती थी सुधा के बदले पहनावे और रंग ढंग को देखकर। मुझसे तलाक की जंग जीतकर विजेता होने के भाव ने उसके मां पने को केंचूली की तरह उतार फेंका था। मोना की अबोध मासूम आंखें सुधा से भी तो सवाल करती होंगी, क्या सीना फट नही जाता होगा उसका ? पर मुझे उसकी आंख उसकी बौडी लैंग्वेज से कभी एहसास नही हुआ कि जो कुछ हुआ उसका तनिक भी मलाल उसके डीलडौल पर छुआ भी क्या।वो अक्सर देर कर देती थी मिलने में जाने की जल्दी लगी रहती थी उसे।मुझे हर बार भौचक्केपन का अटैक सा आ जाता था उससे देखकर।आखिर सुधा कौनसा नया कैनवास अलग थलग सा अपने मन मे ले आई थी जिसमे वो अपनी अस्मिता और आजादी के रंग भर रही थी। समय गुजरता रहा ।पता चला कि सुधा प्रतियोगी परीक्षाओ की तैयारी मे लगी है।मायके मे मां के राज मे सुधा लाडली बेटी बनकर जीवन के बहुत हल्केपन से गुज़र रही थी ।बेटे को सुधा के पिता ने अपनी गहन कस्टडी मे ले रखा था रिटायर्ड प्रोफेसर थे सारा समय अपने नाती को बेहतर भविष्य की ओर बढा़ने मे जुटे रहते थे ।सुधा हर तरफ से निश्चिंत सिर्फ खुद पर फोकस्ड थी।सुधा के नजरिये से देखा जाए तो जीवन के सब रास्ते अब ही तो उसके सामने खुले थे।जहां वो बे रोक टोक हर निर्णय लेने मे सक्षम थी ।सुधा ने प्रतियोगी परीक्षाएं दी और दूसरे प्रयास मे ही उसका चयन कनिष्ठ लिपिक के पद के लिये हो गया।सुधा को तलाक फलाप रहा था परित्याक्ता कोटे की आरक्षित सीट का लाभ भी उसे मिला। इस बार वीक एंड मीटींग मे सुधा का कायाकल्प देखकर मै फिर से भौचक्का सा था। सामान्य गृहणियो के बदन पर जितनी चर्बी की जायज सी परत चढी़ हुआ करती है वो गायब थी।अब वो एक आकार नही आकृति नजर आने लगी थी।नीली स्कीन टाईट जींस सफेद कुर्ता और पीठ पर जो मोटी सी चोटी धरी रहती थी वो कंधे तक कटी जुल्फों मे तब्दील हो गयी थी।वो लहराती हुई सी आई और मोना को चहकते हुए गले लगाने को हुई तो मोना दो कदम पीछे हट गयी ।मासूम बच्ची समझ नही पा रही थी कि मम्मी को देखे या समझे ,मम्मी को ये क्या हुआ ?सुधा भी समझ गयी कि बच्ची असहज हुई है उसका कायाकल्प देखकर।खिसियाते हुए अपने आप को सहज करते हुए बोली “मम्मा चेंज्ड, है ना बेटा!!”मै मन मे बुदबुदा उठा “यू रीयली चेंज्ड “।फिर मिठाई के छोटे डब्बे से बर्फी का पीस निकाल कर मोना की ओर बढा़या तो उसने चुपचाप ले लिया दूसरा पीस मेरी ओर बढाया तो मेरे सवाल किये बिना ही उसने जवाब दे दिया और कहा कि ‘मेरा सलैक्शन lDC के लिये हो गया है’।मै फिर से मन की अजीब अवस्था मे पहूंच गया था।पिछले साल सवा साल मे सुधा मे इतने आमूल चूल परिवर्तन देख चुका था कि लगता था कि मैं किसी अजनबी से मिल रहा हूं मेरी पत्नी सुधा तो ये हो ही नही सकती।आज भी मेरी आंखो मे सुधा का वो धीर गंभीर सौम्य छवि वाला चेहरा तैर जाता था ।जो अब सुधा के लिये गुलामी का परिचायक था। ये वही सुधा थी ना जिसे मैंने एकबार कहा था कि तुम चाहो तो जौब के लिये अप्लाई करो ना,,!! दोनो मिलकर कमाएंगे तो बच्चो के कौलेज मे जाने से पहले अपना खुद का घर खरीद लेंगे और इसी सुधा ने ताना मारते हुए कहा था कि बीवी को रोटी नहीं खिला सकते थे तो शादी ही क्यूं की थी,,,??मै सच मे तब समझ नही पाया था कि मेरा सुधा को जौब करने के लिये कहना क्या वाकई इतना बडा गुनाह था??मै सोच नही पा रहा था कि मै जवाब सुनकर घायल ज्यादा हुआ या गलत ज्यादा था।पर फिर तय कर लिया कि अब कभी सुधा को जौब करने का नही कहूंगा उसकी पूर्ती हेतु ओवरटाईम मे खुद को पेल दिया था।आज वही सुधा नौकरी लग जाने की खुशी को यूं जाहिर कर रही थी कि जैसे मैंने इसे बहुत सख्त बंधन मे बांध रखा था और आज ये अपना स्वतंत्रता दिवस मना रही है।दुबारा मिठाई औफर करने से मेरी तंद्रा टूटी ,मैने मिठाई लेने से साफ मना कर दिया।मुझमे झूठ कुछ भी नही था गुस्सा तो गुस्सा ,प्यार तो प्यार, बिना लागलपेट के सीधे हर बात मूंह पर कहने की फूहड़ता भी थी। पर इन सबके बीच हीरे की तरह साफ सुथरा मेरा मन था जो रिश्तो के जौहरियो ने कांच का टुकडा समझकर खारिज कर दिया था।मिठाई वापस डब्बे मे रखते हुए सुधा बोली “अभी तो पंख खोले है आसमान नापना बाकी है” और बालों को झटक कर चलती बनी ,जैसे मोना से मिलने के बहाने मुझे अपनी सफलता का परचम दिखाकर चिढा़ने आई थी।मोना आज बहुत चुपचाप सी थी ।बढ़ती उम्र की लड़की थी ।सुना है लड़कियां बहुत जल्दी समझदार हो जाती हैं।मां का बदला रंग रूप उसके मासूम मन पर बहुत सारे सवालो के बीज बिखेर रहा था।जो यकीनन एक दिन उसके लिये यक्ष प्रश्न बनकर खडे होंगे।

हम दोनो खामोश से घर लौट आए ।मुझे शाम का खाना भी बनाना था ,फिर से एकबार रसोई के जाल जंजाल मे खुद का आत्मसमर्पण करना था।रसोई मे भारी कदमो से बढा़ तो पीछे से मोना की फरमाईशी आवाज आई ,पापा पापा !! मैगी बनाओ ना,,,!!सच कहूं तो फांसी की सजा टल जाने जैसा सुख मिला ।राहत की सांस पूरे दम से फेफडों मे भरकर फटाफट मैगी गैस पर चढा़ दी ।और बस दो मिनट के फार्मूले ने हम दोनो बाप बेटी को जैसे भारीभरकम खाना बनाने के जंजाल से मुक्त करवा दिया।मैगी खाते खाते मैं मोना के चेहरे की ओर देख रहा था क्या सच मे इसको मैगी पसंद है या मेरी स्थिती धीरे धीरे ये समझने लगी है कि मेरे पापा के बस की चीज नही है रसोई बनाना,,,ओह पलके भीग आईं सोचते सोचते।मैंने तन्मयता से मैगी खाती हुई मोना के बालो को कानो के पीछे करते हुए लाड़ किया। छ:महीने और गुजर गये पर अब सुधा आजकल ज्यादा खुश नजर नही आती थी।अब मै अपने कच्छप कवच से बाहर आकर कभी उसके व्यवहार की बारीक मिमांसा नही करता पहले की तरह।आज फिर शनिवार था और उसके आने का समय हो रहा था मै पार्क की आखिरी बैंच पर मोना के साथ बैठा था सुधा को आता देख अपनी नजर मोबाईल पर गडा़ ली।मुझे लगा सुधा मोना को दूर किसी बैंच पर बैठकर मोना से बात कर लेगी।पर सुधा के हैलो बोलने से नजर उठाकर देखा सुधा बहुत कमजोर सी लग रही थी ।बहुत स्वाभाविक तरीके से एकदम से पूछने को मेरे होठ हिले पर फिर दोनो होठ कसकर भींंच गये ,नही अब कुछ नही पूछना था,जो जिस हाल मे है रहे,मैं भी तो कौनसा ठीक रहता हूं ,ये सोचकर खुद को मोबाईल पर और गहरा गडा़ दिया। सुधा ने बात शुरु करते हुए कहा कि मै अगले सप्ताह घर शिफ्ट कर रही हूं।मन मे स्वाभाविक सी चौंक हुई।मोबाईल से नजर उठाकर सुधा की ओर देखा आज उसका निस्तेज और बुझा हुआ चेहरा ना चाहते हुए भी अंदर तक साल गया।एक गहरी सांस भरकर फिर से मोबाईल पर बेवजह स्क्रौल करने लगा ।सुधा मोना के साथ कुछ दूरी पर जाकर बैठ गयी ।मुझ तक उन लोगो की आवाज नही आ रही थी पर सन्नाटा बहुत मुखर होता है मै सुधा पर छाई खामोशी को साफ साफ सुन पा रहा था ।आज कुछ ज्यादा तेर तक रुकी मोना के साथ।घंटे भर की मुलाकात के बाद अपने अपने घरो को जाने का समय हो गया था ।विदा होते समय लगा कि सुधा मुझसे बहुत सारी बाते करना चाह रही है पर मै भी क्या बात करता ।अपने पर लगे सारे आरोप जो सुधा ने मय सूबूत कोर्ट मे पेश किये थे वो सोचकर होठों को और सख्ती से भींचकर मोना का हाथ थामे बाहर निकल आया।
पर आज मन बहुत बेचैन था एक अजीब सी फिक्र हो रही थी सुधा और बेटे को लेकर ।कितनी विडंबना है ना कि तलाक की कुल्हाडी एक साथ कितने रिश्तो को काट डालती है।खुद को असहाय सा महसूस कर रहा था।हमेशा खुद को गृहस्थी के जहाज के कप्तान के रूप मे ही देखा था ,और हर सवारी की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी अपनी ही समझी थी।सोचने लगा कि आखिर सुधा को घर शिफ्ट करने की जरूरत क्यो पडी़ ।उसकी मां और पिताजी तो बहुत दमदार और अपने परिवार पर पकड़ रखने वाले लोगो मे से थे ।क्या सुधा को वहा किसी ने कुछ कहा होगा??मैने खुद ही अपने जवाब को सिरे से नकार दिया ,नही उसके मां बाप के रहते उसे उस घर मे कोई तकलीफ नही हो सकती थी।वो अपने जीवन से आजकल बेहद खुश है ये सोचकर सर झटककर सुधा के वर्तमान जीवन के सब सवाल दरकिनार कर दिये। रात सामने थी और नींद फिर से मूंह फुलाकर दूर जाकर बैठी थी रोज का यही नाटक है रात होने से पहले नींद की मान मुनौव्वल करना एक नीयम सा बन गया था।सुधा के जाने के बाद से एक रात भी सुकून की नींद नही सो सका था परिणाम स्वरूप शरीर पर इसका असर साफ नजर आने लगा था।मन मे एक गुबार सा बना रहता था ।मोना अपने स्कूल का प्रौजैक्ट वर्क करने मे व्यस्त थी आजकल तो कुछ देर उसके साथ बैठकर उसके प्रौजेक्ट मे मदद करने लगा ।मोना ने एक बहुत सुंदर घर का मौडल तैयार किया था।मै बहुत डूब सा गया कि काश मेरा घर भी एक मौडल बन पाता पर नादानियो ने सब ध्वस्त किया।मै उखड़ गया और उठकर जाने लगा तो मोना ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कुछ देर और बैठने के लिये कहा।मोना प्रौजेक्ट को किनारे सरकाते हुए बोली कि “आपको पता है मम्मी और भैया अब अपने नये घर मे रहेंगे।”मैने अनमने से मन और डूबी हुई आवाज से पूछा क्यों?तुम्हारे नाना ने नया घर ले लिया है?मोना बोली “नही नही मामा जी ने मम्मी से बहुत लडा़ई की और मम्मी को एक बार घर से धक्का भी दे दिया ।और नानाजी नानीजी ने भी मामा को कुछ नही कहा ।”ये सुनकर मेरे अंदर ज्वाला धधक उठी एक के बाद एक सवाल आसमान से गिरते ओलो की तरह मेरे जहन पर तडा़तड़ गिरने लगे।क्या ये घरेलू हिंसा नहीं है?क्यो सुधा ने चुपचाप सहन किया अपने भाई से हिंसक व्यवहार क्योंकि वो भाई है तो उसका ये व्यवहार सही साबित हो जाएगा?अब क्यो चुप हैं उसके मां बाप । जो कोर्ट मे रो रोकर बोल रहे थे हमारी फूल सी बेटी से हमने कभी ऊंची आवाज मे बात नही की और ये दरिंदा उसको जल्लादों की तरह मारता है। मैंने जो किया उसके दंड स्वरूप मेरा घर चिंदी चिंदी बिखर गया आज वही सब वो खुद सुधा के साथ होते चुपचाप देख रहे हैं क्योंकि अब सामने दामाद नही बेटा है?सुधा की आत्मा अब क्या उससे सवाल नही करती?औरत होने के हक ,अस्मिता की बाते अब अपने मां बाप के सामने क्यू नही करती?क्यो सुधा अब कोर्ट मे नही जाती अपने साथ हुए इस अन्याय के लिये। क्यो नही एफ आई आर दर्ज करवाई? मुझसे किनारा करना आसान था मै पति था और महिलाओ के हित के कानून के चलते मेरी सुनवाई ही नही हुई कहीं भी।थाना जेल कोर्ट कहां कहां मैने जलालत नही सही ।मैने आवेश मे आकर हाथ उठाया सुधा पर मगर कभी इस तरह हाथ पकड़ कर उसकी लाज को दहलीज से बाहर जलील नही होने दिया कभी।आज सुधा की वो ललकार अपने पीहर वालो के सामने खामोश क्यो है?मुझसे जैसे मुआवजा लिया गया क्या अपने पिता की संपत्ति से अपना हक लेकर दिखाएगी ? मुझसे तलाक का हर संभव फायदा सुधा को मिला । बहुत चालाकी से मेरे सारे कतरे कतरे को सूत लिया गया। परित्याक्ता कोटे मे सरकारी नौकरी मासिक मुआवजा स्त्रीधन के साथ साथ मेरे उपहार मे दिये सोने के छोटे मोटे तोहफे भी सब हथिया लिये और घर परिवार की मुकम्मल जिम्मेदारी से भी मुक्ति मिली।पर सुधा सच बताओ ये मुक्ति तुमको किस कीमत मे पडी़ ।आज ना इधर की रही ना उधर की । अगर हार ही माननी थी तो अपने घर मे मान लेती तो ये घर कायम रह जाता तुमने लोगो से हार मानी।क्यो सुधा क्यु ???? मैंने तय कर लिया एक बार सुधा से जरूर मिलूंगा उसे अहसास करवाऊंगा कि तुमने सारी बाजियां जीत कर भी हार दी।सुधा को तो वापस नही ला सकता पर मोना को मै बहुत संतुलित सोच की एक समझदार शिक्षित महिला के रूप मे विकसित करूंगा,जिसके जीवन का उद्देश्य स्वयं की निजी आजादी नही बल्कि सबके साथ मिलकर अपनी उन्मुक्त उडा़न भरना हो।मै मोना को सिखाऊंगा कि आसमान मे उड़ना पर लौटकर किसी की हथेली पर विश्वास के साथ उतर सको ऐसी परवाज भरना।मैंने मोना के घर के मौडल को आंसु भरी आंखो से देखा और उस पर पेंट करने लगा।

 

– व्यास योगेश ‘राजस्थानी’

मोबाइल 8302242401

युवा कवि, कहानीकार, मंच संचालक  सम्पादन में राष्ट्रीय स्तरीय द्धिभाषाई साझा काव्य संकलन ‘ये शब्द मेरे’ साहित्य की प्रतिष्टित पत्रिका मरु नवकिरण के युवा विशेषांक में  अतिथि सम्पादक।

लॉकडाउन के कारण काफी दिनों से घर में बंद थे।घर के कमरे में सोते सोते, मैं इधर उधर देख ही रहा था कि मेरी नजर दीवार में गड़ी हुई एक टूटी मुड़ी लाचार सी कील पर पड़ी। मैंने उसकी हालत देखकर सोचने लगा कि इसके साथ क्या हुवा होगा। फिर देर रात सबके सो जाने के बाद मैने विनम्रता से उससे पूछ ही लिया,कि तुम अपने इस दशा के बारे में क्या कहना चाहोगी? उसने भी आत्मसम्मान के साथ जवाब दिया ,”मेरी इस हालत पर तरस खाने की आवश्यकता नहीं, मैं आज भी अपने स्वभाव के कारण इस दीवार से जुड़ी हुई हूं। मुझे भी यहाँ से उखाड़ फेंकने की पूरी कोशिश की गई थी और इतने सालों से किसी ने मेरी ओर ध्यान भी नहीं दिया लेकिन आज तुमने ध्यान दिया,इसे देखकर तुम मुझे भोले ओर सज्जन प्रतीत होते हो।तो मैने भी बात को आगे बढ़ते हुए वापिस पूछ ही लिया। तुमने ऐसा क्या किया कि तुम्हें उखाड़ फेंकने की कोशिश की गई..? उसने मेरे सामने मुस्कुराते हुए कहा तुम अभी बच्चे हो तुम्हे नही पता, मानव को ज़रूरत तक ही किसी की कद्र रहती है। ज़रूरत ख़त्म होने के बाद मानव को अपने जीवन में किसी का अस्तित्व,जो बेवजह हो,कील सा चुभने लगता है और किन्ही तरीकों से उसे अपनी व्यक्तिगत दीवार से उखाड़ फेंकने का प्रयास करता हैं । तुम मेरा ही उदाहरण ले लो जब तक लोगों को मेरी जरूरत थी तब बड़े ही ध्यान से कहीं टेडा मेडा ना हो जाए यह देख कर बड़े ही सलीके से मुझे यहा लगाया गया था ।पर जैसे ही मेरी आवश्यकता समाप्त हुई , बेसलीक़े मुझे यहां से उखाड़ फेकने की कोशिश की गई ।हां मैं टूटी-मुड़ी, लेकिन टस से मस ना हुई।”

 

सीमा भाटी

मोबाइल 9414020707

राजस्थानी, हिन्दी, उर्दू  रचनाकार बीकानेर

 

सड़क

बेहिसाब हसरतें

उम्मीदें, बेचेनियों की

लातादात लिये

हिस और बेहिस लोग

हर रोज़ गुज़रतें हैं

मुझ पर से …

कोई मुस्कराता

कभी कोई रोता हुआ

चुनौतियों से भरे

इस वक़्त में

देखती हूँ उदास

किसी को तो

हो जाती हूँ बेचैन

नामालूम

हुआ होगा क्या❓

गोया मालूम भी है

किया गया हमेशा ही

इस्तेमाल मुझे

मेरी टूटन को

छलनी हुए वजूद

और उसमें मची

उथल पुथल का

ख़याल भी

कम ही नज़र

आया किसी को

अगरचे

आ भी गया कभी

वक़्त बेवक़्त

तो लगा दिया

वही घीसा पीटा

पैबंद

और चल दिए

अपनी राह

कुछ नया करने की

तलब में

कुछ पुरानों का

हिसाब करने

वक़्त की

रफ़्तार के साथ

किसी को

जल्दी पहुंचने की

किसी को चाहिए

बहाना …

मुझ पर ठहरने का

और ऐसे में

ना चाहते हुए भी

बन जाती हूँ गवाह

किसी के मिलने

और बिछुड़ने की

फिर भी

रहती हूँ

बेख़बर सी

मुझे इल्म ही नही

कौन, कब

किस मोड़ पर

चल देगा

छोड़ कर मुझे

और मैं!!

मैं अपनी बर्दाश्त की

तमाम हदों के साथ

हंसती, मुस्कराती

जख़्म छुपाती

उधड़े लिबास में

ख़ामोशी से

देखती रहती हूँ

उन्हें अपना

नया मोड़

मुड़ते हुए…

 

मन

कोई शै

बनी नहीं ऐसी

जो बांध सके

मन को

किसी मुक़र्रर वक़्त में

वो तो चलता है मुसलसल

दिन और रात

करके अठखेलियाँ

गुज़ारता है वक़्त

रचकर नये पुराने खेल

रहता खा़मोश

कभी दहाड़ता जी भर के

बन जाते  निशाना

अपने पराये

पड़ जाती दरारें भी

मगर

बनाता भी है नये रिश्ते

कभी सोचकर

फलक पर खु़द को

नापता है ऊंचाईयां

आसमान की

कभी जुड़कर ज़मीन से

अपनों के साथ

सजाता है महफ़िलें

खु़शी और गम की

रमता रहता है ऐसे ही

जब तक जि़न्दा

रहता है मन….

 

 रेत

पांवों की शोखि़यां

जब तोड़ती है

हदें अपनी

बिना किसी

ठिकाने के  तो

दुनिया में

कोई नहीं देता

उसे पनाह

बचा नही सकता

कोई जाविया उसे

भटकना पड़ता है

कभी इस दर

कभी उस राह

बिना किसी ठिकाने के

रेत की तरह

 

मधु आचार्य ‘आशावादी’

मोबाइल 9672869385

राजस्थानी और हिन्दी भाषा मे नाटक, कहानी, कविता और जीवनानुभव का लेखन, नाटकों मे अभिनय व निर्देशन।

मुझे इतिहास बनाओ

उस दिन नवाब साहब सुबह जल्दी उठ गए। दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर अपने घर के बाहर की चौकी पर दरी बिछाकर बैठ गए। अखबार आ गया था इसलिए उसी को पढक़र अपना समय काट रहे थे।

अखबार में वो सबसे पहले बिजली कटौती की खबर पढ़ते थे। इस खबर से ही उनका पूरे दिन का कार्यक्रम तय होता था। उनके जीवन में बिजली का बड़ा महत्त्व था। टीवी देखना, इंडेक्शन चूल्हे पर चाय बनाना, एसी चलाना सहित बहुत सारे काम केवल बिजली से ही संभव थे। कटौती के समय को टाल कर वे अपनी दिनचर्या तय करते थे। अपना शिड्यूल बनाते थे।

बिजली कटौती के बाद उनका ध्यान राशिफल पर जाता था। तीन लाइनों का यह राशिफल उनके मूड और व्यवहार का निर्धारण करता था। राशिफल के अनुसार ही वो दिनभर चलते थे। आज लिखा था संयम बरतें और शांति से दिन व्यतीत करें। यह पढ़ते ही नवाब का अपने आप से व्यवहार बदल गया। अचानक से वो सहज-सरल और सौम्य बन गए। तय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो बेगम पर गुस्सा नहीं करेंगे। बच्चों को नहीं डांटेंगे। मित्रों की बात का प्रतिरोध नहीं करेंगे। मतलब आज सबकी हां में हां मिलाना है।

अब नवाब साहब की नजर पसंदीदा तीसरी खबर पर पड़ी। यह थी उठावणा की खबर। शोक संदेश, उठावणा और निधन की जानकारी हर अखबार में एक तय पृष्ठ पर ही आती थी। इससे घर बैठे शहर की जानकारी मिलती थी। नवाब तय कर लेते कि किसके यहां शोक व्यक्त करने जाना है। किस शोक सभा में उपस्थिति देकर अपने बुद्धिजीवी होने को पुष्ट करना है। किसे केवल फोन करके ही शोक जताना है।

इन तीन खबरों को पढऩे के बाद नवाब का अखबार में खास इंटररेस्ट नहीं बचता था। उनको बुद्धिजीवी दिखने का बड़ा ही चाव था। अखबार में परमानेंट पेज साहित्य का भी रहता था, जिस पर वो नजर जरूर डालते थे। पुस्तक का लोकार्पण, साहित्य पर विचार गोष्ठी, काव्य पाठ आदि की खबर पढ़ते। पढक़र पहले यह तय करते कि कौनसा

 आयोजन हुआ और कौनसा आयोजन केवल कागजों पर यानी प्रेस विज्ञप्ति पर ही उतरा। गहरा अनुभव था इसलिए यह तय करने में उनको परेशानी नहीं आती थी। जो आयोजन हुआ होता उसके आयोजक को फोन लगाते। बधाई देते ओर खुद के न पहुंच पाने का स्पष्टीकरण एक अपराधी बनकर देते। पुस्तक लोकार्पण की खबर पढक़र उसके लेखक को बधाई देना वे बिल्कुल नहीं भूलते। केवल विज्ञप्ति जारी कर खबर छपाने वालों को वे भूलकर भी फोन नहीं करते थे। इनसे उनको खास चिड़ भी थी। उनकी राय को साहित्य के लोग खास महत्त्व भी देते थे क्योंकि साहित्य जलसों में अधिकतर साहित्यकार ही होते हैं, पाठक तो इक्के-दुक्के नवाब जैसे ही पहुंचते हैं।

साहित्य की खबर पढक़र नवाब ने एक तरफ अखबार रखा ही था कि सामने से कवि कमलेन्द्र आ गए। स्वयंभू श्रेष्ठ कवि। अखबारों में आए दिन छपने वाले। पिछले दिनों ही उनका काव्य संग्रह ‘अंधेरे का दिन’ लोकार्पित हुआ था। अखबारों में उसके खूब फोटो, खबर और समीक्षाएं छपी थी।

कमलेन्द्र दूर से ही हाथ जोड़ मुस्कुराते रहे थे। आवाज भी लगाई।

– सलाम वालेकुम नवाब साहब।

      नवाब ने जवाब दिया

– राम-राम।

      वो समीप आ गए और चौकी पर जम गए।

– अरे नवाब, मैं उर्दू में सलाम करता हूं और तुम हिन्दी में जवाब देते हो। यह कैसे?

– भाई जान, सलाम तो सलाम है उसमें भाषा का क्या लेना देना।

– उर्दू जानते हो तो जवाब उसी में दिया करो।

– आप हिन्दी जानते हो तो सलाम हिन्दी में किया करो।

– तर्क में तुमसे जीता नहीं जा सकता नवाब।

      इतना कहकर कमलेन्द्र हंसने लगा।

– कविराज, एक बात पुछूं।

– अरे इसमें संकोच कैसा, पूछो ना।

– ‘अंधेरे का दिन’ यही नाम था ना आपके पहले काव्य संग्रह का ।

– हां। हाल ही में लांच किया।

– कविराज पुस्तक लोकार्पित होती है, लांच नहीं। लांच तो बिकाऊ वस्तु होती है।

– एक ही बात है। आजकल लोकार्पण नहीं लांच होता है। यह भी तो साहित्य का प्रोडेक्ट है।

– साहित्य तो साधना है, व्यापार नहीं। – भाई मेरे आजकल बिना मार्केटिंग कुछ नहीं होता। नेता तक अपने को प्रोफेशनल लोगों से लांच कराते हैं। इसके लिए एक आदमी को नौकरी पर रखते हैं।

– सही कह रहे हो पर साहित्य में इसकी क्या जरूरत है।

– जो लिखा है उसकी मार्केटिंग भी तो जरूरी है?

– करो मार्केटिंग, पर मेरे सवाल का जवाब तो दो।

– कौन सा?

– किताब के टाइटल का, अंधेरे का दिन। समझ नहीं आया ये।

      कमलेन्द्र जोर-जोर से हंसने लगे।

– भाई, सच में यह शीर्षक समझ से परे है। मैं ही नहीं कई लोग कह चुके हैं।

– नवाब, यही तो मैं चाहता था।

– समझा नहीं।

– अगर शीर्षक अटपटा न होता तो लोग चर्चा नहीं करते। सामान्य किताब बनकर रह जाती।

– पर शीर्षक का अर्थ तो होना ही चाहिए।

– साहित्य में आजकल अर्थहीन चीजे ज्यादा चर्चा पाती है। इतिहास रचती है।

– वो कैसे?

– जो समझ न आए उसकी मनचाही व्याख्या की जा सकती है, व्यंजना बता दो। कुछ भी न सुझे तो ‘एब्सर्ड’ बता दो। एब्सर्ड के बारे में लोग जानते नहीं, बात चल पड़ती है।

– साहित्य में आये हो या चर्चा पाने।

– चर्चा की भूख से ही साहित्य उपजता है।

– तुम्हारा दर्शन मेरे तो समझ नहीं आया।

– अरे नवाब, आदमी अमर होने की लालसा रखता है। यह काम तभी संभव है जब वो इतिहास का हिस्सा बन जाए।

– अच्छा।

– हां। इतिहास बनने की कोशिश ही हमसे लिखवाती है।

– बड़ा अनूठा साहित्य दर्शन है तुम्हारा।

– अधिकतर साहित्यकारों का यही दर्शन है।

– फिर तो साहित्य की परिभाषा ही बदल देनी चाहिए। राम राम।

नवाब के राम राम कहने का कविवर अर्थ समझ गए। और हाथ जोडक़र चलते बने। उनके जाने के बाद नवाब कुछ ज्यादा ही सोचने लगा। जानबुझकर बेअर्थ टाइटल देना तो पाठक के साथ अत्याचार है। भाषा, व्याकरण व मानदंडों का उल्लंघन है। इस उल्लंघन को तो साहित्य नहीं माना जा सकता।

सिर झटक कर वो उठ गया। आगे अखबार पढऩे की इच्छा भी नहीं रही। सारा जायका खराब हो गया। वो साहित्यकार नहीं था, ना साहित्य अनुरागी था। इसलिए हर बात को मानना उसकी मजबूरी नहीं थी। वो खुलकर प्रतिकार कर सकता था। नवाब ने सारा मामला पाठक पर छोड़ दिया और नहाने चला गया।

नहाकर जब तैयार होने लगा तो बेगम आ गई। उसने सीधे मिसाइल दागा।

– यह बाबू बनकर कहा जा रहे हो इतना जल्दी। मुझे तो दाल में कुछ काला लग रहा है। साफ-साफ बताओ।

– तुम यह शक करने की आदत कब छोड़ोगी।

– जब तुम सीधा जवाब देना शुरू कर दोगे।

– बेगम साहिबा, लोग अपने काव्य संग्रह का टाइटल भी आजकल सीधा          नहीं रखते।

– साहित्य की बात से मुझे कोई सरोकार नहीं। चलो बताओ, कहां जा रहे हो।

– आज साहित्यकारों का सेमीनार है। प्रदेश भर से साहित्यकार आए हुए हैं। उसी में भाग लेने जा रहा हूं।

– वापस कब आओगे।

– शाम को।

– अच्छा। लंच?

– अकादमी का आयोजन है। वह आने वालों को तो लंच भी कराती है।

– फिर तो अच्छा आयोजन है। आराम से जाओ।

– मतलब।

– मुझे खाना नहीं बनाना पड़ेगा। साहित्य के ऐसे आयोजन तो रोज होने चाहिए।

– भोजन का प्रबंध केवल अकादमी के आयोजन में होता है।

– ठीक है।

इस नोकझोंक के बाद नवाब घर से निकल गया। शहर के प्रमुख होटल में यह साहित्यिक आयोजन था। उनको भी निमंत्रण मिला था, साथ में लंच की हिदायत भी थी। आज के आयोजन में संख्या अधिक रहेगी, यह उसको अंदाजा था। लोग लंच के भी तो शौकीन होते हैं। लंच लुभाता है।

होटल का हॉल सजा हुआ था। आयोजन में अभी थोड़ी देर थी। साहित्यकार और लोग काफी संख्या में पहुंचे थे। अक्सर देर से आयोजन में आने वाले आज तो पहले पहुंचे हुए थे। नवाब उनको देखकर मुस्करा दिया। कवि कमलेन्द्र जी भी आए हुए थे। और गर्म जोशी से लोगों से मिल रहे थे।

बाहर से आए हुए साहित्यकारों से एक-एक को बुलाते। कोने में लेकर जाते और अपनी ‘अंधेरे का दिन’ पुस्तक भेंट करते। पुस्तक देते हुए फोटो अवश्य खींचते। आखिर उपयोग तो यह फोटो आने थे। फेसबुक ट्विटर, व्हाट्सअप पर इनको चेपना था। लोगों से बधाई जो अर्जित करनी थी। और लाइक से शाबासी पानी थी। नवाब यह देखकर हंसे बिना नहीं रह सका।

एक पुस्तक छपती पर फेसबुक पर 100 से अधिक दिन लोगों को भेंट करते हुए के चित्र चस्पा होते। नवाब ने एक बार एक साहित्यकार से पूछा भी था।

– फेसबुक पर लोगों को पुस्तक भेंट करते आपकी 100 से अधिक तस्वीरें देखी।

– वाह।

– तो क्या आप पुस्तक बेचते नहीं। भेंट ही करते हैं क्या?

      वो खिल खिलाकर हंस दिए। नवाब ने फिर कहा

– मैंने गलत सवाल पूछ लिया क्या?

– नहीं नवाब, सवाल तुम्हारा सही है।

– फिर सही-सही जवाब भी तो दे दो।

– यह राज की बात है।

– पाठकों से कैसा राज?

– कुछ राज रखने पड़ते हैं।

– फेसबुक फ्रेंड हूं, मुझे तो सच बता दो।

– तुम रोज लाइक करते हो। कमेंट भी करते हो। तुम्हें बता ही देता हूं।

–  बड़ी कृपा होगी प्रभु।

– मैं एक किताब अपने पास रखता हूं। उसी को देकर फोटो खिंचवाता हूं। फोटो के बाद वापस किताब ले लेता हूं।

यह कहकर कमलेन्द्र हंस दिया। नवाब को भी फेसबुक पर लगे फोटुओं का सच पता चल गया। उसे आज महसूस हुआ कि सोशल मीडिया पर झूठ कितनी आसानी से परोसा जा सकता है। नवाब के मुंह से बस एक ही शब्द निकला।

– जय हो।

यह सुनकर कमलेन्द्र कवि किसी दूसरे के साथ फोटो खिंचवाने के लिए निकल लिए। नवाब वहां खड़े लोगों से मिलने में लगा था तभी अचानक उसकी नजर एक कोने में खड़े साहित्यकार और आलोचक पर पड़ी। दोनों फेसबुक पर बात कर रहे थे। नवाब को यह सब रहस्यमय लगा। वो उस तरफ लपक लिए।

उनके समीप पहुंचेे तो दोनों ने बात करनी बंद कर दी। आलोचक बोल रहे थे जो चुप हो गए। इस पर साहित्यकार ने नवाब का स्वागत किया और आलोचक से कहा-

– आप बेधडक़ बोलिए। यह हमारे साहित्यिक मित्र हैं, साहित्यकार नहीं है। इनसे कोई खतरा नहीं है।

– फिर ठीक है।

– तो मेरा निवेदन है कि आप अपने पत्र में मेरे नए कविता संग्रह का उल्लेख कर दें। उसे उत्तर आधुनिकता की कविता बता दें। मैं दस लाइनें लिखकर लाया हूं।

– पर मेरा पर्चा तो फाइनल हो चुका हूं।

– बीच में जोड़ दीजिए।

– अगले पर्चे में जोड़ दूंगा।

– अरे नहीं इसी पर्चे में जोडि़ए।

– ऐसा क्यों?

– आपको मालूम नहीं।

– इस सेमीनार में पढ़े गए पर्चों की पुस्तक निकलेगी। उसमें मेरा नाम आपके लिखे पत्र वाचन में आएगा। छपा हुआ इतिहास होता है। आपने नहीं लिखा तो मैं इतिहास में दर्ज होने से रह जाऊंगा।

– ये बात है क्या।

– हां। आप तो आलोचक हैं। इसके बाद जब भी पर्चा लिखेंगे तो यह पर्चा आधार होगा। क्यूंकि नाम तो इसी में है। इसलिए मैं बारबार उल्लेखित होता रहूंगा और इस तरह मेरा उल्लेख करना पड़ेगा।

– इतनी दूर की सोच रखी है आपने।

– इतिहास का हिस्सा बनने के लिए ही तो हर साहित्यकार जीता है। साहित्य का इतिहास आलोचक लिखता है। इसलिए उसकी पूजा करना हमारा ध्येय है।

अब आलोचक को वर्णानुभूति होती है।

– अरे, हम तो साहित्य का सबसे कठिन काम करते हैं। आने वाली पीढिय़ां उसके आधार पर साहित्य को जानती है। यह दीगर बात है कि पाठक हमें साहित्यकार नहीं मानता।

– पर साहित्यकार तो आपको मानते हैं ना।

– केवल मानने से क्या होता है।

आलोचक की इस बात ने साहित्यकार को विचलित कर दिया। बात के पीछे छीपे संकेत को समझने में उसे देर लगी। पर जैसे ही समझा, बोल पड़ा

– आज रात को डिनर के लिए आप मेरे मेहमान हैं।

– इसकी क्या जरूरत है।

– अरे नहीं, मेरे इस आग्रह की रक्षा तो आपको करनी ही होगी।

– अब आप इतना कह रहे हो तो इंकार करने का मन नहीं। आपका दिल तोड़ू यह मेरी हिम्मत नहीं।

-पर। – पर क्या।

आलोचक ने धीरे से कहा।

– मेरा डिनर कुछ अलग तरह का होता है।

– मुझे पता है।

– आपको कैसे पता है?

– आज पर्चे पढऩे वाले तीन आलोचकों को कल रात का डिनर दे चुका हूं।

– ओह! मतलब वहां तो इतिहास में दर्ज हो गए।

– मेहरबानी थी उनकी।

– फिर ठीक है।

– मैं पूरी व्यवस्था कर लूंगा।

– ठीक है। फिर लाओ वो कागज। पंक्तियां जोड़ देता हूं।

साहित्यकार ने जेब से पन्ना निकाला और थमा दिया।

– ये भी उन तीन में से एक आयोजक ने लिखकर दी होगी।

– बिल्कुल नहीं। मैंने ही तीनों को लिखकर दी थी। अब मुझे इतिहास बनाना है तो आलोचना की पंक्तियां अपने बारे में मुझे ही लिखनी पड़ेगी ना।

      आलोचक हंस दिया।

– ठीक है। थोड़ा फेरबदल कर काम में ले लूंगा।

– बड़ी मेहरबानी आपकी।

इतनी बात के बाद आलोचकजी वहां से खिसक लिए।

नवाब इस वार्तालाप को सुनकर भयभीत था। साहित्यकार का एक नया ही रूप उनके सामने आया था। एक साहित्यकार को भी वो जानता था। दो-तीन पुस्तकें लिखी थी और बाकी साहित्य तो अखबार की खबरों में ही दिखता था। पर्चे में नाम दर्ज कराने के लिए इतनी कोशिश, इस तरह की सेवा। यह तो साहित्य का नया रूप ही सामने आया।

उन साहित्यकार का नाम किरण था और एक छोटा सा दल भी था उनका। जिनमें नए साहित्यकार शामिल थे। उनके साथ वो यदा-कदा गुपचुप आयोजन करते थे और अखबार में बड़ी खबरें देते थे। नवाब के चेहरे के भावों को किरण ने पढ़ लिया था।

– अरे नवाब, किस सोच में पड़ गए।

– यार।

– भाई, यह सब करना पड़ता है। यूं ही कोई इतिहास का हिस्सा नहीं बनता। कई पापड़ बेलने पड़ते हैं। अंग्रेजों ने लिखवाया था ना अपना इतिहास।

– तुम्हारी दुनिया है, तुम जानो और साहित्य जाने।

      नवाब सेमीनार हॉल में घुस गया। आयोजन आरंभ होने वाला था। धीरे- धीरे सभी साहित्यकार व अतिथि आकर बैठ गए। श्रोता भी बड़ी संख्या में बैठे थे। पत्र वाचन आरंभ हो गए। पहले तीन पत्रवाचकों ने अपने पर्चों में किरण जी का जमकर उल्लेख किया। उनको बड़ा कवि बताया। उनकी कविताओं को उत्तर आधुनिकता की श्रेष्ठ रचनाएं घोषित किया। किरण प्रफुल्लित थे, गर्व से सबको देख रहे थे। नवाब से नजर टकराई तो झैंप गए और सिर झुका लिया।

चौथे पत्र वाचक आए। उनका पर्चा आरंभ हुआ। उसमें कई कवियों के नाम थे पर लंबे इंतजार के बाद भी किरण जी का नाम नहीं आया। पर्चा खत्म हुआ तब तक तो उनका पारा सातवें आसमान पर था। अब नवाब गौर से किरण जी को देख रहा था। अंतिम पर्चे में फिर किरण जी का उल्लेख था। सेमीनार खत्म हुआ। नवाब सबसे दुआ सलाम कर खाना खाने के लिए बाहर निकला तो देखा किरण जी उस आलोचक से उलझे हुए थे जिसने पत्र वाचन में उनके नाम का उल्लेख नहीं किया था।

गर्मागर्म बहस हो रही थी। गाली-गलौच हो रहा था। लोग बीच-बचाव कर रहे थे पर किरण जी मान ही नहीं रहे थे। गले पड़े हुए थे। आलोचक मुस्करा रहा था। किरण जी उसको नासमझ, दो कौड़ी का पक्षपाती आदि अलंकरणों से बेधडक़ विभूषित कर रहे थे। नवाब यह सब देखकर मुस्करा दिया।

नवाब वहां पहुंचा। आलोचक को नमस्कार किया और पूछा-

– आपको कल रात इन्होंने डिनर पर नहीं बुलाया था क्या?

दोनों ही चुप हो गए। सिर झ़ुक गए दोनों के।  नवाब ने पास खड़ों को कहा

– यार तुम लोग आलोचना की सीआरपीसी क्यों नहीं बना लेते। मनचाही ही सही, बना तो लो। सब मुस्करा दिए।