बजट देखकर दुकानों पर सस्ती हुई चीजों को खरीदने मत चले जाना


हस्तक्षेप/- हरीश बी. शर्मा
बजट पूरी तरह से एक रवायत है, जिसे जैसे-तैसे निभा दिया जाता है। त्यौंहारों और शादियों में होने वाले ऐसे रीति-रिवाजों से इसे समझा जाता है, जिसकी वजह नहीं पता होने पर भी होते हैं। उस पर तुर्रा यह कि सभी इसका आनंद लेते हैं। बजट भी ऐसा ही है। यह वैसा ही है, जैसे हम हर बार अपने घर को हिसाब से चलाना चाहते हैं और अचानक से कुछ ऐसे खर्चे आ जाते हैं कि सब गड़बड़ा जाता है, या कुछ खर्चे हमें पता ही नहीं होते और वे सामने आते ही बजट की बैंड बज जाती है। सरकार के बजट में भी ऐसा ही होना है। ऐसा ही होता रहा है। यह बहस का विषय है कि सरकार के मंत्रियों को भी इसकी कितनी समझ होती है, लेकिन यह तो साफ है कि आम जनता भी इस आनंदोत्सव में ऐसी रम जाती है कि उसे इस बात का फर्क ही नहीं पड़ता कि उसे यह सब समझ में आ रहा है या नहीं।
पिछले साल सोशल मीडिया पर बजट को समझने का एक फार्मूला वायरल हुआ था कि अगर आपको बजट की अच्छाइयां समझनी है तो सुधीर चौधरी को सुन लो, बुराइयां जाननी है तो रवीश कुमार को देख लो। दोनों ही उन दिनों सेलिब्रिटी-जर्नलिस्ट थे, लेकिन इस बार तो इससे भी शानदार एक मैसेज वायरल हुआ कि देश में सात करोड़ टैक्सपेयर्स हैं, लेकिन बजट पर 27 करोड़ लोग कमेंट करते हैं। है ना कमाल की बात?
यह मानते हुए भी कि हम बजट के बारे में कुछ भी नहीं जानते, बिना सोचे-समझे कूद पड़ते हैं तो इसकी वजह भी जाननी जरूरी है। क्योंकि भले ही बजट को लेकर हम बड़ी-बड़ी सारिणी देख लें कि यह सस्ता और यह हमारी पहुंच में, असली पता तो दुकान पर जाने से ही चलेगा कि क्या और कितना सस्ता हुआ। वैसे, यह भी बताना जरूरी है कि बजट में दाम घटने की खबरों को देखकर अगर आप दुकानों पर सामान लेने चले गए तो मुंह की खानी पड़ सकती है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे अखबारों में रोज छपने वाले मंडी के भाव पढ़कर अगर कोई फड़बाजार में जाए और अखबार दिखाते हुए छपे भावों के अनुसार भुगतान करे तो दुकानदार कह सकता है, फिर यह तेल का पीपा भी अखबार वाले से ही खरीद लो। ऐसा हुआ है। कई बार हुआ है। दरअसल, बजट बनाते समय में सरकार सिर्फ यह जताने की कोशिश करती है कि उसने लोक-लुभावनी बातें कितनी की। हजारों बातें छिपा कर सौ बातों को हाइलाइट किया जाता है।
यह कारीगरी सिर्फ राजनीति के लिए होती है। ताकि सत्ता में बैठे लोग अपने लोक-कल्याणकारी स्वरूप को दिखा सके। इससे अधिक बजट का कोई बड़ा जनसरोकार दिखता भी नहीं है, लेकिन जिस तरह से इसे लेकर हंगामा मचाया जाता है। तैयारियां होती हैं। प्रचार किया जाता है, ऐसा लगता है कि देश-हित का कोई बड़ा काम हो रहा है। जबकि इसमें अगर कहीं देशहित होता भी है तो विपक्ष उसे तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। विपक्ष का मतलब यहां निखालिस विपक्ष है, वह चाहे कांग्रेस में हो चाहे भाजपा के रूप में। उसे बजट का विरोध ही करना है। आप देखना, अभी केंद्र का बजट आया है। आश्चर्यजनक रूप से अशोक गहलोत और सचिन पायलट ही नहीं वसुंधराराजे और गजेंद्रसिंह भी एक ही भाषा बोलते नजर आ रहे हैं। एक सप्ताह में राजस्थान का बजट आएगा, लगेगा जैसे केंद्र के बजट पर अशोक गहलोत की प्रतिक्रिया थी, वह वसुंधराराजे की हो गई है।
ऐसा नहीं है कि इस राजनीतिक एकीकरण को जनता नहीं समझती है, लेकिन जनता को पता है कि वह कुछ कर नहीं सकती तो देखने का आनंद ले। जनता की नियति देखने का आनंद लेना ही है।
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