हस्तक्षेप

– हरीश बी. शर्मा

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की सरकारी मीडिया नीति इन दिनों विधानसभा में छाई है। मुख्यमंत्री के एक बयान पर प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने भी संज्ञान लिया है। हालांकि, सरकार ने इस बयान और कार्यवाही को कोई तवज्जो नहीं दी है, लेकिन विधानसभा में यह मुद्दा छाया रहा है। खासतौर से ऐसा समय जब केंद्र सरकार पर यह आरोप लग रहे हैं कि उसने मीडिया को अपना गुलाम बना लिया है। मोदी मीडिया नहीं कहकर गोदी मीडिया कहते हुए बड़े-बड़े मीडिया घरानों पर पक्षपात करने और खबरों को दबाने के आरोप लग रहे हैं, ऐसे में राजस्थान विधानसभा में उपनेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ इस मुद्दे पर भी खूब चटखारे ले रहे हैं। लगता है, जैसे इस बार विधानसभा सत्र के मैन ऑफ द सीरीज राजेंद्र राठौड़ ही रहने हैं।
पहले उन्होंने विधायकों के इस्तीफा प्रकरण को अदालत की सीढिय़ां चढ़ा दिया, जिस पर संयम लोढ़ा विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाए हैं। इस पर बात खत्म ही नहीं हुई थी कि प्रदेश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न उठाते हुए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को ही इस मामले में दोषी करार दे दिया। राजेंद्र राठौड़ ने इस मुद्दे को न सिर्फ चुटीले अंदाज में उठाया बल्कि तथ्य रखते हुए यह भी बताया कि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष रंजना देसाई ने इस विषय पर क्या कहा है।  
रंजना देसाई का बयान, ‘जो मुख्यमंत्री यह कहता है कि आज मीडिया पर दबाव बनाया जा रहा है, उसका स्वयं मीडिया के प्रति क्या रवैया है।Ó सुनाते हुए कई सवाल खड़े किए। इससे पहले अशोक गहलोत की छवि मीडिया-फ्रेंडली की रही है। कई बार तो यह भी कहा गया कि अशोक गहलोत मीडिया-प्रचारित नेता हैं। पत्रकारों के साथ उनके दोस्ताना संबंध जग-जाहिर भी थे, क्योंकि वे प्रेस-कांफ्रेंस से पहले भी पत्रकारों के साथ अनौपचारिक होते और बात ही बात में कुछ ऐसे सूत्र दे देते थे, जिनसे ‘खबरेंÓ निकलती थीं, लेकिन पिछले चार साल में मीडिया से अशोक गहलोत को वो सहयोग नहीं मिला, जो लगातार मिलता रहा। बल्कि मीडिया ही था, जिसने सचिन पायलट को अशोक गहलोत के बराबर खड़ा करने में निर्णायक भूमिका अदा की।
कुछ मीडिया-घरानों ने तो यह भी साबित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी कि सत्ता के असली अधिकारी तो सचिन पायलट ही हैं, इससे अशोक गहलोत के प्रयासों को न सिर्फ धक्का लगा बल्कि उनकी सादगी भरी छवि भी प्रभावित हुई। सत्ता पाने के लिए किए जाने वाले प्रयासों की रिपोर्टिंग के चलते मीडिया से उनकी शिकायतें बढ़ीं और एक बार तो साफ तौर पर उन्होंने कह दिया कि हमारी खबर छापो, सरकारी नीतियों के बारे में पुरजोर से और पूरी निष्ठा के साथ प्रसारण करो तभी एड मिलेंगे।
इस बात ऐसी थी कि दूर तक निकली। इसके बाद से राजस्थान के मीडिया में इसका असर देखने को मिला। मीडिया पर सरकारी निगरानी शुरू हुई। विज्ञापनों के बंटवारे में रोस्टर का आधार जाता रहा। आर्थिक मार बहुत बड़ी होती है। बहुत सारे मीडिया ने तो तय ही कर लिया कि बतौर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का विरोध नहीं करना है। इस बीच जब उपनेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ ने यह मुद्दा विधानसभा में उठाया है तो कुछ ही सही, लेकिन मीडिया-घरानों ने इसका समाचार बनाया है। हालांकि, आम आदमी को यह समझ में आता है कि जिसकी खाएं बाजरी, उसकी भरे हाजरी। कल सरकार बदल जाएगी तो बाजरी भी किसी और की हो जाएगी।  

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