• मनोज रतन व्यास

“मनुष्य को उस भाषा में लिखना चाहिए जिसे झाड़ू की तरह इस्तेमाल करके वह अवचेतन में जमा कचरे को बाहर कर सके”…कुछ ऐसी ही दीवानगी थी उस शख्स की जिसने लगातार 26 सालों तक रोजाना अपनी कलम से हिंदी भाषा और फिल्मी पत्रकारिता को एक विशिष्ट पहचान दिलाई। उस कलम के कारीगर को मानो ईश्वर का संदेश साँसे थमने से पहले ही सम्प्रेषित हो गया था तभी तो उसने अपने नियमित कॉलम “परदे के पीछे” की अंतिम क़िस्त में लिखा था कि “यह विदा है, अलविदा नहीं, कभी विचार की बिजली कौंधी तो फिर रूबरू हो सकता हूं, लेकिन सम्भावनाएं शून्य है”।

उस फिल्म समीक्षक को क्या पता वो जाने कितनी सम्भावनाएं अपने लेखों के माध्यम युवान लेखकों के लिए जगा गया। वो फिल्मों के लिए इतनी गम्भीरता से न लिखते तो फ़िल्म पत्रकारिता मसाला खबरों और पेज थ्री स्टोरीज से आगे कभी जा ही नहीं पाती। उन्हें जीवनपर्यंत शायद ये इल्म ही नही हुआ होगा कि उनके कॉलम का कितना गहरा इम्पेक्ट सागर किनारे के मुम्बई से हजारों मीलो दूर रेगिस्तानी धोरों के शहर बीकानेर के युवाओं के अंर्तमन पर भी हुआ है। रोजमर्रा की आपाधापी के बीच उनका कॉलम पढ़ना एक संवैधानिक ड्यूटी से कम कभी नहीं था।

उनका जाना फिल्मी पत्रकारिता के लिए बड़ा वैक्यूम है, जिसे भरना लगभग नामुमकिन सा है। उनके लेखों को बारम्बार पढ़कर लगा कि मनोरंजन के लिए भी लिखकर आप अपना मकाम बना सकते है। जिस प्रकार से 50-60 के दशक में संभ्रात वर्ग के लोग फिल्मी दुनिया मे करियर बनाने से हिचकते थे,ठीक वैसा ही फिल्मी लेखक को वो मान-सम्मान नहीं मिलता था जो किसी पॉलिटिकल या दूजे फील्ड के स्तम्भकार को मिलता था। वो दूजे फिल्मी पत्रकारों से बहुत मुख्तलिफ थे,उनकी यूएसपी उनके फ़िल्म विधा के हर आस्पेक्ट पर समान पकड़ के साथ सामाजिक सरोकारों से जुड़ा उनका एकल मन भी था।

उनके रेगुलर स्तम्भ ने अनेक बार ये समझाया कि भले शब्द फिल्मी वर्ल्ड के लिए गढ़े जा रहे हो लेकिन शब्द सामर्थ्य और भाषा सौंन्दर्य कभी भी दोयम दर्जे का न हो। उनके लेखों ने सिनेमाई संसार की छवि को सदा चमकाने का ही काम किया, कभी भी उनकी लेखनी ने फिल्मी दुनिया की इमेज को धूमिल करने का काज नहीं किया। जीवन के नौवें दशक में भी वे सतत लिख रहे थे मानो उनका अनवरत सृजन उनकी कीर्ति के साथ उनके जीवन के सालों को भी बढ़ा रहा था। “शरीर का धर्म है रोग…शायद इसी विचार को आत्मसात करके उन्होंने कैंसर जैसे रोग को अपनी विचार प्रक्रिया पर कभी हावी नही होने दिया।

उनके कॉलम की सबसे बड़ी विशेषता थी कि वे फिल्मी कॉलम में गाहे बगाहे सियासत,खेल,बिजनेस पर समसामयिक टिप्पणी करके निकल जाते थे और उसका प्रभाव भी बहुत व्यापक पड़ता था। उन्होंने अपने आर्टिकल से समझाया कि लेखन से पूर्व विषय की समझ,गहन शोध और शब्दकोश की त्रिवेणी आप में समाहित होनी चाहिए,अन्यथा कोई बड़ा समाचार समूह उनसे गरज करके करीब तीन दशकों तक अनवरत नही लिखवाता।

कल वरिष्ठ पत्रकार, स्तम्भकार और पटकथा लेखक श्री जयप्रकाश चौकसे का चौथा है, आपको बीकाणा की धरा से मेरे जैसे अनेक कलाप्रेमियों की ओर से सादर श्रद्धांजलि, लेकिन आपके चौथे से पूर्व जो पोथे आप छोड़ गए हो वे हमारे लिए किसी केस स्टडी से कम नहीं है। आपके लेखन ने हमारी चेतनाओं को जागृत किया। आपके कॉलम से जाना कि फ़िल्म निर्माण भी किसी दूजे काम से कमतर नही बल्कि कई पैमानों में बढ़कर ही है। आपके कॉलम से मन को अटल विश्वास हुआ कि क्रिएटिविटी ईश्वर की आमद है, अगर आपके पास है तो आप बलेस्ड है। आप के जाने के बाद भी आपका शब्द संसार हमें सदा प्रेरित करता रहेगा…आभार आदरजोग चौकसे जी,जीवन में इतने विचारों के नवाचार भरने के लिए..