–  हरीश बी.शर्मा

टोक्यो में सम्पन्न पैरा-ओलम्पिक में हमारे देश ने वह कर दिखाया है, जैसा अब तक ओलम्पिक खेलों में भी हमारा प्रदर्शन नहीं रहा। इस उपलब्धि को मैं दिव्यांगों ने ऐसा कर दिखाया जैसा सामान्य खिलाड़ी नहीं कर सके, के नज़रिये से नहीं देख रहा बल्कि यह कहना चाहता हूं कि अपने देश के लिए जो जज़्बा दिव्यांग-खिलाडिय़ों में देखा गया, वह सामान्य क्यों नहीं दर्शा पाए?

अब जबकि, पैरा में इतिहास रच दिया गया है तो कृपया देश को दोष न दें, क्योंकि जो सुविधा सामान्य को मिली, वही मानक सामान्य खिलाडिय़ों के लिए रहा होगा, इसमें तो कोई शक ही नहीं है। ऐसे में अब इन बातों के लिये कोई जगह नहीं कि लोकप्रिय खेलों के खिलाडिय़ों को जो सुविधा मिलती है, वैसा नहीं हुआ।

अगर नहीं होता तो माफ करें, दिव्यांग ऐसा दमखम नहीं दिखा पाते। यहाँ मैं जब भी दिव्यांग शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ तो यकीन मानिये, मेरा मन उनके प्रति किसी भी तरह की सहानुभूति से नहीं बल्कि कृतज्ञता से भरा है। फिर जब यह राजस्थान के खिलाडिय़ों ने किया हो तो कहना ही क्या। सोना, चांदी और कांसा-तीनों हमारे खिलाड़ी लेकर आये हैं।

दरअसल, खेल में सिर्फ योग्यता और प्रतिभा के बूते नहीं जीता जा सकता बल्कि यहां जो सबसे अधिक प्रभावी होता है-वह होता है जुनून। स्वयं को साबित करना। देश को सम्मान दिलाना।
कहा जा सकता है कि यह भावना दिव्यांगों में ज्यादा प्रकट हुई। आज देश अगर सम्मानित महसूस कर रहा है तो वज़ह दिव्यांग हैं।

पचास साल के इतिहास में जो नहीं हुआ, अगर वह एक दिन में हो जाता है तो यह परिकल्पना से भी परे है, निश्चित रूप से सरकारें इन खिलाडिय़ों की और बेहतरी के लिए कुछ नया और ठोस करेगी।

लेकिन, देश और देशवासियों को जो करना है, वह महत्वपूर्ण है। वह है किसी भी दिव्यांग को हेय या बेचारगी की नजऱ से न देखें। इनकी जीत का सबसे बड़ा अवार्ड यही होगा। इन्होंने यह साबित किया है कि ये कमतर नहीं, तो अब यह माना भी जाये। इसके दो फायदे होंगे।
पहला, अगला पैरा-ओलम्पिक और अधिक उपलब्धियों भरा होगा। दूसरा, सामान्य खिलाड़ी भी चुनौती लेंगे।

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