लॉयन न्यूज,बीकानेर । गणगौर पर्व को आमतौर पर महिलाओंं का पर्व माना जाता है। घुलंडी के दिन से मनाये जाने वाले इस 15 दिवसीय पर्व में मां गवरजा का धूमधाम से पूजन किया जाता है साथ ही सायं काल गणगौर के गीतों की गूंज भी सुनाई देती है। किन्तु कभी आपने ये सुना है कि गणगौर के गीतों को महिलाओं के अलावा बीकानेर में पुरूष भी गाते है। नहीं ना,पर ऐसा होता है। शहर के अन्दुरूनी क्षेत्रों में महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों को भी गणगौर के गीत गाते हुए देखे जा सकते है। शहर के पाटों पर एकत्रित पुरूष ऐसे गीतों का गायन लय व ताल के साथ करते है। पुरूषों द्वारा गणगौर गीतों के गायन के पीछे भी किवदंती है।

इसलिए गाते है पुरुष गणगौर के गीत
पाटा संस्कृति से जुड़े लोगों का कहना है कि जब गणगौर अपने पीहर में होती है तो परिजन और पड़ौसी गणगौर को खुश करने के लिए गीत गाते हैं और माता से कामना से कामना करते है कि वे देश, शहर परिवार और कुल की समृद्धि कर उसकी रक्षा करे। पुरुषों द्वारा भी इन गीतों में मां गवरजा (गणगौर) से यही कामना की जाती है। इस दौरान वीर रस के गीत भी गाए जाते हैं। ईशर द्वारा यह दशार्या जाता है कि वह गणगौर के लिए योग्य वर है और वह गणगौर को प्राप्त करने की कामना रखता है। गीतों में गणगौर, ईशर को ताने मारती है और कहती है कि अगर तूने मेरी तरफ देखा तो तुझे मेरी बहन दातुन में, मेरा भाई खाने में जहर दे देंगे लेकिन ईशर नहीं मानते और आखिर वह अपनी गणगौर को अपने साथ लेकर ही जाते है।

पाटों पर गाये गणगौर के गीत जाते है
साहित्यकार श्रीलाल मोहता के अनुसार भक्ति, श्रृंगार व वीर रस के गणगौर गीत चौक में पाटों पर पुरुषों द्वारा गाए जाते हैं और आखिरी दिन पूरे चौक में गणगौर के प्रसाद स्वरुप राबडिय़े का भोग लगाया जाता है और पूरे चौक में बांटा जाता है,और भक्ति भाव से गणगौर को विदाई दी जाती है।

हर साल गणगौर निकलती है शाही सवारी
साहित्यकार श्रीलाल मोहता के अनुसार पूर्व राजपरिवारों की गणगौर की सवारी को आज भी दूर दराज से लोग और देशी विदेशी पर्यटक देखने आते है। उन्होंने बताया कि जोधपुर पूर्व राजघराने की गणगौर को बीकानेर राजघराने के लोग जीतकर लाए थे इसी के लिए प्रति वर्ष राजपरिवार के द्वारा गणगौर की शाही सवारी निकाली जाती है जो जूनागढ़ किले से रवाना होकर चौतीनां कुंआ तक आती है और यहां खोल भराई होती है।

चौतीना कुएं पर लगता है मेला
मोहता के अनुसार चौतिना कुएं पर गणगौर के पहुंचने पर पानी पिलाएं जाने की रस्म होती है। इसी स्थान पर मेला भरता है, जिसमें मेलार्थी झूलों एवं अन्य मनोरंजन का आनंद उठाते है। रियासतकालीन समय से ही बीकानेर के व्यवसाई चांदमल डढ्ढा के परिवार द्वारा गणगौर की सवारी निकालने की परंपरा आज भी जारी है। होली के दूसरे दिन से लड़कियां अच्छे वर के लिए और महिलाएं जिनमें नव विवाहिताएं विशेष रूप से शामिल होती हैं गणगौर की पूजा करती हैं और अपने सुहाग व परिवार की खुशहाली की कामना करती है।

राजस्थान की संस्कृति में रचा बसा गणगौर पर्व
गणगौर का यह त्यौहार राजस्थान की संस्कृति में रचा बसा है। गणगौर के इन गीतों में पुरुष जहां पार्वती स्वरुप मां गणगौर की पूजा अर्चना करते हैं वहीं गणगौर के श्रृंगार का भी वर्णन किया जाता है। बीकानेर के ही साहित्यकार माल चंद तिवाडी के अनुसार पाटा संस्कृति के लिए विख्यात बीकानेर में गणगौर की पूजा शुरू होने के साथ ही पाटों पर जब पुरुष गणगौर के गीत गाते हैं तो इन गीतों को सुनने के लिए आस पास से निकलने वालों के कदम बरबस ही ठहर जाते हैं। किदवंती है कि गणगौर अपने पीहर आती है और फिर पीछे पीछे ईशर (गणगौर का पति) उसे वापस लेने आता है और आखिर मे चैत्र शुक्ल द्वितीया व तृतीया को गणगौर को अपने ससुराल के लिए विदा किया जाता है।