राजे को पोस्टर में शामिल करना भाजपा की रणनीतिक चतुराई का हिस्सा


हस्तक्षेप
हरीश बी शर्मा
पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे एक बार फिर चर्चा में हैं। वजह, पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के ताबड़तोड़ हमलों में राजे का नाम भी आना है तो दूसरी ओर भाजपा में उनकी स्थित को लेकर बना हुआ संशय भी है। राजनीतिक गलियारों में तो यहां तक चर्चा है कि कहीं राजे को चुनावी फिजा से ही बाहर रखे जाने की रणनीति तो नहीं बन रही है।
जिस तरह राजे को आनन फानन भाजपा मुख्यालय के बाहर लगे पोस्टर में जगह मिली है, यह तय हो गया है कि वे भाजपा के निर्णायक मंडल में तो रहेंगी, लेकिन उनके संबंध में निर्णय सुरक्षित रहेगा। मतलब साफ है कि आगामी विधान सभा चुनाव में राजे का दखल रहेगा, उन्हें सुना जायेगा लेकिन संभावना इस बात कि भी जताई जा रही है कि टिकटों का बंटवारा सिफारिश की बजाय सर्वे के आधार पर हो।
चर्चा है कि इस बार गुलाब चंद कटारिया को भी टिकट नहीं मिलेगा। सतीश पूनिया का कार्यकाल बढ़ने की संभावना के चलते उन्हें भी चुनाव लडने वालों की सूची में शामिल नहीं रखा जा सकता है। इन दोनों के फोटो के बीच में हाल ही में वसुंधरा राजे का फोटो लगाया गया है। कोई बड़ी बात नहीं है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अपेक्षाकृत युवाओं को आगे लाने की योजना के चलते राजे को भी टिकटार्थियों की दौड़ से बाहर रखा जाय।
दरअसल, भाजपा की नज़र अब 2029 पर है, उसे पता है कि 2023 और 24 का चुनाव तो नरेंद्र मोदी के नाम पर ही जीत लेंगे, लेकिन अगले पांच साल अगर नेतृत्व कमजोर रहा तो फिर जीत मुश्किल होगी। उस जीत को कायम रखने के लिए इसी चुनाव में युवा और ऊर्जावान लोगों को टिकट देने की योजना है,जो बेहतर प्रदर्शन कर सके।
इस कड़ी में राजस्थान से कुछ सांसदों को भी विधानसभा टिकट देने की योजना बनाई जा रही है ताकि लोकसभा टिकट के लिए नए चेहरों को आगे किया जा सके। कहा जा सकता है कि राजस्थान चुनाव को लेकर भाजपा न सिर्फ सुनियोजित है बल्कि जो तय है, उसके जस के तस क्रियान्वयन के लिए सख्त भी है।
राजे को पोस्टर में रखना भी इस रणनीति का हिस्सा है ताकि राजे के समर्थक बगावत जैसे शब्द भी नहीं सोच सके। बाकी जो पार्टी को करना है, वह तो होगा ही। यही वजह है कि पोस्टर में स्थान दे दिए जाने के बाद भी राजे के समर्थक अपनी खुशी जाहिर करने से बच रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि जैसा दिख रहा है, वैसा है नहीं। बात कुछ और ही है।
फिर, भाजपा में पिछले चार साल में इतने बदलाव हो गए हैं कि कार्यकर्ता किसी भी नेता के नाम का झंडा हाथ में उठाते हुए दस बार सोचता है और अंतिम निर्णय यही करता है कि खुद को बचाकर रखा जाय।
यही वजह है कि पांच साल पहले वसुंधरा ही भाजपा और भाजपा ही वसुंधरा जैसे बयान देने वाले राजेंद्र राठौड़ के सुर भी बदले हुए हैं। राजेंद्र राठौड़ तो एक उदाहरण है, बहुत सारे ऐसे लोग संगठन के प्रति निष्ठा जता चुके हैं। जाहिर है की ऊपर से नीचे तक एक ही संदेश है कि पार्टी का निर्णय सर्वोपरि होगा और अगर कोई चेहरा होगा तो वह नरेंद्र मोदी का होगा।
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