– हरीश बी. शर्मा

कांग्रेस में इन दिनों काया-कल्प की जो तैयारी चल रही है, उसमें पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की भूमिका को लेकर संशय बना हुआ है। राजस्थान में कांग्रेस की हार के बाद से निष्क्रिय अशोक गहलोत की निष्क्रियता का तथ्य भी जब सामने आ गया जब विधानसभा में विधायकों द्वारा उठाए गये सवालों की संख्या सामने आई। इन आंकड़ों से साफ नजर आ रहा है कि गहलोत को सवाल पूछने में कोई रुचि ही नहीं रही। उनकी बेरुखी का एक बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि पिछले दिनों एआइसीसी ने अशोक गहलोत को कोई काम भी नहीं सौंपा। हो सकता है कि गहलोत इस से खिन्न हों, लेकिन कांग्रेस  के नये स्वरूप में, जिसमें कांग्रेस खुद ही को मजबूत करने की नीति पर काम कर रही है, अशोक गहलोत की कोई भी भूमिका नहीं होना सामान्य बात नहीं मानी जा रही है।

पिछले कुछ महीनों से और खासतौर से लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस का एक बड़ा तबका इस बात को लेकर नेतृत्त्व पद दबाव बना रहा है कि सत्ता मिले या नहीं, लेकिन कांग्रेस को अब क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन नहीं करना चाहिए। इस तरह के गठबंधन से कांग्रेस के वोट ट्रांसफर हो जाते हैं, जिन्हें बाद में कांग्रेस संभाल नहीं पाती।

इसके बाद से देखा जा रहा है कि राहुल गांधी खासतौर से विधानसभा चुनावों में गठबंधन की नीति पर काम नहीं कर रहे हैं। दिल्ली के चुनाव में ऐसा करके आम आदमी पार्टी को सत्ता से बेदखल करने में निर्णायक भूमिका कांग्रेस ने ही निभाई और कोई बड़ी बात नहीं कि आने वाले विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस किसी के साथ गठबंधन नहीं करे या कि इंडिया ब्लॉक को मानें ही नहीं। हालांकि, साफ तौर पर ऐसा नहीं कहा गया है, लेकिन साल भर में बंगाल और बिहार के चुनावों में यह दिखने लगेगा, क्योंकि इंडिया ब्लॉक की मानें तो बंगाल में ममता बनर्जी और बिहार में लालू प्रसाद यादव की बड़ी चुनौती होगी। ऐसे में अगर कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ती है तो दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की राह आसान नहीं होगी, लेकिन लगता यही है कि अपना वोट प्रतिशत बढ़ाने के लिए कांग्रेस अकेले दम पर चुनाव लड़ेगी।

इस पूरे परिदृश्य में अशोक गहलोत का अलग-थलग पड़े रहना और खासतौर से राजस्थान की राजनीति में भी कुछ खास नहीं होना, सवाल खड़े करता है। जोड़-तोड़ की राजनीति में माहिर माने जाने वाले अशोक गहलोत की अकेले लडऩे से नाइत्तफाकी हो, ऐसी बात नहीं होनी चाहिए। फिर भी उन्हें न तो राष्ट्रीय स्तर पर किसी काम केे लायक समझा गया है न उनकी विशेषज्ञ सेवाएं ली जा रही हैं, जिससे यह संदेश जा रहा है कि उन्हें राष्ट्रीय नेतृत्त्व ने किनारे कर दिया है।

पार्टी की पराजय के बाद अशोक गहलोत के साथ रहने वाले नेता भी अब ताकत में नहीं रहे हैं। विधानसभा में कांग्रेस के जो दो चेहरे उभरे हैं, उनमें से गोविंद डोटासरा खिन्न हैं। टीकाराम जूली जरूर जमकर लोहा ले रहे हैं और यह भी सही है कि भाजपा बहुमत में होने के कारण अभी कोई समस्या भी नहीं है, विपक्ष कर भी क्या सकता है। लेकिन अशोक गहलोत बहुत कुछ कर सकते हैं और अगर उनकी सेवाओं का लाभ लिया जाए तो पुनर्जीवित होने के लिए तड़प रही कांग्रेस को फिर से मुख्यधारा में ला सकते हैं, जैसी कभी कांग्रेस पार्टी थी, लेकिन हालात ऐसे बन गये