हस्तक्षेप

– हरीश बी. शर्मा
नए संसद भवन सेंट्रल-विस्टा के उद्घाटन का मसले पर आखिरकार विपक्ष को एक बड़ी सफलता मिल गई है। इसका श्रेय आम आदमी पार्टी और कांग्रेस को जाना चाहिए कि संसद भवन के उद्घाटन को लेकर एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया है, जिसे प्रथम दृष्टया एक सामान्य भारतीय नागरिक भी सही मानता है। अरविंद केजरीवाला, राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे के बयान आम जन-मानस के मन में यह बात बिठाने में कामयाब रहे कि उद्घाटन तो राष्ट्रपति करे तो ही बेहतर। हालात ऐसे बन गए कि देश में यह चर्चा शुरू हो गई। भाजपा के सोशल मीडिया ने इस पर काउंटर करते हुए हालांकि ऐसे कईं उदाहरण प्रस्तुत किए, जिसमें कांग्रेस ने भी ऐसा ही किया। छत्तीसगढ़ के नए विधानसभा भवन का भूमि पूजन सोनिया गांधी और राहुल गांधी द्वारा किया जाने संबंधी सवाल को भाजपा आइटी सेल के अमित मालवीय ने उठाया है और शिलापट्ट भी शेयर किया है, जो कल से सोशल मीडिया पर चल रहा है।
यही नहीं एक विडियो भी ‘देखो इंडियाÓ नाम से जारी हुआ, जिसमें इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में संसद एनेक्सी का उद्घाटन करने का तथ्य सामने रखा गया है। 1987 में संसद की लायब्रेरी का राजीव गांधी द्वारा मुहूर्त। 2009 में आंध्रा-वर्ली सी-लिंक का सोनिया गांधी द्वारा किसी भी पद पर नहीं रहने के बावजूद उद्घाटन करने का तथ्य भी इस वीडियो में रखा गया है। 28 जून 2010 में अटल टनल का मुहूर्त भी सोनिया गांधी द्वारा किए जाने के फोटो ग्राफ्स भी इसमें शामिल किए गए हैं। इस तरह के कई प्रमाणों के साथ बने इस वीडियो में यह सवाल उठाया गया है कि नरेंद्र मोदी द्वारा उद्घाटन किए जाने को गलत ठहरना बेतुका है। भाजपा ने इस तरह के भी प्रमाण जुटाए हैं, जिसमें कांग्रेस ने कई बार दूसरों को नजर अंदाज किया है, लेकिन विपक्ष के प्रहार जारी हैं। यहां तक कि 19 राजनीतिक दलों ने नई संसद भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने की ठान ली है।
यह मुद्दा इतना अधिक गर्मा चुका है कि एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में विचारार्थ स्वीकार कर ली गई है। आज यानी शुक्रवार को इस याचिका पर सुनवाई होनी है। सुप्रीम कोर्ट की वकील जया सुकिन ने यह जनहित याचिका दायर की है। ऐसे में यह एक राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका है। प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी इस भवन का उद्घाटन करे या विपक्ष की मांग के अनुरूप राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू करे, इसका सीधा फायदा विपक्ष को नहीं मिलना है, लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि यह बात सरकार और भाजपा पर भारी पड़ी है।
हमारे देश में राष्ट्रपति पद संवैधानिक होता है जबकि प्रधानमंत्री अपने पद पर होते हुए भी पार्टी की वकालत कर सकता है। भले ही राष्ट्रपति के रूप में द्रोपदी मुर्मृ को चुने जाने में केंद्र की भाजपा सरकार की बड़ी भूमिका रही हो, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज वे देश की पहली नागरिक के रूप में सम्मानित हैं। फिर भी भाजपा यह नहीं चाहेगी कि एक इतिहास उनके प्रधानमंत्री के नाम से लिखे जाने का अवसर हाथ से जाए और इसीलिए सुप्रीम कोर्ट में भी अपनी तरफ से तर्क प्रस्तुत करेगी। सुप्रीम कोर्ट का कोई भी निर्णय हो लेकिन विपक्ष को अर्से बाद एक राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में सफलता मिली है, इससे कोई इंकार नहीं है।

‘लॉयन एक्सप्रेसÓ के संपादक हरीश बी.शर्मा के नियमित कॉलम ‘हस्तक्षेपÓ के संबंध में आपके सुझाव आमंत्रित हैं। आप 9672912603 नंबर पर वाट्स अप कर सकते हैं।