हस्तक्षेप

– हरीश बी. शर्मा
आज विश्व रंगमंच दिवस है और इस रूप में हमें याद करना चाहिए कि कभी बीकानेर को उत्तर भारत की नाट्य राजधानी कहा गया था। इसकी वजह यह थी कि बीकानेर की रंग-गतिविधियां उन दिनों समूचे उत्तर भारत में परवान चढ़ी हुई थी। गतिविधियां फिर भी जारी रही। आज भी बीकानेर को रंगकर्म की वजह से ही पहचाना जाता है, लेकिन दुखद पहलु यह है कि बीकानेर प्रशासन रंगकर्मियों में प्रति जाने क्यों उपेक्षा का भाव रखे हुए है।

पहले रवींद्र रंगमंच की लंबी लड़ाई लड़ी और अब इस रंगमंच का किराया इतना ज्यादा कर दिया गया है कि एक सामान्य रंगकर्मी या नाट्य संस्था का इस रंगमंच पर नाटक करने का सोचना ही बेमानी है। रंगकर्मियों के लिए बनाए गए इस रंगमंच पर नित-नये सेमिनार होते हैं, कार्पोरेट कंपनियों की मीटिंग्स होती है, सांस्कृतिक कार्यक्रम भी हो जाते हैं, लेकिन नाटक देखने का तब ही मिलता है, जब बीकानेर थिएटर फेस्टिवल होता है।

रवींद्र रंगमंच रंगकर्मियों को मिलता नहीं है और टाउन हॉल के बाहरी स्वरूप को इतना खराब कर दिया गया है, जैसे रंगकर्मियों का कोई धणीधोरी ही नहीं। पहले इसके सामने मसाला चौक बना दिया गया, जहां चलने वाला डीजे नाटकों को प्रभावित करता। हालांकि, बाद में मसाला चौक तो नहीं चला, लेकिन फिजूल ही टाउन हॉल का स्वरूप बिगाड़ दिया गया। इसके नियम भी इतने असंगत हैं कि रंगकर्मियों को परेशानी ही हो।

ऐसा नहीं है कि अधिकारी नहीं जानते कि बीकानेर का रंगकर्म प्रोफेशनल नहीं है। यहां नाटक करने वाले अपने खर्चे पर शो करते हैं। टिकट खरीद कर नाटक देखने का यहां प्रचलन ही नहीं है। टिकट नहीं रखने पर भी जहां गिनती के दर्शक आते हैं, वहां टिकट रखने पर क्या हालाता होंगे, सोचा जा सकता है। ऐसे में जिला प्रशासन को चाहिए कि रंगकर्मियों के प्रति सहानुभूति का भाव रखते हुए नियमों को शिथिल करे। ताकि बीकानेर की उत्तर भारत की नाट्य राजधानी के रूप में पहचान बरकरार रखी जा सके।

हालांकि, इस बात में कोई शक नहीं है कि बीकानेर के रंगकर्मी बीकानेर की इस पहचान को बनाए रखने में अपनी कोशिश कर रहे हैं। बीकानेर थिएटर फेस्टिवल, रंग-आनंद नाट्य समारोह, अमर कला महोत्सव आदि ऐसे आयोजन हैं, जिसकी वजह से बीकानेर में हलचल रहती है। इन कार्यक्रमों की वजह से बीकानेर का नाम भी चर्चा में रहता है, लेकिन कितना अच्छा हो अगर बीकानेर के रंग-कर्मियों को उनके बजट और अनुकूलता के अनुसार टाउन हॉल मिल सके।

एक ऐसा समय जब बीकानेर में लोगों ने निजी प्रयासों में थिएटर बनाए हैं, जिला प्रशासन को सोचना चाहिए कि वह क्या कर सकता है। प्रशासन को चाहिए कि रंगकर्मियों के साथ बैठकर विचार करे कि शहर की सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा को कायम रखने के लिए क्या करना चाहिए। विश्व रंगमंच दिवस पर जिला प्रशासन को चाहिए कि खुले मन से सभी रंगकर्मियों के साथ मिलें और बात करें। रंगकर्मी अपने जन-सरोकार को समझने वाले हैं, लेकिन उनकी भावनाओं को भी तो किसी को समझना चाहिए। अगर प्रशासन सकारात्मक सोचना शुरू कर दे तो रंगकर्मियों को कई समस्याओं का समाधान हो सकता है, लेकिन सवाल यह है कि यह पहल करे कौन।

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