• शशांक शेखर जोशी

दवा कम्पनियों के साथ बातचीत में रुकावट आने के कारण भारत को पिछले एक वर्ष में साठ हजार से अधिक मल्टी ड्रग रेसिस्टेंट टीबी के रजिस्टर्ड पेशेंट्स के मामलों में दो जीवन रक्षक दवाओं बेडाक्विलाइन और डेलमैनिड के लिए आसमान छूती कीमत अदा करनी पड़ी है। 40 सालों के टीबी उपचार के इतिहास में लंबे समय बाद यह दो दवाएं जीवन रक्षक दवाओं के तौर पर सामने आई जो मल्टीड्रग रेजिस्टेंट टीबी के रोगियों के इलाज में बहुत अधिक कारगर साबित हुई है और इन दोनों दवाओं के उत्पादन पर बड़ी फार्मा कम्पनियों का एकाधिकार है।

जॉनसन एंड जॉनसन के स्वामित्व वाली जॉनसन फार्मास्युटिकल्स बेडाक्विलाइन बनाती है और जापानी कम्पनी ओत्सुका डेलमैनिड की निर्माता है। दोनों ही दवाओं के पेटेंट 2023 तक खत्म होने को है और इससे पहले ये दवाएं उच्च आय वाले देशों, मध्यम आय वाले देशों और निम्न आय वाले देशों को अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत अलग-अलग दर से बेची जा रही थी। अब तक भारत सरकार को भी इसकी आपूर्ति डोनेशन प्राइज पर ही हो रही थी, फिर 2019 के अंत तक निम्न आय वाले देशों को इन दवाओं को मुहैया करवाने वाला अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम बन्द हो गया और अंततः उन्हें ये दवाएं खरीदने को मजबूर होना पड़ा। तब से भारत को इनके लिए बड़ी महंगी कीमत चुकानी पड़ी है।

 

 

पिछले एक साल में भारत सरकार की असफल बातचीत का नतीजा यह है कि महंगे दामों में खरीदने को मजबूर होने के बावजूद देश में इन दोनों दवाओं की किल्लत भारी मात्रा में देखने को मिल रही है और अब यह दोनों ही दवाएं भारत में ना के बराबर मात्रा में ही उपलब्ध बची है। साथ ही साथ सरकार द्वारा स्थानीय स्तर पर इन दवाओं के उत्पादन का भी कहीं कोई प्रयास नजर नहीं आ रहा है जबकि विदेशी फार्मा कंपनियां अभी भी महंगी दर पर मुनाफा कमाने को प्रयासरत है। नतीजतन भारत इन दवाओं की राशनिंग कर रहा है तथा उपलब्धता के आधार पर उपचार दिशा निर्देशों को तैयार किया जा रहा है जिसका परिणाम मरीज भुगत रहे हैं।

कोविड महामारी के दौर में भी महाराष्ट्र की मीरा यादव अंतिम चरण की टीबी से जूझ रही थी जिसके लिए बेडाक्विलाइन और डेलमैनिड का संयोजन जीवन रक्षक साबित हो रहा था। किंतु दवाओं की अनुपलब्धता और उनके वितरण पर सरकार के कड़ाई भरे नियंत्रण के कारण दवा मीरा यादव की पहुंच से बाहर हो गई। अंततः मीरा यादव ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, तब कोर्ट ने सरकारों के दवा उपलब्ध करवाने में विफल होने पर कड़ी फटकार लगाई। मीरा यादव ने अपनी याचिका में मुंबई हाईकोर्ट से अपील की कि वे ऐसा आदेश जारी करे जिससे इन दवाओं की लाइसेंसिंग पर असर पड़े तथा स्थानीय जेनेरिक दवा कंपनियां बिना पेटेंट कानूनों के इन दवाओं का निर्माण शुरू कर पाए। स्थानीय स्तर पर इसका निर्माण होने से न केवल इनकी कीमतें कम करने में मदद मिलेगी बल्कि दवाओं की उपलब्धता भी सुनिश्चित की जा सकेगी।

भारत सरकार ने 2014 में टीबी को राष्ट्रीय आपातकाल घोषित किया तथा 2025 तक वह देश को इस संकट से पूर्णरूपेण बाहर लाने को तत्पर थी। कोविड महामारी ने भी टीबी के मामले में कोई मदद नहीं की, हालांकि पिछले साल रजिस्टर्ड मामलों की संख्या 25% तक जरूर गिरी थी। किन्तु मार्च 2020 तक टीबी के 25 लाख मामले सामने आ चुके थे। भारत को ड्रग रेजिस्टेंट टीबी के मामलों में हर साल साठ हजार से अधिक रोगियों के लिए दवाओं की आवश्यकता है। सरकार अपनी इनहाउस एजेसियों के मार्फ़त अबतक इन दवाओं की सही खरीद के मामले में असफल ही रही है। आनन फानन में खरीद टेंडर को स्वीकृति देते हुए भी सरकार को महंगी खरीद (₹26604/कोर्स) पर ही मजबूर होना पड़ रहा है। जबकि सरकारी प्रबन्धन में दवाओं की बर्बादी भी एक अलग चुनौती है।

जॉनसन एंड जॉनसन तथा ओत्सुका के समान दवा संस्करण का भारतीय निर्माण पिछले तीन सालों से मंत्रालयों और अधिकारियों की चर्चा से आगे नहीं बढ़ पाया है। स्थानीय स्तर पर निर्माण के लिए उत्पादन विकास, नैदानिक परीक्षण, तकनीक का हस्तांतरण और बड़े पैमाने पर व्यवसायीकरण शामिल है, जो कि एक लंबी प्रक्रिया है।

एचआईवी जैसी गम्भीर चुनौती के लिए भी भारतीय दवा कम्पनी सिप्ला की $1 से कम कीमत की दवा भारतीय दवा उत्पादन की समर्थता एवं बीमारियों के वैश्विक परिप्रेक्ष्य में आने वाली चुनौतियों के जवाब के तौर पर अब तक याद किया जाने वाला उदाहरण है। कोविड के समय में भी निनटेडेनिब जैसी ₹25000 मूल्य की महंगी दवा के जवाब में इसके भारतीय प्रसंस्करण के उत्पादन का लाइसेंसिकरण कर न केवल इसकी कीमत को कम कर ₹900 तक लाया गया बल्कि इसकी प्रचुर उप्लधता भी सुनिश्चित हो पाई। $1000 तक की महंगी कीमत वाली हेपेटाइटिस सी की दवा के भारतीय प्रसंस्करण को जब निर्माण की अनुमति मिली तब न केवल देश की आपूर्ति के लिए बल्कि 90 से अधिक देशों में दवा की उपलब्धता सुनिश्चित करने में हम सक्षम हुए और इसकी कीमत $1000 से सीधे गिरकर $10 हुई और अन्ततः $1 तक पहुंची।

बाहर से देखने पर अभी भी यह नहीं लगता कि भारत सरकार के हाथ संकट में गहराते जा रहे हैं और टीबी जैसी महामारी के लिए हमारी सरकारें वाकई में अंधेरे में चल रही है। पेटेंट नियमों के अनुसार मुआवजा अदा कर भारतीय उत्पादकों को दवा विनिर्माण में स्वावलंबी बनाने के कार्यक्रम की बदौलत दवाओं की उप्लधता, वहन करने योग्य कीमत और आयात के मामलों में बढ़ोतरी न केवल टीबी जैसी भयावह स्थिति से निपटने में कारगर होगी बल्कि दवाओं के मामले में भारत का जेनरिक कैपिटल वाला ताज भी और अधिक मजबूत होगा।