हस्तक्षेप

– हरीश बी. शर्मा
देश के प्रधानमंत्री के रूप में तीसरा कार्यकाल शुरू कर चुके नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में हालांकि नये की गुंजाइश बहुत कम है, लेकिन यहां बदलाव नहीं मिलने को लेकर भले ही दबे स्वर में ही सही, इस बात पर चर्चा शुरू हो गई है कि इस तरह आखिर कब तक सरकार चलाई जा सकेगी। भले ही नरेंद्र मोदी चुनाव से पहले वाला आत्मविश्वास अपने भाषण में नहीं जुटा पाएं हों। चुनाव परिणामों के बाद जनता का सामना करते हुए मुस्कराने की असफल कोशिश भले ही की हो, लेकिन वे प्रचंड बहुमत की आस में मिली जो निराशा झलक रही थी, उसका असर उन्होंने मंत्रिमंडल के गठन में दिखाई नहीं देने दिया है।

न सिर्फ सहयोगी दल और विपक्ष बल्कि मीडिया पर इस मंत्रिमंडल के गठन के बाद से हतप्रभ है कि आखिर नरेंद्र मोदी इस कार्यकाल को लेकर क्या सोचे हुए है। इस तरह के तमाम कयासों के बाद कि नरेंद्र मोदी के लिए अमित शाह ने राजग में शामिल नहीं होने वाले सांसदों (जिसमें कुछ निर्दलीय भी है) को मना लिया है, यह भी कहा जाने लगा है कि मोदी-शाह के पास एक बैकअप प्लान है। देश की जनता से संपूर्ण जनादेश नहीं मिलने के बाद नरेंद्र मोदी के लिए यह विचार करना बहुत अधिक जरूरी हो गया है कि वे प्लान-वन की तुलना में प्लान-बी को अधिक मजबूत बनाकर रखे।

‘दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंककर पीता है…Ó की तर्ज पर कोई बड़ी बात नहीं है अगर नरेंद्र मोदी राजग गठबंधन को संभाले रखने से अधिक ध्यान उन दूसरे सांसदों या राजनीतिक पार्टियों को दे, जो उनके साथ आने के लिए लालायित हैं। इस प्रक्रिया में न सिर्फ विपक्ष टूटेगा बल्कि राजग में भी एक डर बैठा रहेगा। खासतौर से नितीश कुमार और चंद्रबाबू नायड़ू को लेकर जिस तरह से देश आशंकित है, वे भी हावी होने की कोशिश नहीं करेंगे।
इस मंत्रिमंडल के गठन से यही संदेश देने की कोशिश की गई है नरेंद्र मोदी-अमित शाह पर कोई भी हावी नहीं है, वे अपनी मर्जी का कर रहे हैं और करते रहेंगे। इस प्रक्रिया में इस रिस्क को भी देखना होगा कि भाजपा और संघ की भूमिका क्या होती है। क्योंकि भाजपा के कुछ नेताओं को नाराज करने की पूरी गुंजाइश इस मंत्रिमंडल के गठन के बाद मोदी-शाह ने छोड़ी है। जिस तरह के चुनाव परिणाम आए थे, यह भी लग रहा था कि जिन नेताओं को मार्गदर्शन मंडल में शामिल किया गया या किनारे लगाया गया था, उनके प्रति मोदी-शाह का रुख नरम होगा, लेकिन ऐसा भी कुछ हुआ नहीं है।

कुल मिलाकर भले ही भाजपा को बहुमत नहीं मिला हो, लेकिन भाजपा बनाम नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने सरकार को वैसे ही चलाने का निर्णय किया है, जैसे अब तक चल रही थी। जाहिर है, अगर यह फैसला किया है तो सोच-समझकर किया होगा, क्योंकि चार जून के बाद बने विश्लेषण, कयास और आशंकाओं के बाद अगर वही सब रीपीट होता है तो इसका एक ही संदेश जाता है कि मोदी-शाह इन चुनाव परिणामों से भौंचक्के जरूर हैं, लेकिन निराश या हताश नहीं बल्कि बहुत अधिक स्पष्ट शब्दों कहा जाए तो दोनों ही अधिक आक्रामक हो चुके हैं। राजनीति में इस तरह के रास्ते कम अपनाए जाते हैं। अगर इस रास्ते पर चलते हुए मोदी-शाह ने पांच साल चला लिए तो अपने आप में यह भी मिसाल बनेगी।

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