जिन घरों में आखाबीज पर खीचड़ा-आमली नहीं बनती, समझें उनकी जड़ें बीकानेर में नहीं


हस्तक्षेप/– हरीश बी. शर्मा
बीकानेर नगर स्थापना दिवस की इन दिनों शहर में धूम है। जांगळ प्रदेश को बीकानेर बनाकर एक विकसित आबादी देने का जो संकल्प राव बीका ने 538 साल पहले किया था, उसी बीका के प्रति कृतज्ञ शहर सदियों से अपने घरों में खीचड़ा-आमली बनाने की परंपरा को निभा रहा है। आजादी के बाद बीकानेर काफी बदला है। तेजी से बढ़ते हुए इस शहर में अनेक बदलाव हुए, लेकिन यहां के मूल निवासियों ने बीकानेर नगर स्थापना दिवस के दिन होने वाली इस विशेष घोषणा को आज भी स्वाभाविक रूप से मानते हैं। बीकानेर नगर स्थापना दिवस के साथ जो लोग यहां आकर बसे वे आज भी इस परंपरा को आनंदोत्सव के रूप में मनाते हैं। सप्ताह भर पहले ही घरों में खीचड़ा कूटा जाने लगता है।
आखाबीज के दिन नगर स्थापना की घोषणा के साथ ही यह कहा गया कि इस खुशी में हर घर में खीचड़ा-आमली बने। बड़ी की सब्जी वैसे भी बीकानेर में शगुन का प्रतीक है। दरअसल, उसवक्त बीकानेर में इसके अलावा कुछ था ही नहीं। जिस मोटे अनाज के पीछे आज देश-दुनिया पड़ी है, उसी की बहुतायत थी। कम पानी में उगने वाले बाजरे और मोठ की फसल हो जाती थी। मोठ का मोगर और मोगर की बड़ी। आज भी लोगों को यह आश्चर्य है कि बीकानेर का भुजिया स्वादिष्ट कैसे होता है और यहां के पानी में ऐसा क्या है जो ऐसा भुजिया दूसरी जगह नहीं बनता तो इसकी बड़ी वजह यह है कि यहां की फसल को प्राकृतिक रूप से ही सिंचाई का पानी मिलता रहा, जिसे बारानी की खेती कहा जाता है। यहां बहुत बाद में नहर आई। इससे पहले तो पानी एक मृगतृष्णा थी, पानी का मोल किसी बीकानेर से ज्यादा कौन समझ सकता है भला।
तो बाजरी का खीचड़ा बना। जिसे घी के साथ मथकर खाने से स्वाद निखरा। इमली और गुड़ से आमली बनी, जिसे बाद में स्वाद के लिए कालीमिर्च और ठंडा करने के लिए बरफ का उपयोग होने लगा, लेकिन यह तो पहले से ही अपनी तासीर में ही ठंडक देने वाला शरबत थी। नमकीन के लिए बड़ी की सब्जी बनी। जिस मोठ से बड़ी बनी, उसी से कालांतर में भुजिया बनने लगा और दुनिया में बीकानेर का नाम हो गया। इस बीच दुपटे फलके का भी प्रयोग हुआ। मने एक साथ एक दो रोटियों को सेंकना और उसी तरीके से थाली में परोसना। यही नहीं आखातीज की सुबह भी यही क्रम, जिसमें बाद में खीचड़ा बाजरे की बजाय गेहूं का बनाया जाने लगा और बदलाव के बीच चंदलिया, जो एक पत्तेदार शाक होता है, उसकी सब्जी बनाकर खाया जाने लगा, जिससे पाचन क्षमता दुरुस्त रहे।
बीकानेर नगर स्थापना दिवस के साथ ही शुरू हुई खीचड़ा बनाने की यह परंपरा महलों से लेकर चौक-पाटों तक एक सार मनाई जाती रही। जहां तक बीकानेर रियासत थी, वहां के घरों में आखाबीज और आखातीज को खीचड़ा खाने का रिवाज शुरू हुआ, जिसका किसी धर्म या जाति से संबंध नहीं था। नई मटकी में पानी भरना और फिर खीचड़ा जीमना। रियासतकालीन इस परंपरा का निर्वहन आज भी बदस्तूर कायम है।
बीकानेर बहुत तेजी से बढ़ा है। कदाचित बीकानेर स्थापना दिवस से जुड़ी इस रवायत का यहां आकर बसे लोगों को पता नहीं हों, उनके लिए खीचड़ा या आमली बनाना मुश्किल भी हो सकता है। क्योंकि खीचड़ा, आमली बनाने की रेसिपी बाजार में उपलब्ध नहीं है। खीचड़े को कूटने की एक श्रमसाध्य प्रक्रिया है और आमली बनाना सभी के लिए आसान नहीं है। हालांकि, अब बाजार में कूट हुआ खीचड़ा मिलने लगा है, लेकिन इतना कौन करे।
लेकिन जिन लोगों की जड़ें बीकानेर में हैं, वे इस दिन अनिवार्य रूप से अपने घरों में खीचड़ा बनाते हैं और राव बीका के प्रति कृतज्ञता अर्पित करते हैं कि उन्होंने एक शांत और खुशहाल शहर रहने के लिए दिया। क्रमश:
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