कांग्रेस की शीर्ष राजनीति का शिकार बने गहलोत-पायलट
हस्तक्षेप / हरीश बी. शर्मा
चार साल की हो रही राजस्थान की कांग्रेस सरकार में अगर सबसे अधिक कुछ फला-फूला है तो वह है मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट का विवाद। हमेशा एक ही पिच पर खेलने के अभ्यस्त अशोक गहलोत ने सुनियोजित रूप से सचिन पायलट को भले ही उपमुख्यमंत्री नहीं रहने दिया हो, लेकिन हमेशा कि तरह वे अपने शत्रुओं का जिस तरह कांग्रेस की मुख्यधारा से बाहर करने में सफल रहे, इस बार नहीं रहे। कहा जा सकता है कि अशोक गहलोत की वजह से इन चार साल में सचिन पायलट ने वह सब हासिल कर लिया, जो उन्हें आने वाले चालीस साल तक काम आएगा।
लेकिन एक प्रश्न बार-बार खड़ा होता है कि ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि आलाकमान को यह सब नहीं पता था। आलाकमान बहुत अच्छे से जानता था कि दोनों के बीच में भेद है। मतभेद है। फिर भी दोनों की ही सराहना करता रहा। सोनिया गांधी ने अशोक गहलोत पर हाथ रखा तो सचिन पायलट के कंधे पर हाथ रखे-रखे राहुल गांधी घूमते रहे। क्या यह रणनीतिक नहीं था? क्या यहां तक आते-आते इसे इतना सामान्य कहा जा सकता है कि इसमें दोनों को लड़ाए रखने की साजिश से ही इंकार कर दिया जाए।
जाहिर है यह साजिश सोनिया गांधी और राहुल गांधी के लिए थी, लेकिन रची किसने? राजस्थानी में दो कहावतें इस पूरे परिदृश्य को समझाने के लिए पर्याप्त है। पहली ‘पेली आप री रोटी हेठे खीरा देणां…’ और दूसरी ‘सगळा बैठ’र सूवै’।
अगर गौर से देखा जाए तो कांग्रेस आलाकमान को यह पता चल गया था कि अगर अशोक गहलोत को फ्री-हैंड छोड़ दिया गया तो वे तानाशाह बन जाएंगे। कालांतर में जब उन्होंने अध्यक्ष पद के लिए इंकार किया तो यह बात साबित भी हो गई कि कांग्रेस आलाकमान के लिए अशोक गहलोत के मन में कितना सम्मान है, ऐसे में क्या यह माना जा सकता है कि आलाकमान को चार साल पहले ही यह पता नहीं चल गया होगा। याद करें, सचिन पायलट को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के ठीक बाद से अशोक गहलोत जो निष्क्रिय हुए वो वापस ‘म्हें थांसू दूर नहीं’ के जुमले के साथ ही लौटे। सत्ता में वापसी की संभावना को अगर अशोक गहलोत समझ सकते हैं तो आलाकमान या दिल्ली में बैठे दूसरे कांग्रेसजनों को भी तो यह समझ में आ सकता है। खासतौर से तब, जब सचिन पायलट जैसा एक राजनीतिक पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति दूसरे छोर पर खड़ा हो। सचिन पायलट मुख्यमंत्री नहीं बन पाए। उपमुख्यमंत्री का पद भी जाता रहा, लेकिन यह धैर्य कहां से आया। सचिन पायलट तो पांच साल पहले तक सबसे अधीर राजनेता माने जाते थे। इसी कमजोरी का तो लाभ अशोक गहलोत ने उठाना चाहा, लेकिन अचानक से ऐसी कौनसी करामाती अंगूठी सचिन पायलट ने पहन ली कि वे विनम्रता, त्याग और संघर्ष की जीती-जागती मिसाल बन गए।
निश्चित रूप से यह आलाकमान की रणनीति का ही हिस्सा रहा होगा कि राहुल गांधी सचिन की तारीफ करे और सोनिया गांधी अशोक गहलोत की मानती रहे। क्योंकि यह तय था कि अशोक गहलोत को खुशी-खुशी राजस्थान से विदा करवाने के अलावा कोई दूसरा रास्त नहीं है राजस्थान में कांग्रेस को बचाए रखने का। सचिन जानते थे कि उन्होंने जितने साल राजनीति में नहीं लगाए हैं, उससे भी अधिक समय राजनीति में रहना है। देश की सबसे बड़ी पार्टी का इतना सौम्य चेहरा साबित होना वह भी अशोक गहलोत की कीमत पर, कोई बुरा सौदा नहीं था। दूसरी ओर अशोक गहलोत इस बात के लिए खुश रहे कि येन-केन प्रकारेण वे सत्ता में रहे, लेकिन अल्टीमेटली फायदा तो कांग्रेस को हुआ।
जरा सोचें, भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी जिस रूतबे और मिजाज के साथ राजस्थान में प्रवेश कर रहे हैं, उनमें इनका क्या है। है तो अशोक गहलोत और सचिन पायलट का। अगर ये दोनों एक हो जाएं और कॉमन-मिनीमम प्रोग्राम के तहत एक हो जाएं, जो राजनीति में गलत भी नहीं है तो क्या होगा। लेकिन इन्हें एक नहीं होने देना और अंततोगत्वा जयराम रमेश का यह बयान सामने आना कि दोनों में मतभेद है, इस बात को पुख्ता करता है कि कांग्रेस की शीर्ष राजनीति के अशोक गहलोत और सचिन पायलट शिकार हुए हैं। राजनीतिक पार्टियां जिस तरह व्यक्तियों का उपयोग अपने हित में करती है, दोनों का किया और नीतिगत रूप से किया।
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